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साम्राज्यवादी ताकतों की छाया में अज़रबैजान और आर्मेनिया का युद्ध

अज़रबैजान ने उन्नत युद्ध तकनीक, सेना और तुर्की समर्थित सीरियन लिबरेशन आर्मी के दम पर आर्मेनिया पर 27 सितम्बर को युद्ध थोप दिया। यह युद्ध कॉकेशिया के काले पहाडों के भूभाग नागोर्नो काराबाख के लिए था। युद्ध में 5000 से अधिक लोगों की जान गई और हजारों लोग विस्थापित हुए। युद्ध 6 हफ्ते बाद आर्मेनिया के हार स्वीकार करने पर ही थमा। दोनों देश ने रूस की मध्यस्थता में शान्ति प्रस्ताव स्वीकार किया।

धरती पर जीवन का उद्भव और उद्विकास (इवोल्यूशन)

यह प्रश्न मानवता के समक्ष आदिम काल से मौजूद है कि सितारों की दुनिया और हमारी दुनिया के बीच क्या सम्बन्ध है? धरती पर मौजूद पेड़-पौधों से लेकर नदी, पहाड़, जंगल ज़मीन का मनुष्य से क्या वास्ता है? मनुष्य अपने उद्भव पर आदिकाल से चिन्तन करता रहा है। आधुनिक काल में प्राकृतिक विज्ञान ने अपने विकासक्रम में इस सवाल पर तरह-तरह के धार्मिक मकड़जालों को हटाकर साफ़ कर दिया है। इतिहास में पहले सितारों और धरती पर भौतिक वस्तुओं की गतिकी के अध्ययन से साफ़ नज़र होने के बाद इन्सान ने जैव जगत और अपने उद्गम का वैज्ञानिक विश्लेषण किया। जीवन के रूपों के बदलाव को उद्विकास (इवोल्यूशन) कहते हैं और यह सवाल जीवन की उत्पत्ति से जुड़ा हुआ है। जीवाश्म, डीएनए और क्लैडिस्टिक्स के अध्ययन से जीवन के रूपों और उनके उद्विकास के नियमों को जाना गया है। 19वीं शताब्दी में जाकर ही उद्विकास और जीवन के उद्भव पर विज्ञान निर्णायक कदम उठा सका।

विचारधारा के पीछे अपनी कायरता को मत छिपाओ नवाज़ुद्दीन

बाज़ार के हाथों बिक चुके अभिनेताओं से यह उम्मीद नहीं की जा सकती है और न ही नवाज़ से यह उम्‍मीद रखी जा सकती है। नवाज़ सरीखा बॉलीवुड का कोई भी अभिनेता अपने कैरियर में ऊपर पहुँचने के लिए बहुत समझौते करता है। इसके लिए वह उन सभी सिद्धान्‍तों को बलि चढ़ाने से हिचकता नहीं है। किसी फासीवादी प्रयोजनमूलक फिल्म में काम करने को ”कला के लिए काम करना’ बताना लोगों की आँख में धूल झोंकना है।

कलाकार का सामाजिक दायित्व क्या है?

सच्चे कलाकार को जनता के दुखों को अपने कैनवास, सेल्यूलोईड या संगीत में उतार लाना होगा। इस कथन में ही यह निहित है कि मौजूदा बाज़ार पर चलने वाली व्यवस्था में एक कलाकार को अपनी कलाकृति को बाजारू माल नहीं बल्कि जनपक्षधर औज़ार बनाना होगा। आज जिस समाज में हम जी रहे हैं वह मानवद्रोही और कलाद्रोही है और नैसर्गिक तौर पर कोई भी कलाकार इस समाज की प्रभावी विचारधारा से ही निगमन करता है परंतु उसकी कला उसकी पूँजीवादी विचारधारा के नज़रिये के विरोध में रहती है। कला इसलिए ही एक आदमी द्वारा दूसरे आदमी के शोषण पर टिके मौजूदा समाज के खिलाफ़ विद्रोह के साथ ही संगति में रहती है। आज जब देश में फासीवादी सरकार जनता के हक अधिकारों को अपने बूटों तले कुचल रही है तो क्या इन मसलों पर कलाकारों द्वारा एक जनपक्षधर विरोध देश में उठता दिख रहा है? नहींं। हालाँकि कलाकार भी इन सभी मुद्दों से अलहदा नहींं हैं। इस सवाल पर थोड़ा विस्तार से बात करते हैं।

जमाल ख़शोज़ी की मौत पर साम्राज्यवादियों के आँसू परन्तु यमन के नरसंहार पर चुप्पी!

सऊदी अरब के खुफिया एजेंटों ने सऊदी अरब मूल के अमरीकन पत्रकार जमाल ख़शोजी को तुर्की के सऊदी अरब के कॉन्सुलेट में मार दिया और उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दरिया में बहा दिया। इसपर पश्चिमी जगत की मुख्यधारा मीडिया हाय तौबा करने में लगा हुआ है। यह बात समझ लेनी होगी कि ख़शोजी कोई जनपक्षधर पत्रकार नहींं था। कुछ समय पहले तक वह सऊदी अरब की सत्ता के घोर प्रतिक्रियावादी विचारों का समर्थक था। अमरीका में रहते हुए उसने अमरीका के ‘प्रगतिशील’ विचारों का प्रचार करना शुरू किया और पश्चिमी देशों के सरीखे ‘जनवाद’ को सऊदी अरब में लागू करने की बात कह रहा था। वह सऊदी अरब की राजशाही को मध्यकालीन रिवाजों को त्यागने की नसीहत ‘वाशिंगटन पोस्ट’ के जरिये दे रहा था। हालाँकि उसे इसलिए मारा गया क्योंकि वह बहुत कुछ जानता था और सऊदी अरब की सत्ता का पिट्ठू न रहकर राजशाही की मन्द आलोचना कर रहा था। वह दरबार के अन्दर ना होते हुए भी दरबार के बारे में बहुत कुछ जानता था।

यूरोप में यूनानी त्रासदी के बाद इतालवी कामदी!

इटली के इतिहस को कामदी के मोड़ पर लाकर खड़ा करने वाले इस आन्दोलन का स्थापक एक कॉमेडियन बेप्पे ग्रिल्लो था। इस आन्दोलन ने सत्ता और भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ अपशब्द नामक विरोध दिवस मनाये। यह आन्दोलन मुख्यतः भ्रष्टाचार, किफायतसारी और संकट के कारण बढ़ती बेरोज़गारी व गरीबी के खिलाफ था व इसमें नेताओं की ईमानदारी की बात कही गयी। इस आन्दोलन ने एक तरफ यूरोपियन यूनियन से अलग होने की बात कही तो दूसरी ओर सम्प्रभु कर्ज को मिटा देने की बात भी की। भारत में अन्ना हजारे आन्दोलन भी कुछ ऐसा ही था। ‘इण्डिया अगेंस्ट करप्शन” के उत्पाद के तौर पर केजरीवाल की सरकार बनी तो हजारे ने इस सरकार से खुद को अलग कर लिया है वहीं बेप्पे ग्रिल्लो भी इस आन्दोलन से व पार्टी से अलग हो चुका है।

फासीवाद को मात देने का रास्ता इंक़लाब से होकर जाता है चुनावी राजनीति से नहीं!

फासीवाद को चुनाव से नहीं हराया जा सकता है। फासीवाद का जन्म इसी संसदीय गणतंत्र के खोल के भीतर से हुआ है, समय को वापस कर इसे वापस इस खोल में नहीं डाला जा सकता है। इसे जीव विज्ञान के उदाहरण से समझा जा सकता है। कुकुन में से निकले नुकसानदायक कीट को पैरों के नीचे कुचल कर ही ख़त्म किया जा सकता है। परन्तु भारत के तमाम वामपन्थी बुद्धिजीवी वक्त को उलट कर नेहरु काल के ‘समाजवाद’ को लाना चाहते हैं। यह बात 2004 और 2009 के चुनाव से साफ़ हो चुकी है जब यही सारे वामपन्थी विचारक लोग फासीवाद की हार का जश्न मना रहे थे तब इनकी सोच के विपरीत  भाजपा 2014 में ज्यादा वोटों के साथ सत्ता पर पहुँची। हमें यह समझना होगा कि फासीवाद निम्न मध्य वर्ग का आन्दोलन है जिसे काडर आधारित फासीवादी पार्टी नेतृत्व देती है। इसे क्रान्तिकारी पार्टी के नेतृत्व में संगठित काडर आधारित मजदूर आन्दोलन ही परास्त कर सकता है। हमें फासीवाद से लड़ने में इस सबक को बिलकुल याद रखना होगा।

अमरीकी चुनाव और ट्रम्प परिघटना

हमारा मकसद इस चुनाव के ज़रिये मौजूदा दौर को समझना है और अमरीका के राजनीतिक पटल पर मौजूद ताकतों का मूल्यांकन करना है। चुनाव के परिणामों में जाये बिना हम अपनी बात आगे जारी रखते हैं। यह मूल्यांकन इसलिए भी ज़रूरी है कि इस चुनाव में डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा फैलाये जा रहे नस्लवाद, मुस्लिम विरोध, शरणार्थियों के ख़िलाफ़ नस्लीय व धार्मिक द्वेष से लेकर अमरीका को फिर से महान बनाने के नारों को ज़बरदस्त समर्थन मिल रहा है। ट्रम्प के चुनावी प्रचार को अमरीका के टुटपुंजिया वर्ग और श्वेत वाईट कॅालर मज़दूरों के एक हिस्से ने ज़बरदस्त भावना के साथ फैलाया है।

भारत के शोध संस्थानों का संकट

दर्शन, इतिहास व सामाजिक विज्ञान से कटे वैज्ञानिक ही इस संस्थान की बुनियाद होते हैं। एक संस्थान व दूसरे संस्थान के बीच बेहद सीमित बौद्धिक व्यवहार होता है व नीतियों का निर्धारण करने में किसी शोधार्थी की कोई भूमिका नहीं होती है। निर्धारक तत्व वित्त होता है जो कि शोध को तय करता है। यह सिर्फ भारत की नहीं बल्कि पूरी दुनिया के शोध संस्थानों की कहानी है, हालाँकि भारत की परिस्थिति में इस वैश्विक परिघटना में एक विशेषता भी है। भारत जैसे उत्तर औपनिवेशिक देश में जहाँ आजा़दी किसी क्रान्तिकारी आन्दोलन की गर्मी और उथल-पुथल के ज़रिये नहीं बल्कि औपनिवेशिक पूँजीपति वर्ग और भारतीय पूँजीपति वर्ग के बीच समझौता-दबाव-समझौता की प्रक्रिया से आयी, वहाँ भारतीय मानस की चेतना बेहद पिछड़ी रही जिसका प्रतिबिम्ब यहाँ की बौनी शोध संरचना में दिखता है। आज़ादी के बाद भारतीय पूँजीवाद साम्राज्यवाद के साथ भी चालाकी से समझौते-दबाव-समझौते की नीति पर काम करता रहा और अपनी स्वतंत्रता कायम रखते हुए इसने पब्लिक सेक्टर उद्योग व संरचनात्मक ढाँचा खड़ा किया। अगर उद्योग-निर्देशित विज्ञान व शोध की ही बात करें तो भी न तो भारत का पूँजीवाद अमरीकी या अन्य विकसित पूँजीवादी देशों की बराबरी कर सकता था और न ही इसका विज्ञान ही उतना विकसित हो सकता था। भारत के पूँजीपतियों ने इसका प्रयास ही नहीं किया है।

अब चीन की मन्दी से बेहाल विश्व पूँजीवाद

आज चीन की आर्थिक व्यवस्था डाँवाडोल है। विश्व आर्थिक व्यवस्था में पुएर्तो रिको, ब्राज़ील, पुर्तगाल, आइसलैण्ड, इटली, यूनान, स्पेन व अन्य देश अभी भी मन्दी से उबर नहीं पाए हैं, वहीं चीन वैश्विक व्यवस्था को एक और बड़े संकट की तरफ खींच कर ले जा रहा है जो दुनिया भर के पूँजीपतियों के लिए चिन्ता का सबब है। अगर हम चीन के राजनीतिक इतिहास पर एक नज़र डाल लें तो इस विषय में गहराई में उतरने में आसानी रहेगी। आज चीन में “बाज़ार समाजवाद” का जुमला नंगा हो चुका है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी एक सामाजिक फासीवादी पार्टी है। माओ की मृत्यु के बाद देंग सियाओ पिंग ने कम्युनिस्ट पार्टी पर बुर्जुआ वर्ग का नियंत्रण पक्का किया। चीन ने 1976 से पूँजीवाद में संक्रमण किया था और आज पूर्ण रूप से वित्तीय पूँजी के विकराल भूमण्डलीय तंत्र का एक अभिन्‍न हिस्सा है। अमरीका की सबसे बड़ी आईटी कम्पनियों को सस्ता श्रम और ज़मीन देकर चीन की अर्थव्यवस्था विस्तारित हुई है। इस मुकाम तक पहुँचने के लिए ‘बाज़ार समाजवाद’ कई दौर से होकर गुज़रा। कम्यून और क्रान्तिकारी कमिटियों को भंग करने के बाद 1990 के दशक में बड़े स्तर पर राज्य द्वारा संचालित कम्पनियों का निजीकरण शुरू हुआ और 21वीं शताब्दी में प्रवेश के दौरान कई विदेशी कम्पनियों ने चीन में प्रवेश किया। चीनी राज्य ने मज़दूरों को मिलने वाली स्वास्थ्य, शिक्षा सुविधाओं से भी अपने हाथ खींच लिए। आज के चीन की बात करें तो चीन में अमीर-ग़रीब की खाई पिछले 10 सालों में बेहद अधिक बढ़ी है। चीन की नामधारी कम्युनिस्ट पार्टी के खरबपति “कॅामरेड” और उनकी ऐय्याश सन्तानों का गिरोह व निजी पूँजीपति चीन की सारी सम्पत्ति का दोहन कर रहे हैं। चीन के सिर्फ़ 0.4 फीसदी घरानों का 70 फीसदी सम्पत्ति पर कब्ज़ा है। यह सब राज्य ने मज़दूरों के सस्ते श्रम को लूट कर हासिल किया है।