पूँजीवाद का ढकोसला और डार्विन का सिद्धान्त
कुणाल, दिल्ली
12 फ़रवरी 2009 को चार्ल्स डार्विन के जन्म के 200 साल पूरे हुए। इसी साल नवम्बर में उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘ऑन द ओरिजिन ऑफ़ स्पीशीज़’ के प्रकाशन को भी 150 साल हो जायेंगे।
डार्विन ने प्रकृति में विविधिकरण को सामान्य वंशावली (कॉमन डिसेन्ट) से क्रमिक विकास (एवोल्यूशन) की वैज्ञानिक व्याख्या की स्थापना की। जानवरों व पौधों की प्रजातियों के असम्बद्ध, ‘ईश्वर द्वारा पैदा की गई’ या अपरिवर्तनीय होने को खारिज करते हुए प्रजातियों के एक लम्बी प्राकृतिक प्रक्रिया के दौरान निरन्तर परिवर्तन और अनुक्रमण से उत्पन्न होने की वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत की। डार्विन ने आज से 150 साल पहले ही ‘ईश्वर द्वारा जीवन की उत्पत्ति’ के विचार के ऊपर अनुत्तरित प्रश्न-चिन्ह खड़ा कर दिया था। लेकिन आज भी अमेरिका व यूरोप में डार्विनवाद को खण्डित करने के प्रयास जारी हैं। अमेरिका के सार्वजनिक स्कूलों के पाठ्यक्रमों से ‘थ्योरी ऑफ़ एवोल्यूशन’ की जगह ‘बुक ऑफ़ जेनेसिस’(बाईबल का पहला खंड) को प्राथमिकता दी जा रही है। पिछले कुछ सालों से धार्मिक संस्थाओं से सम्बद्ध स्कूलों की संख्या में भी बढ़ोत्तरी हुई है। अमेरिका में फ़ैले विभिन्न सृष्टिवादी संगठन, बच्चों की शिक्षा का खर्चा स्वयं उठा कर, इन गैर-सरकारी स्कूलों में दाखिला करवा रहे हैं। इस स्कूलों में सिर्फ़ डार्विनवाद को खारिज कर सृष्टिवाद के आधार पर शिक्षा दी जाती है। बचपन से बाईबल के अक्षरों के साथ ईसाई होने की ‘श्रेष्ठता’ का भी बोध करवाया जाता है। अन्य सभी धर्मों को ग़लत बताते हुए यह धार्मिक कट्टरपंथ की ज़मीन तैयार करने के प्रचार केन्द्र भी बन जाते है। अमेरिका की कट्टरपंथी राजनीतिक ताकतें, चर्चों के एक व्यापक संरचनात्मक ढाँचे के साथ मिल के सार्वजनिक व गैर-सरकारी शिक्षा में डार्विनवाद को हटा कर सृष्टिवाद व बाईबल को लागू करवाने की एक प्रभावी ‘पावर मशीन’ बन गई है। साथ ही इनका जोर सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली को खत्म कर प्राईवेट स्पान्सरशिप से चलने वाले स्कूलों को खड़ा करने पर भी है।
ब्रिटेन में सन 2000 तक, सरकारी स्कूलों में डार्विन को पढ़ाया जाता था। लेकिन 2000 से, प्राईवेट स्पान्सरशिप द्वारा चलाये जाने वाले सरकारी स्कूलों को भी शुरू कर दिया गया। इसका सीधा नतीजा यह निकला है कि अब इंग्लैंड के बड़े-बड़े धन कुबेर प्राईवेट स्पान्सरशिप देकर पाठ्यक्रम से डार्विन को हटा कर बाईबल व ‘इंटेलिजेण्ट डिज़ाईन’ लगवा रहे हैं। सृष्टिवाद व धार्मिक ग्रंथों को कक्षाओं में लाने के प्रयास यूरोप के अन्य देशों में भी जारी हैं।
विश्व के सबसे ‘उन्नत’ देशों में विज्ञान को इतने खुले रूप में खारिज होते सुन हमें आश्चर्य ज़रूर हो सकता है। यह तथ्य विचार योग्य है कि जिन देशों में दुनिया के सबसे आधुनिक शोध संस्थान व सबसे बेहतरीन विश्वविद्यालय हों वहाँ विज्ञान द्वारा 150 साल पहले ही खडिण्त की जा चुकी शिक्षाओं व विचारों को पुनः स्थापित करने के प्रयास क्यों बढ़ रहे हैं? अगर हम धार्मिक शिक्षाओं, सृष्टिवाद या ‘इंटेलिजेण्ट डिज़ाईन’ जैसे विचारों के समाज पर पड़ने वाले प्रभाव की पड़ताल करें तो उत्तर मिल सकता है। आज सृष्टिवादी व धार्मिक कट्टरपंथी किसी भी वैज्ञानिक तथ्य के जरिए डार्विनवाद को चुनौती नहीं दे सकते । इसलिए यह लोगों की भावनाओं को निशाना बनाते हुए अविश्वास पैदा करने वाले तर्कों को पेश करते हैं। इनका मानना है कि-‘‘क्रमिक विकास का मतलब है योग्यतम की उत्तरजीविता’’। इस सिद्धांत को समाज पर लागू कर, पूँजीवादी जनतंत्र के आधार के रूप में पेश किया जाता है। अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि सब लोगों को प्रतियोगिता के समान अवसर उपलब्ध हैं। जो सबसे योग्य है, वह जीत कर आगे निकल जायेगा बाकी जो योग्यतम नहीं है उनकी समाज में कोई जगह नहीं है। यह तर्क भी दिया जाता है कि प्रकृति मानव समाज का एक सीमा तक ही बोझ उठा सकती है। इसलिए आबादी के एक हिस्से का समय-समय पर प्राकृतिक विपत्तियों, कुपोषण, गरीबी से सफ़ाया हो जाना आवश्यक है। जो योग्य है वह जियेगा बाकी चाहे मरें या घुट-घुट कर जिएँ। इसे सामाजिक डार्विनवाद भी कहते है। यह पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का चारित्रिक गुण ही है, कि यह सिर्फ़ मुट्ठी भर आबादी को ही जीने की बुनियादी ज़रूरतें मुहैया कराती है-रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, रोज़गार सिर्फ़ मुट्ठी भर आबादी को। यानी पूँजीवाद स्वयं ही सिर्फ़ एक छोटी सी आबादी को जीने के योग्य छोड़ता है और फ़िर डार्विनवाद की गलत व्याख्या कर अपना औचित्य साबित करने की कोशिश भी करता है।
दूसरी ओर धार्मिक कट्टरपंथी व नस्लवादी ताकतें भी ‘सामाजिक डार्विनवाद’ का प्रयोग कर ‘श्रेष्ठतम’ और ‘योग्यतम’ का प्रचार कर लोगों के बीच नफ़रत पैदा करने का काम करतीं है।
लेकिन योग्यतम की उत्तरजीविता का सिद्धांत अलग-अलग प्रजातियों के बीच लागू होता है न कि एक ही प्रजाति के सदस्यों के बीच। डार्विन के अनुसार किसी भी प्रजाति की उत्तरजीविता व विकास के लिए उसके सदस्यों के बीच आपसी निर्भरता व सहयोग की आवश्यकता होती है। इसलिए योग्यतम की उत्तरजीविता का सिद्धान्त मानव समाज के ऊपर लागू नहीं किया जा सकता।
सृष्टिवाद कई रूप में व्यवस्था की सेवा करता है। एक तरफ़ तो यह विभिन्न धर्मों, नस्लों, जातियों के लोगों को आपस में लड़ा कर बुनियादी सामाजिक समस्याओं से ध्यान भटकाने में मदद करता है। दूसरी तरफ़ यह सारे वैज्ञानिक तथ्यों को खारिज कर ईश्वर के अस्तित्व का प्रचार करता है। इसके अनुसार मानव समाज को, जीवन की रोजमर्रा की गतिविधियों और समस्त प्राकृतिक व सामाजिक परिघटनाओं को ईश्वर नियंत्रित करता है। आम आबादी इसका यह अर्थ निकालती है कि उसकी सारी समस्याओं का हल भी इसी सर्वशक्तिमान ईश्वर के पास है। नतीजतन एक व्यापक आबादी भ्रमित होकर ईश्वर से झूठी उम्मीद लगाये जीती रहती है। यह आबादी ईश्वर और परमात्मा के मायाजाल से बाहर आकर कभी अपने जीवन की स्थितियों को पूरे समाज की समस्याओं से जोड़ते हुए उनका हल निकालने के बारे में सोच तक नहीं पाती है। ऐसे में सृष्टिवाद को बढ़ावा मिलता है। किस्मत का रोना रोने, ‘हमेशा से ही शोषण चलता आ रहा है’, ‘ऊपर वाला सब ठीक कर देगा’ में जनता में पूँजीवाद की स्वीकृति का भाव अन्तर्निहित होता है। डार्विनवाद को खारिज करने का एक और बड़ा कारण यह है कि डार्विनवाद मानव समाज को ईश्वर द्वारा पैदा किये जाने और नियंत्रित होने को नकार देता है। इसका यह अर्थ निकलता है कि मानव समाज के अपने गति के नियम होते हैं, जिनके जरिये यह निरन्तर बदलता हुआ आगे बढ़ता रहता है। यानी यह समाज पूँजीवाद पर ही ठहरेगा नहीं, यह यहाँ से आगे भी जायेगा। यह विचार पूँजीवाद के अस्तित्व के लिए ख़तरनाक है, क्योंकि यह शिक्षित आम आबादी के बीच इस समाज को बदलने की उम्मीद को पैदा कर देगा।
आज जब पूँजीवाद अपनी विलम्बित आयु जी रहा है, मानव सभ्यता को नया देने के लिए इसके पास कुछ भी नहीं बचा है तो यह अपनी आयु को थोड़ा ओर खींचने के सारे सम्भव प्रयास कर रहा है। यह बीमार बूढ़ा पूँजीवाद अब अतीत की ओर देख रहा है। शिक्षा-प्रणाली में हेर–फ़ेर कर आज यह आम आबादी को विज्ञान से दूर तो रख सकता है लेकिन अपनी जीवन स्थिति से सीखते हुए पूँजी की बर्बर लूट और जीवन के बदतर होते हालातों के चलते यह इस आबादी को वैकल्पिक समाज बनाने के विज्ञान से दूर नहीं रख सकता है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अप्रैल-जून 2009
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