मानव ज्ञान का चरित्र और विकास
ज्ञान मूल रूप से व्यवहार पर टिका होता है। व्यवहार के दौरान ही इंसान ख़ुद के संवेदनाबोध को परखता है तथा संवेदनाबोध द्वारा पैदा हुई धारणाओं का भी व्यवहार में ही निर्माण करता है। व्यवहार का तात्पर्य सामाजिक व्यवहार है। ज्ञान सिर्फ सामाजिक व्यवहार से ही पैदा होता है। सामाजिक सम्बन्धों में रहते हुए सामाजिक इंसान का व्यवहार। अगर कोई इंसान किसी वस्तु को जानना चाहता हो तो उसको वस्तु के वातावरण में आना ही होगा। कोई भी विद्वान किसी वस्तु या प्रक्रिया का ज्ञान घर बैठे नहीं प्राप्त कर सकता है। हालाँकि आज के वैज्ञानिक तथा इण्टरनेट के युग में यह बात चरितार्थ लगती है कि विद्वान सचमुच ही घर बैठे-बैठे कम्प्यूटर पर क्लिक करके ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। परन्तु सच्चा व्यक्तिगत ज्ञान उन्हीं लोगो को प्राप्त होता है जो व्यवहार में लगे होते हैं। यह ज्ञान विद्वानों तक (लेखन तथा तकनीक द्वाराद्ध तभी पहुँचता है जब व्यवहार में लगे लोग वह ज्ञान प्राप्त करते हैं। इसलिए मानव ज्ञान के दो भाग होते हैं – प्रत्यक्ष ज्ञान व अप्रत्यक्ष ज्ञान। अप्रत्यक्ष ज्ञान दूसरों के लिए प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। इस तरह सम्पूर्ण ज्ञान भी सामाजिक होता है। यह मुख्यतः इंसान की उत्पादक कार्यवाही पर निर्भर करता है।