लहर – मर्ज़िएह ऑस्कोई की एक कविता
अब मैं जा मिली हूँ अन्तहीन लहरों से
संघर्ष में मेरा अस्तित्व है
और मेरा आराम है – मेरी मौत
अब मैं जा मिली हूँ अन्तहीन लहरों से
संघर्ष में मेरा अस्तित्व है
और मेरा आराम है – मेरी मौत
गोर्की ने अपने जीवन और लेखन से सिद्ध कर दिया कि दर्शन और साहित्य विश्वविद्यालयों, कॉलेजों में पढ़े-लिखे विद्वानों की बपौती नहीं है बल्कि सच्चा साहित्य आम जनता के जीवन और लड़ाई में शामिल होकर ही लिखा जा सकता है। उन्होंने अपने अनुभव से यह जाना कि अपढ़, अज्ञानी कहे जाने वाले लोग ही पूरी दुनिया के वैभव के असली हक़दार हैं। आज एक बार फिर साहित्य आम जन से दूर होकर महफ़िलों, गोष्ठियों यहाँ तक कि सिर्फ़ लिखने वालों तक सीमित होकर रह गया है। आज लेखक एक बार फिर समाज से विमुख होकर साहित्य को आम लोगों की ज़िन्दगी की चौहद्दी से बाहर कर रहा है।
“आदमी का हृदय जब वीर कृत्यों के लिए छटपटाता हो, तो इसके लिए वह सदा अवसर भी ढूँढ लेता है। जीवन में ऐसे अवसरों की कुछ कमी नहीं है और अगर किसी को ऐसे अवसर नहीं मिलते, तो समझ लो कि वह काहिल है या फिर कायर या यह कि वह जीवन को नहीं समझता।”
ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,
अब तक क्या किया ?
जीवन क्या जिया !!
उदरम्भरि बन अनात्म बन गये,
भूतों की शादी में कनात–से तन गये,
किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर,
दु:खों के दागों को तमगों–सा पहना
अपने ही ख़्यालों में दिन–रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
जिन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,
ठहर जाऊँ ये सोचकर डर लगता है
जो ठहरे हैं उन्हें देखकर डर लगता है
सफ़र में जो भी है कठिन है
बिन सफ़र सब हादसा लगता है
…
कुछ भी नहीं ‘मेरा’ ये सच है
कोई नहीं उनका ये बड़ा सच लगता है
हम समाजवादी हैं। इसका मतलब है कि हम निजी सम्पत्ति के ख़िलाफ हैं” निजी सम्पत्ति की पद्धति समाज को छिन्न–भिन्न कर देती है, लोगों को एक–दूसरे का दुश्मन बना देती है, लोगों के परस्पर हितों में एक ऐसा द्वेष पैदा कर देती है जिसे मिटाया नहीं जा सकता, इस द्वेष को छुपाने या न्याय–संगत ठहराने के लिए वह झूठ का सहारा लेती है और झूठ, मक्कारी और घृणा से हर आदमी की आत्मा को दूषित कर देती है। हमारा विश्वास है कि वह समाज, जो इंसान को केवल कुछ दूसरे इंसानों को धनवान बनाने का साधन समझता है, अमानुषिक है और हमारे हितों के विरुद्ध है। हम ऐसे समाज की झूठ और मक्कारी से भरी हुई नैतिक पद्धति को स्वीकार नहीं कर सकते। व्यक्ति के प्रति उसके रवैये में जो बेहयाई और क्रूरता है उसकी हम निन्दा करते हैं। इस समाज ने व्यक्ति पर जो शारीरिक तथा नैतिक दासता थोप रखी है, हम उसके हर रूप के ख़िलाफ लड़ना चाहते हैं और लड़ेंगे कुछ लोगों के स्वार्थ और लोभ के हित में इंसानों को कुचलने के जितने साधन हैं हम उन सबके ख़िलाफ लड़ेंगे।
हम ऊँघते, कलम घिसते हुए
उत्पीड़न और लाचारी में नहीं जियेंगे।
हम – आकांक्षा, आक्रोश, आवेग और
अभिमान में जियेंगे।
असली इंसान की तरह जियेंगे।
धर्मं भी अवश्य होगा…। यह उन्हें सिखाएगा कि सच्चा जीवन शार्कों के उदर से ही आरम्भ होता है और यदि शार्क मनुष्य हो जाएं तो छोटी मछलियों आज की तरह समान नहीं रहेगी, उनमें से कुछ को पद देकर दूसरों से ऊपर कर दिया जाएगा । कुछ बड़ी मछलियों को छोटी मछलियों को खाने तक की इजाज़त दे दी जाएगी । यह शार्कों के लिए आनन्ददायक होगा क्योंकि फिर उन्हें निगलने के लिए बड़े ग्रास मिलेंगे और छोटी मछलियों से से सबसे महत्वपूर्ग जिनके पास पद होगे, वे छोटी मछलियों को व्यवस्थित करेंगी । वे शिक्षक, अधिकारी, बक्से बनाने वाली इंजीनियर आदि बनेंगी। संक्षेप में, समुद्र में संस्कृति तभी होगी जब शार्क मनुष्य के रूप में हो ।
बेशक थकान और उदासी भरे दिन
आयेंगे अपनी पूरी ताक़त के साथ
तुम पर हल्ला बोलने और
थोड़ा जी लेने की चाहत भी
थोड़ा और, थोड़ा और जी लेने के लिए लुभायेगी,
लेकिन तब ज़रूर याद करना कि किस तरह
प्यार और संगीत को जलाते रहे
हथियारबन्द हत्यारों के गिरोह
और किस तरह भुखमरी और युद्धों और
पागलपन और आत्महत्याओं के बीच
नये-नये सिद्धान्त जनमते रहे
विवेक को दफ़नाते हुए
नयी-नयी सनक भरी विलासिताओं के साथ।
सपनों के देश में
आकांक्षाओं की पीठ पर
यथार्थ की जीन में टिकाए अपने पैर
ज़िन्दगी की राह पर
सरपट दौड़ना, चाहता नहीं कौन?
‘आसमान बेधते’ अरुणिम शिखर को
हृदय में बसाना नहीं चाहता है कौन?
मगर
यांत्रिकता की कैद से
आज़ाद नहीं होंगे जब तलक स्वप्न!
स्मृतियों के अपने ही गुंजलक में
भटकेगा मन!