धर्मेन्द्र चतुर्वेदी की कविताएँ
1- आत्मकथ्य
यह प्रारम्भ
नहीं है निमेश भर, मायापाश का
और न ही अन्तिम मुक्ति का प्रश्वास;
यह तिमिर है
चिरसंचित, चिरकालीन
उसी दिन से
जब वे मुझे क़ैद कर गये थे
रहस्य-गर्भ स्पन्दित कारागारों में;
तब रुद्ध-सिंहा मेरी आत्मा
बच निकली थी,
वातायन वेदना के दौरान
उन सघनित लोहे की सलाखों से
बनकर
दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत कविता
दीर्घ-कालीन पलायित वह
भटकती है
सघन वनों में,
रेगिस्तानों में,
बर्फीले प्रदेशों में,
झंझावातों में,
तत्पदग्धा-शीतकम्पित
अद्यतन
बहुत मुश्किल होता है
उन घनीभूत वेदना के क्षणों में,
चालक-विहीन, पतवार-विहीन
अनियन्त्रित नौका में गमन
फिर कविताएँ लिखना
नहीं है आधार-स्तम्भ,
नहीं है स्थिरता का प्रयास,
या नहीं है प्रयास
भूल जाने का, सब-कुछ,
यह प्रयास है
सलाखें तोड़ देने का,
और मुक्त कराने का
कारागार में बन्दित
निरीह शव
2- हमारी दुनिया भिन्न है
सृजन का सौन्दर्य हो
या धर्म की पराकाष्ठा,
न्याय-संस्कृति, साधन
बल, बुद्धि और धन
साथ में
भक्ति, ढोंग, पाखण्ड,
क्रोध, शोक, रोग,
वासना और निर्लज्जता
सब कुछ तुम्हारे साए में रहते हैं,
हमारे पास है केवल
पसीने और कीचड़ की दुर्गन्ध
हमारे शब्द सीमित हैं
और शब्दों के मायने भी
हमारी भुजाएँ
पहाड़ काटने वाली शक्ति पाकर
बँधी रहती हैं,
और हमें नहीं सिखाया जाता
इच्छाएँ करना,
बल्कि हम स्वतः ही सीख जाते हैं,
इच्छाओं और अभिलाषाओं का दमन करना
हमारे सपनों को खा जाते हैं,
युग्मों में उड़कर आने वाले
बड़ी चोंचों वाले गिद्ध,
और यदि बच भी जायें
तो पड़े-पड़े हो जाते हैं जंग-ग्रस्त
तुम्हारी और मेरी दुनिया
इतनी भिन्न है कि
हम अलग-अलग प्रजातियों का
प्रतिनिधित्व करते हैं
तुम्हारी दुनिया चमचमाती है,
कारों में दौड़ती है,
और समय से पहले बालिग हो जाती है
तुम्हारी दुनिया में
देशी-विदेशी संगीत की लहरियाँ,
मैकडोनाल्ड से लेकर
इण्टरनेट तक का
खुशहाल संसार है,
तुम्हारी दुनिया को
एकरसता से मोहभंग भी हो जाता है
इसलिए
गगनचुम्बी इमारतें बनाती है,
करोड़ो के जुए खेलती है,
और कभी-कभी
क्लबों में फूहड़ता से नाचने भी लगती है
हमारी दुनिया
बरगद के ठूंठ किनारे बने
स्थापत्य कला को ठेंगा दिखाते
छप्परों में जन्म लेती है,
गँदले नालों में पलती है
और बिना बोर्नवीटा खाये वृद्ध हो जाती है
समय से पहले
हमारी दुनिया
कारख़ाने सिर पर उठाकर चलती है,
चैत की गर्म दुपहरी में जीती है,
कोयलों में पलती है,
और गुमनाम होकर वहीं दफन हो जाती है
हमारे बदन में भरी हुई है
असहनीय दुर्गन्ध,
और हमारे चेहरे पर हैं
कीचड़ के धब्बे,
जिन्हें तुम हिकारत भरी नज़रों से देखा करते हो
हमारी दुनिया है
आशाओं, न्यूनताओं की दुनियां
और न्यूनताएँ देखने से
तुम्हारी आँखों को हो जाता है मोतियाबिन्द
हमारी दुनिया
संघर्षों और निर्बलताओं की दुनिया है
और निर्बलताओं के बारे में सोचने को
शायद तुम्हारा मस्तिष्क नहीं देता इजाज़त
हमारे अनेकानेक उत्पाद
जन्म के पूर्व ही तुम्हारे हो जाते हैं,
पर हमारा अन्धकार
कभी तुम्हारा नहीं हो सकता
चाहे दूधिया रौशनी के लिए फेंकी रौशनी से,
या फिर अमरत्व की रौशनी से
यह अन्धकार रहेगा
सर्वव्यापी और सार्वकालिक
जब तक हम उड़ा नहीं देते,
तुम्हारे साम्राज्य, तिनकों में
3- अभिलाषाएँ
वे भुलाती हुई
हमारी सारी वेदनाएँ और सुख
समय और उम्र,
हमारे दिमाग़ की गाँठ,
और रक्त के थक्के
जन्म ले लेती हैं
जटिल से जटिल परिस्थितियों में
उनके आश्रय में हम
सवाल नहीं सुनते,
थामे नहीं थमते,
लहरों की अंगड़ाईयाँ सुला देते हैं,
आकाश की ऊँचाईयां मिटा देते हैं,
आँधियों में दीप जलाने लगते हैं,
पत्थर की छाती पर नव-अंकुर उगाने लगते हैं
वे उड़ाकर हमारी नींदें
चाहती हैं नियति का सर कलम करना
ऐसी ही होती हैं अभिलाषाएँ
छोटी, बड़ी, स्वान्तः सुखाय या परिजनहिताय
जो निरन्तर कहती हैं मुझसे कि
जब मैं नव-सृष्टि के सृजन को आगे बढूँ
तो तुम आओ मेरे साथ,
और शिथिलता मेरे बदन पर आकर
जब बन्धक बनाने का करे प्रयास
तो तुम मुझे प्रेरित करती
अपने हाथों से पिलाओ…..ओक भर पानी
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2011
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