ऊपर के कमरे सब अपने लिए बन्द हैं
धुएँ से कजलाये
कोठे की भीत पर
बाँस की तीली की लेखनी से लिखी थी
राम-कथा व्यथा की
कि आज भी जो सत्य है
लेकिन, भाई, कहाँ अब वक़्त है !!
तसवीरें बनाने की
इच्छा अभी बाक़ी है–
धुएँ से कजलाये
कोठे की भीत पर
बाँस की तीली की लेखनी से लिखी थी
राम-कथा व्यथा की
कि आज भी जो सत्य है
लेकिन, भाई, कहाँ अब वक़्त है !!
तसवीरें बनाने की
इच्छा अभी बाक़ी है–
सम्भावित रचनाकाल 1963। राजनाँदगाँव। कल्पना, अप्रैल 1964, में प्रकाशित। ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ में संकलित
नौजवानी के गीत बहुत लोगों ने गाये हैं। हुस्नोइश्क़ और इन्क़लाब का क़ाबा नौजवानी ही समझी गयी है। लेकिन जिन तकलीफ़ों में से नौजवान गुज़रता है, उनके बारे में क़लम चलाने का साहस थोड़े ही लोगों ने किया है। यथार्थ कुछ और है, और काल्पनिक लोक कुछ और। माना कि साधारण रूप से नौजवान अपने बाप के घर रहता है, बड़ों की छत्रछाया में पलता है। और दुनिया से लोहा लेने का जोश और उमंग उसमें भले ही रहे, उनके पास अनुभव न होने के कारण उसे पग-पग ठोकर खाना पड़ता है।
ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,
अब तक क्या किया ?
जीवन क्या जिया !!
उदरम्भरि बन अनात्म बन गये,
भूतों की शादी में कनात–से तन गये,
किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर,
दु:खों के दागों को तमगों–सा पहना
अपने ही ख़्यालों में दिन–रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
जिन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,