एक दिन…
सारंग, दिल्ली
नहीं समझ आता कि लिखूँ-या इन उदगारों को अपने अन्दर ही रखूँ। डर लगता है शब्द इनकी तीव्रता को कम न कर दें, कहीं उनकी गहराई को उथला न बना दें। लेकिन हिम्मत कर मैंने क़लम उठा ही ली। आज सड़क पर तपती दुपहरी, और जलती लू में मैंने दो बच्चों को एक छोटे से फटे कपड़े के टुकड़े पर सोते देखा। सड़क से लगे हुए फुटपाथ पर, जहाँ कीकर के पेड़ लगभग न के बराबर छाँह दे रहे थे। फुटपाथ के आधे हिस्से पर ये दोनों बच्चे सो रहे थे, एक मुश्किल से तीन साल का होगा और दूसरा पाँच से कम का। आते-जाते लोग इन दो बच्चों से बेख़बर अपनी राह आ जा रहे थे। लोगों के जूतों की धूल इन पर निश्चित ही पड़ रही होगी। लेकिन इसकी क्या बात करें, जबकि वहाँ अंगारे बरसाती धूप और आग उगलती हवा चल रही थी। कैसे इन बच्चों के शरीर इन्हें झेल रहे होगें। तभी उस बस में एक बुजुर्ग, अपनी लाठी खटकाता, धूल से अँटे और पसीने से लथपथ चेहरे के साथ आँखों में छलकते आँसू लिए आता है जिसमें मैं सफर कर रही थी। उसकी आवाज़ रुइन्दा है। नहीं सुन पाई कि कहाँ से आया है पर उस जगह की कठिनाइयों का जिक्र करते हुए वह बता रहा था कि वहाँ पानी ट्रेन पहुँचा रही है, और कि रोजी-रोटी की तलाश में वह इस महानगर दिल्ली में अपने पूरे परिवार के साथ आ गया है। और पिछले तीन-चार दिनों से उन्हें कोई रोज़गार नहीं मिला है। इस वजह से परिवार की कई औरतों सहित छोट-छोटे बच्चे सड़कों पर हैं और पिछले दो दिनों से सभी भूखे हैं, उन्हें खाने-पीने को कुछ नहीं मिला है। बस में कुछ के चहरे ऐसे बन गए कि ‘अरे! ये तो रोज की बात है!’ यह बात तो सही है। यह रोज़ की ही बात है जब ऐसे वाकये सामने आते हैं। लेकिन सोच में पड़ गयी कि यह कैसी दुनिया है जिसमें एक बुजुर्ग अपने आत्मसम्मान को दरकिनार कर अजनबियों के सामने हाथ फैला रहा है और उसके बच्चे फुटपाथ पर गर्म लू के थपेड़े खाते पड़े हैं?
अपने कमरे पर आती हूँ। इस इलाके में चारों ओर जैसे मेहनतकशों का सैलाब उमड़ रहा है। सभी ओर, छोटे-छोटे कमरों में कई मज़दूर दिन-रात मशीनों पर काम कर रहे हैं। और दड़बों जैसी काली-सीलनभरी और गन्दी कोठरियों में रह रहे हैं। मेरे कमरे के बाहर हमेशा अधनंगे बदन वाले और चेहरों पर गर्मी से निकले फोड़े-फुन्सी लिए बच्चों का हुजूम लगा रहता है। उनमें एक लड़की है जो मुश्किल से अभी बारह-तेरह साल की होगी। लेकिन उसके चेहरे पर मैंने कभी हँसी या मुस्कान नहीं देखी। किसी वयस्क की-सी भी नहीं। यूँ कह लीजिये कि किसी परेशान दुखी बूढ़ी औरत का-सा भाव हमेशा उसके चहरे पर रहता है। नाक-नक्श भी कुछ बूढ़ों से लगने लगे हैं। आँखों में कोई चमक नहीं और आवाज़ बिल्कुल बुझी-बुझी सी रहती है। मैंने उससे पूछा कि कल यहाँ किसी बूढ़े व्यक्ति की मौत हो गई थी न। उसने बताया कि ये उसके अब्बा ही थे। वह दर्जी थे और टी.बी. और शुगर की बीमारी की वजह से पिछले लम्बे समय से बीमार थे। इस वजह से लगभग दो महीनों से काम पर नहीं जा पा रहे थे। उस लड़की के सात भाई-बहन हैं जिनमें पाँच बहनें और दो भाई हैं। वह उनमें सबसे छोटी है। बड़ा भाई गाँव में रहता है और दो बहनों की शादी हो गई है। एक को छोड़ कर सारी बहनें और छोटा भाई यहीं साथ रहते हैं। पहले भी इस कमरे में अक्सर मैंने औरतों को कपड़ों पर सितारे टाँकते देखा था। एक बार इसी लड़की से और उसकी अम्मा से पहले बात भी हुई थी। ये लोग पीस रेट पर कपड़ों पर सितारे टाँकते हैं। इनका कमरा भी बाकी तमाम कमरों की तरह ही छोटा और सीलन भरा है जिसमें शादीशुदा बहन के छोटे-छोटे दो बच्चे भी रहते हैं। शाम को मैंने पूरे परिवार को देखा। कुछ कमरे के अन्दर और कुछ कमरे के बाहर थे। छोटा भाई, जो अभी मुश्किल से बीस साल का होगा, जिस पर, जैसा कि उस लड़की ने कहा था, अब परिवार की सारी जिम्मेदारी है। यह लड़का अपने दोनों हाथों से सिर पकड़े और सिर को नीचे गड़ाए चौखट पर बैठा था। घर में सभी इसी लड़की की ही तरह पतले-दुबले हैं। मकान-मालिकों और दुकानदारों को छोड़ दिया जाए तो यहाँ की आबादी ऐसी ही दिखती है। बहन के जो बच्चे हैं उनमें एक तीन महीने का छोटा लड़का है। इस बच्चे के हाँथ-पाँव इतने पतले और चेहरा इतना छोटा है कि लगता है मानो बस डेढ़ महीने से कुछ ज़्यादा का नहीं होगा। मेरे कानों में अभी भी उसके रोने की आवाजें सुनाई दे रही है। उसके अन्दर इतनी भी ताक़त नहीं है कि वह पूरी आवाज़ के साथ रो सके।
अपने इर्द-गिर्द की इस दुनिया को देखती हूँ और उस दूसरी दुनिया से उसकी तुलना करती हूँ जिसकी समृद्धि और चमक-दमक को टेलीविज़न से लेकर टकसाली अखबार तक ‘इण्डिया इंक.’ की सफलता की कहानी बताते हैं। ये दोनों भारत ही हैं। एक में इस देश की अस्सी फीसदी आबादी रहती है और एक में बीस फीसदी। अस्सी फीसदी के हिस्से बीस फीसदी भी नहीं है और बीस फीसदी के हिस्से अस्सी फीसदी से भी ज़्यादा। अस्सी फीसदी हिस्सा इस देश की सौ फीसदी समृद्धि को पैदा करता है और बीस फीसदी उस समृद्धि के मज़े लूटता है। लेकिन इसके बावजूद उस अस्सी फीसदी को पशुओं समान जीवन, भुखमरी, कुपोषण और अपने बच्चों को तिल-तिलकर मरते देखना मयस्सर है। यह अन्याय इतना सीधा, प्रत्यक्ष और स्पष्ट है कि इसके बारे में अधिक विस्तार में जाने या तर्क देने की कोई ज़रूरत नहीं है। लेकिन विडम्बना की बात यह है कि मध्यमवर्ग की चर्बी चढ़ी नज़र को यह सरलता के साथ स्वीकार्य हो चला है। पूँजीवादी समाज की रोज़मर्रा की सच्चाइयों से रोज़-ब-रोज़ रूबरू होते हुए इनके प्रति एक असंवेदनशीलता पैदा हो जाती है।
लेकिन जो अस्सी फीसदी इस पूरे अन्याय का कोप झेल रहे हैं, क्या वे हमेशा चुपचाप इसे झेलते रहेंगे? क्या वे गुलामों-सी जिन्दगी को अपनी नियति माने बैठे रहेंगे? ऐसा नहीं लगता। आज उनके समक्ष कोई विकल्प मौजूद नहीं है। विकल्पहीनता की स्थिति में पैदा इस किंकर्तव्यविमूढ़ता को स्थायी नहीं माना जा सकता। इस विकल्प की कमी को दूर करने का कार्यभार उन नौजवानों के हाथों है जिनके लिए यह बर्बर अन्याय अभी स्वीकार्य नहीं बना है। वे युवा ही आने वाले कल की उम्मीद हैं। हममें से हरेक को तय करना है कि हम युवाओं के उस हिस्से में अपने आपको शुमार करेंगे जो एक बेहतर कल का नक्शा तैयार करने में लगे हैं या उन युवाओं में, जो समृद्ध, सुविधासम्पन्न और विलास से भरी जिन्दगी के लिए पूँजी की सेवा में सन्नद्ध होने के लिए बेतहाशा भाग रहे हैं।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2010
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!