‘पहाड़ों में जवानी ठहर सकती है’, बशर्ते…
अपूर्व मालवीय
‘’आवश्यकता है एक घरेलू कामगार की। ‘पहाड़ी’, ‘गढ़वाली’, ‘कुमाँऊनी’ को प्राथमिकता दी जायेगी’’। 40-70 तक के दशक में दिल्ली मुम्बई जैसे महानगरों के अखबारों में अक्सर इस तरह के विज्ञापन दिखने में आते थे। इन विज्ञापनों से पहाड़ की जनता की गरीबी-बदहाली को समझा जा सकता है। उत्तर प्रदेश राज्य का हिस्सा होते हुए पहाड़ी व मैदानी क्षेत्रों के असमान विकास, उपेक्षा, सामाजिक-राजनीतिक व आर्थिक स्थिति में दोयम दर्जे के बर्ताव के कारण उत्तराखण्ड की जनता ने एक लम्बे संघर्ष के बाद अपना स्वतंत्र उत्तराखण्ड राज्य पाया। लेकिन राज्य बनने के बाद स्थिति और भी बदतर हुई है। जनता की जो उम्मीदें, आकांक्षाएँ राज्य बनने को लेकर थीं, वे आज टूटती सी नज़र आ रही हैं।
साल-दर-साल बढ़ते गये तकलीफों के पहाड़
90 के दशक में उत्तराखण्ड में रोज़गार पैदा करने के लिए बड़े पैमाने पर आई.टी.आई, पॉलिटेक्निक जैसी संस्थाएँ खोली गयीं लेकिन राज्य आन्दोलन के दौरान ये संस्थाएँ ‘बेरोज़गार पैदा करने वाली फैक्ट्रियों’ के नाम से मशहूर हुईं। राज्य आन्दोलन के दौरान यहाँ की जनता को लगा था कि जब अपना उत्तराखण्ड होगा तभी उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य, सम्मानजनक रोज़गार व बेहतर मूलभूत सुविधाएँ हासिल हो सकती हैं। लेकिन राज्य बनने के चार-पाँच वर्षों के बाद ही यहाँ की जनता की सारी उम्मीदें धराशायी होने लगीं। सिर्फ बेरोज़गारी के सन्दर्भ में देखें तो जब 9 नवम्बर 2000 को उत्तराखण्ड राज्य बना, उस समय यहाँ पंजीकृत बेरोज़गारों की संख्या करीब सवा दो लाख थी। लेकिन अब यह संख्या साढ़े नौ लाख के करीब पहुँच रही है। राज्य में औसत बेरोज़गारी दर देश की औसत बेरोज़गारी से दो फीसदी ज्यादा, यानी सात फीसदी है। ग्रामीण महिलाओं की बेरोज़गारी दर 11.6 फीसद और शहरी महिलाओं की 9.5 फीसद है, वहीं पुरुषों की बेरोज़गारी दर 6.1 फीसद है। बावजूद इसके वर्ष 2014 से 2017 तक केवल 11089 युवाओं को ही रोज़गार मिला। नौकरी के विज्ञापनों के सर्च इंजन ‘एडजुना डॉट इन’ के मुताबिक उत्तराखण्ड में कुल नौकरियों के 0.17 फीसद ही अवसर उपलब्ध हैं।
सारणी एक
15 – 59 आयु के व्यक्तियों की साल में रोज़गार की स्थिति
क्र. स. उत्तराखण्ड में देश में रोज़गार के महीने
- 69 फीसद 60.6 फीसद 12 महीने
- 24.3 फीसद 34.4 फीसद 6-11 महीने
- 0.6 फीसद 1.1 फीसद 1-5 महीने
- 6.1 फीसद 3.9 फीसद कोई काम नहीं
स्रोत आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18
रोटी के आकार का पता आँकड़ों से नहीं चलता
सात फीसद बेरोज़गारी दर के बरक्से जब हम रोज़गार में लगे हुए लोगों की स्थिति देखते हैं तो पता चलता है कि उत्तराखण्ड में 31 फीसद लोगों को पूरे साल रोज़गार नहीं मिलता है। (देखें सारणी एक)
इसके साथ ही उत्तराखण्ड में रोज़गार में लगे हुए व्यक्तियों की दैनिक व मासिक आय भी बहुत ही कम है। उत्तराखण्ड की 16.03 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रही है। यहाँ की औसत पारिवारिक आय और परिवार में कमाने वाले सदस्यों की स्थिति यह है कि यहाँ 9.5 फीसद परिवार ऐसे हैं जिनकी मासिक आय पाँच हजार रुपये से भी कम है और तकरीबन इतने ही परिवारों में कोई कमाने वाला सदस्य नहीं है। (देखें सारणी दो व तीन)
सारणी दो
उत्तराखण्ड में औसत पारिवारिक मासिक आय (रुपये में)
क्र. सं. परिवार मासिक आय
- 9.5 फीसद परिवार 5000 से कम
- 15.9 फीसद परिवार 5001 – 7500 तक
- 23.1 फीसद परिवा 7501 – 10000 तक
- 30.7 फीसद परिवार 10001 – 20000 तक
- 16.1 फीसद परिवार 20001 – 50000 तक
- 3.8 फीसद परिवार 50001 – 100000 तक
- 1.3 फीसद परिवार 100000 से अधिक
स्रोत आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18
सारणी तीन
उत्तराखण्ड में प्रति परिवार कमाने वाले सदस्योंं की संख्या
क्र. सं. उत्तराखण्ड देश स्तर पर कमाने वाले
- 46.5 फीसद 48.4 फीसद 1 सदस्य
- 28.9 फीसद 30.6 फीसद 2 सदस्य
- 11 फीसद 10.7 फीसद 3 सदस्य
- 4.2 फीसद 5.2 फीसद 4 या अधिक
- 9.5 फीसद 5.1 फीसद कोई नहीं
स्रोत आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18
‘ज्यों-ज्यों दवा की त्योंर-त्यों मर्ज़ बढ़ता गया’
राज्य बनने के सत्रह वर्षों के दौरान रोज़गार, सामाजिक सुरक्षा, बेहतर जीवन-यापन की सुविधाओं की तलाश में बेतहाशा पलायन हुआ है। स्थिति यह है कि अबतक 2 लाख 80 हजार 615 मकानों में ताले लटक रहे हैं। सत्रह वर्षों के तथाकथित विकास ने 32 लाख लोगों को अपना घर-बार छोड़ने को मज़बूर किया है। प्रदेश में अभी डबल इंजन की सरकार है। यानी राज्य व केन्द्र में भाजपा की सरकार है। इसके पहले कांग्रेस के शासन में भू-खनन माफियाओं की लूट व भ्रष्टाचार ने भाजपा को चुनावी फ़सल काटने की ज़मीन मुहैया करायी। चुनाव के दौरान डबल इंजन की सरकार के नारे लगाये गये! रुकी हुई विकास योजनाओं को गति व रोज़गार देने के वही पुराने वादे दुहराये गये। भाजपा सरकार के एक वर्ष के कार्यकाल की सिर्फ रोज़गार से सम्बन्धित जो उपलब्धि हासिल हुई है, उसमें यह है कि, ‘पिछले तीन वर्ष से जो पद खाली हैं, उन्हें समाप्त कर दिया जायेगा’, चार सौ सरकारी स्कूलों को बन्द कर दिया गया है, प्रदेश में शिक्षकों के 17 हजार पद खाली हैं, 59 प्रतिशत शिक्षक ठेके पर हैं, उत्तराखण्ड के विभिन्न विभागों-संस्थाओं में लगभग सत्तर हज़ार पद खाली हैं। (देखें सारणी चार)
सारणी चार
विभाग श्रेणी स्वीकृत पद खाली पद
राजकीय राजपत्रित क 7392 2777
राजपत्रित ख 12212 4413
अराजपत्रित ग 172348 37635
आराजपत्रित घ 71186 11763
सार्वजनिक राजपत्रित क 861 400
संस्थाएँ राजपत्रित ख — 1030
अराजपत्रित ग 19157 5102
आराजपत्रित घ 4217 914
सहायतित राजपत्रित क 1366 484
संस्थाएँ राजपत्रित ख 1223 294
अराजपत्रित ग 18142 5930
आराजपत्रित घ 2337 191
स्रोत: अर्थ एवं संख्या निदेशालय नियोजन विभाग, उत्तराखण्ड
इन सभी पदों को यदि भर दिया जाये फिर भी यह बेरोज़गारी में केवल छ: फीसदी की ही कमी ला सकती हैं। इस वर्ष को उत्तराखण्ड सरकार रोज़गार वर्ष के रूप में मना रही है और सरकार ने इस वर्ष बेरोज़गारों को रोज़गार देने का लक्ष्य बनाया है ‘छ: हजार’! वित्त मंत्री प्रकाश पंत महोदय का कहना है कि सरकार का ज़ोर स्किल इंडिया के ज़रिए युवाओं को स्व-रोज़गार के लायक बनाना है। इसके लिए सरकार निजी पूँजी निवेश और औद्योगिकीकरण को बढ़ावा देगी। अभी उत्तराखण्ड में विभिन्न पेशों में रोज़गार की प्रकृति निम्न हैं
स्व–रोज़गार 48.8 फीसद
वेतनभोगी 28.5 फीसद
दिहाड़ी 20.7 फीसद
अनुबन्धित 02.0 फीसद
यानी आने वाले समय में वेतन भोगी का प्रतिशत और भी कम होता जायेगा। एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक विभिन्न रोज़गार परक योजनाओं में रोज़गार का लक्ष्य पाने का जो प्रतिशत है वह नीचे सारणी-पाँच में देखें।
सारणी पाँच
क्र. सं. राज्य का नाम मनरेगा प्रधानमंत्री रोज़गार स्वूर्ण जयन्ती ग्राम स्वर्ण जयन्ती अन्य
गारण्टी कानून स्व-रोज़गार योजना शहरी रोज़गार योजना
- उत्तराखण्ड 32.3 फीसद 0.1 फीसद — — 0.7
- हिमाचल प्रदेश 20.1 फीसद — — — 0.2
- उत्तर प्रदेश 14.9 फीसद 0 0 0 1.3
- अखिल भारत 21.9 फीसद 0.2 फीसद 0.4 फीसद 0.1 फीसद 1.5
स्रोत: लेबर ब्यूरो, चंडीगढ़
यानी उत्तराखण्ड में 32.3 प्रतिशत आबादी को मनरेगा से लाभ प्राप्त हुआ। हम सभी जानते हैं कि मनरेगा जैसी योजनाओं में मिलने वाली मज़दूरी कितनी है! ये मज़दूरी एक व्यक्ति को बमुश्किल तमाम जिलाये रख सकती है। इससे वह अपने परिवार का गुज़र-बसर नहीं कर सकता है। और ऊपर से तुर्रा यह कि इन योजनाओं का लाभ दिलाने के लिए सरकार खुद ही अपनी पीठ ठोंक रही है। इन योजनाओं से जनता का तो नहीं लेकिन सरकार का ज़रूर भला हो रहा है कि, एक बड़ी आबादी को वह ग़रीबी रेखा से ऊपर दर्शा दे रही है, और इसके बेशर्म प्रशासक ये कहते बाज नहीं आ रहे हैं कि अगर ”मानकों” को थोड़ा बदल दिया जाये तो हम और ”बेहतर परिणाम (आँकड़े)” प्रस्तुत कर सकते हैं।
सरकार के इन ”बेहतर परिणामों” के बावजूद अभी हाल ही में पूरे प्रदेश में बेरोज़गार युवाओं ने सरकार के खिलाफ़ प्रदर्शन किया। प्रदर्शन में रोज़गार की जगह लाठियाँ व जेल मिली। इन नौजवानों की माँग थी कि खाली पड़े पदों को भरा जाये, अतिथि शिक्षकों को नियमित किया जाये, महीनों से जारी पदों की विज्ञप्तियों पर जल्द परीक्षाएँ करायी जायें। उत्तराखण्ड राज्य में कई बार खाली पड़े पदों की विज्ञप्तियाँ निकालकर बेरोज़गारों से परीक्षा शुल्क तक वसूल लिये गये हैं लेकिन परिक्षाएँ नहीं करायी गयीं हैं। कहा तो यह भी जा रहा है कि इन परीक्षा शुल्कों की बन्दरबाँट भी हो चुकी है। बहरहाल सरकार की रीति और नीति से यह नहीं लगता है कि उत्तराखण्ड में बेरोज़गारी और पलायन की समस्या का जल्दी कोई हल निकलने वाला है।
अभी उम्मीदें पिंजरें में कैद हैं
कहते हैं कि ‘पहाड़ों में पानी और जवानी ठहर नहीं सकती’। यह कहावत पहाड़ के दर्द को बताती है। इसी ‘दर्द’ ने पहाड़ की जनता को अलग राज्य बनाने के संघर्ष के लिए उकसाया। लेकिन राज्य बनने के बाद भी जिन कारणों से पहाड़ की जनता की सारी उम्मीदें, आकांक्षाएँ टूटी हैं उन कारणों की पड़ताल किये बिना उत्तराखण्ड राज्य में किसी भी समस्या का समाधान सम्भव नहीं है। अलग राज्य बनने के सत्रह वर्षों के दौरान जिस तरह पूँजी का प्रवेश, कॉरपोरेटों, भू-खनन माफियाओं की पहुँच बढ़ी है, उसने पूरे पहाड़ की जैव विविधता, पर्यावरण, नदियों, खेतों, वनों-बगीचों को तबाह कर दिया है। ये तबाही उत्तर प्रदेश राज्य के हिस्से में रहते हुए भी देर-सबेर आती ही। लेकिन अलग राज्य बन जाने से स्थानीय लुटेरों के नये तबकों का जन्म हुआ है और इस तबके की मुनाफे की हवस ने पहाड़ के श्रम व प्राकृतिक सम्पदा के दोहन को और तेज़ कर दिया है। इसी लिए पिछले सत्रह वर्षों के दौरान राज्य में पलायन भी बहुत तेजी से बढ़ा है। विकास के नाम पर विनाश की नीतियों को जोर-शोर से लागू करने के परिणाम तो सामने आने ही हैं।
ऐसा नहीं है कि पहाड़ में विकास नहीं हो सकता है। पहाड़ के भौगोलिक स्वरूप को देखते हुए यहाँ की जैव विविधता और पर्यावरण को बरकरार रखते हुए एक अलग तरह के विकास का मॉडल खड़ा किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए वे नीतियाँ अपनानी पड़ेंगी जो मुनाफे की विरोधी हों और जो समस्ती मानव व प्रकृति की बेहतरी के लिए हों।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मई-जून 2018
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