बेरोज़गारी की मार झेलती युवा आबादी

अविनाश

निजी मालिकाने पर आधारित पूँजीवादी व्यवस्था अपनी स्वाभाविक गति से समाज में एक तरफ़ कुछ लोगों के लिए विलासिता की मीनारें खड़ी करती जाती है तो दूसरी ओर करोड़ों-करोड़ छात्रों समेत आम आबादी को गरीबी और भविष्य की अनिश्चितता के अँधेरे में ढकेलती है। मुनाफ़ा पूँजीवादी व्यवस्था की चालक शक्ति होती है। आज विश्व पूँजीवाद मुनाफ़े की गिरती दर के असमाधेय संकट के दौर से गुजर रहा है। पूँजीवादी होड़ से पैदा हुई इस मंदी की कीमत छँटनी, तालाबन्दी, भुखमरी, दवा-इलाज़ का अभाव, बेरोज़गारी आदि रूपों में मेहनतकश वर्ग को ही चुकानी पड़ती है।
यूँ तो बेरोज़गारी की समस्या आम जनता के किसी न किसी हिस्से के सामने हमेशा खड़ी रहती है। मगर आर्थिक संकट के दौरान बहुत बड़ी मज़दूर आबादी बेरोज़गारी के नर्ककुण्ड में धकेल दी जाती है। मौजूदा दौर में भारत की अर्थव्यवस्था भयंकर मंदी के दौर से गुजर रही है। कोरोना महामारी के दौरान बिना योजना और तैयारी के लगाये गए लॉकडाउन से स्थिति और भी गंभीर हो गयी है। सीएमईआई के आंकड़ों के मुताबिक लॉकडाउन के दौरान औपचारिक और अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले लगभग सवा बारह करोड़ लोगों की रोज़ी-रोटी छिन गयी थी। लॉकडाउन के पहले की स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं थी। जुलाई 2017 के 3.7 फीसदी बेरोज़गारी दर के मुकाबले मार्च 2020 में बेरोज़गारी दर 8.7 फीसदी पर पहुंच चुकी थी। सीएमईआई के ही एक अन्य आंकड़े के मुताबिक अप्रैल-अगस्त के दरमियान लगभग 2.1 करोड़ वेतनभोगी कर्मचारी नौकरी से हाथ धो बैठे। बढ़ती बेरोज़गारी और छँटनी का डर दिखाकर पूँजीपति रोज़गारशुदा लोगों को भी कम मज़दूरी/वेतन पर काम करने के लिए मजबूर करता है। मतलब साफ़ है कि मुनाफ़े के लिए जारी पूँजीवादी अराजक प्रतिस्पर्धा की वजह से पैदा हुई मन्दी का संकट एक तरफ नौजवानों को बेरोज़गारी में धकेलता है तो दूसरी ओर रोज़गारशुदा लोगों की ज़िन्दगी को भी कठिन बना देता है। पूँजीपतियों के मुनाफ़े की हवस से पैदा हुये संकट की कीमत इस रूप में आम जनता चुकाती है।
1991 में आर्थिक उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था के दरवाजे वैश्विक पूँजी के लिए खोल देने के बाद युवाओं के लिए सरकारी नौकरियों के अवसर कम होने लगे तो वहीं शुरुआती तेज़ी के बाद अब पूँजीवादी होड़ की वजह से प्राइवेट सेक्टर में भी नौकरी पैदा होने की दर लगातार कम हो रही है। सातवें वेतन आयोग के आँकड़ों के मुताबिक 1995 में केंद्र सरकार के अलग-अलग विभागों में (सैन्य बलों को छोड़कर) कुल नौकरी करने वालों की संख्या 39 लाख 82 हज़ार थी, वह 2011 में घटकर 30 लाख 87 हज़ार पर आ गयी। पिछले दो सालों में 16 राज्यों मे कोई भर्ती ही नहीं हुई है। स्थिति यह है कि एक सीट के लिए औसतन 5000 फॉर्म भरे जा रहे हैं। मोदी के सत्ता में आने के बाद नयी भर्तियों की जो रफ्तार है उससे सहज ही समझा जा सकता है कि अब स्थिति क्या होगी? दूसरी ओर मन्दी की वजह से उत्पादन के क्षेत्र में कम होते निवेश (2009-14 के बीच निजी क्षेत्र में मशीनरी और संयंत्र में औसतन सालाना निवेश दर 14 प्रतिशत से घटकर 2016-18 के बीच 6.4 प्रतिशत पर आ गयी।) से प्राइवेट सेक्टर में भी नौकरी पैदा होने की दर लगातार कम हो रही है। 2004-09 के बीच निजी क्षेत्र में रोज़गार सृजन की दर 10.5 से गिरकर 2014-18 के दौरान 1.3 फीसदी पर आ गयी थी। इसमें दो चीज़ों पर ध्यान देने की ज़रूरत है। पहली बात कि यह वह दौर है जब मोदी सरकार और उसका भोंपू मीडिया अर्थव्यवस्था के मज़बूत होने के दावे कर रहे थे और दूसरा कि जो रोज़गार पैदा हुए है उसका भी बड़ा हिस्सा ठेका मज़दूरों, कॉन्ट्रैक्ट आदि का है। इसको सीएमईएआई के इस आंकड़े से समझा जा सकता है।
जनवरी-अप्रैल-2016 में देश में व्हाइट कालर मज़दूरों की संख्या 1.25 करोड़ थी जो अप्रैल- जुलाई 2020 में घटकर 1.21 करोड़ रह गयी है। एनएसएसओ पीएलएफएस सर्वे (नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइज़ेशन के पेरिओडिक लेबर फोर्स सर्वे- 2017-18) की रिपोर्ट आज के भारत की स्थिति को और साफ-साफ बयान कर रही है। यही कारण था कि मोदी सरकार इस रिपोर्ट को जनता के बीच आने से रोकने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रही थी। रिपोर्ट के मुताबिक बिना अनुबन्ध वाले नियमित मजदूरों की संख्या 2011-12 के 64.4% से बढ़कर 2017-18 मे 71.1% हो गयी और सवेतन छुट्टी के अधिकार से वंचित नियमित मजदूरों की तादाद 50% से बढ़कर 54.2% हो गयी है। मतलब साफ है कि अब प्राइवेट सेक्टर में भी बेहतर नौकरियों के अवसर लगातार सिकुड़ते जा रहे है। फ़ासिस्ट मोदी सरकार की ‘फिक्स्ड टर्म एम्प्लॉयमेंट’ की नीति इस स्थिति को और भयंकर करने वाली है। हरदम बेरोज़गार नौजवानों को उपदेश देने के मूड में रहने वाला भारत का खाया-पिया-अघाया मध्यवर्ग, गोदी मीडिया चीख़-चीख कर उद्यमी बनने का सलाह देते रहते है। अब जरा आइये कुछ तथ्यों से देखें कि देश में स्वरोज़गार करने वाले युवाओं की क्या स्थिति है?
2018-19 की सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक स्वरोज़गार करने वाले व्यक्तियों की औसत मासिक आय 8,363 रुपये थी, जो बहुत से प्रदेशों में मिलने वाली न्यूनतम मजदूरी से भी कम है। 95 फ़ीसदी से अधिक स्वरोज़गार करने वाले किसी दूसरे को काम पर नहीं रखते हैं। मतलब साफ है ये 95 फीसदी का आँकड़ा नौजवानों की वह आबादी है जो 28-30 साल की उम्र तक तो नौकरी की तलाश करती है, और फिर कुछ न मिलने कि स्थिति में रेहड़ी-खोमचा लगाकर या छोटी-मोटी दूकान खोलकर किसी तरह से जीवन यापन करती है। स्वरोज़गार करने वालों के लिए एक तो आज की महंगाई में इतनी कम आमदनी में खर्च चलना भी मुश्किल है ऊपर से छोटी पूँजी का बड़ी पूँजी से प्रतिस्पर्धा में पिछड़ना निश्चित है, इसलिए स्वरोज़गार में हर-हमेशा भविष्य का संकट मुँह खोले खड़ा रहता है।
बेरोज़गारी की चक्की में सबसे ज्यादा नौजवान पिस रहे हैं। देश का हर पाँचवा डिग्री होल्डर रोज़गार के लिए भटक रहा है। देश में ग्रेजुएट बेरोज़गारों की तादाद सवा करोड़ के ऊपर पहुँच चुकी है। अंडर ग्रेजुएट नौजवानों में औसत बेरोज़गारी की दर 24.5% पहुँच चुकी है। मतलब यह कि देश का हर चौथा डिग्रीधारी बेरोज़गार है। वहीं 21-24 साल के नौजवानों में यह स्थिति और भी गंभीर है। इस आयु वर्ग का हर दूसरा नौजवान स्नातक की डिग्री लिए बेरोज़गार घूम रहा है।

ग्राफ 1 में 21-24 आयु वर्ग के कॉलेज/यूनिवर्सिटी से निकलने वाले छात्रों को दर्शाता है, जो बेहतर नौकरी के लिए सरकारी विभागों में भर्तियों की तैयारी करते रहते है। फ़ासीवादी सरकार नौकरियाँ पैदा करने की जगह सरकारी भर्तियों पर अप्रत्यक्ष रोक लगा चुकी है। 2014-15 में देशभर में कुल 1,13,524 सरकारी भर्तियाँ हुईं तथा पब्लिक सेक्टर मे कुल 16.91 लाख लोग कार्यरत थे, वह 2016-17 में घटकर एक लाख और 15.23 लाख पहुँच गयी है। जो नौकरियाँ आ भी रही रही है वो भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जा रही है। अदालती कार्रवाई भर्तियों का एक आवश्यक चरण बन गया है। इसीलिए हताशा-निराशा का शिकार होकर आत्महत्या करने वाली छात्र आबादी में सबसे बड़ा हिस्सा इसी आयु वर्ग का है। 30 साल आयु वर्ग आते-आते बेरोज़गारी दर में अचानक बहुत तेज़ गिरावट आई है (हालाँकि तब भी बेरोज़गारी दर 13% है जो कि भयानक स्थिति है)। इसका कतई मतलब यह नहीं है कि यह आयु वर्ग आते-आते ज़्यादातर लोगों को रोज़गार मिल जाता है बल्कि इस उम्र तक पहुँचते-पहुँचते छात्र नौकरी पाने की आस छोड़ रेहड़ी-खोंमचा लगाने, ई-रिक्शा चलाने आदि काम करने लगते है। जिसको यह बेशर्म व्यवस्था सेल्फ एम्प्लायड का “खूबसूरत” नाम देती है।

कम होते रोज़गार के अवसर

बेरोज़गारी का संकट दिन प्रति दिन और विकराल रूप ग्रहण करता जा रहा है। सरकारों के तमाम दावों के विपरीत आबादी के अनुपात में रोज़गार सृजन की बात तो दूर, जो नौकरियाँ पहले से थीं वो भी खत्म होती जा रही हैं। सरकारी विभागों मे निकलने वाली नौकरियाँ लगातार कम होती जा रही हैं। दूसरी ओर हर साल करोड़ों छात्र ‘जॉब मार्केट’ मे दाखिल हो रहे हैं, लाखों छात्र निराशा और अपराधबोध की वजह से अवसाद के शिकार हो रहे हैं। अब अवसाद नौजवानों की ज़िन्दगी पर भारी पड़ने लगा है। एनसीआरबी के आँकड़ों के मुताबिक 2018 में हर घंटे देशभर में रोज़गार और स्वरोज़गार से जुड़े तीन नौजवानों ने आत्महत्या की। आइये कुछ आंकड़ों के माध्यम से देखते है कि आज देश में सरकारी नौकरियों की क्या स्थिति है?

ग्राफ 2 से स्पष्ट है निम्न से लेकर उच्च स्तर तक की सभी सरकारी नौकरियाँ लगातार सिकुड़ती जा रही हैं। एसएससी-सीजीएल के लिए 2012 की तुलना में 2020 में केवल 40% भर्तियाँ बची हैं। आईबीएसपी-पीओ में 2012 की तुलना में लगभग 20% भर्तियाँ बची है। यही स्थिति अन्य परीक्षाओं की भी है। 1991 की नयी आर्थिक नीति के बाद से केन्द्र और राज्य सरकार की नौकरियाँ लगातार सिकुड़ती जा रही है।

ग्राफ 3 दर्शाता है कि केन्द्र सरकार की नौकरियाँ 1995 के बाद 1.67% की दर से खत्म होती जा रही है। सरकार और सरकार के टुकड़ों पर पलने वाले बुद्धिजीवी तर्क देते रहते है की सरकार के पास पैसे ही नहीं हैं तो नौकरियाँ कहाँ से दी जाएगी। अब आइये इस तर्क के खोखलेपन को देखा जाय।
लोकसभा 2019 के चुनाव में 543 सीट के लिए 839 उम्मीदवारों का पर्चा दाखिल हुआ था। संवैधानिक तौर पर हर उम्मीदवार को 70 लाख खर्च करने कि अनुमति थी। लेकिन लोकसभा चुनाव के 75 दिनों मे 56,213 करोड़, महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में 806 करोड़, हरियाणा में 252 करोड़, झारखंड में 226 करोड़, दिल्ली मे तक़रीबन 200 करोड़ रुपये स्वाहा हो गए। ध्यान रहे कि ये सब आधिकारिक आँकड़े है। पर्दे के पीछे का खर्च इससे कई गुना ज़्यादा है लेकिन हम आधिकारिक आँकड़ों को ही लेकर चलते हैं। जब देश मे चुनाव मे खर्च करने के लिए इतने पैसे हैं, तो रोज़गार सृजन के लिए निवेश क्यों नहीं हो सकता। जितना ख़र्च 2018-20 तक चुनावों में किया गया है, इतने में 5 लाख से ज़्यादा नौजवानो को रोज़गार दिया जा सकता है और उनके वेतन और पेंशन के लिए भी नहीं सोचना पड़ेगा। रही बात खाली पदों की तो अकेले केन्द्र सरकार के विभागों में 4,20,547 पद खाली पड़े है। और अगर राज्य सरकारों में खाली पड़े पदों को भी जोड़ लिया जाय तो यह संख्या 90 लाख पार कर जाएगी।
चूँकि लूट और मुनाफ़े पर टिकी हुई पूँजीवादी व्यवस्था के लिए बेरोज़गारों का होना पूँजीपतियों के मुनाफ़े के लिए सेहतमन्द होता है। ऐसे में इस व्यवस्था की परिधि में रहकर बेरोज़गारी से निजात पाने के बारे में सोचना अन्ततोगत्वा दिवास्वप्न साबित होगा। आज ‘सबको शिक्षा, सबको काम’ के नारे के इर्द-गिर्द एक बड़ी लामबन्दी क़ायम करते हुए आन्दोलन छेड़ने की ज़रूरत है और इस संघर्ष को पूरी पूँजीवादी व्यवस्था के खिलाफ़ चलने वाले व्यापक संघर्ष से जोड़े बग़ैर इसका कोई हल नहीं निकल सकता है। असल मायने में इस समस्या का समाधान न्याय और समता पर आधारित समाजवादी समाज में ही सम्भव है।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, नवम्बर 2020-फ़रवरी 2021

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