हाथी और मनुष्य
हम मनुष्य भौगोलिक दिशा तो किसी से पूछकर जान लेते हैं, लेकिन राजनीतिक दिशा पर बहस करते हैं। यानी राजनीतिक दिशा के मामले में हमारा व्यवहार हाथियों जैसा होता है। लेकिन जहाँ तक मेरा अनुमान है, हाथियों की बहस ज़्यादा स्वस्थ और वस्तुपरक होती होगी। वहाँ कठमुल्लावाद, पूर्वाग्रह और “मुक्त-चिन्तन” के भटकाव नहीं होते होंगे। हाथियों में येन-केन-प्रकारेण अपनी बात ऊपर रखने की ज़िद और कुतर्क करने की प्रवृत्ति नहीं होती होगी। मनुष्यों की बात अलग है। संगोष्ठियों में सभी अपनी बात बोलते हैं, पर दूसरों की कोई नहीं सुनता। सुनता भी है तो महज़ मीन-मेख निकालने के लिए। हाथी शायद ऐसा नहीं करते होंगे। बुद्धिजीवी मनुष्य बहस करने में मेंढकों के समान होते हैं। एक साथ टर्राते हैं, पर अलग-अलग सुर में। कोई आहट सुनकर डरकर भागने और पानी में कूद जाने का काम एक साथ करते हैं, पर टोकरे में एक साथ उन्हें रख पाना सम्भव नहीं होता। मेंढकों से हमने काफ़ी-कुछ सीखा है।