इशरत जहाँ…एक निरन्तर सवाल

प्रेम प्रकाश

पिछले नौ सालों से यह मामला समय-समय पर तेज़ और मन्‍द होता रहा लेकिन लगातार यह राज्य द्वारा प्रायोजित हिंसा और फर्ज़ी मुठभेड़ की सच्चाई को चीख-चीख कर बयाँ करता रहा। कल को यह भी हो सकता है कि इशरत जहाँ फर्ज़ी मुठभेड़ में मारे गये चारों लोगों को किसी आतंकवादी संगठन का ख़तरनाक सदस्य सिद्ध कर दिया जाये; यह करना राज्य और उसकी सुरक्षा एजेंसियों के लिए बड़ी ही आम बात है और देश के एक हिस्से को इनके मारे जाने की वाजिब वजह भी मिल जाये। लेकिन इसके बाद भी कुछ सवाल ऐसे हैं जिनको हमें खुद से और एक समाज को जिसमें अगर थोड़ी भी मानवता और विवेक हो, स्वयं से पूछना ही चाहिए। साथ ही साथ आज हम जिस शासन व्यवस्था से संचालित हो रहे हैं उसके क्रियाकलापों और अन्तर्वस्तु पर भी सोचने की ज़रूरत है।

हम उस घटना का ज़िक्र कर रहे हैं जिसे लगभग नौ वर्ष पूर्व 15 जून 2004 को गुजरात के अहमदाबाद में गुजरात पुलिस और एस.आई.बी. (सब्सिडियरी इंटेलिजेंस ब्यूरो) ने अंजाम दिया था। इसमें मुम्बई की 19 वर्षीय छात्र इशरत जहाँ व तीन अन्य लोगों को मार डाला गया था। इसे एक मुठभेड़ बताया गया। यह कहा गया कि ये चारों “आतंकवादी” गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को मारने के इरादे से आए थे। शुरू से ही इस “मुठभेड़” को तमाम संगठनों और एक्टिविस्टों ने फर्ज़ी बताया और इस पर उच्च-स्तरीय जाँच की माँग की गयी। और तब से राजनीतिक दाँवपेच के बीच यह अभी तक चल रहा है। विगत 3 जुलाई 2013 को इस मामले पर सी.बी.आई. ने अपने 1500 पन्नों की जाँच रिपोर्ट पेश की जिसमें हत्या की साज़िश की एक भयंकर तस्वीर सामने आती है। सी.बी.आई. द्वारा गुजरात हाईकोर्ट में दायर इस चार्जशीट में कहा गया है कि यह गुजरात पुलिस और एस.आई.टी. के षड्यन्त्र का नतीजा है। सी.बी.आई. रिपोर्ट में गुजरात पुलिस अधिकारी डीआईजी डी. जी. वंज़ारा, अतिरिक्त डीजीपी पी.पी.पाण्डे, जी. एल. सिंघल, तरुण बरोट, जे. जी. परमार, अनाजू चौधरी, और एन. के. अमीन को आरोपी बताया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि सिंघल, बरोट, चौधरी और अमीन ने इशरत और उसके साथियों पर गोली चलायी। यद्यपि सी.बी.आई. ने मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा उसके सहयोगी अमित शाह का नाम नहीं लिया है लेकिन इस पूरे प्रकरण में उनके हाथ होने के पर्याप्त सूत्र हैं। खुफिया विभाग के अधिकारी राजेन्द्र कुमार, पी. मित्तल, राजीव वानखेड़े और एम. के. सिन्हा को षड्यन्त्र मे शामिल बताया गया है। सी.बी.आई. ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि खुफिया विभाग के अधिकारी अमीन और बरोट ने इशरत जहाँ और प्राणेश पिल्लै उर्फ जावेद शेख को 12 जून 2004 को आनंद जिले के टोल बूथ से एम. के. सिन्हा और राजीव वानखेड़े की मदद से गिरफ़्तार किया और उनसे पूछताछ की गई। सिंघल पूरे मामले में गुजरात पुलिस के संयोजक के रूप में काम कर रहा था। दो अन्य व्यक्ति अमजद अली राणा और जीशान जौहर को भी पहले से ही गिरफ़्तार करके उनसे पूछताछ की गयी और इन सभी को “मुठभेड़” से पहले विभिन्न फार्म हाउसों में रखा गया तथा हत्या से पहले फर्ज़ी मुठभेड़ वाली जगह पर लाया गया। सी.बी.आई. स्रोतों ने तत्कालीन गृह राज्य मंत्री शाह और मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से मुठभेड़ में शामिल लोगों से बातचीत की बात पहले कही थी। डीआईजी डी.जी.वंज़ारा और अतिरिक्त डीजीपी पी.पी.पाण्डे ने मुठभेड़ की एफ़आईआर एक दिन पहले ही तैयार कर ली थी तथा जो हथियार इशरत और उसके साथियों के पास होना दिखाया गया उसे भी खुफिया विभाग ने ही उपलब्ध करवाया था।

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सी.बी.आई. की यह रिपोर्ट इशरत और तीन अन्य लोगों के फर्ज़ी मुठभेड़ की जो तस्वीर हमारे सामने पेश कर रही है यह भले ही राजनीतिक गुर्गों को छोड़ केवल पुलिस और एस.आई.बी. तक सीमित है लेकिन यह इससे अधिक व्यापक है। सी.बी.आई. की इस जाँच से पहले भी इस मामले को लेकर जो जाँच और प्रकरण सामने आए हैं वह भी राजनीति, पुलिस और एस.आई.बी. की घिनौनी साँठगाँठ को सामने लाता है। इसी मामले की जाँच रिपोर्ट 7 सितंबर 2009 को मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट एस.पी.तमांग ने मेट्रोपोलिटन कोर्ट को सौंपी थी; जिसमें इस मुठभेड़ को फर्ज़ी करार दिया गया था। रिपोर्ट में इसे ‘कोल्ड ब्लडेड मर्डर’ कहा गया था। 9 सितंबर 2009 को गुजरात हाईकोर्ट ने इस पर रोक लगाते हुए एस.आई.टी. को इसके जाँच की ज़िम्मेदारी सौंपी। सितंबर 2010 को एस. आई. टी. प्रमुख आर- के. राघवन ने जाँच करने से इनकार कर दिया और नई एस.आई.टी. का गठन किया गया। 29 जुलाई 2011 को राजीव रंजन वर्मा को एस.आई.टी. का नया चेयरमैन बनाया गया और नवंबर 2011 में इसकी रिपोर्ट के अनुसार “मुठभेड़” में शामिल लोगों के ख़िलाफ़ केस दर्ज़ करने के आदेश दिये गए।

इस जाँच की कहानियाँ और वर्तमान सी.बी.आई. रिपोर्ट जिस तरफ इशारा कर रही हैं, उस फर्ज़ी मुठभेड़ की कहानी देश के एक हिस्से को पता है। लेकिन कुछ प्रश्नों को मीडिया जिस तरह से उठा रही है उससे वह एक बार फिर से “मुठभेड़” को जायज़ ठहराने की मानसिकता बना रही है। जैसे कि क्या वे आतंकवादी नहीं थे? क्या वे नरेंद्र मोदी को मारना चाहते थे? क्या उनसे गुजरात को ख़तरा था? दरअसल ये वही प्रश्न हैं जिनकी आड़ में राज्य हिंसा को जायज़ ठहराने के लिए “राष्‍ट्र-प्रेम” और “राष्‍ट्रसुरक्षा” के मिथ को पूज्य और प्रश्नेतर बना देता है। मात्र इन जुमलों से ही किसी की हत्या करने के लिए राज्य वैधता के लिए जन मानसिकता का निर्माण करता है। वरिष्ठ वकील के.टी.एस. तुलसी कहते हैं, “अगर पुलिस को शक़ था तो उन पर मुकदमा चलाते, मार नहीं डालना चाहिए था। यह साफ-साफ हत्या है।” संविधान की दुहाई और न्यायालय की गरिमा का राग अलापने वाली सत्ता का सारा “न्‍यायबोध” तब कहाँ चला जाता है? क्या हम इस बात से अपरिचित हैं कि किसी को सड़क से उठाकर आतंकवादी घोषित कर मार देना पुलिस और खुफिया एजेंसियों के लिए कितना आसान है? मीडिया द्वारा और वर्तमान फिल्मों द्वारा राष्ट्रवाद का जो संस्करण समाज के मस्तिष्क में अंकित किया जा रहा है उसमें बिना सोचे ही “राष्‍ट्र” के समर्थन में राष्ट्र-राज्य जिसे विरोधी या “आतंकवादी” घोषित करता है उससे ‘ऑन दि स्पॉट’ निपट लेने और ख़त्म कर देने की एक रुग्ण मानसिकता पैदा हुई है। आत्मरति और स्वार्थ की संस्कृति ने आज कुछ मुद्दों को सोच के दायरे से बाहर कर दिया है। यह खुद को इशरत और उसके साथियों की जगह पर रखकर ही देखा जा सकता है। शायद यह प्रश्न कि आख़िर इशरत थी कौन, हमेशा अनुत्तरित ही रहे। यह कहाँ तक ठीक होगा कि “आतंकवाद और सुरक्षा” के नाम पर किसी को पकड़कर मारने की छूट पुलिस और खुफिया एजेंसियों को दे दी जाये ? इशरत और अन्य “मुठभेड़ों” में मारे जाने वाले लोग भविष्य के स्वप्नों से युक्त हमारे तरह ही इंसान हैं जिनकी आशाओं और जीवन की हत्या राज्य लगातार कर रहा है। इस 19 वर्षीय छात्रा की जगह कोई भी हो सकता है जिसे अपने स्वार्थ, पदलिप्सा और लोभ के लिए राज्य के प्रतिनिधियों व नुमाइन्दों द्वारा कत्ल किया जा सकता है और इसके लिए तो उसका व्यवस्था विरोधी होना भी ज़रूरी नहीं है। बस वह सहज ही मिल जाये और राज्य के अपने अन्तर्विरोधों को हल करने के लिए उसे उपयुक्त हो। ऐसे समय में वे व्यक्ति जो व्यवस्था की वर्तमान सोच से भिन्न समाज के बदलाव और परिवर्तन की सोच रखते हैं या इसके दमन का प्रतिरोध करते हैं इन “मुठभेड़ों” का शिकार होते हैं।

पूँजीवादी राज्य अपनी सतत् प्रायोजित हत्याओं, जिसमें व्यवस्थागत हत्याओं के साथ सत्ता की अमानवीय वर्चस्ववादी प्रवृत्ति के कारण उठते प्रतिरोध के प्रत्यक्ष दमन और जनसंहार भी शामिल हैं, की स्वीकृति के लिए लगातार ऐसी सोच पैदा करता है जो जनता की साझी समस्याओं और ज़रूरतों से ध्यान हटाकर लोगों को बाँटने का काम करे। कश्मीर के शोषण और कश्मीरी जनता के दमन के लिए मात्र यह बता देना राज्य के लिए काफी है कि “मुठभेड़” में मारा गया व्यक्ति “कश्मीरी अलगाववादी आतंकी” था और उसका पाकिस्तान से सम्बन्ध था और राष्ट्र का एक वर्ग गर्व से झूमने लगता है। बहुतों के लिए यह प्रश्नों की सीमा से बाहर चला जाता है। यहाँ “अखंडित राष्ट्र” का “राष्‍ट्रवाद” बोलता है। 1984 के दंगों के बाद राज्य द्वारा तमाम सिख नवयुवकों की हत्या सिख आतंकवाद के नाम पर जायज़ थी! पूर्वात्तर में की जा रही तमाम फर्ज़ी मुठभेड़ अलगाववादियों और आतंक के नाम पर जायज़ है! अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे लोगों और जनता के बीच उसके संघर्षों के लिए खड़े नवयुवकों कि हत्या की स्वीकृति को आज राज्य “माओवाद” के नाम पर जायज़ ठहरा रहा है। “राष्‍ट्रवाद” और हिन्दू मानसिकता के तुष्टिकरण के लिए आतंकवाद के नाम पर मुसलमान नवयुवकों की हत्या सदैव ही उग्र हिन्दू राष्ट्रवाद और नरम हिन्दू साम्प्रदायिकता के लिए प्रश्नेतर और तुष्टिकरण का हथियार रहा है। और जब यह हत्याओं का सिलसिला इतना अधिक बढ़ जाये कि इसको ढँकना राज्य के लिए मुश्किल हो जाये अथवा सत्ताधारी वर्ग के अपने अन्तर्विरोधों के कारण कोई मामला सतह पर आ जाये तो राज्य की शुचिता और जाँच का सतत् असमाप्त खेल शुरू हो जाता है। फौज़ी अफसरों और पुलिस अधिकारियों द्वारा बेरोज़गार युवकों और मज़दूरों की आतंकी के रूप में फर्ज़ी मुठभेड़ों में हत्या की तमाम दास्तानें हैं। फरवरी 1991 में कश्मीर में सामूहिक बलात्कार की घटना, सामूहिक कब्रें, उत्तर-पूर्व में तमाम अत्याचार और आदिवासी इलाकों में गाँवों का सामूहिक संहार आज़ाद और हेमचन्द जैसे लोगों के फर्ज़ी मुठभेड़; यह समान रूप से हर तरफ जारी है। खुद पुलिस और खुपि़फ़या विभाग के लोगों द्वारा इसके जनविरोधी और साम्प्रदायिक चरित्र के बारे में कई बार कहा गया है। मीडिया द्वारा इशरत मामले को जिस सनसनी के तौर पर पेश किया जा रहा है, उसमें यह जनविरोधी इस असमानतापूर्ण समाज में पूँजी की सत्ता, राजनीति, कार्यपालिका और न्ययायपालिका के वर्गीय गठजोड़ के नियम के रूप में नहीं बल्कि कुछ लोगों की गलतियों और विच्युतियों के रूप में सामने आता है, जो सत्ता को कुछ त्रुटियों के साथ वैधीकरण देने का ही काम करता है। अजमल क़साब मामले में “न्‍याय तक मानवीय पहुँच” का स्वाँग रचता भारतीय राज्य इशरत तथा उसके साथ मारे गए लोगों को न्याय से वंचित रखता है। क्या इशरत को न्याय के लिए अपना पक्ष रखने का अधिकार था? भारत की वर्तमान पीढ़ी के सामने यह प्रश्न एक बड़े ख़तरे के रूप में मौजूद है।

आज हमारे सामने इशरत जैसी ज़िन्दगियों ने समाज का जो ख़ाका पेश किया है वह बहुत ही भयंकर है। एक तरफ धर्म, क्षेत्र और सर्वापरि वर्ग-आधारित वर्चस्व के साथ राज्य अपने प्रचार माध्यमों और संस्कृति प्रतिष्ठानों के जरिये समाज के एक हिस्से में “विकास” व “कानून” तथा “वैधानिकता” को इस तरह से सामने लाने की कोशिश में लगा है कि जो कुछ उसकी परिभाषा के दायरे में सही है, मात्र वही सत्य है। दूसरी तरफ प्रतिरोध और जनाधिकारों के प्रत्येक संघर्ष को  कुचलने के लिए उसे “विकास”, “विरोध” , “आतंकवाद”, “अलगाववाद” और “माओवाद” व “नक्सलवाद” से जोड़ दिया जाता है। यह सामान्य आबादी में ही नहीं बल्कि पढ़े लिखे तबके तक के लिए सोचने की सीमा से बाहर चला जाता है कि विकास के क्रान्तिकारी और जनपक्षधर रूप भी हो सकता है। जिसे आतंकवाद कहा जा रहा है वह राज्य आतंकवाद की उपज है; जिसे अलगाववाद कहा जा रहा है वह वर्चस्ववाद और शोषण और अत्याचार के ख़िलाफ़ संघर्ष हो सकता है। ये सारे सवाल बेहद संवेदनशीलता से उस आबादी के सामने खड़े हैं जो अपने भविष्य के सपनों को संजोने में मग्न है और उसके सामने भी जो दो वक्त की रोटी के लिए हाड़-तोड़ खट रही है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्‍त 2013

 

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