रामानुजन के निबन्ध को दिल्ली विश्वविद्यालय ने पाठ्यक्रम से हटाया
फासीवादियों के सामने फिर घुटने टेके उदार पूँजीवादी शिक्षा तन्त्र ने

नवनीत

2006 में दिल्ली विश्वविद्यालय ने इतिहास के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के द्वितीय वर्ष में रामानुजन के निबन्ध ‘300 रामायणाज़’ को रखा था। इस निबन्ध में वह भारत और अन्य एशियाई देशों में कुल मिलाकर 300 अलग-अलग रामायण होने का दावा करते हैं और इसके लिए वे अकाट्य साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। अन्य कई रामायणों में वे चरित्र ही नहीं हैं जो उस रामायण में हैं जिसे तुलसीदास ने प्रचलित कर दिया। कई रामायण में चरित्र तो वे ही हैं लेकिन उनके बीच के सम्बन्ध वे नहीं हैं जो तुलसीदास की रामायण में हैं। 2008 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कुछ लोगों ने उच्च न्यायालय में यचिका दायर करते हुए कहा कि यह निबन्ध छात्रों को दिग्भ्रमित करता है और अप्रत्यक्षतः यह ग़लती से यह सवाल भी खड़ा कर देता है कि ‘रामायण’ की घटनाएँ ऐतिहासिक नहीं हैं। मुख्य बात जो इस याचिका में कही गयी वह यह है कि यह निबन्ध लोगों की (यानी संघियों की!) धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाता है। इस बात पर उच्चतम न्यायालय ने आदेश दिया कि एक समिति बनायी जाये जो इस विषय पर रिपोर्ट बनाये और दिल्ली विश्वविद्यालय की अकादमिक परिषद् (डी-यू-ए-सी-) को सौंपे और फिर अकादमिक परिषद् तय करेगी कि क्या करना है। समिति के तीन सदस्यों का मत था कि उस निबन्ध को पाठ्यक्रम में रखा जाये व एक का मत यह कि वह द्वितीय वर्ष में नहीं रखा जाना चाहिए। जब परिषद् ने अपना फैसला तय कर लिया तो दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति ने संघियों के सामने हथियार डालते हुए एक सदस्य की बात पर अमल किया और तीन विशेषज्ञों की राय को नज़रअन्दाज़ कर दिया।

स्पष्ट है कि हमेशा की तरह शिक्षा का प्रशासन अपने सेक्युलर, तर्कसंगत और वैज्ञानिक होने के तमाम दावों के बावजूद तर्क की जगह आस्था को तरजीह दे रहा है और फासिस्ट ताकतों के सामने घुटने टेक रहा है। यह प्रक्रिया सिर्फ दिल्ली विश्वविद्यालय तक सीमित नहीं है। आपको याद होगा कि मुम्बई विश्वविद्यालय ने रोहिण्टन मिस्त्री की पुस्तक को शिवसेना के दबाव में आकर पाठ्यक्रम से हटा दिया। इस तरह की तमाम घटनाएँ साफ़ तौर पर दिखलाती हैं कि पाठ्यक्रमों का फासीवादीकरण केवल तभी नहीं होगा जब साम्प्रदायिक फासीवादियों की सरकार सत्ता में होगी। धार्मिक बहुसंख्यावाद के आधार पर राजनीति करने वाली साम्प्रदायिक फासीवादी ताकतें जब सत्ता में नहीं होंगी तो भी भावना और आस्था की राजनीति और वर्ग चेतना को कुन्द करने वाली राजनीति के बूते नपुंसक सर्वधर्म समभाव की बात करने वाली सरकारों को चुनावी गणित के बूते झुका देंगी। ऐसा बार-बार हुआ है। शिक्षा के क्षेत्र में भी और राजनीति के क्षेत्र में भी। सभी ‘मज़हब नहीं सिखाता’ मार्का नेहरूआई धर्मनिरपेक्षता पर भरोसा करने वाली राजनीतिक ताकतें हमेशा ‘भावना और आस्था को ठेस’ के बटखरे के नीचे दबकर आत्मसमर्पण कर देती हैं, क्योंकि उन्हें चुनावी गणित का ध्यान रखना होता है। इन साम्प्रदायिक फासीवादियों का मुकाबला क्रान्तिकारी ताकतें और प्रगतिशील छात्र और नौजवान जुझारू तरीके से सड़कों पर कर सकते हैं। सड़क पर फासीवादी आतंक की राजनीति का मुकाबला सड़क पर ही किया जा सकता है, रैडिकल क्रान्तिकारी तरीके से। न्यायालयों और सरकारों के चक्कर काटने से फासीवाद से देश को नहीं बचाया जा सकता है।

कुछ वर्ष पहले दिल्ली विश्वविद्यालय में एबीवीपी ने फासीवाद पर चल रहे सेमिनार में उत्पात मचाया व वक्ता (गिलानी) पर थूका। 2008 और 2009 में जनचेतना सचल पुस्तक वाहन पर भी हमला किया, हालाँकि उसका मुँहतोड़ जवाब भी दिया गया। उस समय भी विश्वविद्यालय प्रशासन फासीवादी गुण्डों के सामने साष्टांग दण्डवत हो गया और सचल पुस्तक प्रदर्शनी की आज्ञा रद्द कर दी। 19 अक्टूबर 2011 को ‘सशस्त्र बल विशेष शक्तियाँ अधिनियम’ जैसे काले कानून पर अभियान चलाने वाले कुछ कार्यकर्ताओं पर भी एबीवीपी गुण्डों द्वारा हमला किया गया। सबसे ख़ास बात यह है कि इन सारी हरकतों पर विश्वविद्यालय और पुलिस प्रशासन प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समर्थन करती है। 2008 में ही रामानुजन के निबन्ध को लेकर एबीवीपी ने इतिहास विभाग में तोड़-फोड़ की जिसमें नूपुर शर्मा (दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ की पूर्व अध्यक्ष) पर इतिहास विभाग के अध्यक्ष पर थूकने का आरोप था लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन ने कोई कार्रवाई नहीं की। कुल मिलाकर यह देखने को मिलता है कि विश्वविद्यालय प्रशासन से लेकर अकादमिक परिषद तक फासीवादी गुण्डों के सामने नतमस्तक हैं। इतिहास को अपने हिसाब से परोसना इनकी भगवा फासीवादियों आम फितरत है क्योंकि ये इतिहास से डरते हैं। अगर सही बात को छात्रों के बीच ले जाये तो छात्र ख़ुद ही तर्क करके समझेंगे सही और ग़लत क्या है। लेकिन इतिहास और तर्क इनके खि़लाफ़ खड़े हैं। ये डरपोक भी ये बात अच्छी तरह जानते हैं। इसलिए वे झुण्ड में पौरुष दिखाकर और जनता के अज्ञान का लाभ उठाकर अपनी चलाते हैं। भाजपा-शासित राज्यों में लगातार इतिहास की पुस्तकों में मिथकों को स्थापित किया जा रहा हैं, विज्ञान और तर्कणा की जगह निरंकुश असहिष्णुता को स्थापित किया जा रहा है।

तमाम मतभेदों के बावजूद किसी धार्मिक समुदाय, राष्ट्रीय या जाति विशेष की भावनाओं के आहत होने की आड़ में पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगाना सरासर ग़लत है। जिसे आपत्ति हो उसे समालोचना और बहस का पूरा अधिकार हो सकता है लेकिन गुण्डागर्दी और प्रतिबन्धों की राजनीति का सभी जनवादी, प्रगतिशील शक्तियों को जमकर विरोध करना चाहिए। जाहिर है कि फासीवादी ताकतें तर्क, विज्ञान या इतिहास-बोध के बारे में सोचने से डरती हैं क्योंकि इसके बिना ही उनका वजूद हैं। कवयित्री कात्यायनी ने इनके बारे में सही ही लिखा है –

वे नहीं सोचते—

उनके घरों में रेतघड़ियाँ रखी हैं

जिनमें रेत का गिरना

बन्द हो चुका है

और समय उनके लिए रुक गया है।

तब तक वे कुछ पुराने हिसाब

चुकता करेंगे

मुहम्मद गोरी और गजनवी से लेकर

बाबर-औरंगज़ेब तक का।

तब तक वे लौटाने की कोशिश करेंगे

स्वर्ग-सा अतीत,

लाने की कोशिश करेंगे

स्वतन्त्र प्रतियोगिता का स्वर्णिम युग।

पर क्यों नहीं सोच पाते कि

ध्वंस करे भीषण भले ही कुछ समय के लिए,

गढ़ता नहीं है कभी भी इतिहास को उन्माद!

क्यों नहीं सोचते वे कि

कई-कई दिनों तक

अलेक्जेण्ड्रिया के पुस्तकालय के जलते रहने के बाद भी,

नालन्दा और तक्षशिला के महाध्वंस

और दजला नदी में

फूली हुई पुस्तकों का पुल बन जाने

के बाद भी

इतिहास-बोध का वजूद नहीं मिटा,

विज्ञान जला नहीं ब्रूनो के साथ,

झुका नहीं गैलीलियो के माफीनामे के साथ,

गीत मरे नहीं

नात्सी यातना-शिविरों में भी।

आखि़र वे क्यों नहीं सोच पाते कि

विपर्यय तो हुए हैं पहले भी बार-बार

पर वे नहीं बन सके हैं कभी-भी

इतिहास के नियम।

वे सोच नहीं सकते

शायद

इस नहीं सोचने पर ही

टिका हुआ है

उनका वजूद!

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्‍बर-अक्‍टूबर 2011

 

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