पवन करण की कविताएँ
झूठ
यह झूठ है तो भी मेरी गति में
इसने अपनी जगह बना ली हैं
ऐसा झूठ जो दुनिया में जुबान से अधिक
लोगों की आंखों से बोला गया है
दुनिया सबकी हो सब इसे सबकी माने
यह झूठ है तो मेरी तरह इसे
कौन नहीं बोलना चाहेगा
वह तो इसे बार-बार दोहराना चाहेंगे
जिन्हें यह लगाता है यह दुनिया
उतनी उनकी नहीं
जितना इसे होना चाहिये उनका
झूठ ही तो था जो ढह गया
जे ढह गया वह झूठ रहा होगा
यह झूठ तो लगातार
अपने बोले जाने को अभिशप्त है
बात
उस बात के ऊपर सूरज टंगा है
दहकता हुआ सुर्ख लाल सूरज
दिन ढलते जिसे वह ऊपर से उतार लेती
अपने सिरे पर उसे लालटेन सा टांगे
अंधेरे भर चलती है, आंच धीमी पड़ती हैं
तो उसकी ढिबरी घुमाकर लौ बढ़ा लेती है
रात गहरी और बड़ी होती है न
उसे लोगों के बीच बरोसी सा
सुलगता रख देती है
कोई अपने चेहरे पर उसकी तपिश
करता है महसूस, कोई देर तक उसमें
गड़ाये रहता है अपनी आंखे और
झकझोरने पर देता है हूंका
उसे घेरकर बैठे सब बातें करते हैं
कोई उसको कलम बताता है
कोई उस पर टंगे सूरज को झंडा लाल
स्वप्न
मैं एक ऐसा स्वप्न हूं
जिसे हासिये के नीचे धकेल दिया गया है
हासिये के नीचे बहुत अंधेरा रहता है
इतना कि वहां बहुत देर तक पड़े रहने के बाद
खुद को खुद सूझना शुरू होता है
वहां ठंड और भूख बहुत लगती है
हासिये के नीचे के अंधेरे में
जहां में को बमुश्किल टटोल पाता हूं
चिथड़े जूठन सिगरेट के ठूंठ
और बुझने के लिये तीलियां फैकी जाती हैं
लगातार सड़ते जाते हुए भी मै कभी मरता नहीं हमेशा
हाशिये को ही हथियार बनाने की कोशिश में जुटा रहता हूं।
नब्बे लाख
मैं और वे जो रोटी खाते हैं
उसमें नब्बे लाख गुना अन्तर है
क्या मेरी और उनकी रोटी
नस्ल में अंततः रोटी ही हैं
गणना में उनसे नब्बे लाख गुना कम
मैं अपने मेहनत की गंध से परिचित हूं
उनके पीसने का कोई स्वाद होगा?
मैं उनसे नब्बे लाख गुना कमतर
बिस्तर पर सोता हूं नब्बे लाख गुना
कमजोर घर में बिताता हूं अपना जीवन
मेरे बच्चे की तुलना में उनके बच्चे
नब्बे लाख सीढ़ियां ऊपर खड़े हैं
चांद मेरी तुलना में उनके
नब्बे लाख गुना करीब है
वे जब चाहें उसे चूम सकते हैं
*भारत के सबसे गरीब और सबसे अमीर आदमी के बीच नब्बे लाख गुना अंतर हैं
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2011
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