साम्राज्यवादी ताकतों की छाया में अज़रबैजान और आर्मेनिया का युद्ध

सनी

अज़रबैजान ने उन्नत युद्ध तकनीक, सेना और तुर्की समर्थित सीरियन लिबरेशन आर्मी के दम पर आर्मेनिया पर 27 सितम्बर को युद्ध थोप दिया। यह युद्ध कॉकेशिया के काले पहाडों के भूभाग नागोर्नो काराबाख के लिए था। युद्ध में 5000 से अधिक लोगों की जान गई और हजारों लोग विस्थापित हुए। युद्ध 6 हफ्ते बाद आर्मेनिया के हार स्वीकार करने पर ही थमा। दोनों देश ने रूस की मध्यस्थता में शान्ति प्रस्ताव स्वीकार किया। आर्मेनिया रूस का सामरिक सहयोगी रहा है वहीं रूस के अज़रबैजान से भी अच्छे सम्बन्ध हैं। युद्ध में रूस की एकमात्र दिलचस्पी अपने पिछवाड़े उठ खड़े हुई टकराहट को बिना किसी बाहरी दखल के हल करना थी। रूस इस मसले में ‘टाइट रोप वाकिंग’ कर रहा था। वह दोनों देशों में अपनी साम्राज्यवादी भूमिका को बरकारार रखना चाहता है। आर्मेनिया के नवनिर्वाचित प्रधानमन्त्री की रूस से स्वतंत्र विदेश नीति रखने की आशाओं को तात्कालिक तौर पर धक्का लगा है और रूस ने काराबाख में सैन्य नियंत्रण काबिज किया है, तो साथ ही रूस ने अज़रबैजान से सम्बन्ध खराब किये बिना तुर्की की पहुंच को कम करने का प्रयास किया। वहीं तुर्की ने अज़रबैजान के साथ मिलकर ट्रांसकॉकेशिया में अपनी दखल बढ़ाई है।
काराबाख के लिए आर्मेनिया और अज़रबैजान के बीच 1918-1920 से ही झड़पें जारी हैं जो भड़ककर दो काराबाख युद्धों को जन्म दे चुकी हैं। काराबाख को सोवियत यूनियन में अज़रबैजान समाजवादी सोवियत गणराज्य में शामिल कर पहली बार 1920 में इस मसले को हल किया गया था। सोवियत संघ के पतन के बाद से ही यह अन्तरविरोध फिर से उभर गया। इस क्षेत्र में मुख्यत: आर्मेनिया मूल की आबादी रहती है। 1988-1994 से पहले यहां आर्मेनी आबादी के साथ अज़ेरी और कुर्द आबादी मिल कर रहती थी। परन्तु 1994 तक अज़ेरी आबादी विस्थापित हुई तो दूसरी तरफ़ अज़रबैजान से आर्मेनी मूल की आबादी विस्थापित हुई। 1994 में काराबाख में आर्मेनिया के राज्य के मातहत ही स्वायत्त अश्तखान गणराज्य सरकार स्थापित हुई थी। 2020 के युद्ध से पहले काराबाख क्षेत्र के साथ ही आर्मेनिया का अज़रबैजान के एक भूभाग पर भी सैन्य नियंत्रण था जिसे अज़रबैजान ने मौजूदा युद्ध में हासिल किया है। मौजूदा युद्ध 6 हफ्ते तक चला जिसमें अज़रबैजान ने आर्मेनिया की सेना को कई रणनीतिक मोर्चों पर परास्त किया। इस युद्ध में अज़रबैजान द्वारा ड्रोन से व अन्य आधुनिक सैन्य उपकरणों से युद्ध लड़ा गया। इस युद्ध की पूर्वपीठिका पहले से ही तैयार हो रही थी। तुर्की और अज़रबैजान ने युद्ध से पहले ही साथ में सैन्य ड्रिल भी किया था। 2016 में दोनों देशों के बीच आखिरी बड़ी झड़प हुई थी जिसमें कि सैकड़ों लोगों की जान गई थी। इस विवादित क्षेत्र में दोनों देशों के बीच 1994 से हर महीने ‘लाइन ऑफ कॉन्टैक्ट’ पर सैन्य टकराव जारी ही रहा है जिसमें सेना द्वारा गोलीबारी और बमवर्षा की जाती रही है। दरअसल मौजूदा युद्ध अपेक्षित था। फिलहाल क्षेत्र में जारी अन्तरविरोधों का संतुलन अज़रबैजान के पक्ष में हुआ है। परन्तु आगे यह अन्तरविरोध फिर से सुलगेगा यह निश्चित है।
आर्मेनिया की रूस पर हर तरह से आर्थिक व सामरिक निर्भरता रही है। 2018 में भ्रष्टाचार के खिलाफ़ चले आंदोलन ‘वेल्वैेट क्रान्ति’ के बाद सत्ता में प्रधानमन्त्री निकोल पाश्नियान आए। निकोल पाश्नियान से साम्राज्यवादी रूस पर अतिनिर्भरता की स्थिति को बदलने की उम्मीद की जा रही थी। परन्तु इस युद्ध में रूस ने शुरूआत में निष्क्रियता दिखाई और 6 हफ्ते बाद हस्तक्षेप किया और दोनों देशों को युद्ध विराम करने पर मजबूर किया। शान्ति प्रस्ताव के जरिए रूस ने नागोर्नो काराबाख में अपनी ‘शान्ति’ सेना भेजी है। इसके जरिये रूस ने आर्मेनिया को सामरिक निर्भरता का आभास कराया है। रूस के द्वारा काराबाख में सेना तैनात करने के बाद तुर्की ने भी अपनी सेना शान्ति के नाम पर काराबाख में भेजी है।
वहीं अज़रबैजान के राष्ट्रपति इल्हाभम आलिएव ने भी युद्ध में जीत हासिल कर अपनी छवि का रूपांतरण किया है और युद्धोन्माद के जरिए जनता की असल समस्याओं से ध्यान हटा दिया है। रूस ने अज़रबैजान के बढ़ते कदमों को देखते हुए निर्णायक शान्ति प्रस्ताव दिया जिसे ठुकराना अज़रबैजान के लिए मुश्किल था क्यों कि इसका मतलब सीधे क्रेमलिन से टकराना होता। वहीं इस युद्ध में सबसे अधिक फायदा तुर्की को मिला है। एर्गोदेन ने कॉकेशिया की राजनीति में अपनी दखल बनाई है। उत्तरी ईरान में मौजूद अज़ेरी आबादी, मध्य पूर्व और उत्तरी कॉकेशिया की मुस्लिम बहुल आबादी पर इस युद्ध से प्रभाव पड़ने की सम्भावना की वजह से ही रूस और ईरान भी इसपर चिंतित है। ईरान ने एर्गोदेन द्वारा अज़रबैजान में विजय जुलूस के दौरान ओटोमन साम्राज्य का स्तुति गान करने वाली कविता पेश करने पर विरोध दर्ज कराया है। एर्गोदेन तुर्की की साम्राज्य‍वादी आकांक्षाओं को नवओटोमन साम्राज्य स्थापित करने के आख्यान के जरिये पेश कर रहा है। ईरान के आर्मेनिया से अच्छे‍ सम्बन्ध रहे हैं परन्तु इस युद्ध के आगे बढ़ने पर ईरान की अज़ेरी मूल आबादी ने आर्मेनिया के खिलाफ़ प्रदर्शन किया। इससे ईरान की आन्तरिक समस्या बढ़ सकती थी वहीं रूस को भी इस परिवर्तन से उत्तरी कॉकेशिया की मुस्लिम आबादी के बीच रूस के विरोध में अलगाववादी आंदोलन के पैदा होने का डर है। तुर्की मध्यपूर्व में पहले ही खुद को स्वतंत्र ताकत के रूप में स्थापित कर रहा है। सीरिया में तुर्की और रूस का एक दूसरे से टकराव हो चुका है। ईरान, सीरिया और रूस के संश्रय के बरक्स अमरीका, इज़रायल और गल्फ कॉरपोरशन के देशों की लॉबी है, क़तर को छोड़कर जो ईरान के साथ भी सम्बन्ध बनाए हुए है, और तीसरे पक्ष के तौर पर तुर्की खुद को स्थापित कर रहा है। तुर्की और रूस के बीच तनातनी मध्य, पूर्व, उत्तरी अफ्रीका में पहले से ही जारी है। सीरिया, लीबिया के बाद ट्रांसकॉकेशिया वह तीसरा युद्ध का रणक्षेत्र है जहां दोनों शक्तियां आमने सामने हैं।

अज़रबैजान और आर्मेनिया के आपसी संघर्ष का इतिहास

पहले विश्व युद्ध के दौर में आर्मेनिया और अज़रबैजान ओटोमन साम्राज्य और जारशाही के बीच पीस रहे थे। रूसी क्रान्ति के बाद ही दोनों देशों में राष्ट्रीय मुक्ति का कार्यभार पूरा हुआ। आर्मेनिया में रूसी क्रान्ति के ठीक बाद एक जनवादी गणराज्य अस्तित्व‍ में आया, जिसे प्रथम गणराज्य के नाम से भी जाना जाता है। यह 1918 से 1920 तक मौजूद रहा। इसके बाद वहां बोल्शेविक सत्ता में आए और 1920 में वहां समाजवादी गणराज्य की स्थापना हुई। गृहयुद्ध में लाल सेना ने जब इन देशों को पराजित किया, तो बुर्जुआ सत्ता बेहद कमज़ोर हो गयी या उनका पतन हो गया और कम्युनिस्टों ने समाजवादी सोवियत गणराज्य का निर्माण किया।
इसी प्रकार अज़रबैजान में भी अक्तूबर क्रान्ति के तुरन्त बाद कौमी आज़ादी मिलने के साथ बुर्जुआ जनवादी गणराज्य़ अस्तित्व में आया जो कि 1920 तक कायम रहा। इसके साथ ही राष्ट्रीय जनवादी कार्यभार यहां पूरा हो गया। इसे अज़रबैजान जनवादी गणराज्य के नाम से जाना गया। इसकी बुर्जुआ सरकार ने भी गृहयुद्ध के दौरान अपने देश के बोल्शेविकों के सामने आत्म समर्पण कर दिया, क्योंकि लाल सेना के सामने भी उनकी पराजय हो रही थी। अज़रबैजान समाजवादी सोवियत गणराज्य और आर्मेनिया समाजवादी सोवियत गणराज्य ज्योर्जिया समाजवादी सोवियत गणराज्य के साथ मिलकर 1922 में ट्रांसकॉकेशिया समाजवादी संघात्मक सोवियत गणराज्य (टीएसएफएसआर) के रूप में स्थापित हुआ। टीएसएफएसआर 1922 में सोवियत संघ में शामिल हो गया।
अक्टूबर क्रान्ति के पश्चात रूसी समाजवादी संघात्मक सोवियत गणराज्य (आरएसएफ़एसआर) के अस्तित्व में आने के साथ स्वायत्त इकाइयों के रूप में कुछ ऐसी राष्ट्रीयताएँ और राष्ट्र भी शामिल हुए थे जो या तो अपनी निश्चित क्षेत्रीयता के अभाव के चलते या फिर अपने बेहद छोटे आकार, संख्या और बिखराव के चलते एक अलग स्वतन्त्र राष्ट्र-राज्य के गठन के लिए जीवक्षम नहीं थे। इसलिए इन्हें आरएसएफ़एसआर के भीतर स्वायत्त इकाइयों के रूप में मान्यता दे दी गयी। ये इकाइयां सोवियत संघ के भीतर भी मौजूद रही। ये स्वायत्त इकाइयां गणराज्य, ऑब्लास्ट (क्षेत्र) और ऑक्रुग्सा (जिला) के रूप में मौजूद थीं। सोवियत संघ के गठन के बाद 1923 में नागोर्नो काराबाख स्वायत्त क्षेत्र (ऑब्लास्ट) अस्तित्व में आया जो ट्रांसकॉकेशिया समाजवादी संघात्मक गणराज्य के मातहत था। 1936 में चूंकि अज़रबैजान समाजवादी सोवियत गणराज्य स्वतंत्र तौर पर सोवियत यूनियन में शामिल हुआ, काराबाख का स्वायत्त ऑब्लास्ट इसके मातहत था। 1954 में पूँजीवादी पुर्नस्थापना हुई और 1991 में सोवियत संघ भंग हो गया लेकिन 80 के दशक में ही सोवियत संघ के तमाम देशों में टकराहट होनी शुरू हो गई थी। इसका एक उदाहरण अज़रबैजान समाजवादी सोवियत गणराज्य और आर्मेनिया समाजवादी सोवियत गणराज्य थे। इस टकराव के केन्द्र में काराबाख का क्षेत्र था। 1988 में जनमतसंग्रह में काराबाख की जनता ने आर्मेनिया में शामिल होने की इच्छा जताई जिसके बाद से अज़रबैजान और आर्मेनिया के बीच झड़प शुरू हो गई। 1991 में अज़रबैजान समाजवादी सोवियत गणराज्य ने काराबाख के ऑब्लास्ट की स्वात्तयता तानाशाहाना फरमान के जरिये खत्म कर दी। इसके जवाब में काराबाख के नेतृत्व ने खुद को स्वतंत्र गणराज्य घोषित किया। यह झड़पें 1992-1994 तक दोनों देशों के बीच चले पहले काराबाख युद्ध में तब्दील हो गईं जिसका परिणाम अज़रबैजान की हार में हुआ। इस युद्ध में लाखों अज़ेरी मूल के लोग आर्मेनिया छोड़ अज़रबैजान गए जबकि लाखों अर्मेनी मूल के लोग अज़रबैजान से विस्थापित हुए। दोनों तरफ़ नस्ल और राष्ट्र के नाम पर खून बहा। अन्तत: अर्मेनी सेना की मदद से नार्गोर्नो काराबाख में एक स्वायत्त सरकार बनी जो आर्मेनिया के मातहत थी और साथ ही अज़रबैजान के एक हिस्से पर भी आर्मेनिया ने कब्ज़ा कर लिया। पूँजीवादी व्यवस्था की अमीरी और गरीबी की खाई, भुखमरी को ढांपने के लिए दोनों देश ही राष्ट्र्वाद की आग भड़काते रहे हैं और इसका खामियाजा दोनों देशों की जनता और काराबाख की जनता को उठाना पड़ा है। यह छोटा सा क्षेत्र लम्बेे समय से टकराव देखता रहा है और यहां दमन के चक्के के बीच ही जनता लम्बे समय से जी रही है। केवल समाजवादी रूस में जनता ने इस टकराहट का अंत देखा था।
मौजूदा युद्ध मूलत: अज़रबैजान और तुर्की की आकांक्षाओं के चलते हुआ। रूस अभी भी इन देशों पर अपना साम्राज्यवादी दबदबा बरकरार रखना चाहता है। जहां मध्य पूर्व साम्राज्यवाद के अन्तंरविरोधों की गांठ बना हुआ है वहीं दक्षिणी कॉकेशिया भी ऐसे ही साम्राज्यवादी ताकतों के बीच रस्साकस्सी का क्षेत्र बन रहा है जहां फिलहाल रूस का दबदबा है परन्तु जिसमें तुर्की भी जगह बनाना चाहता है।
यूक्रेन से लेकर चेचेनिया और अब आर्मेनिया-अज़रबैजान में जारी टकराहटों का फायदा अन्य साम्राज्यवादी ताकतों ने उठाकर रूस के वर्चस्व को चुनौती देने का प्रयास किया है। 1994 से ही काराबाख हेतु शान्ति वार्ता करवाने वाले देशों में अमेरिका, फ्रांस और रूस रहे हैं, हालांकि इसमें मुख्य भूमिका रूस की रही है। आर्मेनिया-अज़रबैजान युद्ध में भी यह शान्ति वार्ता रूस ने करवाई है और उसने काराबाख में अपनी दखल बना ली है।
नार्गोनो काराबाख एक ऐसा नासूर है जो सोवियत रूस के बिखराव के बाद से सालों से रिसता रहा है। अज़रबैजान की राजनीति का बड़ा मुद्दा ही आर्मेनिया से 1992-94 में हारे क्षेत्र को वापस लेने का रहा है। 1990 के बाद से ही तुर्की ने अज़रबैजान के साथ एक करीबी रिश्ता बनाया है। अज़रबैजान तेल और गैस का निर्यात सभी बडे़ देशों को करता है। 2020 में तुर्की ने अज़रबैजान के साथ युद्ध में साथ दिया और युद्ध के बाद अज़रबैजान में आयोजित विजय रैली में भी एर्गोदेन ने भागीदारी की। वहीं रूस की आर्मेनिया के साथ करीबी सम्बन्ध हैं। आर्मेनिया में रूस का मिलीटरी बेस भी है। परन्तु रूस इस युद्ध में यह कहकर निष्क्रिय रहा कि काराबाख का मसला सीधे आर्मेनिया का मसला नहीं है। नार्गोनो काराबाख के एक हिस्से और उससे सटे क्षेत्र में अज़रबैजान का सैन्य नियंत्रण हो जाने के बाद रूस ने युद्ध विराम करवाने के लिए दबाव बनाया जिसे अज़रबैजान ने तुरन्त स्वीकार कर लिया। इस समय नार्गोर्नो काराबाख क्षेत्र में रह रही जनता के हिस्से में कितने युद्ध हैं यह तो आगामी भविष्य तय करेगा परन्तु यह मसला भी तब तक हल नहीं हो सकता है जबतक कि आर्मेनिया या अज़रबैजान में समाजवादी सत्ता स्थापित न हो।
कुल मिलाकर कहें तो ट्रांसकॉकेशिया भी साम्राज्यवादी ताकतों के बीच युद्ध का ‘थ्येटर ऑफ वॉर’ बन रहा है। रूस के पिछवाड़े में बाल्टिक राज्यों, कॉकेशिया और अन्य क्षेत्रों में अन्तरविरोध सोवियत यूनियन के पतन के बाद से ही जारी है जिनका फायदा साम्राज्यवादी ताकतों ने उठाया है। हालांकि रूस की सत्ता ने इस क्षेत्र में अपना साम्राज्यवादी दबदबा बरकरार रखा है। इस क्षेत्र में ये टकराहटें रह-रहकर उभरती रहेंगी और बड़े और छोटे साम्राज्यवादी देशों के बीच छाया युद्ध के रूप में अभिव्यक्त होंगी।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, नवम्बर 2020-फ़रवरी 2021

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