Category Archives: न्‍यायपालिका

हज़ारों बेगुनाहों के हत्यारे की मौत और भोपाल गैस त्रासदी के अनुत्तरित प्रश्न

इस भयावह मंज़र के दोषियों की करतूत पर पर्दा डालने के लिए केन्द्र और राज्य की सरकारों और कांग्रेस, भाजपा आदि जैसी पूँजीपतियों के तलवे चाटने वाली चुनावी पार्टियों और यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट से निचली अदालतों तक पूरी न्यायपालिका और स्थानीय नौकरशाही ने जिस नीचता का परिचय दिया उस पर नफ़रत से थूका ही जा सकता है। 7 जून 2010 को भोपाल की एक निचली अदालत के फ़ैसले में कम्पनी के 8 पूँजीपतियों को 2-2 साल की सज़ा सुनायी और कुछ ही देर बाद उनकी जमानत भी हो गयी और वे ख़ुशी-ख़ुशी अपने घरों को लौट गये। दरअसल इंसाफ़ के नाम पर इस घिनौने मज़ाक़ की बुनियाद 1996 में भारत के भूतपूर्व प्रधान न्यायाधीश जस्टिस अहमदी द्वारा रख दी गयी थी जिसने कम्पनी और मालिकान पर आरोपों को बेहद हल्का बना दिया था और उन पर मामूली मोटर दुर्घटना के तहत लागू होने वाले क़ानून के तहत मुक़दमा दर्ज़ किया गया जिसमें आरोपियों को 2 साल से अधिक की सज़ा नहीं दी जा सकती। और इसके बदले में अहमदी को भोपाल गैस पीड़ितों के नाम पर बने ट्रस्ट का आजीवन अध्यक्ष बनाकर पुरस्कृत किया गया।

इशरत जहाँ…एक निरन्तर सवाल

एक तरफ धर्म, क्षेत्र और सर्वापरि वर्ग-आधारित वर्चस्व के साथ राज्य अपने प्रचार माध्यमों और संस्कृति प्रतिष्ठानों के जरिये समाज के एक हिस्से में “विकास” व “कानून” तथा “वैधानिकता” को इस तरह से सामने लाने की कोशिश में लगा है कि जो कुछ उसकी परिभाषा के दायरे में सही है, मात्र वही सत्य है। दूसरी तरफ प्रतिरोध और जनाधिकारों के प्रत्येक संघर्ष को कुचलने के लिए उसे “विकास”, “विरोध” , “आतंकवाद”, “अलगाववाद” और “माओवाद” व “नक्सलवाद” से जोड़ दिया जाता है। यह सामान्य आबादी में ही नहीं बल्कि पढ़े लिखे तबके तक के लिए सोचने की सीमा से बाहर चला जाता है कि विकास के क्रान्तिकारी और जनपक्षधर रूप भी हो सकता है। जिसे आतंकवाद कहा जा रहा है वह राज्य आतंकवाद की उपज है; जिसे अलगाववाद कहा जा रहा है वह वर्चस्ववाद और शोषण और अत्याचार के ख़िलाफ़ संघर्ष हो सकता है। ये सारे सवाल बेहद संवेदनशीलता से उस आबादी के सामने खड़े हैं जो अपने भविष्य के सपनों को संजोने में मग्न है और उसके सामने भी जो दो वक्त की रोटी के लिए हाड़-तोड़ खट रही है।

पूँजीवादी जनवाद के खाने के दाँत

पूँजीवादी व्यवस्था में संसद, विधानसभाएँ आदि तो केवल दिखाने के दाँत होते हैं जो जनता को दिग्भ्रमित करने के लिए खड़े किए जाते हैं। “लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था”, “लोकतंत्र के मजबूत खंभे” जैसी लुभावनी बातों से जनता की नज़रों से सच्चाई को ओझल करने की कोशिश की जाती है। पूँजीवादी जनवाद की असलियत यह है कि वह 15 प्रतिशत मुनाफ़ाखोरों का जनवाद होता है और 85 प्रतिशत आम जनता के लिए तानाशाही होता है। इसी तानाशाही को पुलिस, कानून, कोर्ट-कचहरी, जेल आदि मूर्त रूप प्रदान करते हैं जो पूँजीवादी व्यवस्था के खाने के दाँत की भूमिका अदा करते हैं।

बथानी टोला नरसंहार फैसलाः भारतीय न्याय व्यवस्था का असली चेहरा

 न्यायपालिका में भी जातिगत पूर्वाग्रह व्याप्त हैं। बिरले ही ऊँची जाति के अपराधियों को सज़ा मिल पाती है। अधिकांश मसलों में उच्च जाति के सवर्ण अपराधी, जो अक्सर धनी भी होते हैं, गवाहों को ख़रीद लेते हैं या फिर जातिगत दबदबे का इस्तेमाल कर उन्हें दबा देते हैं और अन्त में न्यायपालिका ‘‘पुख़्ता सबूतों’’ के अभाव में उन्हें सन्देह का लाभ देते हुए छोड़ देती है। यह पुरानी कहानी है। भारतीय समाज में शासक वर्गों का शोषण जातिगत पूर्वाग्रहों को सहयोजित करता है और उनका इस्तेमाल करता है। बथानी टोला नरसंहार के सभी अभियुक्त सवर्ण जाति (भूमिहार, राजपूत और बाह्मण) से थे और रणवीर सेना को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से नेताओं, सवर्ण जाति के धनिकों और पुलिस का समर्थन भी था। और यहाँ पर भी वही हुआ जो अधिकांश ऐसे मामलों में होता है। भारतीय न्यायपालिका में उच्च पदों पर आसीन बड़ी आबादी धनी और सवर्ण घरों से आती है। ऐसे में, उनके वर्गीय और जातिगत पूर्वाग्रह अधिकांश मामलों में पहले से ही अन्धे बुर्जुआ न्याय को बहरा और गूँगा भी बना देते हैं। मौजूदा पूँजीवादी न्याय व्यवस्था के तहत, जो कि सवर्ण पूर्वाग्रहों से भी ग्रसित है, आम ग़रीब दलित आबादी कभी भी न्याय की उम्मीद नहीं कर सकती है।

एक शर्मनाक फैसले की हकीकत

क्या आप संवेदनशील, न्यायप्रिय और इंसाफ़पसन्द हैं? क्या अन्याय के विरुद्ध विद्रोह को आप न्यायसंगत समझते हैं? क्या शोषण के खिलाफ होने वाली बग़ावत को आप सही मानते हैं? अगर इन सवालों का जवाब हाँ है तो सावधान! किसी भी क्षण आपको ‘‘गुण्डा’’ घोषित कर समाज के लिए ख़तरनाक बताया जा सकता है! अभी हाल में ऐसी ही एक शर्मनाक घटना गोरखपुर जिले में सामने आयी।

असली इंसाफ़ होना अभी बाकी है!

इस तथ्य को साबित करने के लिए किसी अन्य प्रमाण की ज़रूरत भी नहीं है कि गुजरात नरसंहार के करीब 10 साल बाद भी गुजरात के नीरो नरेन्द्र मोदी-समेत तमाम धर्म-ध्वजाधारियों और फासीवादियों पर कोई आँच तक नहीं आयी है। इस देश की न्यायिक व्यवस्था आज भी शेक्सपीयर के पात्र हैमलेट की भाँति ‘मोदी को चार्जशीट किया जा सकता है या नहीं’ की ऊहापोह में फँसी हुई है। ये तथ्य स्वयं ही पूँजीवादी न्याय व्यवस्था पर सवालिया निशान खड़ा करने के लिए पर्याप्त हैं। यह दीगर बात है कि अगर मोदी के खि़लाफ़ आरोप-पत्र दायर हो भी जाता है तो ये पूरी न्यायिक प्रक्रिया इतनी लम्बी, टेढ़ी-मेढ़ी और थकाऊ होगी कि इस पूरे मामले में ही ज़्यादा कुछ नहीं हो पायेगा। जब तक पूँजीवाद रहेगा, समाज में साम्प्रदायिकता और राजनीति में उसके उपयोग की ज़मीन भी बनी रहेगी। गुजरात जैसे नरसंहार होते रहेंगे, लोगों की जानें इसकी भेंट चढ़ती रहेंगी और मोदी जैसे लोग बेख़ौफ़ कानून को अँगूठा दिखाते हुए खुलेआम आज़ाद घूमते रहेंगे। इसलिए ऐसी व्यवस्था से सच्चे न्याय की उम्मीद करना ही बेमानी है।

सलवा जुडूम के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय का फैसला

छत्तीसगढ की भाजपा शासित सरकार लगातार यह तर्क देती रही कि माओवादी विद्रोहियों को रोकने के लिए उसके पास एकमात्र विकल्प है कि वह दमन के सहारे शासन करे। दमन के लिए छत्तीसगढ़ सरकार ने अपने सुरक्षा बलों के अलावा आदिवासी आबादी के एक छोटे हिस्से को जो कि अशिक्षित, गरीब व पिछड़ा था पैसे व हथियार देकर उन्हीं के साथी आदिवासियों के खिलाफ खड़ा कर दिया। ये वहां के जंगली रास्तों व भाषा-बोली को भलीभांति जानते थे। इसका फायदा राज्य के सुरक्षा बलों ने भी उठाया।

व्यवस्था में आस्था के सबसे बड़े रक्षक सर्वोच्च न्यायालय का ‘‘न्याय’’

पूँजी की राजसत्ता का महल जिन खम्भों पर खड़ा होता है उसमें पूँजीवादी न्यायपालिका सत्ता के विभ्रम को बरकरार रखने वाली सबसे मजबूत खम्भा है। यह अंतिम दम तक शोषणकारी राज्य के कल्याणकारी मुखौटे का भ्रम लोगों में कायम करनें का काम करती है। वर्ग समाज में अल्पसंख्यक पूंजीपति वर्ग के शासन में कानून एक ऐसा हथियार है जिससे आम जनता का वैधानिक शोषण सम्भव होता है।

पूँजीवादी न्याय और मानवता के प्रचार का झूठा, अधूरा और वर्ग-केन्द्रित चरित्र

पूँजीपति वर्ग के ये ‘‘न्‍याय” के प्रचारक सिर्फ उसी सीमा तक न्याय, मानवता और भावनाओं की बातों का समर्थन और प्रचार करते हैं जहाँ तक शासक वर्ग का और ख़ुद उनका असली चेहरा उजागर न हो। पूरा पूँजीवादी प्रचारतन्‍त्र अपने प्रचार माध्यमों से कुछ मध्यवर्गीय घटनाओं की आड़ लेकर ग़रीब मेहनतकश जनता पर हर दिन, हर समय और हर जगह हो रहे अनेक पूँजीवादी अत्याचारों से लोगों का ध्यान भटकाने, बहुसंख्यक आबादी की सभी समस्याओं को लेकर उठने वाली माँगों को दबाने और सच को लगातार पर्दे के पीछे ढकेलने के साथ लोगों की सामाजिक भावनाओं, मानवीय आदर्शों और जनवादी मूल्यों को वर्ग सीमाओं में संकुचित करने का कार्य करता है।

पूँजीवादी न्याय-व्यवस्था का घिनौना सच

जाँच एजेंसियों के इन भारी मतभेदों और कृत्रिम गवाहों के झूठे बयानों के बावजूद न्यायालय ने अभियुक्तों को दोषी मानते हुए सज़ाएँ दीं। जबकि इसके उलट गुजरात दंगों (विशेषकर बेस्ट बेकरी) में जहाँ हज़ारों अल्पसंख्यक लोग मारे गये, जहाँ हैवानियत का नंगा नाच किया गया, जहाँ मानवजाति को शर्मसार किया गया, जहाँ छोटे-छोटे बच्चों तक को नहीं छोड़ा गया, जहाँ वे चीख़ते-चिल्लाते रहे, जहाँ हज़ारों सबूत चीख़-चीख़कर आज भी उस मंजर की हुबहू कहानी कह रहे हैं, वहाँ यह न्याय-व्यवस्था अपंग नज़र आती है, शैतानों के पक्ष में खड़ी नज़र आती है, पीड़ितों से दूर नज़र आती है।