उद्धरण
क्रियाशीलता में ही विचार की सार्थकता है!
दोब्रोल्युबोव
सूक्ष्म सैद्धान्तिक स्तर पर इस मत से इन्कार नहीं किया जा सकता कि समाज में विचार बराबर आन्दोलित और परिवर्तित होते रहते हैं, गति और परिवर्तन की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है, और इसलिए ऐसे लोगों की भी बराबर आवश्यकता रहती है जो इन विचारों का प्रचार करें। यह सब बिल्कुल ठीक है। किन्तु हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि समाज के जीवन का लक्ष्य बस वाद-विवाद और विचारों का आदान-प्रदान नहीं है, केवल इसी में उसके जीवन की इतिश्री नहीं है। विचारों और उनके क्रमशः विकास का महत्व केवल इस बात में है कि प्रस्तुत तथ्यों से उनका जन्म होता है और वे यथार्थ वास्तविकता में सदा परिवर्तनों की पेशवाई करते हैं। परिस्थितियाँ समाज में आवश्यकता को जन्म देती हैं। इस आवश्यकता को सब स्वीकार करते हैं, इस आवश्यकता की आम स्वीकृति के बाद यह ज़रूरी है कि वस्तुस्थिति में परिवर्तन हो, ताकि सबके द्वारा स्वीकृत इस आवश्यकता को पूर्ण किया जा सके। इस प्रकार किन्हीं विचारों तथा आकांक्षाओं की समाज द्वारा स्वीकृति के बाद ऐसे दौर का आना लािज़मी है जिसमें इन विचारों तथा आकांक्षाओं को अमल में उतारा जा सके। चिन्तन-मनन और वाद-विवाद के बाद क्रियाशीलता का श्रीगणेश होना चाहिये। ऐसी दशा में, प्रश्न किया जा सकता है: पिछले बीस-तीस वर्षों में हमारे समाज ने क्या किया है? अब तक-कुछ नहीं। उसने मनन-अध्ययन किया, विकसित हुआ, रूदिनों (रूसी साहित्य के नायक) के प्रवचनों को सुना, अपने विश्वासों के लिए संघर्ष के दौर में लगे आघातों पर उनके साथ सहानुभूति प्रकट की, कार्यक्षेत्र में उतरने की तैयारी की, किन्तु किया कुछ नहीं! ढेर की ढेर सुन्दर भावनाओं-कल्पनाओं से लोगों के हृदय-मस्तिष्क पट गये; समाज की वर्तमान व्यवस्था के बेतुकेपन और बेहूदगी का इतना पर्दाफ़ाश किया गया कि पर्दाफ़ाश करने के लिए और कुछ रह ही नहीं गया। प्रतिवर्ष विशिष्ट, अपने-आपको “चारों ओर की वास्तविकता से ऊँचा समझनेवाले,” लोगों की संख्या बढ़ने लगी। ऐसा मालूम होता था कि शीघ्र ही सब लोग वास्तविकता से ऊँचे उठ जायेंगे। ऐसी दशा में, स्पष्ट ही, यह भावना कि हम सदा इसी प्रकार विषमता, सन्देह, वायवी दुख और हवाई ढाढ़स के दुरूह पथ पर चलते रहेंगे, कोई अर्थ नहीं रखती। अब तक यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि हमें ऐसे लोगों की आवश्यकता नहीं जो “हमें चारों ओर की वास्तविकता से ऊँचा उठाने वाले” हों। हमें ऐसे लोगों की आवश्यकता है जो हमें स्वयं वास्तविकता को ऊँचा उठाना सिखायें, ताकि हम उसे उन संगत मानों के स्तर पर ला सकें जिन्हें सब मानते और स्वीकार करते हैं।
“अगर हमने समाजवाद की घड़ी को बीत जाने दिया तो हमारी सज़ा होगी फासीवाद।”
–डेनियल गुएरिन
“आधुनिक मनुष्य का बढ़ता सर्वहाराकरण और जनसमुदायों का बढ़ता गठन एक ही प्रक्रिया के दो पहलू हैं। फासीवाद नव-गठित सर्वहारा जनसमुदायों को उस सम्पत्ति संरचना को छेड़े बग़ैर संगठित करना चाहता है जिसे जनसमुदाय ख़त्म करने के लिए जूझते हैं। फासीवाद इन लोगों को उनके अधिकार देने में अपना निर्वाण नहीं देखता, बल्कि उन्हें अपने आपको अभिव्यक्त करने का एक अवसर देने में अपना निर्वाण देखता है। जनसमुदाय के पास सम्पत्ति सम्बन्धों को बदल डालने का अधिकार है; फासीवाद सम्पत्ति की रक्षा करते हुए उन्हें अभिव्यक्ति देने का प्रयास करता है। फासीवाद की तार्किक परिणति होता है राजनीतिक जीवन में सौन्दर्यशास्त्र का प्रवेश। जनसमुदाय के विरुद्ध अतिक्रमण, जिसे फासीवाद अपने फ्यूहरर कल्ट के जरिये, घुटनों के बल ले आता है, का समानान्तर एक ऐसे उपकरण के विरुद्ध अतिक्रमण में होता है जो कि संस्कारगत मूल्यों के उत्पादन में लगाया गया होता है।”
–वॉल्टर बेंजामिन (‘यान्त्रिक पुनरुत्पादन के युग में कलात्मक रचना’ नामक रचना से)
“जिस धरती पर हर अगले मिनट एक बच्चा भूख या बीमारी से मरता हो, वहाँ पर शासक वर्ग की दृष्टि से चीज़ों को समझने की आदत डाली जाती है। लोगों को इस दशा को एक स्वाभाविक दशा समझने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। लोग व्यवस्था को देशभक्ति से जोड़ लेते हैं और इस तरह से व्यवस्था का विरोधी एक देशद्रोही अथवा विदेशी एजेण्ट बन जाता है। जंगल के कानूनों को पवित्र रूप दे दिया जाता है ताकि पराजित लोग अपनी हालत को अपनी नियति समझ बैठें।”
–एदुआर्दो ख़ालियानो (अर्जेण्टीना के लेखक)
भगतसिंह ने कहा….
“क्रान्ति से हमारा क्या आशय है, यह स्पष्ट है। इस शताब्दी में इसका सिर्फ एक ही अर्थ हो सकता है-जनता के लिए जनता का राजनीतिक शक्ति हासिल करना। वास्तव में यही है ‘क्रान्ति’ बाकी सभी विद्रोह तो सिर्फ मालिकों के परिवर्तन द्वारा पूँजीवादी सड़ाँध को ही आगे बढ़ाते हैं। किसी भी हद तक लोगों से या उनके उद्देश्यों से जतायी हमदर्दी जनता से वास्तविकता नहीं छिपा सकती, लोग छल को पहचानते हैं। भारत में हम भारतीय श्रमिक के शासन से कम कुछ नहीं चाहते। भारतीय श्रमिकों को-भारत में साम्राजरूवादियों और उनके मददगार हटाकर जो कि उसी आर्थिक व्यवस्था के पैरोकार हैं, जिसकी जड़ें शोषण पर आधारित हैं-आगे आना है। हम गोरी बुराई की जगह काली बुराई को लाकर कष्ट नहीं उठाना चाहते। बुराइयाँ, एक स्वार्थी समूह की तरह, एक-दूसरे का स्थान लेने को तैयार हैं।
साम्राज्यवादियों को गद्दी से उतारने के लिए भारत का एकमात्र हथियार श्रमिक क्रान्ति है। कोई और चीज़ इस उद्देश्य को पूरा नहीं कर सकती। सभी विचारों वाले राष्ट्रवादी एक उद्देश्य पर सहमत हैं कि साम्राज्यवादियों से आज़ादी हासिल हो। पर उन्हें यह समझने की भी ज़रूरत है कि उनके आन्दोलन की चालक शक्ति विद्रोही जनता है और उसकी जुझारू कार्रवाइयों से ही सफलता हासिल होगी।….
….हमें याद रखना चाहिए कि श्रमिक क्रान्ति के अतिरिक्त न किसी और क्रान्ति की इच्छा रखनी चाहिए और न ही वह सफल हो सकती है।” (क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा)
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-जून 2013
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