Category Archives: साहित्‍य और कला

उन्नीस सौ सत्रह, सात नवम्बर

मर रहा है रूसी साम्राज्य
शीत प्रसाद में सुनायी नहीं देती लहँगों की रेशमी सरसराहट
और न ही ज़ार की ईस्टर की प्रार्थनाएँ,
न ही साइबेरिया की ओर जाती सड़कों पर ज़ंजीरों का क्रन्दन…
मर रहा है, रूसी साम्राज्य मर रहा है…

अन्‍धकार है घना, मगर संघर्ष ठना है!

हाथ मिलाओ साथी, देखो
अभी हथेलियों में गर्मी है ।
पंजों का कस बना हुआ है ।
पीठ अभी सीधी है,
सिर भी तना हुआ है ।
अन्धकार तो घना हुआ है
मगर गोलियथ से डेविड का
द्वंद्व अभी भी ठना हुआ है ।

फैज़ अहमद फैज़ की कविता ‘इंतिसाब’

उन दुखी माओं के नाम
रात में जिनके बच्चे बिलखते हैं और
नींद की मार खाए हुए ब़ाजुओं से संभलते नहीं
दुख बताते नहीं
मिन्नतों ज़ारियों11 से बहलते नहीं

फ़ै़ज़ अहमद फ़ैज़: उम्मीद का शायर

फै़ज को अवाम का गायक कहा जाय तो ठीक ही होगा। उनकी कविता में भारतीय उपमहाद्वीप से लेकर दुनिया के तमाम मुल्कों में बसे हुए बेसहारा लोगों, यतीमों की आवाज़ें दर्ज है, उनकी उम्मीदों ने जगह पायी है। अदीबों की दुनियां उसे मुसलसल जद्दोजहद करते शायर के रूप में जानती है। सियासी कारकूनों की निगाह में फै़ज के लफ्ज ‘खतरनाक लफ्ज’ है। अवाम के दिलों में सोई आग को हवा देने वाले लफ्ज है। बिलाशक यही वजह होगी जिसके एवज़ में फ़ैज़ की जिन्दगी का बेहतरीन दौर या तो सलाख़ों में बीता या निर्वासन में, पर हज़ारहों नाउम्मीदी भरे आलम के बावजूद उनकी कविता में उम्मीद की चिनगियाँ कभी बुझी नहीं, उनकी मुहब्बत कभी बूढ़ी नहीं हुई।

कोई किसी को यूँ ही नहीं पुकारता…

कपिलेश भोज उन विरले कवियों में हैं जिनकी कविता और जीवन में फांक नहीं दिखाई देती है। उनको जानने वाले लोग समीक्ष्य संग्रह की कविताओं से गुज़रते हुए इस बात को लगातार महसूस कर सकते हैं। हमें यहाँ भी वही कपिलेश दिखाई देते हैं जो वह जीवन में हैं । कोई बनावटीपन, कोई दिखावा या कोई दुराव-छुपाव नहीं है यहाँ। वही बेबाकी, वही जनपक्षधरता, वही ईमानदारी जो उनकी बातचीत में मिलती है। इन कविताओं को पढ़ते हुए लगता है जैसे सामने बैठकर वो हमसे बतिया रहे हैं। इन कविताओं में अपने आसपास के प्रति गहरी आत्मीयता झलकती है।

उद्धरण

जिस धरती पर हर अगले मिनट एक बच्चा भूख या बीमारी से मरता हो, वहाँ पर शासक वर्ग की दृष्टि से चीज़ों को समझने की आदत डाली जाती है। लोगों को इस दशा को एक स्वाभाविक दशा समझने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। लोग व्यवस्था को देशभक्ति से जोड़ लेते हैं और इस तरह से व्यवस्था का विरोधी एक देशद्रोही अथवा विदेशी एजेण्ट बन जाता है। जंगल के कानूनों को पवित्र रूप दे दिया जाता है ताकि पराजित लोग अपनी हालत को अपनी नियति समझ बैठें।

उद्धरण

अपने समाज के प्रति आलोचनात्मक नज़रिया हमारे भीतर पैदायशी नहीं होता। हमारी जिन्दगी में कुछ ऐसे क्षण रहे होंगे (कोई महीना या कोई साल) जब कुछ प्रश्न हमारे सामने प्रस्तुत हुए होंगे, उन्होंने हमें चौंकाया होगा, जिसके बाद हमने अपनी चेतना में गहरे जड़ें जमा चुकी कुछ आस्थाओं पर सवाल उठाये होंगे – वे आस्थाएँ जो पारिवारिक पूर्वाग्रह, रूढ़िवादी शिक्षा, अख़बारों, रेडियो या टेलीविज़न के रास्ते हमारी चेतना में पैबस्त हुई थीं। इससे एक सीधा-सा निष्कर्ष यह निकलता है कि हम सभी के ऊपर एक महती जिम्मेदारी है कि हम लोगों के सामने ऐसी सूचनाएँ लेकर जायें जो उनके पास नहीं हैं, ऐसी सूचनाएँ जो उन्हें लम्बे समय से चले आ रहे अपने विचारों पर दोबारा सोचने के लिए विवश करने की क्षमता रखती हों।

जेल में भगतसिंह द्वारा लिये गये नोट्स के कुछ नये और दुर्लभ अंश

मैं कंगाल होने के बजाय चोर बनना पसन्द करूँगा। मैं दास बने रहने के बजाय हत्यारा बनना पसन्द करूँगा। मैं इन दोनों में से कोई भी बनना नहीं चाहता, लेकिन अगर आप मुझे चुनने के लिए मजबूर करेंगे तो, कसम से, मैं वह विकल्प चुनूँगा जो अधिक साहसपूर्ण और अधिक नैतिक है। मैं किसी भी अपराध के मुकाबले ग़रीबी और दासता से अधिक नफरत करता हूँ।

राहुल सांकृत्यायन / गणेशशंकर विद्यार्थी

हमारे सामने जो मार्ग है, उसका कितना ही भाग बीत चुका है, कुछ हमारे सामने है और अधिक आगे आने वाला है। बीते हुए से हम सहायता लेते हैं, आत्मविश्वास प्राप्त करते हैं, लेकिन बीते की ओर लौटना –यह प्रगति नहीं, प्रतिगति – पीछे लौटना – होगी। हम लौट तो सकते नहीं, क्योंकि अतीत को वर्तमान बनाना प्रकृति ने हमारे हाथ में नहीं दे रखा है। फिर जो कुछ आज इस क्षण हमारे सामने कर्मपथ है, यदि केवल उस पर ही डटे रहना हम चाहते हैं तो यह प्रतिगति नहीं है, यह ठीक है, किन्तु यह प्रगति भी नहीं हो सकती यह होगी सहगति – लग्गू–भग्गू होकर चलना – जो कि जीवन का चिह्न नहीं है। लहरों के थपेड़ों के साथ बहने वाला सूखा काष्ठ जीवन वाला नहीं कहा जा सकता। मनुष्य होने से, चेतनावान समाज होने से, हमारा कर्तव्य है कि हम सूखे काष्ठ की तरह बहने का ख्याल छोड़ दें और अपने अतीत और वर्तमान को देखते हुए भविष्य के रास्ते को साफ करें जिससे हमारी आगे आने वाली सन्तानों का रास्ता ज्यादा सुगम रहे और हम उनके शाप नहीं, आशीर्वाद के भागी हों।

वर्ग समाज में भाषा स्वयं वर्ग–संघर्ष का एक क्षेत्र बन जाती है – न्गूगी

न्गूगी वा थ्योंगो व्यवस्था विरोधी, जनपक्षधर लेखकों की उस गौरवशाली परम्परा की कड़ी हैं, जो हर कीमत चुकाकर भी बुर्जुआ सत्ता प्रतिष्ठानों और सामाजिक ढाँचे के अन्तर्निहित अन्यायी चरित्र को उजागर करते रहे, जिन्होंने आतंक के आगे कभी घुटने नहीं टेके और जनता का पक्ष कभी नहीं छोड़ा। कला-साहित्य के क्षेत्र में आज सर्वव्याप्त अवसरवाद के माहौल में उनका जीवन और कृतित्व अनवरत प्रज्जवलित एक मशाल के समान है। उपनिवेशवाद और समकालीन साम्राज्यवाद की सांस्कृतिक नीति और भाषानीति का तथा उत्तर-औपनिवेशिक समाजों के शासक बुर्जुआ वर्ग की राजनीति, अर्थनीति और संस्कृति का उनका विश्लेषण अपनी कुशाग्रता और मौलिकता की दृष्टि से अनन्य है। यह बहुत अच्छी बात है कि न्गूगी उसी अनन्य वैचारिक निष्ठा के साथ आज हमारे बीच मौजूद हैं और निरन्तर सृजनरत हैं।