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उद्धरण
फ्रेडरिक एंगेल्स के जन्मदिवस (28 नवम्बर) के अवसर पर
“श्री ड्यूहरिंग की दृष्टि में बल चरम पाप है। बल प्रयोग का पहला कृत्य उनकी दृष्टि में मूल पाप था। उनके सम्पूर्ण विवेचन में केवल इस बात विलाप किया गया है कि इस मूल पाप ने बाद के समस्त इतिहास को कलुषित कर दिया है। उसमें इस बात का रोना रोया गया है कि इस पैशाचिक शक्ति, बल, ने समस्त प्राकृतिक नियमों को लज्जाजनक ढंग से विकृत कर दिया है। लेकिन श्री ड्यूहरिंग की रचनाओं में इसके बारे में एक शब्द भी नहीं मिलता कि यही बल इतिहास में एक और भूमिका, क्रान्तिकारी भूमिका भी, अदा करता है; कि मार्क्स के शब्दों में प्रत्येक ऐेसे पुराने समाज के लिए, जिसके गर्भ में नये समाज का अंकुर बढ़ रहा है, बल प्रयोग बच्चा जनवाने वाली दाई का प्रयोग करता है; कि बल वह औज़ार है जिसकी मदद से सामाजिक गति पुराने, मृत, अश्मीभूत राजनीतिक रूपों को तोड़कर अपने लिए रास्ता बनाती है। श्री ड्यूहरिंग तो बहुत आह भरते और कराहते हुए इस सम्भावना को स्वीकार करते हैं कि शोषण की आर्थिक व्यवस्था को ख़त्म करने के लिए शायद बल की आवश्यकता होगी-यह उनके लिए बड़े दुर्भाग्य की बात है, क्योंकि उनके मतानुसार हर प्रकार का बल प्रयोग निश्चित रूप से उस व्यक्ति को नैतिक रूप से भ्रष्ट कर देता है जो बल का प्रयोग करता है। प्रत्येक विजयी क्रान्ति से जो महान नैतिक तथा आध्यात्मिक प्रेरणा मिली है, उसके बावजूद श्री ड्यूहरिंग का यही मत है! और यह मत जर्मनी में प्रकट किया जा रहा है, जहाँ एक हिंसापूर्ण टक्कर से-और इसकी निश्चय ही सम्भावना है कि इस प्रकार की टक्कर जनता के लिए अनिवार्य बन जाये-कम से कम इतना लाभ तो अवश्य होगा कि दासत्व की वह भावना मिट जायेगी जो 30 वर्षीय युद्ध के अपमान के फलस्वरूप राष्ट्र की चेतना में कूट-कूटकर भरी गयी है।”
“इस समय हम नौजवानों से यह नहीं कह सकते कि वे बम और पिस्तौल उठायें। आज विद्यार्थियों के सामने इससे भी महत्त्वपूर्ण काम है। आने वाले लाहौर अधिवेशन में कांग्रेस देश की आज़ादी के लिए ज़बरदस्त लड़ाई की उद्घोषणा करने वाली है। राष्ट्रीय इतिहास के इन कठिन क्षणों में नौजवानों के कन्धों पर बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी आ पड़ेगी। यह सच है कि स्वतन्त्रता के इस युद्ध में अग्रिम मोर्चों पर विद्यार्थियों ने मौत से टक्कर ली है। क्या परीक्षा की इस घड़ी में वे उसी प्रकार की दृढ़ता और आत्मविश्वास का परिचय देने से हिचकिचायेंगे?”
-भगतसिंह (‘विद्यार्थियों के नाम सन्देश’ से)
1848 में फ्रांस की राजनीति
(1848 में फ्रांस की पूंजीवादी संसदीय राजनीति की स्थिति पर मार्क्स ने यह चुटीली टिप्पणी की थी। हम इसे यहां छाप रहे हैं। क्या भारतीय राजनीति की तस्वीर आज इससे भी अधिक विद्रूप और घृणित नहीं है?)
मंत्रीमण्डल क्या करता है? – कुछ नहीं।
संसदीय प्रतिपक्ष क्या करता है? – कुछ नहीं।
मौजूदा सदन से फ्रांस को क्या अपेक्षा है? – कुछ नहीं।
श्रीमान गीजो क्या चाहते हैं? – मंत्री बने रहना।
मैसर्स थियेर, मोले एण्ड कम्पनी क्या चाहते हैं? – पुनः मंत्री बनना।
‘तुम हटो मैं बैठूं’ से फ्रांस को क्या मिलता है? – कुछ नहीं।
इस तरह सरकार और प्रतिपक्ष कुछ न करने को अभिशप्त हैं।
आगामी फ्रांसीसी क्रान्ति को कौन सम्पन्न करेगा? – केवल सर्वहारा वर्ग
पूंजीपति वर्ग इसके लिए क्या करेगा? – कुछ नहीं।
– कार्ल मार्क्स, 16 जनवरी, 1848
केवल उन किताबों को प्यार करो जो ज्ञान का स्रोत हों, क्योंकि सिर्फ़ ज्ञान ही वन्दनीय होता है; ज्ञान ही तुम्हें आत्मिक रूप से मज़बूत, ईमानदार और बुद्धिमान, मनुष्य से सच्चा प्रेम करने लायक, मानवीय श्रम के प्रति आदरभाव सिखाने वाला और मनुष्य के अथक एवं कठोर परिश्रम से बनी भव्य कृतियों को सराहने लायक बना सकता है।
– मक्सिम गोर्की
जीने के बजाय लोग अपना समूचा जीवन जीने की तैयारी करने में गँवा देते हैं। और जब इतना सारा समय हाथ से निकल जाने के बाद वे अपने को लुटा हुआ देखते हैं, तो भाग्य को कोसने लगते हैं।
(मक्सिम गोर्की की कहानी ‘बुढ़िया इजरगिल’ की एक पात्र)
आदमी का हृदय जब वीर कृत्यों के लिए छटपटाता हो, तो इसके लिए वह सदा अवसर भी ढूँढ़ लेता है। जीवन में ऐसे अवसरों की कुछ कमी नहीं है और अगर किसी को ऐसे अवसर नहीं मिलते, तो समझ लो कि वह काहिल है या फिर कायर या यह कि वह जीवन को नहीं समझता।
(मक्सिम गोर्की की कहानी ‘बुढ़िया इजरगिल’ की एक पात्र)
अक्टूबर क्रान्ति (25 अक्टूबर, 1917) की 94र्वी वर्षगाँठ के अवसर पर सोवियत समाजवाद की आजकल फैशनेबुल “मुक्त-चिन्तनवादी आलोचनाओं” के समय में लेनिन का एक प्रासंगिक उद्धरण
सोवियत व्यवस्था एक क्रान्ति के दूसरी क्रान्ति में संवर्द्धन की ठीक एक सुस्पष्ट अभिपुष्टि या अभिव्यक्ति है। सोवियत व्यवस्था मज़दूरों और किसानों के लिए अधिकतम जनवाद है और साथ ही वह बुर्जुआ जनवाद के साथ सम्बन्ध-विच्छेद की और जनवाद की नूतन, विश्व-ऐतिहासिक किस्म के यानी सर्वहारा जनवाद अथवा सर्वहारा अधिनायकत्व के जन्म की द्योतक है।
मरणासन्न बुर्जुआ वर्ग तथा उसके दुमछल्ले टुटपुँजिया जनवादियों के कुत्तों और सुअरों को हमारी सोवियत व्यवस्था के निर्माण में हमारी असफलताओं और ग़लतियों के लिए हमारी जी भर कर लानत-मलामत करने दें, हमें गालियाँ देनें दें, हम पर हँसनें दें। हम क्षण भर के लिए भी यह नहीं भूलते कि हमारे यहाँ असफलताएँ और ग़लतियाँ सचमुच बहुत ज़्यादा रहीं और हो रही हैं। एक अभूतपूर्व प्रकार के राज्य-संगठन के निर्माण जैसे नये, विश्व इतिहास के लिए नये काम में असफलताओं और ग़लतियों से कैसे बचा जा सकता है! हम अपनी असफलताएँ और ग़लतियाँ दूर करने के लिए, सोवियत सिद्धान्तों के हमारे द्वारा व्यावहारिक कार्यान्वयन को, जो सर्वांगपूर्ण होने से अभी बहुत, बहुत दूर है, सुधारने के लिए अडिगतापूर्वक संघर्ष करते रहेंगे। परन्तु हम इस पर अधिकारपूर्वक गर्व करते हैं और हमें गर्व है कि सोवियत राज्य का निर्माण आरम्भ करने का, इस काम से विश्व इतिहास के नये युग का आरम्भ करने का, नये वर्ग के जो समस्त पूँजीवादी देशों में उत्पीड़ित है, परन्तु सर्वत्र नये जीवन की ओर, बुर्जुआ वर्ग पर विजय की ओर, सर्वहारा अधिनायकत्व की ओर, मानव जाति को पूँजी के जुवे से, साम्राज्यवादी युद्धों से मुक्ति दिलाने की ओर बढ़ रहा है, प्रभुत्व के युग का आरम्भ करने का सौभाग्य हमारे हिस्से में आया है।
व्ला. ई. लेनिन (‘अक्टूबर क्रान्ति की चौथी जयन्ती’)
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, नवम्बर-दिसम्बर 2011
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