पूँजीवादी न्याय और मानवता के प्रचार का झूठा, अधूरा और वर्ग-केन्द्रित चरित्र
राजकुमार, गुड़गाँव, हरियाणा
पूँजीवादी प्रचार मीडिया पिछले काफ़ी समय से जेसिका लाल, आरुषि, रुचिका,और इनके जैसी कुछ और आपराधिक घटनाओं को लेकर लोगों को न्याय और सच के प्रति उनके अहसास की याद दिलाने की कोशिश कर रहा है, और अपराध के शिकार इन लोगों को ‘‘न्याय” दिलाने के लिए ‘‘लगातार” प्रचार कर रहा है। इन घटनाओं को लेकर फि़ल्में भी बन रहीं हैं। ऐसी ख़बरें सुनकर सभ्य समाज के ज़्यादातर लोग न्यायिक व्यवस्था की आलोचना किये बिना नहीं रह पाते और उन्हें कुछ समय के लिए लगता है कि समाज में काफ़ी ‘‘अन्याय” हो रहा है जिसके विरुद्ध सभी को ‘‘आवाज़” उठानी चाहिए।
अब यदि हम कुछ और तथ्य देखें, जिन पर हर व्यक्ति को अमल करने की आवश्यकता है और उन्हें इनको न्याय दिलाने के लिए प्रचार भी करना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्यवश कई लोगों को शायद इन घटनाओं का पता भी नहीं चलता होगा :
पहला – फ़ैक्टरियों में और ठेकेदारों के लिए काम करते समय कई मज़दूर मुनाफ़े की हवस के कारण सुरक्षा के सही इन्तज़ाम न होने से रोज़ दुर्घटनाओं में मौत के शिकार होते हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है भोपाल गैस काण्ड (पृष्ठ 11, द हिन्दू, 03 अप्रैल 2011, एवं पृष्ठ 12, नई दुनिया 20 अप्रैल 2011), और रोज़ाना होने वाली अनेक दुर्घटनाएँ। (मज़दूर बिगुल, जनवरी 2011, दिसम्बर 2010)।
दूसरा – “द हिन्दू” (05 अप्रैल 2011) की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के कई राज्यों – उड़ीसा, वेस्ट बंगाल, बिहार, छत्तीसगढ़ और असम से आकर बनवार रामगढ़ में कोयले की ख़ानों में काम करने वाले ज़्यादातर मज़दूर 7 से 17 वर्ष की उम्र के बच्चे हैं, और इन ख़ानों में कोई श्रम कानून लागू नहीं होता, मज़दूरों की कोई सुरक्षा नहीं होती, उनके रहने का कोई इन्तज़ाम नहीं है, और काम करने के समय की कोई सीमा नहीं है। ये बच्चे यहाँ पर सुबह 5 बजे से रात तक काम करते हैं। कई दुर्घटनाओं में रोज़ मज़दूरों की मौत हो जाती है, जिसकी कहीं कोई सुनवाई नहीं होती। मज़दूरों के बच्चों के लिए यहाँ कोई स्कूल नहीं है और पीने के लिए पानी का कोई इन्तज़ाम नहीं है। हर दिन स्त्री मज़दूरों का यौन उत्पीड़न जैसी नीच बदसलूकी होती ही रहती है, और राज्य सरकार को इसकी जानकारी है, लेकिन वे इसके बारे में सिर्फ ‘‘सोच” रहे हैं।
तीसरा – कई किसान ग़रीबी के कारण मजबूर होकर आत्महत्याएँ कर रहे हैं। (मज़दूर बिगुल, जनवरी 2011)
चैथा – पूरी दुनिया में ग़रीबों पर भूख, कुपोषण और शोषण के रूप में रोज़ अनेकों अत्याचार होते हैं और हज़ारों बच्चे हर दिन कुपोषण से या चिकित्सा के अभाव में मर जाते हैं। (Human Rights Council. “ Resolution 7/14. The Right to Food”, United Nations, March 27, 2008,p.3)
पाँचवाँ – अभी 3 मई को एक कारख़ाने के मालिक ने गोरखपुर में अपनी माँगों को लेकर प्रदर्शन कर रहे मज़दूरों पर अपने भाड़े के गुण्डों से गोलियाँ चलवायीं और पूरा प्रशासन उस मालिक को बचाने में, और मज़दूरों और उनके कार्यकर्ताओं को ही अपराधी ठहराने में लगा हुआ है, (‘‘प्रदर्शन के दौरान मज़दूरों पर चली गोलियाँ, 16 घायल”, दैनिक जागरण, 4 मई)।
पूरी दुनिया में ऐसे अनेक प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष अपराध जो शासकों द्वारा निर्मित हैं, पूरे पूँजीवादी विश्व की जनता पर हर क्षण होते ही रहते हैं। लेकिन पूरा पूँजीवादी प्रचार तन्त्र जो जेसिका और आरुषि, जैसी एक-दो अपराधिक और कुछ छोटे-छोटे मुद्दों को लेकर रोज़ न्याय का प्रचार करता है, उसकी नज़र कभी सरकारी और ग़ैर-सरकारी पूँजीवादी दलालों के इन अमानवीय कामों की तरफ़ नहीं पहुँचती?
पूरी पूँजीवादी व्यवस्था ने ज़्यादातर समझदार लोगों की भावनाओं को वर्ग हित के दबाव से इतना संकुचित बना दिया है कि इनका ध्यान शायद सिर्फ दो या तीन घटनाओं की ओर ही जाता है, और अनेक दूसरे अत्याचारों तक उनकी नज़र कभी नहीं पहुँचती, और शायद कभी कोर्ट और सीबीआई का ध्यान भी इन दबे-कुचले लोगों को न्याय दिलवाने की ओर नहीं जाता।
पूँजीपति वर्ग के ये ‘‘न्याय” के प्रचारक सिर्फ उसी सीमा तक न्याय, मानवता और भावनाओं की बातों का समर्थन और प्रचार करते हैं जहाँ तक शासक वर्ग का और ख़ुद उनका असली चेहरा उजागर न हो। पूरा पूँजीवादी प्रचारतन्त्र अपने प्रचार माध्यमों से कुछ मध्यवर्गीय घटनाओं की आड़ लेकर ग़रीब मेहनतकश जनता पर हर दिन, हर समय और हर जगह हो रहे अनेक पूँजीवादी अत्याचारों से लोगों का ध्यान भटकाने, बहुसंख्यक आबादी की सभी समस्याओं को लेकर उठने वाली माँगों को दबाने और सच को लगातार पर्दे के पीछे ढकेलने के साथ लोगों की सामाजिक भावनाओं, मानवीय आदर्शों और जनवादी मूल्यों को वर्ग सीमाओं में संकुचित करने का कार्य करता है।
यह सामाजिक यथार्थ जो थोड़ी सी मेहनत के बाद प्रत्यक्ष दिख जाता है, लेकिन इसके पीछे छुपा हुआ भौतिक कारण क्या है? कार्ल मार्क्स के द्वारा दर्शन की दरिद्रता लेख में लिखे गये शब्दों में, ‘‘अन्ततः वह समय आया जब हर चीज़ जो मनुष्य के लिए अपरिहार्य थी विनिमय और प्रतियोगिता की वस्तु बन गयी, और उनकी आवश्यकता से अलग कर दी गयी। यह वह समय था, जब हर वस्तु जिसका पहले सिर्फ आदान-प्रदान किया जाता था, लेकिन विनिमय नहीं हुआ था; दान की जाती थी, लेकिन बेची नहीं गयी थी; ले ली जाती थी, लेकिन कभी ख़रीदी नहीं गयी थी – सदाचार, प्रेम, विश्वास, ज्ञान, विवेक आदि – कहें कि जब हर चीज़ वाणिज्य में सिमट गयी। यह सामान्य भ्रष्टाचार, सार्वभौमिक घूसखोरी का समय था, या राजनीतिक अर्थशास्त्र के शब्दों में कहें कि जब हर नैतिक या भौतिक चीज़ बाज़ार में अपने मूल्य पर बिकने वाली एक वस्तु बन गयी थी।” यह समय पूँजीवादी वर्ग समाज के उदय का और मनुष्य की औद्योगिक प्रगति के साथ सामाजिक पतन का था, जो साम्राज्यवाद तक पहँचकर आज अपनी कब्र खोद रहा है। और ऐसी सामाजिक उत्पादन व्यवस्था के अन्तर्गत शासक वर्ग के न्याय, व्यक्तियों के विचारों और सामाजिक मूल्यों, यहाँ तक कि व्यक्ति की भावनाओं तक को भी पूँजी का गुलाम बनने से नहीं रोका जा सकता। पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों के अन्तर्गत यह स्वाभाविक ही है कि स्वतःस्फूर्त ढंग से सारा न्याय मानवीय मूल्य और यहाँ तक कि मानवीय भावनाएँ भी वर्ग केन्द्रित हो जाती हैं।
लोगों की सामाजिक भावुकता का स्रोत बहुसंख्यक लोगों की भौतिक परिस्थितियों में उन पर हो रहे अत्याचारों को देखकर उत्पन्न होने वाली आत्म-ग्लानि से पैदा होता है, लेकिन क्योंकि समाज की सच्चाई को छुपाने में शासक वर्ग कोई कोताही नहीं करता, इसलिए समाज की अधूरी समझ के चलते पूँजीवादी अधिरचना की वर्ग अवस्थिति पर केन्द्रित संस्कृति में न्याय और भावनाएँ पक्षपातपूर्ण हो जाती हैं। और इस प्रकार के कुछ लोग, जो कहते हैं कि वे न्याय-प्रिय हैं, भावुकता उनकी कमज़ोरी है, और कोई ग़लत चीज़ उनसे देखी नहीं जाती, वे भी वर्ग हितों के दायरे तक ही सोचते हैं, और समाज के मेहनतकश वर्ग पर लगातार हो रहे अत्याचारों से अपना मुँह मोड़ लेते हैं। लेकिन जब इन लोगों को बताया जाता है कि हर दिन इस समाज में मौजूद परजीवी, श्रम को चूस रहे हैं, तो ये न्यायप्रिय लोग छुपाने की पूरी कोशिश करते हैं, लेकिन उनके न्याय का मुखौटा उतर जाता है, और पूँजीवादी वर्ग-स्वार्थ की नींव पर खड़े उनके स्वार्थी मूल्यों और न्याय का असली चेहरा बेनकाब होकर उनकी सच्चाई को उजागर कर देता है। और ये सब उनके अनजाने में स्वतःस्फूर्त ढंग से होता है।
इस प्रकार पूँजीवादी व्यवस्था समाज के इस पक्षपातपूर्ण, वर्ग केन्द्रित, अधूरे चेहरे को दिखाकर लोगों को गुमराह करती है, और इस सारे प्रचार से जनता के सामने एक काल्पनिक न्याय की तस्वीर प्रस्तुत करती है। यहाँ तक कि ग़रीब मज़दूर और किसान भी, जो अपने जैसे दूसरे करोड़ों लोगों के बारे में कभी नहीं जान पाते, इन ख़बरों को सुनकर वे भी सोचने लगते होंगे कि कहाँ मैं अपनी भूख, कुपोषण, बेरोज़गारी, शोषण, मालिक के अत्याचारों (!) को लेकर कोसता रहता हूँ, जबकि पूरी ‘‘न्याय” व्यवस्था लोगों को ‘‘न्याय” दिलाने के लिए इतना ‘‘संघर्ष” कर रही है!!
अब सवाल यह है कि इस सारे प्रचार के माध्यम से वर्ग केन्द्रित पक्षपातपूर्ण संस्कृति के साथ संकुचित भावुकता, संकीर्ण न्याय और सापेक्ष मानवतावादी विचारों की सुरक्षा करने का उद्देश्य क्या है? इसका एकमात्र कारण यह है कि यदि जनता की भावनाओं और जानकारी को समाज की असली नंगी तस्वीर के साथ जोड़ दिया जायेगा तो झूठ के खम्भों पर टिका पूँजीवादी शोषण तन्त्र ज़्यादा दिन नहीं टिक सकेगा, क्योंकि सच्चाई को जानते हुए कोई भी समझदार व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों के शोषण पर ख़ुद आराम (अय्याशी) से नहीं रह सकता। इस प्रकार पूरा पूँजीवादी तन्त्र शिक्षा, प्रचार और मनोरंजन के माध्यमों से लेकर हर क्षेत्र में इसी प्रकार की दूसरी अनेक समस्याओं के कारणों और न्याय के अधूरे, ग़लत और काल्पनिक विश्लेषणों के माध्यम से समाज में पूँजी का एक आधार बनाता है। राहुल सांकृत्यायन के शब्दों में कहें तो, ‘‘लोगों को मानसिक रूप से गुलाम बना देता है।”
यदि कोई व्यक्ति समाज के सबसे शोषित वर्गों के बीच जाकर देखे तो उसे पता चलेगा कि पूँजीवादी निरंकुशता और तानाशाही के नंगे चेहरे की असली अभिव्यक्ति मज़दूरों और ग़रीब किसानों के बीच देखने को मिलती है, उनमें कोई दिखावा और कोई झूठ नहीं होता, और उन्हीं के बीच भविष्य के समानतावादी सर्वहारा मूल्यों, न्याय, सिद्धान्तों और संस्कृति के बीजों का निर्माण होते हुए दिखता है, जहाँ से भविष्य में एक नये सामाजिक आधार के निर्माण के लिए अंकुर फूटेंगे।
यही कारण है कि हर प्रगतिशील व्यक्ति को मज़दूरों के साथ एकजुट होकर ख़ुद को सर्वहारा संस्कृति में ढालना चाहिए सिर्फ तभी हम पूँजीवादी गुलामी पर केन्द्रित वर्ग मूल्यों, झूठे आदर्शों, और झूठी भावनाओं से मुक्त हो सकते हैं, अपनी राजनीतिक, आर्थिक और सैद्धान्तिक चेतना को सही दिशा में विकसित कर सकते हैं, पतनशील पूँजीवादी संस्कृति से ख़ुद को बचा सकते हैं, और सर्वहारा विश्व दृष्टिकोण हासिल कर सकते हैं। सिर्फ तभी हम पतनशील पूँजीवादी विचारों से बचकर रह सकते हैं, और एक नये समाज की नींव रखने में सफल हो सकते हैं। यह पूँजीवादी संस्कृति में पले-बढ़े किसी भी प्रगतिशील व्यक्ति के लिए अपने विचारों को झाड़ने-बुहारने और उनमें से प्रगतिशील बातों को चुनने की एक छलनी है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2011
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!