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आधुनिक भौतिकी और भौतिकवाद के लिए संकट

अगर हिग्स बुसॉन मिलता भी है, जिसकी सम्भावना स्वयं सर्न प्रयोग के वैज्ञानिकों के अनुसार नगण्य है, तो भी यह भौतिकवाद के लिए कोई ख़तरा नहीं होगा। यह पदार्थ जगत और पदार्थ के नये गुणों की खोज होगा और पदार्थ के इतिहास की खोज होगा। इससे भौतिकवाद के इस मूल तर्क पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि चेतना पदार्थ के पहले नहीं बाद में आती है और चेतना पदार्थ से स्वतन्त्र अस्तित्व में नहीं रह सकती बल्कि वह पदार्थ के ही एक विशिष्ट रूप के उन्नततम किस्म का गुण है। यानी, चेतना जैविक पदार्थ के उन्नततम रूप, मनुष्य का गुण है। अगर हिग्स बुसॉन मिलता है तो भी यह सत्य अपनी जगह कायम रहेगा। कोई फील्ड को ईश्वर का नाम दे देता है तो यह उस नाम देने वाले और एक हद तक फील्ड की बदनसीबी होगी, भौतिकवाद की नहीं! भौतिकवाद ने अपने एजेण्डे पर कभी यह सवाल रखा ही नहीं कि पदार्थ पैदा हुआ था या नहीं। यह भौतिकवाद की विषयवस्तु नहीं है। यह प्राकृतिक विज्ञान की विषय वस्तु है।

स्टीव जॉब्स: सच्चा “नायक” : लेकिन किसके लिए?

ऐसे में ताज्जुब कोई पागल ही करेगा कि मीडिया स्टीव जॉब्स के लिए आँसू क्यों बहा रहा है। मीडिया सदा ही कॉर्पोरेट जगत के स्टीव जॉब्स, बिल गेट्स व अन्य लुटेरों को महान अन्वेषक मानता है तथा मानवता को नये आयामों तक ले जाने वाले हीरो की तरह पेश करती है। ख़ैर बुर्जुआ मीडिया का अपने मालिक के आगे पूँछ हिलाना लाजिमी ही है। स्टीव जॉब्स कम-से-कम उनका नायक तो है ही!

मानव ज्ञान का चरित्र और विकास

ज्ञान मूल रूप से व्यवहार पर टिका होता है। व्यवहार के दौरान ही इंसान ख़ुद के संवेदनाबोध को परखता है तथा संवेदनाबोध द्वारा पैदा हुई धारणाओं का भी व्यवहार में ही निर्माण करता है। व्यवहार का तात्पर्य सामाजिक व्यवहार है। ज्ञान सिर्फ सामाजिक व्यवहार से ही पैदा होता है। सामाजिक सम्बन्धों में रहते हुए सामाजिक इंसान का व्यवहार। अगर कोई इंसान किसी वस्तु को जानना चाहता हो तो उसको वस्तु के वातावरण में आना ही होगा। कोई भी विद्वान किसी वस्तु या प्रक्रिया का ज्ञान घर बैठे नहीं प्राप्त कर सकता है। हालाँकि आज के वैज्ञानिक तथा इण्टरनेट के युग में यह बात चरितार्थ लगती है कि विद्वान सचमुच ही घर बैठे-बैठे कम्प्यूटर पर क्लिक करके ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। परन्तु सच्चा व्यक्तिगत ज्ञान उन्हीं लोगो को प्राप्त होता है जो व्यवहार में लगे होते हैं। यह ज्ञान विद्वानों तक (लेखन तथा तकनीक द्वाराद्ध तभी पहुँचता है जब व्यवहार में लगे लोग वह ज्ञान प्राप्त करते हैं। इसलिए मानव ज्ञान के दो भाग होते हैं – प्रत्यक्ष ज्ञान व अप्रत्यक्ष ज्ञान। अप्रत्यक्ष ज्ञान दूसरों के लिए प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। इस तरह सम्पूर्ण ज्ञान भी सामाजिक होता है। यह मुख्यतः इंसान की उत्पादक कार्यवाही पर निर्भर करता है।

आस्था मूलक दर्शनों से विज्ञान की मुठभेड़ सतत् जारी है

विज्ञान और आस्था के बीच के टकराव में विज्ञान आज तक विजयी रहा है और उसने आस्था के प्रभाव-क्षेत्र को संकुचित करने का काम किया है। मौजूदा अवैज्ञानिक पूँजीवादी व्यवस्था कूपमण्डूकता और अतार्किकता फैलाने के अपने प्रयासों के ज़रिये नये सिरे से मूर्खतापूर्ण आस्थाओं को जन्म दे रही है। विज्ञान को इन नयी कूपमण्डूकताओं पर विजय पानी होगी और इसके लिए सिर्फ कुछ वैज्ञानिक प्रतिभाओं की आवश्यकता नहीं है, बल्कि सामाजिक-आर्थिक बदलाव की भी आवश्यकता है।

चीन के सामाजिक फासीवादी शासकों का चरित्र एक बार फिर बेनकाब

1976 में माओ की मृत्यु के बाद से चीन ने समाजवाद के मार्ग से विपथगमन किया और देघपन्थी ‘‘बाज़ार समाजवाद’‘ का चोला अपना लिया। इसके बाद से मेहनतकश आबादी की जीवन स्थितियाँ लगातार रसातल में जा रही हैं। हर साल कोयला खदानों में ही हज़ारों मज़दूर अपनी जान गवाँ देते हैं तो दूसरी तरफ समाजवादी व्यवस्था की ताकत की नींव पर खड़े होकर संशोधनवादी शासक आज साम्राज्यवादी ताकत के रूप में उभर रहे हैं। यही कारण है कि चीन में अरबपतियों और करोड़पति पूँजीपतियों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। 2006 की ‘फॉर्चून’ पत्रिका के अनुसार दुनिया के अरबपतियों की सूची में सात चीनी उद्योगपति थे। ये तस्वीरें चीन में अमीर-ग़रीब की बढ़ती खाई को दिखाती हैं।

कृत्रिम कोशिका का प्रयोग और नैतिकता

विज्ञान को इस व्यवस्था के भीतर आमतौर पर पूँजी की चाकरी और अत्यधिक मुनाफा लूटने की गाड़ी में बैल की तरह नाँध दिया गया है। निश्चित रूप से दार्शनिक रूप से विज्ञान के हर उन्नत प्रयोग ने भौतिकवाद को पुष्ट किया है और तर्क और रीज़न के महाद्वीपों को विस्तारित किया है। इस प्रयोग ने भी अध्यात्मवाद, भाववाद और अज्ञेयवाद की कब्र पर थोड़ी और मिट्टी डालने का काम किया है। इस रूप में ऐतिहासिक और दार्शनिक तौर पर इस प्रयोग की एक प्रगतिशील भूमिका है। लेकिन हर ऐसे प्रयोग का पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर आमतौर पर मुनाफे और मुनाफे को सुरक्षित रखने वाले दमन-तन्त्र को उन्नत बनाने के लिए ही उपयोग किया जाता है। इसलिए आज हर युवा वैज्ञानिक के सामने, जो विज्ञान की सही मायने में सेवा करना चाहता है, जो मानवता की सही मायने में सेवा करना चाहता है, मुख्य उद्देश्य इस पूरी मानवद्रोही अन्यायपूर्ण विश्व पूँजीवादी व्यवस्था का विकल्प पेश करना और उसके लिए संघर्ष करना होना चाहिए। एक अनैतिक व्यवस्था के भीतर नैतिक-अनैतिक की बहस ही अप्रासंगिक है।