चेतन भगत: बड़बोलेपन और कूपमण्डूकता का एक साम्प्रदायिक संस्करण
अरविन्द
चेतन भगत के बारे में तो आपने सुना ही होगा। आजकल ये मध्यवर्गीय मानस पर विचारक और प्रेरक के तौर पर काफी छाये हुए हैं! इसका कारण इनका बहुविध “प्रतिभाओं” का धनी होना भी है। ये कई पेशों में हाथ आज़माइश कर चुके हैं। इंजीनियरिंग और उसके बाद मैनेजमेण्ट (!?) की पढ़ाई के बाद इन्होंने 11 साल तक हांगकांग में इन्वेस्टमेण्ट बैंकर के तौर पर काम किया, कुछ सस्ते और यौन-कुण्ठित किस्म के उपन्यास लिखे, मुम्बइया फिल्मों की पटकथाएँ लिखीं, मैनेजमेण्ट के छात्रों के बीच व्याख्यान भी दिये तथा आजकल ये अखबारी स्तम्भकार (देखें, ‘दैनिक भास्कर’ के हाल के कुछ पुराने अंक) भी बन गये हैं! वैसे अपनी तमाम फूहड़ता और मूर्खता के बावजूद रूप की दृष्टि से (यदि अन्तर्वस्तु को एक तरफ रख दिया जाय) इनका लेखन पर्याप्त रोचक होता है। यदि आप जनपक्षधर हैं तो इनका लेखन आपके अन्दर घृणा पैदा कर सकता है, किन्तु आपको बोरियत कम ही महसूस होगी।
बहरहाल, चेतन भगत के मौलिक चिन्तन को थोड़ा हम भी परखते हैं। लगता है किसी व्याख्यान के दौरान अपने श्रोताओं की करतल ध्वनि से अभिभूत होकर चेतन भगत जी खुद को बहुत बड़ा अर्थशास्त्री समझ बैठे हैं। यही कारण है कि हाल-फिलहाल खाद्य सुरक्षा बिल के मसले पर इन्होंने बड़े ही अहंकारी और उद्दण्डतापूर्ण ढंग से अपने अर्थशास्त्र का नमूना पेश किया। ये लिखते हैं, “हैरानी की बात है कि हमारे शीर्ष विचारक और सार्वजनिक बहसों में हावी रहने वाले, समृद्धि लाने और उत्पादकता के बारे में कितना कम जानते हैं। यदि जानते होते तो खाद्य सुरक्षा बिल को आने नहीं देते। इतना अनाज कैसे मुहैया कराया जायेगा या पहले से ही कर्ज़ में डूबी सरकार की हालत इसके बाद क्या होगी—तो मैं अपने दिमाग को चुप रहने के लिए कहता हूँ। मैं अगले कुछ वर्षों में ही लगने वाले लाखों-करोड़ों रुपये के लम्बे-चौड़े आँकड़ों को भी नज़रअन्दाज़ कर देता हूँ। हम तब तक ग़रीबों की परवाह करते रहेंगे जब तक पूरा पैसा ख़त्म नहीं हो जाता। देश दिवालिया हो जायेगा। रोज़गार नहीं होगा और अधिक लोग ग़रीब हो जायेंगे।” यह तो एक बानगी है हमारे “महान विचारक” के अर्थशास्त्रीय ज्ञान की। ऐसे नमूने हमें आगे भी देखने को मिलेंगे। किसी भी प्रकार की प्रत्यक्ष उत्पादक कार्यवाही से दूर, अपने बौद्धिक श्रम (यानी बौद्धिक दुकानदारी!) के बूते ऐश करने वाले उच्च मध्यम वर्ग के “दर्द” को तो समझा ही जा सकता है! जब मनरेगा या खाद्य सुरक्षा जैसी योजनाओं पर बहस होती है तो यह हिस्सा ऐसे बेचैन हो जाता है जैसे इसको मिर्ची लगी हो। इन्हें लगता है कि इन योजनाओं पर होने वाले ख़र्च से सरकारी ख़जाना ख़ाली हो जायेगा, देश दिवालिया हो जायेगा फलस्वरूप विदेशी निवेश बन्द हो जायेगा, वगैरह-वगैरह। यह एक दीगर बात है कि पूँजीवादी व्यवस्था के तहत ऐसी तमाम योजनाएँ एक धोखे का धूम्रावरण ही होती हैं, और इससे ग़रीबों का कुछ ख़ास भला नहीं हो सकता। लेकिन फिर भी, ऐसी योजनाओं पर नंगे बाज़ारू पूँजीवाद के उन्मादी समर्थकों के तर्क सुनने योग्य हैं! इस जमात के लोगों का मानना है कि ऐसी योजनाओं पर ख़र्च की बजाय, सड़कें बनायी जायें, ढाँचागत विकास हो ताकि विदेशी पूँजी आये और देश को खुशहाली से सराबोर कर दे! लेकिन जब सरकारी ख़जाने को पूँजीपतियों को बेलआउट पैकेज, टैक्स छूट, हॉलीडे पैकेज देने में लुटाया जाता है, जब विराट नौकरशाही-नेताशाही और हथियारों पर अधिकाधिक धन ख़र्च होता है, तब चेतन भगत की जमात को मोतियाबिन्द क्यों हो जाता है? जब आम जनता के खून-पसीने से खड़े किये गये पब्लिक सेक्टर को कौड़ियों के भाव देशी-विदेशी पूँजीपतियों को सौंपा जाता है तब चेतन भगत कुछ नहीं बोलते। लेकिन जब कोई ऐसी योजना आती है, जिससे ग़रीबों को “कुछ मिलने” की सम्भावना हो तो इन जैसों की देशभक्ति अपने चरम पर होती है। यदि देश के बजट का लगभग 97 फीसदी हिस्सा आम आदमी की जेब से आने वाले अप्रत्यक्ष करों के माध्यम से बनता है, तो होना तो यही चाहिए कि शिक्षा, चिकित्सा और रोज़गार सहित तमाम मूलभूत ज़रूरतों पर यह प्राथमिकता के साथ ख़र्च हो। किन्तु बजट को तो विराट पूँजावादी तंत्र और घोटाले पहले ही हज़म कर जाते हैं, ग़रीबों के नाम पर खर्च होने वाले धन से भी इन्हीं के लग्गू-भग्गू मालामाल होते हैं।
फिलहाल इस बिल अथवा ऐसी तमाम योजनाओं पर थोड़ी बात कर लेते हैं। चाहे खाद्य सुरक्षा बिल हो, मनरेगा जैसी योजना हो, मिड-डे-मील योजना हो या राज्य सरकारों की तमाम योजनाएँ, असल में ये वोट की फसल काटने के नये-नये हथकण्डे ही होती हैं। इन तमाम योजनाओं से नेताओं-मंत्रियों से लेकर पूँजीपतियों और ठेकेदारों की जेबें गरम होती हैं और आम जनता तक केवल जूठन ही पहुँचती है। जनता को कुछ ख़ास नहीं मिलता किन्तु तमाम चुनावी मदारियों को वोट मिलने की सम्भावना ज़रूर पैदा हो जाती है। खाद्य सुरक्षा योजना में भी ज़्यादा सम्भावना यही है कि इससे डिपो होल्डरों, खाद्यान्न व्यापारियों के तो पौ-बारह हो जायेंगे, किन्तु बिना राशन कार्ड और पहचान के शहरों में रहने वाली करोड़ों-करोड़ मेहनतकश आबादी और ग्रामीण मज़दूर आबादी को खाद्य असुरक्षा ही मिलेगी।
ख़ैर, इस बात को छोड़कर कि ऐसी तमाम कल्याणकारी लगने वाली योजनाओं से आम जनता को कितना मिलेगा, चेतन भगत और उन जैसे आँख के अन्धों और गाँठ के पूरों की देशभक्तिपूर्ण चिन्ताओं पर आते हैं। वैसे चेतन भगत का खाद्य सुरक्षा बिल के विरोध का दूसरा कारण इनका काग्रेंस-नीत यू.पी.ए. सरकार का विरोध भी है क्योंकि ये महोदय खुद को मोदी और भाजपा के पक्ष में खड़ा पाते हैं। इस पर हम आगे आयेंगे।
चेतन भगत स्वयं को कितना ही ज्ञानी प्रदर्शित करें पर इनके तमाम स्तम्भ लेखन में मूर्खतापूर्ण दम्भ अपना सिर उठा ही देता है। स्थानाभाव के कारण हम इनके अर्थशास्त्रीय ज्ञान के एक औैर नमूने को देखकर आगे बढ़ेंगे। चेतन भगत अपने राजनीतिक दिवालियेपन के कारण धुरन्धर एन.जी.ओ.-पन्थी अरविन्द केजरीवाल और उनकी पार्टी ‘आप’ पर ऐसा आरोप लगाते हैं कि “सन्त पूँजीवाद” के बेचारे भक्त केजरीवाल भी स्तब्ध रह जायेंगे! भगत जी कहते हैं, “उन्हें नयी वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था की ज़्यादा समझ नहीं है। उनकी विचारधारा विकास-विरोधी वामपन्थी विचारों के ज़्यादा क़रीब लगती है, जहाँ पर तमाम विदेशियों, बड़ी-बड़ी कम्पनियों और अमीर लोगों को बुरा और भ्रष्ट समझा जाता है, जबकि छोटे कारोबार तथा ग़रीब लोग अच्छे माने जाते हैं। यह सोच भाषणों में तालियाँ बटोरने के लिहाज़ से तो ख़ूब कारगर हो सकती है लेकिन राष्ट्र की अर्थव्यवस्था के लिए ज़्यादा नहीं। भले ही भारत आज भ्रष्टाचार-मुक्त देश हो जाये, लेकिन तब भी हम एक अमीर देश नहीं होंगे। सुनियंत्रित पूँजीवाद, खुली अर्थव्यवस्थाओं और मुक्त बाज़ारों ने दुनिया भर में धन-सम्पति निर्मित की है। हमें इन्हें मंजूर करना चाहिए, ताकि भारत में भी ऐसा हो।” साम्राज्यवादी कम्पनियों के फाउण्डेशनों से लाखों डॉलर उठाने वाले और पूँजीवाद के टुकड़खोर केजरीवाल साहब ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि कोई उनकी नज़दीकी वामपन्थ से भी बिठा सकता है! इतनी बार “भ्रष्टाचार मुक्त पूँजीवाद”(?) में अपनी निष्ठा जताने के बावजूद कोई सूरदास ही केजरीवाल साहब पर ऐसा आरोप लगा सकता है!
अहोभाग्य हमारी भारत भूमि का जिसने चेतन भगत जैसे महान अर्थशास्त्री को पैदा किया है ताकि ये वामपन्थ की कमियों और पूँजीवाद की नियामतों को देश की भोली-भाली जनता को बता सकें! वामपन्थ के बारे में अपने पूर्वाग्रहों से भगत जी ने यह साबित कर दिया है कि वे भारत के उस मध्यम वर्ग के ही एक प्रतिनिधि हैं जो अपने अधकचरे ज्ञान और अज्ञान के बावजूद घमण्ड से कुप्पा हुआ रहता है। इन्हें लगता है कि ज्ञान-विज्ञान-इतिहास की तमाम जानकारियाँ आई.आई.टी. और आई.आई.एम. की दीवारों के अन्दर ही मिल सकती हैं। ज्ञात रहे भगत जी के ज्ञान चक्षु भी इन्हीं संस्थानों में खुले हैं! इसीलिए वामपन्थ और पूँजीवाद के बारे में इनकी जानकारी बेहद ग़लत और अधकचरी है। कुएँ के मेंढक की तरह इन्हें कुएँ जितना ही आसमान दिखाई देता है, इसलिए वामपन्थ के विकास-विरोधी होने के बारे में ये अपनी ऐसी सोच रख रहे हैं, वरना 1917-56 तक के सोवियत रूस और 1949-76 तक के समाजवादी चीन के बारे में कौन नहीं जानता। इन दौरों में मानवता ने विकास के ऐसे डग भरे थे कि पूँजीवादी बुद्धिजीवियों तक ने इसे स्वीकार किया है। क्या कारण था कि मध्ययुगीन जड़ता में पड़ा रूस अन्तरिक्ष में सबसे पहले कदम रख सका? यहाँ दुनिया भर में पहली बार मज़दूर राज कायम करके पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा विकास का शानदार प्रयोग किया गया। सोवियत संघ में समाजवाद के निर्माण को कुशल नेतृत्व देने वाले स्तालिन को द्वितीय विश्व युद्ध में फ़ासीवाद को शिकस्त देने और पूरे विश्व को इसके ख़तरे से बचाने के कारण ही तो पूँजीवादी नेता और बुर्जुआ मीडिया ‘अंकल जो-अंकल जो’ कहते नहीं अघाते थे। यह दीगर बात है कि साम्राज्यवाद-पूँजीवाद ने हमेशा समाजवाद के खिलाफ कुत्सा प्रचार ही किया है। क्या कारण था कि अफीम के नशे में डूबा चीन, जो भारत से भी दो वर्ष बाद औपनिवेशिक ताक़तों के अप्रत्यक्ष प्रभुत्व से आज़ाद हुआ था, माओ-त्से-तुङ के नेतृत्व में हर क्षेत्र में अवर्णनीय विकास कर पाया? समाजवादी दौरों में इन देशों में बेरोज़गारी, भुखमरी, ग़रीबी, अशिक्षा और वेश्यावृत्ति जैसी समस्याओं को समाप्त करने की हद तक काबू में कर लिया गया था। समाज का ऐसा रूपान्तरण कैसे सम्भव हो पाया? इन सवालों का जवाब देने की उम्मीद हम चेतन भगत जैसे बाज़ारू “बुद्धिजीवियों” से नहीं करते, जिनकी समाजवाद के बारे में समझदारी हिस्ट्री चैनल, नैटजियो, डिस्कवरी जैसे अमेरिकी साम्राज्यवादी भोंपुओं और फुटपाथ पर मिलने वाली दो कौड़ी की सनसनीखेज़ किताबों से बनी है।
1956 के बाद सोवियत संघ के समाजवाद का सोवियत साम्राज्यवाद और राजकीय पूँजीवाद में बदलना तथा 1976 के बाद समाजवादी चीन के ‘बाज़ार समाजवाद’ में रूपान्तरित होना एक अलग चर्चा का विषय है। लेकिन समाजवादी दौरों में इन देशों में हुए विकास को एच.जी.वेल्स, ई.एच.कार, डाइसन कार्टर, अन्ना लुई स्ट्रांग, एडगर स्नो से लेकर अपने देश के प्रेमचन्द, नेहरू और टैगोर तक ने सराहा है और इनमें से अधिकांश कम्युनिस्ट नहीं थे। यह सूची और भी लम्बी हो सकती है लेकिन चेतन भगत जैसे इतना ही पढ़ लें तो गनीमत होगी!
आम जनता में वामपन्थ के प्रति नकारात्मक रवैये का कारण सीपीआई, सीपीएम-मार्का संशोधनवादी पार्टियों की जनहितों और मार्क्सवाद से ग़द्दारी को माना जा सकता है, लेकिन चेतन भगत जैसे स्वनामधन्य अर्थशास्त्री के राजनीतिक दिवालियेपन का ज़िम्मेदार इन कारणों को नहीं ठहराया जा सकता। चेतन भगत का प्रस्थान बिन्दु इनकी पूँजीवाद के प्रति निष्ठा ही है, इसलिए इन्हें वास्तविक सच्चाइयाँ दिखायी नहीं देतीं बल्कि पहाड़ी टट्टू की तरह सिर्फ सामने ही दिखता है। पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा इनकी आँखों पर बँधी पट्टी इन्हें काफी सुहावनी लगती है। भगत जी ने कभी पूर्वाग्रह के बिना वामपन्थी विचारधारा का अध्ययन किया ही नहीं होगा। न ही इनसे ऐसी कोई उम्मीद की जा सकती है।
दूसरी बात, जहाँ तक ‘सुनियोजित पूँजीवाद, खुली अर्थव्यवस्थाओं और मुक्त बाज़ारों के द्वारा दुनिया भर में धन-सम्पत्ति निर्मित करने की तथा देशों को अमीर बनाने’ की बात है वहाँ लगता है चेतन भगत जी किसी दूसरे ग्रह की दिमागी सैर पर हैं, जहाँ पर पूँजीवाद का विकास ही हो रहा है। या ये महोदय अभी सत्रहवीं सदी में ही जी रहे हैं, और पूँजीवाद के आगे के इतिहास से नावाकिफ़ हैं। इसीलिए इन्हें वैसे ही पूँजीवाद के बारे में सबकुछ अच्छा ही लग रहा है जैसे ‘सावन के अन्धे को सब कुछ हरा ही हरा दिखाई देता है’। यह बात सच है कि अपने शुरुआती दौर में क्रान्तिकारी रास्ते से जहाँ पर भी पूँजीवाद आया वहाँ नये जीवन मूल्यों और समृद्धि का सृजन हुआ, किन्तु यह बात भी इतनी ही सच है कि आद्य पूँजी संचय (आरम्भिक पूँजी संचय) की प्रक्रिया के दौरान उन देशों की जनता को भी अकथनीय दुख-तकलीफें उठानी पड़ीं थीं, अपने संसाधनों से हाथ धोना पड़ा था, जैसे इंग्लैण्ड का बाड़ाबन्दी अभियान। उपनिवेशवाद के दौर का पूँजी संचय तो उपनिवेशों की जनता के खून में डूबा हुआ था। निश्चित तौर पर पूँजीवादी व्यवस्था के तहत लगातार पूँजी संचय होता जाता है। लेकिन यह पूँजी लगातार समाज के ऊपर के मुट्ठी भर अतिधनाढ्य वर्गों के हाथों में केन्द्रित होती जाती है। एक तरफ़ दुनिया भर के साज़ो-सामानों का अम्बार लगता जाता है, तो दूसरी तरफ़ ग़रीबों, बेरोज़गारों, बेघरों और मुफ़लिसों का समन्दर तैयार होता जाता है। यही अन्तरविरोध आज दुनिया के समृद्ध देशों में भी पूँजीवाद-विरोधी प्रतिरोध आन्दोलनों को स्वतःस्फूर्त रूप से जन्म दे रहा है। समृद्धि और धन-दौलत का सृजन होना अपने आपमें कोई सकारात्मक बात नहीं है, जब तक कि यह सारी नेमतें बनाने वाली मेहनतकश आबादी तंगहाली और बदहाली में धकेली जाती रहे। क्या गुलामी प्रथा वाला रोम समृद्ध नहीं था? क्या किसानों और भूदासों की लूट पर टिके मध्ययुगीन साम्राज्य समृद्ध नहीं थे? निश्चित रूप से वैसी आडम्बरपूर्ण और पतनशील समृद्धि इतिहास उस समय के बाद से सीधे आज भारत जैसे देशों के अतिधनाढ्य वर्गों की जीवनशैली में देख रहा है। यदि आज की बात की जाय तो “समृद्ध” पूँजीवादी देशों में उठने वाले जनान्दोलन किस चीज़ की ओर इशारा कर रहे हैं? सार्वजनिक मदों में कटौती और नवउदारवादी नीतियों के कारण इंग्लैण्ड, फ्रांस, कनाडा, यूनान और ग्रीस जैसे देशों में अभी हाल के वर्षों में हुए प्रदर्शन क्या दिखला रहे हैं? अमेरिका के वॉल स्ट्रीट कब्जा करो अभियान (आक्यूपाई वॉल स्ट्रीट मूवमेण्ट) का क्या मतलब था? भगतजी को बेवकूफी भरे घमण्ड में बहकने की बजाय इन सवालों का जवाब भी देना चाहिए।
ख़ैर, चेतन भगत को इस बात से ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ेगा कि जिस व्यवस्था की ये पैरोकारी कर रहे हैं, उसने इस दुनिया की व्यापक मेहनतकश जनता को युद्धों, भुखमरी, बेरोज़गारी और आत्महत्याओं के सिवाय कुछ नहीं दिया है। फिर भी पता नहीं इन्हें क्यों ऐसी दुनिया चाहिए ही जिसमें आँसुओं के समन्दर के बीच गगन चुम्बी इमारते हों, जहाँ पर उच्च मध्यम वर्ग का एक हिस्सा अपने मोटापे और अपने कुत्तों के साथ पूँजीपतियों की चाकरी बजा सके! सामाजिक डार्विनवाद के समर्थक ऐसे लोगों को व्यापक जनता की ताकत व उसके खून-पसीने की कीमत का तभी पता चलेगा जब इनके “स्वर्ग” को अजायबघर की वस्तु बना दिया जायेगा। तार्किकता की दुहाई देकर घोर अतार्किक होकर बात करना यह दिखाता है कि ये महोदय छपास (अपने लेख छपने की ललक) में अपनी ईमानदारी और ज़मीर को बेईमानी की इन्तहाँ तक बेच-खा चुके हैं। छपास इसलिए ताकि इनकी बाज़ार कीमत में इजाफ़ा हो सके। लगे हाथ इनके रचना संसार में से एक-दो चीज़ों की नुमाइश और कर ली जाय।
चेतन भगत का लेखन ‘कहीं का पत्थर कहीं का रोड़ा भानमती ने कुनबा जोड़ा’ शैली में होता है। वहाँ आपको भोथरे घमण्ड के अलावा ज़्यादा कुछ नहीं मिलेगा। फिर भी इनके कुछ रुझानों की झलक मिल ही जाती है। उदाहरण के लिए चेतन भगत का साम्प्रदायिक रुझान, जिसे ये श्रीमान शब्दों की चाशनी में डुबोकर प्रस्तुत करते हैं। ‘एक मुस्लिम युवक का काल्पनिक पत्र’ नामक अपने लेख में इनका यह रुझान साफ तौर पर दिखता है। मुस्लिम युवक के हवाले से चेतन भगत का कहना है कि भारत में अपने मौजूदा हालात का ज़िम्मेदार भारतीय मुसलमान स्वयं हैं, कि मुसलमान धर्म को देश से अधिक तरजीह देते हैं, कि वे झुण्ड में वोट देते हैं, कि इन्हें धर्म की चिन्ता है विकास और भ्रष्टाचार की नहीं, आदि-आदि। इन्होंने तथाकथित मुस्लिम नेताओं को कैसे फटकारा है जरा एक नज़र देख लेते हैं। इनके अनुसार, “भारतीय अपनी आज़ादी से प्यार करते हैं। भारतीय नहीं चाहते कि उनके धार्मिक नेता बताएँ कि किसे वोट दें। बड़ी संख्या में आधुनिक भारतीय मुसलमान धर्म को राजनीति से अलग रखना चाहते हैं। यहाँ आप असल में मदद कर सकते हैं। आप ज़ोर दे सकते हैं कि भारत पहले आता है, हमारे समुदाय की कट्टर आवाज़ों को किनारे कर सकते हैं। लेकिन आप में से कोई भी ऐसा नहीं कर रहा। आप सभी प्रतिगामी हैं, हमारे साथ झुण्ड जैसा व्यवहार करते हैं और हमारे रूढ़िवादियों और कट्टरवादियों का पक्ष लेते हैं।” चेतन भगत मूर्ख ही नहीं बल्कि असंवेदनशील भी हैं। भारत में औपनिवेशिक दौर से लेकर आज तक का इतिहास बताता है कि शासक वर्ग साम्प्रदायिक ताकतों का जंजीर में बन्धे कुत्ते की तरह इस्तेमाल करता रहा है। आज़ादी से पहले ‘फूट डालो-राज करो’ की नीति के तहत यह काम अंग्रेज़ करते थे, बाद में इसका ठेका भारत के शासक वर्ग ने ले लिया। आज़ाद भारत में मुस्लिमों के अपने में सिमट कर रह जाने के कारण रहे हैं। इनमें सबसे मुख्य कारण है हिन्दुत्व के नाम पर ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ (आरएसएस) और हिन्दू महासभा जैसे फ़ासीवादी संगठनों की साम्प्रदायिक राजनीति। इनके द्वारा षड्यन्त्र देश की आज़ादी के पहले ही शुरू कर दिये गये थे। जैसे चोरी-छिपे अयोध्या के विवादास्पद ढाँचे में “रामलला” की मूर्ति रखवाना। फिर धीरे-धीरे इन्होंने साम्प्रदायिकता को खाद-पानी देकर अस्सी के दशक में खुलकर अपना वीभत्स रूप दिखाना शुरू कर दिया। विवादास्पद ढाँचे को गिराने से पहले रथयात्रओं का आयोजन, साम्प्रदायिक दंगे, 2002 का गुजरात कत्लेआम आदि इनके प्रमुख षड्यन्त्र हैं। इसी साम्प्रदायिक राजनीति के कारण मुस्लिम आबादी अपने में ही सिमट कर रह गयी। उसे देश में दोयम दर्ज़े का नागरिक समझा गया। कांग्रेस ने भी समय-समय पर नरम साम्प्रदायिकता का कार्ड खेला है। इन्हीं कारणों की वजह से अल्पसंख्यक कट्टरता ने भी अपने पैर पसारे हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है। किन्तु यदि कोई भारत में कट्टरता का ठीकरा केवल अल्पसंख्यकों पर ही फोड़ दे और अपनी बदहाली के लिए उन्हें ही ज़िम्मेदार ठहरा दे तो उसकी मंशा को समझना ज़्यादा मुश्किल नहीं है। भाड़े के कलमघसीट अल्पसंख्यक आबादी के दर्द को क्या समझ सकते हैं!
अपने एक दूसरे लेख में भी चेतन भगत कुछ इसी तरह का विधवा विलाप करते है कि गोधरा काण्ड और उसके बाद हुए अल्पसंख्यकों के क़त्लेआम के लिए कोई व्यक्ति या समूह नहीं बल्कि हम स्वयं(!?) ही ज़िम्मेदार हैं, कि हमने अपने मन के अन्दर छिपे राक्षसों को नहीं मारा है! ये फरमाते हैं, “हम यह जानना ही नहीं चाहते कि आखिर ऐसा क्या है कि हम ट्रेनों को जलाने और दंगा करने के लिए इतनी आसानी से उत्तेजित हो जाते हैं। हम सोचते ही नहीं कि जो हुआ उसके लिए किसी तरह हम भी ज़िम्मेदार हैं। अपने आप से यह सवाल पूछिए – क्या किसी भी स्तर पर हम ऐसी भावनाएँ पालने के दोषी हैं, जो देश के लिए अच्छी नहीं हैं? समय आ गया है कि थोड़ा मन्थन करें, शर्मिन्दगी महसूस करें और इससे बाहर निकलें। इसके लिए किसी एक व्यक्ति को माफी माँगने की ज़रूरत नहीं है। इसकी बजाय हम सबको माफी माँगनी चाहिए। समय आ गया है कि हम अपने अन्दर के राक्षसों का सामना करें।” यहाँ पर असल में चेतन भगत शासक वर्ग के उसी दृष्टिकोण को रख रहे हैं जिसके अनुसार शोषित अपने शोषण के लिए स्वयं ही ज़िम्मेदार होता है। इसको इन्होंने ऐसे रखा है कि अल्पसंख्यक समुदाय अपनी प्रताड़ना के लिए स्वयं ही दोषी है। ‘अपने अन्दर राक्षसों को मारने’ के नाम पर बाहर घूम रहे राक्षसों को छूट देना कहाँ का इंसाफ़ है? “हिन्दुत्व” के नाम पर साम्प्रदायिकता की नपुंसक हुंकार का तो जैसे चेतन भगत को पता ही नहीं है। इसीलिए ये आरएसएस के गुर्गों का कहीं नाम तक नहीं लेते जबकि अजमेर शरीफ, मक्का मस्जिद, मालेगांव और समझौता एक्सप्रेस आदि में हुए विस्फोटों में इनका सीधे-सीधे हाथ होने के सबूत पूरे देश के सामने हैं। जनवरी, 2012 में श्रीराम सेने से जुड़े कुछ “कार्यकर्त्ताओं” ने तो कर्नाटक के बीजापुर के सिन्दगी तहसीलदार के कार्यालय पर पाकिस्तान का झण्डा ही फहरा दिया था, ताकि ये दंगों की आग में अपने हाथ सेंक सकें। शुक्र है समय रहते ये गुण्डे पकड़े गये वरना पता नहीं कितने बेगुनाह मुसलमान युवक सलाखों के पीछे होते। चेतन भगत के अनुसार गुजरात दंगों के लिए एक व्यक्ति (नरेन्द्र मोदी) को माफी माँगने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि हम सभी (?) को माफी माँगनी चाहिए। इन सब बातों से लगता है कि मोदी की ‘ब्राण्डिंग’ (यानी किसी को ब्राण्ड की तरह प्रस्तुत करके नकारात्मक छवि को सकारात्मक छवि के मुल्लमे तले ढँकना) की छोटी-मोटी ठेकेदारी चेतन भगत को भी मिली है! क्योंकि मोदी की ब्राण्डिंग की बड़ी ठेकेदार “ऐपको वर्ल्डवाइड” नामक एजेन्सी है, जिसे मोदी ने अगस्त 2007 से मार्च 2013 तक 25,000 डॉलर प्रतिमाह अपनी ब्राण्डिंग के लिए दिये थे। (ज्ञात हो इसी एजेन्सी की सेवाएँ अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी ली थी।)
अब ज़रा चेतन भगत की मोदी-भक्ति और राष्ट्र को धर्म से अलग करने के बारे में इनके दोहरे मापदण्ड को भी देखते हैं। अपने लेखों में अक्सर ही ये काफी चिन्तित रहते हैं, कि 2014 में भाजपा कैसे जीतेगी और प्रधानमंत्री की कुर्सी पर मोदी कैसे बैठें। अपने एक लेख में चेतन भगत बताते हैं कि मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँचाने के लिए भाजपा को क्या-क्या करना चाहिए। इनके अनुसार सही मात्रा में भगवाकरण हो, जाति की राजनीति का पूरा उपयोग होना चाहिए, माइक्रो कैम्पेनिंग का स्तर होना चाहिए जिसमें मोदी को ब्राण्ड की तरह से प्रस्तुत किया जा सके, भाजपा को पूरी तरह से मोदी का समर्थन करना चाहिए, मोदी की निर्णायक क्षमता का भरपूर प्रचार हो आदि। (देखें, “2014 में जीत का रास्ता कैसे निकलेगा?”) ये नीतीश कुमार को भाजपा से गठबन्धन तोड़ने पर सलाह देते हैं, “दरअसल यदि आपके मन में किसी की धर्मनिरपेक्षता को लेकर संशय है भी, तब तो आपकी और भी ज्यादा ज़रूरत है। ऐसे में आप साम्प्रदायिक प्रवृत्तियों पर अंकुश के लिहाज़ से बेहतर सन्तुलनकारी साबित होंगे। वैसे अगर राजनीतिक खेल की बात करें तो मोदी के प्रति आपकी हिचक का एक समाधान हो सकता है। मोर्चे पर कोई ऐसा प्रत्याशी हो सकता है, जो अधिक स्वीकार्य है और मोदी उसके पीछे हो सकते हैं। यह सामने रहेगा, जिससे आप खुश रहेंगे, मगर तब भी नियंत्रण मोदी का रहेगा। आप एक ब्राण्ड हैं। 2014 को एक असली संग्राम बनाएँ जिससे बेहतर योद्धा के सिर जीत का सेहरा बँधे।” अब अलग से यह बताने की जरूरत नहीं है कि हमारे नौदौलतिये “विचारक” चेतन भगत भारत में फ़ासीवाद के सबसे बड़े प्रतीक के प्रधानमंत्री बनने के लिए पलक-पाँवड़े बिछाकर एक चारण की तरह उसकी अभ्यर्थना में लीन हैं। अपनी नंगई को इतनी बेशर्मी के साथ रखने का कारण या तो इनकी बेवकूफी हो सकती है या इनकी अपनी शासक वर्गीय पक्षधरता किन्तु ऐसे कलमघिस्सुओं को भी पाठक मिलना सचमुच चमत्कार ही है। चेतन भगत के ही अनुसार हमारा देश चमत्कारों का देश है!
अब ज़रा एक चमत्कार चेतन भगत के दोगलेपन का भी देख लिया जाय। ‘एक मुस्लिम युवक का काल्पनिक पत्र’ नामक अपने लेख में इन्होंने कहा है, “भारतीय नहीं चाहते कि उनके धार्मिक नेता बताएँ कि किसे वोट दें और हम भारतीय हैं। बड़ी संख्या में भारतीय मुसलमान धर्म और राजनीति को अलग रखना चाहते हैं। यहाँ आप असल में मदद कर सकते है। आप ज़ोर दे सकते हैं कि भारत पहले आता है, हमारे समुदाय की कट्टर आवाजों को किनारे कर सकते है।” किन्तु दूसरी तरफ इन्होंने 2014 में भाजपा को जीतने के लिए क्या ब्रह्मज्ञान दिया है इसे भी देखते हैं। ये बताते हैं सही मात्र में भगवाकरण हो इनके अनुसार, “अगर काँग्रेस मुसलमानों पर निशान लगाती है तो भाजपा के पास हिन्दुओं पर निशान लगाने के अलावा कोई चारा नहीं है। फिर भी सकारात्मक हिन्दुत्व युवाओं पर बेहतर असर करेगा। सकारात्मक हिन्दुत्व धार्मिक क्रिया या सिद्धान्त नहीं है, यह भारत को आधुनिक, सुरक्षित, वैज्ञानिक, मुक्त, उदार और अच्छे संस्कार वाला समाज बनाने के सम्बन्ध में है।”
वाह रे “तर्कशिरोमणि”! लगता है ज़मीर का क्रियाकर्म ही कर चुके हो। ये दो मानक किसलिए हैं? मुस्लिमों को तो आप धर्म को राजनीति से जोड़ने के कारण फटकारते हैं, किन्तु “हिन्दुत्व” का वोट बैंक के लिए इस्तेमाल आपको ज़रूरी महसूस होता है? चन्द सिक्कों के लिए आंय-बांय-सांय कुछ भी लिख देना, क्या आई.आई.टी. और आई.आई.एम. में आपको यही शिक्षा मिली है? और ये “सकारात्मक हिन्दुत्व” का आविष्कार आपकी मौलिक देन है या इसे किसी संघी के मुखारविन्द से चुराकर लाये हो? महाशय किसी भी प्रकार की कट्टरता हमेशा समाज में ज़हर घोलने का ही काम करती है। “सकारात्मक हिन्दुत्व” का 2002 का गुजराती प्रयोग क्या इस बात को समझने के लिए काफी नहीं है? असल में फ़ासीवाद भी पूँजीवाद के तमाम चेहरों में से एक चेहरा होता है। होना तो यही चाहिए कि धर्म को राजनीति से अलग किया जाना चाहिए, लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था में इस बात की सम्भावना नगण्य होती है कि धार्मिक नारों और धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल न हो। दरअसल चेतन भगत की दोगली नीति उनके दिमाग में भरे पूर्वाग्रह और साम्प्रदायिकता के कूड़े को ही दिखाती है। एक कहावत है कि ‘यदि चूहा बिल्ली पर हँसे तो समझो उसका गड्ढा पास ही है’। दरअसल चेतन भगत पूरी तरह से आश्वस्त हैं कि उनके आका प्रधानमंत्री बन ही जायेंगे। या तो चेतन भगत संघियों के फ़ासीवादी पुरखों (हिटलर व मुसोलिनी) के हश्र से नावाकिफ हैं, या हिटलर का प्रचार मंत्री गोयबल्स, जिसका सोचना था कि ‘सौ बार बोलने से कोई झूठ भी सच बन जाता है’ इनका आदर्श है।
निष्कर्ष के तौर पर यही कहा जा सकता है, कि चेतन भगत जैसे भाड़े के कलमघसीट जिन्हें समाज, विज्ञान, इतिहास के बारे में ज़रा भी ज्ञान नहीं होता केवल अपने मूर्खतापूर्ण बड़बोलेपन के बूते ही अपनी बौद्धिक दुकानदारी खड़ी कर लेते हैं। महानगरों में मध्यम वर्ग के युवा आपको मेट्रो आदि में चेतन भगत की “रचनाएँ” पढ़ते आसानी से दिख जायेंगे। भारत जैसे देश में जो औपनिवेशिक दौर से ही बौद्धिक कुपोषण का शिकार है, चेतन भगत जैसों की दाल आसानी से गल जाती है। किन्तु इस प्रकार के बगुला भगतों की ख़बर लेना बेहद ज़रूरी है। इनके बौद्धिक ग़रूर को ध्वस्त करना मुश्किल नहीं है, किन्तु ज़रूरी अवश्य है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2013
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!
Excellent article !
लेख अच्छा है। लेकिन इतना लंबा क्यों ? इसे संक्षेप में भी कहा जा सकता था।