फ़िलिस्तीनी कवि समीह अल-क़ासिम की स्मृति में
जिस वक़्त फ़िलिस्तीनी जनता गाज़ा में एक और बर्बर इज़रायली हमले का मुक़ाबला कर रही थी, उसी दौरान उसने अपने एक और बहादुर बेटे, ‘प्रतिरोध के कवि’ के नाम से मशहूर समीह अल क़ासिम को खो दिया। 19 अगस्त, 2014 को कैंसर से उनका निधन हो गया।
क़ासिम का जन्म 11 मई 1939 को हुआ था लेकिन ख़ुद उनके शब्दों में वास्तव में उनका जन्म नवम्बर 1948 में नक़बा की उन घटनाओं के समय हुआ जब इज़रायल के क़त्लेआम, जबरिया क़ब्ज़े और बलपूर्वक बेदखली के कारण 7 लाख फ़िलिस्तीनी लोग अपने वतन से निकालकर बेघर-बेदर कर दिये गये थे। बर्बर दमन-उत्पीड़न की ये छवियाँ उनकी स्मृतियों में हमेशा के लिए धँस गयीं और इन्हीं से जन्म हुआ उस कवि का जिसकी कविताएँ बहादुराना फ़िलिस्तीनी प्रतिरोध संघर्ष का मुक्तिगान बन गयीं। इज़रायल में रहने के दौरान सैन्य सरकार की कठोर पाबन्दियों से लड़ते हुए क़ासिम फ़िलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष का पुरज़ोर समर्थन करते रहे। जेल, नज़रबन्दी और यातनाओं से डरे बिना वह आज़ाद फ़िलिस्तीन के लिए आवाज़ उठाते रहे। महमूद दरवेश और तौफ़ीक ज़ायद के साथ मिलकर उन्होंने विश्व साहित्य के मंच पर फ़िलिस्तीन की पहचान निर्मित की।
समीह अल क़ासिम आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन फ़िलिस्तीन की मुक्ति के लिए उठने वाली हर आवाज़ में, अन्याय के प्रतिरोध में उठने वाली हर मुट्ठी में वह ज़िन्दा हैं। उनकी कविताएँ आज़ाद फ़िलिस्तीन के हर नारे में गूँज रही हैं। उनकी स्मृति में हम यहाँ उनकी दो कविताएँ दे रहे हैं। इन्हें हमने फ़िलिस्तीनी कविताओं के संकलन ‘इन्तिफ़ादा’ से लिया है। – सं-
रफ़ा के बच्चे
उनके लिए-जो अपना रास्ता
लाखों लोगों के ज़ख़्मों से होकर बनाते हैं
और उनके टैंक बागों के ग़ुलाबों को
कुचल देते हैं
उनके लिए-जो रातों को
घरों की खिड़कियाँ तोड़ते हैं
खेत और संग्रहालय जला देते हैं
और फिर इसकी खुशी में गीत गाते हैं
उनके लिए-जो अपने क़दमों की आहट से
दुखी माताओं के केश काट देते हैं
अंगूर के खेतों को
तहस-नहस कर देते हैं
जो शहर के चौराहों पर
ख़ुशियों की बुलबुल को गोली मार देते हैं
और जिनके हवाई जहाज़ बचपन के सपनों को
बमों से उड़ा देते हैं
उनके लिए-जो इन्द्रधनुष तोड़ देते हैं
आज की रात
रफ़ा के बच्चे
यह घोषणा करते हैं
कि हमने नहीं बुनी थी चादरें
सिर के बालों से
हमने नहीं थूका था
मारी गयी औरतों के चेहरे पर
उनके मुँह से नहीं उखाड़े थे सोने के दाँत
तुम हमारी टॉफ़ी छीनकर
बमों के खोखे क्यों देते हो
क्यों तुम अरब के बच्चों को
यतीम बनाते हो
और हम तुम्हें धन्यवाद देते हैं कि
दुखों ने हमें बड़ा बना दिया है
हम लड़ेंगे
II
विजेता की संगीन पर सूर्य की किरणें
एक तिरस्कृत नंगी लाश थी
रक्ताक्त मौन
ख़ून से सने चेहरों के बीच
विद्वेष
प्रार्थना की माला
मिथकीय डीलडौल का
एक आक्रमणकारी चिल्लाता है
तुम नहीं बोलोगे?
ठीक है:
तुम्हारे ऊपर कर्फ्यू लगाया जाता है—
अल्लादीन की आवाज़ बिखर जाती है
शिकार की चिड़ियों का जन्म होता है
मैंने सेना के वाहन पर पत्थर फेंके
पर्चे बाँटे
इशारा किया
मैंने ब्रश और पड़ोस से कुर्सी लेकर
नारे लिखे
मैंने बच्चों को भी इकट्ठा किया
और हम लोगों ने क़सम खायी
शरणार्थियों के निर्वासन से
कि हम लड़ेंगे
जब तक विजेताओं की संगीनें
हमारी गली में चमकती रहेंगी
अल्लादीन दस साल से ज़्यादा नहीं था
III
अकासिया के पेड़ उजाड़ दिये गये
और रफ़ा के दरवाजे
दुखों से सील कर दिये गये
या लाख से
या कर्फ्यू से
(उस लड़की को रोटी
और एक घायल आदमी के लिए
पट्टी लेनी थी जो आधी रात के बाद लौट रही थी,
उस लड़की को एक गली पार करनी थी
जिस पर नज़र रख रही थीं
अजनबियों की आँखें, तेज़ हवा और बन्दूक की नलियाँ)
अकासिया के पेड़ उजाड़ दिये गये
और एक घाव की तरह
रफ़ा में एक घर का दरवाज़ा
किसी ने खोला
वह उछली
और जासमीन की झाड़ी की गोद में जा गिरी
एक बार आतंक के बीच
जा रही थी सावधानी से कि
खजूर के एक पेड़ ने
उसे बचाया था
हर क़दम पर, बस उछलो—
एक गश्ती दल
तेज़ रोशनी
खाँसी
-कौन हो तुम
रुको
—
पाँच बन्दूकें उस पर तन गयी थीं
पाँच बन्दूकें
सुबह
हमलावरों की अदालत बैठी
उन्होंने उसे पेश किया
अमीना
‘अपराधी’
आठ साल की बच्ची
संयुक्त राष्ट्र के सभी संभ्रान्त लोगों से
ओ जगह-जगह से आये सज्जनो
इस भरी दुपहरी में
आपकी ख़ूबसूरत टाइयाँ
और आपकी उत्तेजनापूर्ण बहसें
हमारे समय में
क्या भला कर सकती हैं
ओ जगह-जगह से आये सज्जनो
हमारे दिल में काई जम गयी है
और इसने
शीशे की सारी दीवारों को
ढँक लिया है
इतनी सारी बैठकें
तरह-तरह के भाषण
इतने जासूस
वेश्याओं जैसी बातें
इतनी गप्पबाज़ियाँ
हमारे समय में
क्या भला कर सकती हैं
सज्जनो
जो होना है सो होने दें
मैं दुनिया तक पहुँचने के रास्ते खोज रहा हूँ
मेरा ख़ून पीला पड़ गया है
और मेरा दिल
वायदों के कीचड़ में फँस गया है
ओ जगह-जगह से आये सज्जनो
मेरी शर्म
एक पर्दा बन जाये, मेरा दुख एक साँप
ओ जगह-जगह से आये काले चमकते जूतो
मेरा ग़ुस्सा इतना बड़ा है
कि कह नहीं सकता
और समय इतना कायरतापूर्ण
और जहाँ तक मेरा सवाल है—
मेरे हाथ नहीं हैं
अनुवाद: रामकृष्ण पाण्डेय
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2014
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