Category Archives: साहित्‍य और कला

लैंग्सटन ह्यूज की कविताएँ

ह्यूज की कविताओं का विषय मुख्य रूप से मेहनतकश आदमी है, चाहे वह किसी भी नस्ल का हो। उनकी कविताओं में अमेरिका की सारी शोषित-पीड़ित और श्रमजीवी जनता की कथा-व्यथा का अनुभव किया जा सकता है। ह्यूज का अमेरिका इन सब लोगों का है – वह मेहनतकशों का अमेरिका है, वही असली अमेरिका है, जो दुनिया में अमन-चैन और बराबरी चाहता है, और तमाम तरह के भेदभाव को मिटा देना चाहता है। ह्यूज की इसी सोच ने उन्हें अन्तरराष्ट्रीय कवि बना दिया और दुनिया-भर के मुक्तिसंघर्षों के लिए वे प्रेरणा के स्रोत बन गये।

लखविन्दर की तीन कविताएँ

हम सीख लेंगे
वो सबकुछ
जो ज़रूरी है
और जो सीखा जा सकता है
ताकि जान लें सभी
यह दृढ़ता तर्कसंगत है,
कि हमारी ‘उम्मीद
महज एक भावना नहीं है’।

स्कूल चले हम, स्कूल चले हम – नेता बनने!!!

हम भी नेताओं का एक स्कूल खोल रहे हैं। इसमें प्रधानाचार्य रखने में तो कठिनाई हो रही है क्योंकि सबके सब अपने क्षेत्र में धुरंधर हैं और अपने को देश का अगला प्रधानमंत्री बता रहे हैं। इसलिए शिक्षकों की ही एक टीम तैयार की है जिसमें तमाम विशेषज्ञ शिक्षक होंगे। पहले शिक्षक मोदी पढ़ायेंगे कि कैसे एक प्रायोजित कत्लेआम को ‘‘क्रिया की प्रतिक्रिया’’ का रूप दिया जाता है। यहाँ पढ़ाई सिर्फ़ थ्योरेटिकल ही नहीं होगी। प्रैक्टिकल के रूप में केरल, मुम्बई, मध्यप्रदेश दिखाया जायेगा। दूसरे बड़े शिक्षक होंगे मनमोहन सिंह, इस देश के बड़े अर्थशास्त्री, जो बतायेंगे कि उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को लागू करने के लिए “ट्रिकल डाउन थियोरी” जैसे चमत्कारी सिद्धान्तों का जामा कैसे पहनाया जाय जो कहता है कि जब समाज के शिखरों पर समृद्धि आयेगी तो वह रिसकर नीचे ग़रीब तबके तक पहुँच जायेगी! अब यह तो विश्व भर की मेहनतकश जनता अपने पिछले 30 साल के भूमण्डीकरण के अनुभव से बता सकती है कि आज की व्यवस्था में समृद्धि तो ‘ट्रिकल डाउन’ करती नहीं है लेकिन संकट ‘ट्रिकल डाउन’ ज़रूर करता है। साथ ही मनमोहन जी मन मोह लेते हुए बताएँगे कि पूँजीपतियों को अपनी अय्याशी इस तरह खुले में पेश नहीं करनी चाहिये कि देश की मेहनतकश जनता में रोष पैदा हो। मतलब की एक अच्छा नेता वही नहीं होता जो सरकार और पार्टी जैसी चीज़ों के बारे में सोचे बल्कि अच्छा नेता वह होता है जो ये सोचे कि कैसे ये सड़ी पूँजीवादी व्यवस्था बची रहे।

कहानी – दो मौतें / अलेक्सान्द्र सेराफ़ेमोविच

लड़की लड़खड़ाकर पीछे हटी और कागज की तरह सफ़ेद पड़ गई। पर, दूसरे ही क्षण उसका चेहरा तमतमा उठा, और वह चिल्लाई: “तुम… तुम मजदूरों को मौत के घाट उतार रहे हो! और, वे… वे अपनी गरीबी से, अपने नरक से उभरने के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं… मैंने… मुझे हथियार चलाना नहीं आता, फ़िर भी मैंने तुम्हें मार डाला…”

उद्धरण

“क्रान्ति से हमारा क्या आशय है, यह स्पष्ट है । इस शताब्दी में इसका सिर्फ़ एक ही अर्थ हो सकता है-जनता के लिए जनता का राजनीतिक शक्ति हासिल करना । वास्तव में, यही है ‘क्रान्ति’, बाकी सभी विद्रोह तो सिर्फ मालिकों के परिवर्तन द्वारा पूँजीवादी सड़ाँध को ही आगे बढ़ाते हैं । किसी भी हद तक लोगों से या उनके उद्देश्यों से जतायी हमदर्दी जनता से वास्तविकता नहीं छिपा सकती, लोग छल को पहचानते हैं । भारत में हम भारतीय श्रमिक के शासन से कम कुछ नहीं चाहते । भारतीय श्रमिकों को-भारत में साम्राज्यवादियों और उनके मददगार हटाकर जो कि उसी आर्थिक व्यवस्था के पैरोकार हैं, जिसके जड़ें शोषण पर आधारित हैं-आगे आना है । हम गोरी बुराई की जगह काली बुराई को लाकर कष्ट नहीं उठाना चाहते ।

साथी अरविन्द की याद में….

दूसरों के लिए प्रकाश की एक किरण बनना, दूसरों के जीवन को देदीप्यमान करना, यह सबसे बड़ा सुख है जो मानव प्राप्त कर सकता है । इसके बाद कष्टों अथवा पीड़ा से, दुर्भाग्य अथवा अभाव से मानव नहीं डरता । फिर मृत्यु का भय उसके अन्दर से मिट जाता है, यद्यपि, वास्तव में जीवन को प्यार करना वह तभी सीखता है । और, केवल तभी पृथ्वी पर आँखें खोलकर वह इस तरह चल पाता है कि जिससे कि वह सब कुछ देख, सुन और समझ सके; केवल तभी अपने संकुचित घोंघे से निकलकर वह बाहर प्रकाश में आ सकता है और समस्त मानवजाति के सुखों और दु:खों का अनुभव कर सकता है । और केवल तभी वह वास्तविक मानव बन सकता है ।

मानव-संघर्ष और प्रकृति के सौन्दर्य के शब्दशिल्पी त्रिलोचन सदा हमारे बीच रहेंगे!

त्रिलोचन की कविताएँ जीवन, संघर्ष और सृजन के प्रति अगाध आस्था की, बुर्जुआ समाज के रेशे-रेश में व्यक्त अलगाव (एलियनेशन) के निषेध की और प्रकृति और जीवन के व्यापक एंव सूक्ष्म सौन्दर्य की भावसंवेदी सहज कविताएँ हैं। सहजता उनकी कविताओं का प्राण है। वे जितने मानव-संघर्ष के कवि हैं, उतने ही प्रकृति के सौन्दर्य के भी। पर रीतकालीन, छायावादी और नवरूपवादी रुझानों के विपरीत प्रकृति के सन्दर्भ में भी त्रिलोचन की सौन्दर्याभिरुचि उनकी भौतिकवादी विश्वदृष्टि के अनुरूप है जो सहजता-नैसर्गिकता-स्वाभाविकता के प्रति उद्दाम आग्रह पैदा करती है और अलगाव की चेतना के विरुद्ध खड़ी होती है जिसके चलते मनुष्य-मनुष्य से कट गया है, और प्रकृति से भी।

हिन्दी साहित्य में कहाँ है आज के मज़दूरों का जीवन?

हम विनम्रता, चिन्ता और सरोकार के साथ साहित्यक्षेत्र के सुधी सर्जकों का ध्यान इस नंगी-कड़वी सच्चाई की ओर आकृष्ट करना चाहते हैं कि उस मेहनतकश आबादी की, जो देश की कुल आबादी के पचास प्रतिशत से भी अधिक हो चुकी है, ज़िन्दगी की जद्दोजहद समकालीन हिन्दी साहित्य की दुनिया में लगभग अनुपस्थित है। आप याद करके ऐसे कितने उपन्यास या कहानियाँ उँगली पर गिना सकते हैं जिनकी कथाभूमि कोई औद्योगिक क्षेत्र की मज़दूर बस्ती और कारख़ानों के इर्दगिर्द तैयार की गयी हो, जिनमें हर वर्ष अपनी जगह-जमीन से उजड़ने, विस्थापित होकर शहरों में आने और आधुनिक उत्पादन-तकनोलॉजी में आने वाले कारख़ानों में दिहाड़ी या ठेका मज़दूर के रूप में बारह-बारह, चौदह-चौदह घण्टे खटने वाले नये भारतीय सर्वहारा के जीवन की तफ़सीलों की प्रामाणिक ढंग से इन्दराजी की गयी हो। और इनके पीछे की कारक-प्रेरक शक्ति के रूप में काम करने वाली सामाजिक-आर्थिक संरचना की गति को अनावृत्त करने की कोशिश की गयी हो? सच्चाई यह है कि जो मज़दूर वर्ग आज संख्यात्मक दृष्टि से भी भारतीय समाज का बहुसंख्यक हिस्सा बन चुका है, उसका जीवन और परिवेश जनवादी और प्रगतिशील साहित्य की चौहद्दी में भी लगभग अनुपस्थित है।