Tag Archives: सनी

एक युवा नाटककार की नज़र से ललितगेट घोटाला

इस पूरे वाकये में भाजपा सरकार के अन्तरविरोध भी उभर आए हैं। लम्बे समय से कांग्रेस के शासन के कारण भाजपा के नेता सत्ता में आते ही जैसे बौखला गए हैं। देश का ‘प्रधानसेवक’ देश से ज़्यादा विदेश में घूमता है। वे किसी भी राजनेता द्वारा किए गए विदेशी दौरों की प्रतिस्पर्धा में अव्वल हैं। व्यापम घोटाला अब तक करीब 45 जानें ले चुका है और राज्यसत्ता के चरित्र को ये खुल कर नंगा कर रहे है। अब इनके पास अब सिर्फ हिन्दुत्व की परत है जो यह लगातार चढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं, अटाली में दंगे कराकर, मुज़फ्फ़रनगर-शामली में लगातार साम्प्रदायिकता की लहर फैलाकर। परन्तु जिस कदर संसद में बैठे ये भ्रष्टाचारी नंगे हो रहे हैं मीडिया द्वारा बनाई मोदी लहर के लिए संकट हो सकता है और हो सकता है आने वाले समय में ये जनता का ध्यान बाँटने के लिए कोई जुमला उछाले, किसी देश के साथ किए लूट के सौदों को ऐतिहासिक बताएँ या फिर दंगे भड़काकर जनता का ध्यान बाँटें। मोदी द्वारा जन सुरक्षा बिल को अभी ज़्यादा कवरेज नहीं मिली है और इस रक्षाबंधन पर शायद वे फिर इस गुब्बारे में हवा भरें। पर जिस दर से मोदी सरकार के मंत्री लूट, खून, खराबे और अय्याशी में पकड़े जा रहे हैं उसे ये सुरक्षा बिल के खोखले ड्राफ्ट नहीं सम्भाल सकते हैं। इनकी हवस का अंदाजा वसुन्धरा राजे के हलफनामे और सुषमा स्वराज के मंत्रालय में किसी को सूचित किये बिना जारी समर्थन पत्र से लग सकता है।

विज्ञान के विकास का विज्ञान

औज़ार का इस्तेमाल, ख़तरे को भाँपना, कन्द-मूल की पहचान, शिकार की पद्धति से लेकर जादुई परिकल्पना को भी आने वाली पीढ़ी को सिखाया जाता है। इंसान ने औज़ारों और अपने उन्नत दिमाग से ज़िन्दा रहने की बेहतर पद्धति का ईजाद की। इसकी निरन्तरता मनुष्य संस्कृति के ज़रिए बरकरार रखता है। यह इतिहास मानव की संस्कृति का इतिहास है न कि उसके शरीर का! विज्ञान औज़ारों और जादुई परिकल्पना और संस्कृति में गुँथी इंसान की अनन्त कहानी में प्रकृति के नियमों का ज्ञान है। कला, संगीत और भाषा भी निश्चित ही यही रास्ता तय करते हैं। विज्ञान और कला व संगीत सामाजिकता का उत्पाद होते हुए भी अलग होते हैं। लेकिन हर दौर के कला व संगीत पर विज्ञान की छाप होती है। बुनियादी तौर पर देखा जाए तो ये इतिहास की ही छाप होती है।

विज्ञान के इतिहास का विज्ञान (पहली किस्त)

E=mc2 का फ़ार्मूला आइन्स्टीन और उनके विज्ञान के प्रति समर्पित जीवन के बारे में कुछ नहीं बोलता। न ही यह फार्मूला इस सिद्धान्त को विकसित करने में लगे परिश्रम व इसके उद्भव से जुड़ी बहसों को दिखाता है। हम अकादमिक किताबों में गैलीलियो के सापेक्षिकता के सिद्धान्त के बाद सीधे आइन्स्टीन के सापेक्षिकता के सिद्धान्त को पढ़ते हैं! समय का प्रभाव यानी ऐतिहासिकता अकादमिक विमर्शों में गायब होती है। विज्ञान का कोई भी अध्ययन या आकलन, जो कि ऐतिहासिकता से रिक्त हो, सतही होगा क्योंकि इन खोजों के नीचे उन लोगों की ज़िन्दगियाँ और उनकी बहसें दबी हुई हैं जिन्होंने इसे विकसित किया। यह विकास बेहद जटिल गति लिए हुए है। इस जटिल गति की छानबीन करना उन लोगों की ज़िन्दगियों में भी झाँकने को मजबूरकरता है जिन्होंने प्राकृतिक विज्ञान को उसका यह स्वरूप दिया, या कहें कि प्राकृतिक विज्ञान के मील के पत्थर इन व्यक्तियों के जीवन को भी कहा जा सकता है, जिन्होंने विज्ञान के सिद्धान्तों या खोजों में अपना जीवन लगा दिया।

ब्राज़ील में फ़ुटबाल वर्ल्ड कप का विरोध

यह वर्ल्ड कप फुटबॉल की धरती पर भले ही खेला गया हो पर यह ब्राज़ील की आम जनता के लिए नहीं था। यह महज़ फुटबॉल प्रेमी (अगर कोई न हो तब भी प्रचार उसे बना देगा) शरीर के भीतर उपभोक्ता आत्मा तक कुछ निश्चित विज्ञापनों द्वारा उपभोग का आह्वान था। ये खेल आज सिर्फ़ पूँजी की चुम्बक बन कर रह गये हैं। जिस तरह वर्ल्ड बैंक व आई.एम.एफ. जैसे संगठन वित्तीय पूँजी के निवेश के लिए रास्ता सुगम बनाते हैं और बड़ी-बड़ी इज़ारेदार कम्पनियों द्वारा (मुख्यतः उनके देश अमेरिका से) नियंत्रित होते हैं उसी प्रकार फ़ीफा जैसे संघ भी वित्तीय पूँजी और बड़ी-बड़ी इज़ारेदार कम्पनियों के निर्देशन पर ही चलते हैं।

पूँजीवादी कारपोरेट मीडिया का राजनीतिक अर्थशास्त्र

मौजूदा मीडिया कुछ ख़बरें हम तक पहुँचाता है, जबकि कुछ अन्य ख़बरें हम तक पहुँचने से रोकता है। वास्तव में, वह जो ख़बरें हम तक पहुँचाता है उनमें से अधिकांश का देश व दुनिया की बहुसंख्यक आबादी के लिए कोई वास्तविक महत्त्व नहीं होता है। जबकि अप्रासंगिक सूचनाओं और ख़बरों को व्यापक पैमाने तक उन लोगों तक पहुँचाया जाता है और उनके लिए उन्हें अहम भी बना दिया जाता है। ऐसा क्यों है? मीडिया को तो लोकतन्त्र का चौथा खम्भा कहा गया है! ऐसे में मीडिया हमारे समय की प्रातिनिधिक ख़बरों और यथार्थ को चित्रित क्यों नहीं करता है?

आधुनिक भौतिकी तथा भौतिकवाद का विकास

हिग्स बुसॉन न मिलने की शर्त स्टीफेन हॅाकिंग हार गए हैं, परन्तु उनकी इस हार के बावजूद विज्ञान ने तरक्की की है। पीटर हिग्स के अनुसार पदार्थ में द्रव्यमान का गुण हिग्स बुसोन के कारण आता है। सर्न प्रयोगशाला के महाप्रयोग से मिले आँकड़ों के आधार पर वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि हिग्स बुसोन ही वह बुनियादी कण है जो पदार्थ को द्रव्यमान देता है तथा ‘बिग बैंग’ या महाविस्फोट के कुछ पल बाद हिग्स फ़ील्ड व निर्वात मिलकर तमाम बुनियादी कणों को भार देते हैं। आज हम ब्रह्माण्ड को भी परखनली में परखे जाने वाले रसायन की तरह प्रयोगों से परख रहे हैं। हमारी प्रयोगशालाओं में ब्रह्माण्ड के रूप और उसके ‘उद्भव’ या ‘विकास’ को जाँचा जा रहा है। कोपरनिकस और ब्रूनो की कुर्बानी ज़ाया नहीं गयी। विज्ञान ने चर्च की धारणाओं के परखच्चे उड़ा दिये और सारे मिथकों के साथ धर्मशास्त्रों को विज्ञान ने गिलोटिन दे दिया। ख़ैर, हिग्स बुसोन मिलने से स्टैण्डर्ड मॉडल थ्योरी सत्यापित हो गयी है। तो क्या हमारा विज्ञान पूरा हो गया है? नहीं क़त्तई नहीं। यह सवाल ही ग़लत है। विज्ञान कभी भी सब कुछ जानने का दावा नहीं करता है और अगर कुछ वैज्ञानिक, अपने निश्चित दार्शनिक ‘बेंट ऑफ माइंड’ से जब इस अवधारणा को मानते हैं तब वे संकट के ‘ब्लैक होल’ में फँस जाते हैं। हमारा विज्ञान विकासशील है, ज्ञात और अज्ञात (ग़ौर करें, ‘अज्ञेय’ नहीं!) के द्वन्द्व में हम नए आयामों को जानते हैं और इससे नए अज्ञात की चुनौती पाते हैं। ज्ञात और अज्ञात के द्वन्द्व को न समझना ही संकट का आवाहन करता है, धर्मशास्त्रों की प्रेतात्मा फिर से विज्ञान में जीवित होने लगती है।

मानवता के सामने दो ही विकल्पः पूँजीवाद या अराजकता!

क्रिस्टाफेर नोलन व्यवस्था के कुछ अँधेरे कोनों को दिखाते हुए पूँजीवाद की समालोचना रखते हैं और बताते हैं कि तमाम संकटों के कारण बेन सरीखे सिरफिरे व्यवस्था पर कब्ज़ा कर अराजकता फैला सकते हैं। बढ़ते आर्थिक संकट के कारण जो जन दबाव सड़कों पर फूट पड़ा है, नोलन उसका चित्रण बेन के अराजकतावाद में समाहित करते हैं और दूसरी तरफ इन ख़तरों से निपटने के लिए वर्ग सचेत पूँजीपति राज्य व्यवस्था के विजीलाण्टे की ज़रुरत को स्थापित करते हैं। फिल्म व्यवस्था को उस ‘रेफ्रेन्स फ्रेम’ से खडे़ होकर प्रदर्शित करती है जो बुर्जुआ वर्ग का है। यह बुर्जुआज़ी की हीरो की ज़रूरत को (शासन चलाने के लिये) हमारी ज़रूरत के रूप में पेश करती है। यह फिल्म पूँजीवाद की समालोचना कर उसे और अधिक स्थापित करती है। बेन या जोकर के रूप में यह पूँजीवाद का एकमात्र विकल्प बर्बरता दिखाती है। इसलिए अन्त में पूँजीवाद के प्रति समस्त नफ़रत के बावजूद आपको यह मानने के लिए प्रेरित किया जाता है कि समाज में ग़ैर-बराबरी और अपराध तो रहेगा ही, लेकिन यह सब कम-से-कम एक व्यवस्था का अंग है! अगर आप पूँजीवाद के विकल्प की बात करेंगे तो उसका अर्थ होगा हर प्रकार की व्यवस्था का नकार, जैसा कि मौजूद जनान्दोलनों में अराजकतावादियों के बारे में कहा भी जा सकता है। लेकिन फिल्म इस सम्भावना को जिक्र तक नहीं करती है कि पूँजीवादी व्यवस्था और समाज का विकल्प एक समाजवादी व्यवस्था और विकल्प हो सकते हैं। वास्तव में, जन अदालतों का रूपक फिल्म में कम्युनिज़्म की ओर ही इशारा करता है और यह दिखलाने का प्रयास करता है कि कम्युनिज़्म अवास्तविक और अयथार्थवादी है और वह अन्ततः बर्बर किस्म की अराजकता में ख़त्म हो सकता है। कहने की ज़रूरत नहीं कि कम्युनिज़्म की यह तस्वीर साम्राज्यवादी मीडिया का कुत्साप्रचार है।

कृत्रिम चेतना: एक कृत्रिम और मानवद्रोही परिकल्पना

कृत्रिम चेतना वास्तव में कुछ भी नहीं है। यह मनुष्य की चेतना का ही विस्तार है। यह स्वचालन की ही एक नयी मंजिल है। कुछ मानवीय कार्यों को, जो कि पूर्वाकलित किये जा सकते हैं, अंजाम देने के लिए कुछ ऐसे उपकरणों का निर्माण किया जा सकता है और किया जा रहा है जो स्वयं एक हद तक पहले से दर्ज और आकलित निर्णय ले सकते हैं। लेकिन यह कहना कि कृत्रिम चेतना से लैस रोबोट किसी दिन मनुष्य का स्थान ले लेंगे, एक निहायत मूर्खतापूर्ण सपना है। ऐसा कभी नहीं हो सकता है। जो मानव चेतना की प्रकृति और चरित्र को नहीं समझते हैं, वही इस खोखले सपने के नशे में डूब सकते हैं।

क्रिस्टोफ़र कॉडवेल और भौतिकी का “संकट”

क्रिस्टोफ़र कॉडवेल बुज़ुर्आ समाज और उसकी पतनोन्मुख संस्कृति के कटु आलोचक थे। यही पतन उन्होंने विज्ञान में भी देखा। बुज़ुर्आ समाज में पैदा हुआ श्रम का बँटवारा, मानसिक और शारीरिक श्रम के बँटवारा, ऐसे व्यक्तित्व और जीवन दर्शन का निर्माण करता है जो विखण्डित व भोंड़ा होता है। एक वैज्ञानिक भी समाज के इन्हीं लोगों में से आता है। वह भी इसी संस्कृति की फसल होती है। यही कारण है कि विज्ञान जिस द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी आधार पर खड़ा है, बुज़ुर्आ व्यक्तिव उसे महज़ भौड़े भौतिकवादी और आदर्शवादी दृष्टिकोण से समझने में नाकाम होता है। शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम में बँटे समाज में वस्तुगत व आत्मगत के बीच का सम्बन्ध कट जाता है और जब वस्तुगत से आत्मगत कट जाता है तब अवैज्ञानिक ग़ैर-द्वन्द्वात्मक दर्शन-प्रत्ययवाद (आत्मगतता का छोर) और भोंड़ा भौतिकवाद (वस्तुगतता का छोर) तथा प्रत्यक्षवाद (दोनों के सम्बन्ध को हटा देना) व इनके अन्य तरह की शाखाएँ-उपशाखाएँ निकलती हैं।

सूचना प्रौद्योगिकी माध्यमों पर सरकार के सर्विलियंस का असली निशाना जनता है

इण्टरनेट जैसी तकनोलोजी का इस्तेमाल राज्य हर उस व्यक्ति पर नज़र रखने के लिए करता है जो व्यवस्था के विरुद्ध खड़ा है। हर राज्यसत्ता आज के दौर में खुद को हर प्रकार के जन विरोध के खिलाफ चाक-चौबन्द कर रही है, जनता पर नज़र रख रही है और उन लोगों को चिन्हित कर रही है जो राज्य के दमनतंत्र के खिलाफ़ आवाज़ उठा रहे हैं, जो कानून को ‘तोड़’ रहे हैं, चाहे वह कोई चोर हो, अल कायदा से हो, या मजदूर आन्दोलन से जुड़े हुए कार्यकर्ता हों। चाहे देशभर में मजदूरों का संघर्ष हो, नोएडा में किसानों का विरोध हो, हरियाणा के गोरखपुर गाँव के लोगों द्वारा संघर्ष हो, कश्मीर व उत्तर पूर्वी भारत में जन संघर्ष हो; जो कोई भी पूँजी की लूट के रास्ते में खड़ा है वह राज्य का शत्रु है और उसे राज्य तंत्र कुचलने की कोशिश करता है। इस इलेक्ट्रॉनिक निगरानी तंत्र को और चुस्त बनाने के लिए इसको कानूनी जामा पहनाते हुए भारत सरकार ने 2008 में इंफॉरमेशन तकनोलॉजी अधिनियम (2000) को संशोधित कर पारित किया। सोचने की बात यह है कि इस अधिनियम को बिना किसी सवाल या विरोध के संसद ने पारित किया। यह कानून सरकार को बिना किसी वारण्ट या कोर्ट आर्डर के किसी भी संचार को रिकॉर्ड करने तथा उसका उपयोग करने का अधिकार देता है। यह कानून केंद्रीय, राजकीय व आधिकारिक एजेंसी को किसी भी सूचना या जानकारी को अवरोधित (इण्टरसेप्ट), मॉनीटर व इन्क्रिप्ट (गोपनीय कोड में रूपान्तरित) करने का अधिकार देता है, ‘अगर यह कार्य राष्ट्र के हित में हो या किसी अपराध की जाँच में आवश्यक हो’। पिछले 64 साल का इतिहास स्पष्ट तौर पर बताता है कि राष्ट्र का हित वास्तव में हमेशा राज्य का हित होता है।