बथानी टोला नरसंहार फैसलाः भारतीय न्याय व्यवस्था का असली चेहरा
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पुकारता रहा बे-आसर यतीम लहु
किसी के पास सुनवाई का न वक्त था, न दिमाग़
न मुद्दई, न शहादत, हिसाब पाक हुआ
यह ख़ाकनशीनों का खून था, मिट्टी की खुराक हुआ।
–फैज़
पिछले 16 अप्रैल को पटना उच्च न्यायलय ने बथानी टोला नरसंहार के सभी 23 अभियुक्तों को बरी कर दिया। 16 साल पहले 11 जुलाई, 1996 को रणवीर सेना के कोई 50-60 हथियारबन्द लोगों ने गाँव के दलित खेतिहर मज़दूरों के घरों में आग लगाई और फिर निर्ममता से उनकी हत्या करनी शुरू कर दी। इस हत्याकाण्ड में 21 लोग मारे गये जिनमें महिलाओं और बच्चों तक को नहीं छोड़ा गया, क्योंकि रणवीर सेना का मानना था कि ‘भविष्य में पैदा होने वाले शत्रु का अभी सफाया करो’। 1994 में गठित रणवीर सेना ने, जो मुख्य रूप से भूमिहारों और राजपूत जाति के कुलकों का संगठन था, मध्य बिहार के प्रमुख जिलों भोजपुर, जहानाबाद, आरा, पटना, औरंगाबाद और गया में हज़ारों गरीब लोगों की निर्मम हत्या की (तालिका देखें)। 11 जुलाई की घटना के कुछ महीने पहले रणवीर सेना ने इसी गाँव के एक चरवाहे की हत्या कर चुका था और हत्या की आशंका के कारण पुलिस कैम्प को वहाँ लगा दिया गया था। नरसंहार के दिन में सेना के लोग दिन में पुलिस कैम्प के नज़दीक से होते हुए गाँव में घुसे और घटना को अंजाम देने के बाद आराम से चले भी गये और पुलिस जो गाँव के नज़दीक थी, सात घण्टे बाद वहाँ आई। पूर्व मुख्यमंत्री लालूप्रसाद यादव (‘गरीबों के मसीहा’) गाँव का दौरा करने आये और कुछ मुआवज़ा और न्याय दिलाने की बात कहकर चले गए।
16 सालों से कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने के बाद भारतीय न्याय व्यवस्था ने भी अपना चरित्र दिखला दिया। पटना उच्च न्यायलय के न्यायाधीशों एन.पी.सिंह और ए.पी.सिंह ने ‘‘सबूतों के अभाव’’ में सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया। इससे पहले ब्रहमेश्वर शर्मा जो रणवीर सेना का प्रमुख था, 2011 में जमानत पर छूट गया था। नीतीश की ‘सुशासन सरकार’ ने लालू के ‘जंगल राज’ से भी एक कदम आगे बढ़कर काम किया और पकड़े हुए हत्यारों को फिर से आज़ाद कर दिया। इन सब मामलों में भारतीय न्याय व्यवस्था के पहरेदारों को कोई सबूत नहीं मिला! इसलिए इन्हें बरी कर दिया गया। दूसरी तरफ जहाँ धनिक लोग मारे गये थे जिनमें ज़्यादातर अभियुक्त ग़रीब या निचली जाति के थे, उन्हें फाँसी या उम्रकैद की सजा हुई।
पटना उच्च न्यायलय के इस फैसले पर भाकपा (माले), भाकपा, माकपा तथा अन्य संसदीय वामपंथी पार्टियों ने बहुत दुख प्रकट किया और उन्होंने राज्य भर में धरना प्रदर्शन का एलान किया! वोट बैंक की राजनीति के लिए इस किस्म की रस्म-अदायगी ज़रूरी है। संसदीय वामपंथियों ने यह भी कहा कि वे इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देंगे। इस मामले में पहले ही 16 वर्ष का समय बीत चुका है अगर 10-15 वर्ष में सुप्रीम कोर्ट से कोई न्याय मिल भी जाए तो शायद तब तक पीड़ितों-प्रभावितों में से कोई ज़िन्दा ही न बचा हो! एक कहावत है कि देर से न्याय मिलना न्याय न मिलने के समान है। 1984 के सिख दंगों 28 साल बीतने के बाद पीड़ित आज भी कोर्ट के चक्कर लगा रहे हैं। भोपाल गैस काण्ड के पीड़ित आज तक न्याय का इन्तज़ार कर रहे हैं लेकिन सुप्रीम कोर्ट तक ने डाउ केमिकल्स और यूनियन कार्बाइड के मालिक एण्डरसन जैसे कारपोरेट पूँजीपतियों पर हाथ डालने की जुर्रत नहीं की। गुजरात नरसंहार के दस साल बीत चुके हैं और आरोपी खुलेआम घूम रहे है क्योंकि कोर्ट को ‘‘पुख़्ता सबूत’’ नहीं मिल रहा! साहिबाबाद की एक फैक्ट्री एलाईड निप्पोन में एक उच्च अधिकारी की मौत पर एक दिन के अन्दर 250 से ज़्यादा मज़दूरों को जेल के अन्दर ठूँस दिया गया। ग्रेटर नोएडा की ग्राज़ियानो फैक्ट्री में भी एक उच्च अधिकारी की मौत के जुर्म में 100 से ज़्यादा मज़दूरों को जेल में डाल दिया गया। ऐसी तमाम घटनाओं में भारतीय न्याय व्यवस्था को पुख्ता सबूत मिल जाता है!
असल में जिस समाज में भयंकर आर्थिक असमानता हो; जहाँ सब कुछ पैसे से ख़रीदा जाता हो, वहाँ ‘न्याय के सामने सब समान हैं’ एक चुटकला लगता है। जहाँ पैसे से वकील से लेकर जज तक ख़रीदे जाते हैं वहाँ इस देश की बहुसंख्यक ग़रीब आबादी को न्याय कैसे मिल सकता है? यह बात वर्तमान में भारत की जेलों में सड़ रहे कैदियों से भी पता लगाई जा सकती है। भारत के जेल में सड़ रहे अधिकांश कैदी ग़रीब तबके से हैं। इनमें ज़्यादातर मुस्लिम या दलित है जो छोटे-छोटे जुर्म के आरोप में वर्षों से जेल में सड़ रहे हैं, क्योंकि इनके पास मुकदमा लड़ने का पैसा नहीं था और सरकार इन्हें वकील मुहैया नहीं करा पा रही है। बहुतों को झूठे मुकदमों में फँसाया हुआ है और बहुतों को विशेष सुरक्षा कानूनों के तहत (यूएपीए, आफ्स्पा आदि के तहत) राष्ट्रद्रोही बताकर अन्दर कर दिया गया है। लेकिन क्या आपको याद है कि रोज़-ब-रोज़ भ्रष्टाचार से लेकर बलात्कार, हत्या, चोरी-डकैती और सेंधमारी, जैसे आरोपों में फँसने वाले किसी नेता, मंत्री या कॉरपोरेट पूँजीपति को दोषी ठहराया गया हो, या सज़ा मिली हो? जिला न्यायालय, फिर हाईकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट के चक्कर काटते-काटते इतने दिन बीत जाते है कि अभियुक्त की स्वयं प्राकृतिक रूप से मौत हो जाती है!
न्यायपालिका में भी जातिगत पूर्वाग्रह व्याप्त हैं। बिरले ही ऊँची जाति के अपराधियों को सज़ा मिल पाती है। अधिकांश मसलों में उच्च जाति के सवर्ण अपराधी, जो अक्सर धनी भी होते हैं, गवाहों को ख़रीद लेते हैं या फिर जातिगत दबदबे का इस्तेमाल कर उन्हें दबा देते हैं और अन्त में न्यायपालिका ‘‘पुख़्ता सबूतों’’ के अभाव में उन्हें सन्देह का लाभ देते हुए छोड़ देती है। यह पुरानी कहानी है। भारतीय समाज में शासक वर्गों का शोषण जातिगत पूर्वाग्रहों को सहयोजित करता है और उनका इस्तेमाल करता है। बथानी टोला नरसंहार के सभी अभियुक्त सवर्ण जाति (भूमिहार, राजपूत और बाह्मण) से थे और रणवीर सेना को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से नेताओं, सवर्ण जाति के धनिकों और पुलिस का समर्थन भी था। और यहाँ पर भी वही हुआ जो अधिकांश ऐसे मामलों में होता है। भारतीय न्यायपालिका में उच्च पदों पर आसीन बड़ी आबादी धनी और सवर्ण घरों से आती है। ऐसे में, उनके वर्गीय और जातिगत पूर्वाग्रह अधिकांश मामलों में पहले से ही अन्धे बुर्जुआ न्याय को बहरा और गूँगा भी बना देते हैं। मौजूदा पूँजीवादी न्याय व्यवस्था के तहत, जो कि सवर्ण पूर्वाग्रहों से भी ग्रसित है, आम ग़रीब दलित आबादी कभी भी न्याय की उम्मीद नहीं कर सकती है।
रणवीर सेना द्वारा किये गये नरसंहार | ||||
क्र-सं- | गाँव | जिला | मरने वालों की संख्या | दिनांक |
1- | खोपिरा | भोजपुर | 3 | 4/4/1995 |
2- | सर्थुआ | भोजपुर | 6 | 25/7/1995 |
3- | नुरबिगहा | भोजपुर | 6 | 5/8/1995 |
4- | चण्डी | भोजपुर | 4 | 7/2/1996 |
5- | पतालपुरा | भोजपुर | 3 | 9/3/1996 |
6- | नानौर | भोजपुर | 5 | 22/4/1996 |
7- | नाढी | भोजपुर | 3 | 5/5/1996 |
8- | नाढी | भोजपुर | 3 | 9/5/1996 |
9- | नाढी | भोजपुर | 3 | 19/5/1996 |
10- | मोराथ | भोजपुर | 3 | 25/5/1996 |
11- | बथानी टोला | भोजपुर | 21 | 11/7/1996 |
12- | पुरहरा | भोजपुर | 4 | 25/11/1996 |
13- | खनेट | भोजपुर | 5 | 12/12/1996 |
14- | इक्वारी | भोजपुर | 7 | 24/12/1996 |
15- | बघेर | भोजपुर | 3 | 1/1/1997 |
16- | माचिल | पटना | 3 | 31/1/1997 |
17- | हैबसपुर | जहानाबाद | 10 | 23/3/1997 |
18- | इक्वारी | भोजपुर | 10 | 10/4/1967 |
19- | लक्ष्मणपुर बाथे | जहानाबाद | 63 | 1/12/1997 |
20- | नागरी बाजार | भोजपुर | 10 | 11/5/1998 |
21- | ष्टांकरबीघा | जहानाबाद | 22 | 25/1/1999 |
22- | नारायणपुर | जहानाबाद | 11 | 10/2/1999 |
23- | सेनदनी | गया | 12 | 20/4/1999 |
साभार- पीयुडीआर
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2012
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