(केदारनाथ अग्रवाल की जन्मशताब्दी के अवसर पर) 
केन के जल से बना कवि

नरेश चन्द्रकर

आइये पहले कवि के बारे में कुछ बात कर लें, फिर उनकी कविता पर चर्चा करेंगे। केदारनाथ अग्रवाल उस कवि का नाम है जो बान्दा ज़िले के कमासिन गाँव से उठा। अप्रैल 1911 को एक साहूकार महाजन परिवार में जन्मे इस कवि ने इलाहाबाद जाकर बीए और लखनऊ से एलएलबी की। फिर लौटकर बान्दा आये और जीवनपर्यन्त वकालत करते रहे। जीवन में कई बार सरकारी वकील बने। साथ-साथ कविता में डूबे रहे। सन् 1947 में पहला कविता संग्रह ‘युग की गंगा’ प्रकाशित हुआ। इसके बाद केन नदी की धाराओं की तरह कविता-संग्रह प्रकाशित होते रहे। इसी वर्ष दूसरा संग्रह ‘नींद के बादल’। 1957 में ‘लोक और आलोक’ । 1965 में ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’। 1979 में ‘आग का अदना’। इसी वर्ष अन्य संग्रह ‘देश’ की कविताएँ। 1978 में ‘गुलमेंहदी’। 1979 में ‘पंख और पतवार’। 1981 में ‘हे मेरी तुम’। इसी वर्ष एक अन्य संग्रह था ‘मार प्यार की थाप’ और ‘बम्बई का रक्त स्नान’। ‘कहे केदार खरी-खरी’ 1983 में प्रकाशित हुआ तो 1984 में ‘अपूर्वा’। इसी वर्ष एक और संग्रह ‘जमुन जल तुम’। 1985 में ‘बोले बोल अबोल’। 1986 में ‘जो शिलाएँ तोड़ते हैं’। इस तरह केदारनाथ अग्रवाल कवि केदार बने और हिन्दी की समकालीन कविता के भीष्म पितामह बनें।

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अब उनकी कविता पर कुछ चर्चा हो जाये। जब भी कविता की सांस्कृतिक सार्थकता के समर्थक कवि और आत्मीय बेबाक अन्वेषणों और निजी सघन अनुभूतियों की कविता का ज़िक्र होगा, कवि केदारनाथ अग्रवाल याद आयेंगे। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए अलग तरह की कलात्मक अनुभूति और रचना की नर्मी और गुदाजी का अहसास होता है। वह शिल्प के कटे-छटेपन और पॉलिश के लिए भी याद आते हैं। उनकी विशेषता है कि उन्होंने कविता में करोड़ों कर्म के उत्सव मनाये। वे हर रचना में मगन मन रहे। एकान्तवास की एक पंक्ति नहीं रची। साथ ही उनके मन में उत्पीड़ित, दुखी, संघर्षशील जनता से अथाह प्रेम था। उनकी कविता सिर्फ पढ़े जाने के लिए नहीं लगती है, बल्कि कवि होने की सीख लेने के लिए भी ज़रूरी लगती है।

हिन्दी में वे अकेले कवि हैं, जो कन्धे पर केन नदी लिये रहे। उनकी कविता में छोटे बच्चे-सी बोधगम्यता है। उन्होंने नदी और उससे जुड़ी प्रकृति की हलचलों को जटिल चित्रवलियों में नहीं ढलने दिया। शब्दों में गति और उत्साह बनाये रखा। कविता में सौन्दर्य की अनेक भाव-भंगिमाएँ रचीं। उन्होंने दूसरे के दुख को कविता में बनाये रखा। अविश्वसनीय होने की हद तक एन्द्रिक ध्वनियाँ रचीं। उन्होंने प्रेम, सौन्दर्य और आत्मीयता के बारीक लयात्मक चित्र उकेरे। परकीया प्रेम और बेवफ़ाई के सन्दर्भों पर चोट की। प्रेम में सामाजिक दायित्वों की जगह बनाये रखी। उन्होंने दुख-द्वन्द्व को कविता में जीया। बहुज्ञ, बहुश्रुत कविता के सूत्र तलाशे। कविता में तात्कालिक सन्दर्भों की रौशनी बनाये रखी। प्रगतिशील कविता की बेचैनियों को जिया। कविता न आत्ममुग्ध होकर लिखी, न आत्ममुग्धता पाने वालों के लिए। अधिक विनम्र और आत्मीय बनना सिखाया। जीवन के अनन्त प्रसंगों में गोता लगाना और संघर्षशील जुझारू जन से प्रेम करना भी सिखाया।

हाईलाइट होने की बात यह है कि उन्होंने खुले हृदय से समकालीनों से प्रेम किया। उस प्रेम की अनुभूति को कविता में गहराई से छुआ। एक ओर नागार्जुन के बान्दा आने पर कविता लिखी तो प्रखर आलोचक रामविलास शर्मा से ‘मित्र-संवाद’ भी किया। इन दोनो रचनाओं में व्यक्ति को उसकी पूरी सामाजिक पृष्ठभूमि के साथ रखा। न तो नागार्जुन पर लिखी कविता निजी है, न रामविलास जी को लिखे पत्र।

नागार्जुन की केदारनाथ अग्रवाल पर लिखी गयी कविता ‘ओ जन मन के सजग चितेरे’ केदार जी के खरे, सच्चे, सीधे व्यक्तित्व और उनमें गँवई गाँव की रंगत, अपनाव भरेपन को आँखों में उतारती है। देखें:

केन कूल की काली मिट्टी, वह भी तुम हो!

कालिंजर का चौड़ा सीना वह भी तुम हो!

ग्रामवधू की दबी हुई कजरारी चितवन, वह भी तुम हो!

कुपित कृषक की टेढ़ी भौंहें, वह भी तुम हो

खड़ी सुनहली फसलों की छवि छटा निराली,

वह भी तुम हो!

लाठी लेकर कालरात्रि में करता जो उनकी रखवाली

वह भी तुम हो

जन गण मन के जाग्रत शिल्पी

तुम धरती के पुत्र: गगन के तुम जामाता!

नक्षत्रों के स्वजन कुटुम्बी, सगे बन्धु तुम नद नदियों के!

बाबा की यह छोटी-सी कविता केदार जी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का बायोडाटा है।

हिन्दी में ख़ासतौर से फ़्रांस के कवि लुई अरागों की याद दिलाने वाले केदारनाथ अग्रवाल अकेले हैं। अरागों ने पत्नी-प्रेम पर अनेक कविताएँ लिखीं और केदार जी ने एक पूरा संग्रह ‘हे मेरी तुम’ पत्नी-प्रेम पर रचा। रूहानी प्रेम की उनकी कविताओं की अद्भुत बात यह है कि ये स्त्री केन्द्रित होते हुए भी मात्र स्त्री पर कविताएँ नहीं हैं। ये वात्सल्य-रस की रचनाएँ हैं। राजनीतिक-सामाजिक आशयों वाली कविताएँ हैं।

उनकी कविता में पर्यवेक्षण भी उनके अनुभव का हिस्सा है। उनके यहाँ विचार और कलात्मकता साथ-साथ चलते हैं। यथार्थ केवल भाषाई तर्क से समझा हुआ नहीं है। समय-सन्दर्भ से कटा हुआ कोई भाव नहीं है। व्यंग्य के साथ-साथ आत्मव्यंग्य की कई मिसालें हैं। नागार्जुन की तरह एक विशेष तरह की खानाबदोशी है। वे कविता में कहीं भी सिनिकल नहीं हैं। उनके यहाँ उपादानों का बहुत जँचा और सही अन्दाज़ व्यक्त हुआ है। कविता देखते ही देखते अन्तरविरोधों में प्रवेश कर जाती है। कविता प्रगतिशील वर्ग-सत्य पर हाथ रखते हुए, बिना गोला-बारूद की गूंज पैदा किये सहज तेवर ले लेती है। कविता कहीं-कहीं अनजाने तौर पर जगायी हुई व्यंजनाएँ हैं। यही उनका अजब और सफल रंग है। पढ़ते-पढ़ते कविता अचानक लाजवाब पंक्ति में तक पहुँच जाती है और दिमाग़ झनझना देती है। देखें यह कविता:

बुन्देलखण्ड का आदमी

हट्टे-कट्टे हाड़ों वाले,

चौड़ी, चकली काठी वाले

थोड़ी खेती-बाड़ी रक्खे

केवल खाते-पीते जीते!

कत्था चूना लौंग सुपारी

तम्बाकू खा पीक उगलते,

गन्दे यश से धरती रँगते!

गुड़गुड़ गुड़गुड़ हुक्का पकड़े,

ख़ूब धड़ाके धुआँ उड़ाते,

फूहड़ बातों की चर्चा के

फौव्वारे फैलाते जाते!

दीपक की छोटी बाती की

मन्दी उजियारी के नीचे

घण्टों आल्हा सुनते-सुनते

सो जाते हैं मुरदा जैसे!!

इस कविता की तल-रेखा को देखें ‘घण्टों आल्हा सुनते-सुनते सो जाते हैं मुरदा जैसे’। इसमें चरित्र के विवरणों में जाती हुई कविता अचानक त्रासदी में बदलकर समाप्त हो जाती है। इस समापन रेखा में केदारजी की कलात्मक दृष्टि, कलात्मक भाषा, कलात्मक सूझ का लेशमात्र भी प्रयोग नहीं है। यथार्थ का बिलकुल नग्न चित्र है। इन पंक्तियों में कलात्मक सूझ से काम लेना भी ख़तरनाक है, वरना रचना यथार्थ की ज़मीन से छिटक चकनाचूर हो सकती है।

दुख पर नज़र हो दुख का विलाप न हो। इसी तकनीक के कारण उनकी प्रत्येक कविता सँभली हुई है और आकर्षक है। तथा समय की ट्रैजेडी के ताप को सँभाले हुए है। कविता के अन्दाज़ पर ज़ोर और असर है। चीज़ों का अनुभूत रूप है। उलझापन नहीं है। देखें यह छोटी-सी ‘बालक से’ शीर्षक कविता:

ताल को कँपा दिया

कंकड़ से बालक ने,

ताल को कँपा दिया,

ताल को नहीं

अनन्त काल को कँपा दिया।

यह एक अन्य कविता देखे:

मैंने उसको

जब-जब देखा,

लोहा देखा,

लोहा जैसा –

तपते देखा,

गलते देखा,

ढलते देखा,

मैंने उसको

गोली जैसा

चलते देखा!

केदार जी अपनी जीवन-विवरणों वाली, प्रकृति और पत्नी-प्रेम की घनीभूत अनुभूतियों वाली, ऐन्द्रिक सघनता के विवरणों वाली अपने बहिर्मुखी स्वभाव वाली कविता के लिए याद आयेंगे। जब भी कोई कविता में खरी-खरी बात करेगा, पत्नी को ‘हे मेरी तुम’ कहेगा, ‘एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ’ कहेगा, मैं कहूँगा कवि केदारनाथ अग्रवाल, कवि केदारनाथ अग्रवाल। आज भी कविता से कुछ उगाह लेने के लिए जब भी मैं अपने समय की कविताओं की ओर पलटता हूँ तभी अपनी मुस्कान बिखेरते कविताएँ पढ़ने का आह्वान देते मुझे कवि केदारनाथ दिखायी देते हैं। मेरे इन शब्दों को पढ़ने वाले मेरे किशोर मित्रें से यही कहूँगा कि वे भी जब कभी ऐसी कविता पढ़ना चाहे जिसमें सजग मध्यवर्गीय स्वर हो जो श्रम, किसान, मज़दूर और जीवन्तता की कविता पढ़ना चाहते हों, तो वे केदार जी की कविताओं की ओर रुख़ करके देखें। हमारी भाषा में केदारनाथ अग्रवाल उन चन्द कवियों में से हैं जो वर्ग संघर्ष की दृष्टि को कभी धुँधली नहीं होने देते।

जिनकी कविता में प्रकृति का सौन्दर्य है। बन्धुत्च की प्रबल भावना है। दुर्दमनीय आशावाद है। और यह सब संघर्ष में विजय और श्रम की संस्कृति को जीवन का आधार बनाने के मकसद से है। उनकी कविता में जो देखा-सुना जा रहा है, वह पूर्ण आत्मीयता के साथ और वर्ग संघर्ष के गुँथे स्वर के साथ है।

देखें इस काव्यबिम्ब को:

केन कूल का

कर्मठ पानी चट्टानों के ऊपर चढ़कर

मार रहा है

घूँसे कसकर

तोड़ रहा है चट्टानी

इस कविता की पंक्तियों में हिम्मत, साहस और संघर्ष का स्वर है, परन्तु रचनात्मक ढंग से। यह स्वर केदार जी की कविता में कूट-कूटकर भरा है। समाज की बातें कविता में अलग से जोड़ी नहीं गयी हैं। कविता बौद्धिक गुहा में भी नहीं ले जाती हैं। यह कमाल केवल केदार जी कर सकते हैं।

इसलिए अपने युवतर साथियों से सलाह के तौर पर कहने की है कि केदारनाथ अग्रवाल की कविता के पास वे तब-तब जायें, जब-जब जीवन निराश कर दे। जब-जब समाज की तात्कालिक परिस्थितियाँ मन को तोड़ने लगे। उन क्षणों में उनकी कविता प्रगतिशील चेतना से जोड़े रखेंगी। अपने समय और समाज से सम्बद्ध रखेगी। हमें हारने से बचायेगी।

अतः यह कहने को जी करता है कि हम यह जान ले कि ऐसी ही कविताएँ होती हैं, जिन्हें महाकाल नहीं नष्ट कर सकता। जो समय का कूड़ा नहीं होतीं। जो महाकाल का भोजन नहीं बनतीं।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2011

 

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