Category Archives: फ़ासीवाद

इटली में फ़ासीवाद के उदय से हमारे लिए अहम सबक

इटली में फ़ासीवाद के उभार का एक बहुत बड़ा कारण मज़दूर वर्ग के गद्दार सामाजिक जनवादियों की हरकतें रहीं। जबकि इस देश में क्रान्तिकारी सम्भावना ज़बर्दस्त रूप से मौजूद थी। लेकिन सामाजिक जनवादियों ने मज़दूर आन्दोलन को अर्थवाद, सुधारवाद, संसदवाद और ट्रेड यूनियनवाद की चौहद्दी में ही कैद रखा। और तब ऐसा समय था जब मेहनतकश अवाम पूँजीवाद के संकट के एक व्यवस्थागत विकल्प की तलाश कर रहा था। कोई ठोस विकल्प मौजूद नहीं होने कि वजह से क्रान्तिकारी सम्भावना ने अपना रुख प्रतिक्रियावाद की तरफ कर लिया जिसका भरपूर इस्तेमाल करने के लिए यहाँ कि फ़ासीवादी पार्टी तैयार खड़ी थी। इसलिए कहा जा सकता है कि फ़ासीवादी उभार की सम्भावना विशेष रूप से उन पूँजीवादी देशों में हमेशा पैदा होगी जहाँ पूँजीवाद बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के जरिये नहीं आया बल्कि किसी प्रकार की क्रमिक प्रक्रिया से आया, जहाँ क्रान्तिकारी भूमि सुधार लागू नहीं हुए, जहाँ पूँजीवाद का विकास किसी लम्बी, सुव्यवस्थित, गहरी पैठी प्रक्रिया के ज़रिये नहीं बल्कि असामान्य रूप से अव्यवस्थित, अराजक और द्रुत प्रक्रिया से हुआ, जहाँ ग्रामीण क्षेत्रों में पूँजीवाद इस तरह विकसित हुआ कि सामन्ती अवशेष किसी न किसी मात्रा में बचे रह गए।

हिटलर के तम्बू में व गुजरात – 2002

अब तक छिपे हुए थे उनके दाँत और नाख़ून।
संस्कृति की भट्ठी में कच्चा गोश्त रहे थे भून।
छाँट रहे थे अब तक बस वे बड़े-बड़े क़ानून।
नहीं किसी को दिखता था दूधिया वस्त्र पर ख़ून।
अब तक छिपे हुए थे उनके दाँत और नाख़ून।
संस्कृति की भट्ठी में कच्चा गोश्त रहे थे भून।

नरेन्द्र मोदी, यानी झूठ बोलने की मशीन!

हिटलर के प्रचार तन्त्र के ही समान नरेन्द्र मोदी का व्यापक प्रचार तंत्र वैसे तो झूठ और ग़लत बातें तो हमेशा से ही करता आया है। मोदी ने चीन से शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का 20 प्रतिशत ख़र्च करवाया (असल में सिर्फ़ 4 प्रतिशत), तो कभी अपने प्रदेश में सबसे अधिक निवेश का दम्भ भरा जबकि इस मामले में भी दिल्ली और महाराष्ट्र उनसे आगे हैं। तो कभी अपनी पार्टी भाजपा के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी को भारत को आज़ादी मिलने से पहले ही मार दिया गया और उनकी अस्थियों को भी विदेश पहुँचा दिया! अपनी पार्टी के ही संस्थापक के बारे में यह भी बोला कि उनका विवेकानन्द से सम्पर्क था, जबकि श्यामाप्रसाद मुखर्जी विवेकानन्द की मृत्यु के समय दूध पीता बच्चा था!

उदार बुर्जुआ बनाम फ़ासीवादः दोनों छद्म विकल्प हैं, हमें दोनों ही नहीं चाहिये!

भारतीय पूँजीवाद के गुप्त रोग विशेषज्ञ अमर्त्य सेन और जगदीशचन्द्र अपने-अपने नुस्खों को लेकर भिड़ गये हैं। अमर्त्य सेन अपनी पुरानी कीन्सीय दुकान पर उदार पूँजीवाद के नुस्खे से बनी दवाइयाँ बेच रहे हैं तो जगदीशचन्द्र खुले बाज़ार की कड़वी फ़ासीवादी दवाई बेच रहे हैं। हालाँकि यह बहस ही बेकार है क्योंकि न तो उदार और न ही खुला बाज़ार पूँजीवाद को उसकी बीमारी से निजात दिला सकता है। ये दोनों ही छद्म विकल्प हैं। इस बीमारी का एकमात्र इलाज पूँजीवाद की अन्त है। और जब तक यह नहीं होता तब तक ऐसे अर्थशास्त्री इस लाइलाज बीमारी पर अपनी दुकान चलाते रहेंगे।

साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज

लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग चेतना की ज़रूरत है। ग़रीब मेहनतकश व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकण्डों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी ग़रीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताक़त अपने हाथ में लेने का यत्न करो। इन यत्नों में तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी ज़ंजीरें कट जाएँगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्रता मिलेगी।

पूरे देश को फासीवाद की प्रयोगशाला में तब्दील करने की पूँजीपतियों की तैयारी

हत्यारों को नायकों जैसा सम्मान दिलाने में इस मीडिया का भी बड़ा हाथ है। औपनिवेशिक गुलामी के दौर से लेकर आज तक यह बात सही साबित होती रही है कि वैज्ञानिक और तार्किक विचारों की बजाय सड़ी पुरातन मान्यताओं और पुनरुत्थानवादियों से मानसिक खुराक लेने वाला समाज फासीवादी वृक्ष की बढ़ोत्तरी के लिए अच्छी ज़मीन मुहैया कराता है। 2002 में मौत का तांडव रचने वाले मोदी को विकास पुरुष के तौर पर प्रचारित करना मीडिया के बिकाऊ होने का ही एक सबूत है। जबकि गुजरात के कच्छ की खाड़ी में नमक की दलदलों में काम करने वाले मज़दूरों का किसी को पता भी नहीं है जिनको मौत के बाद नमक में ही दफन कर दिया जाता है क्योंकि उनके शरीर में इतना नमक भर जाता है कि वह जल ही नहीं सकता। अलंग के जहाज़ तोड़ने वाले मज़दूरों से लेकर तमाम मेहनतकश अवाम लोहे के बूटों तले जीवन जी रहे हैं, यह किसी को नहीं बताया जाता। इन्हीं सब चीजों से ‘जनतन्त्र के चौथे स्तम्भ’ की असलियत बयान होती है।

और कितने बेगुनाहों की बलि के बाद समझेंगे हम? आपस में लड़ना छोड़, अपने असली दुश्मन को पहचानना ही होगा!!

इस वारदात ने एक बार फिर से साबित किया है कि जब आम लोगों को जीविकोपार्जन के साधन हासिल नहीं होते हैं, उन्हें रोज़गार नसीब नहीं होता, और महँगाई से उनकी कमर टूट जाती है तो यह व्यवस्था जनता को आपस में लड़वाती है, जिसमें शासक वर्गो के सभी हिस्सों में पूरी सर्वसम्मति होती है। असली गुनहगार वह व्यवस्था है जो एक शस्य-श्यामला धरती वाले देश में सभी को सहज रोज़गार, शिक्षा, आवास, चिकित्सा और बेहतर जीवन स्थितियाँ और एक खुशहाल इंसानी जिन्दगी मुहैया नहीं करा सकती। ज़ाहिर है, कि ऐसे में व्यवस्था जनता के बीच एक नकली दुश्मन का निर्माण करती है। कभी वह मुसलमान होता है, कभी ईसाई, कभी दलित तो कभी कोई और अल्पसंख्यक समुदाय। हम सभी को समझना चाहिए कि हमारा असली दुश्मन कौन है! मेहनत करने वालों का न तो कोई धर्म होता है और न कोई देश वह जहाँ भी जाता है अपना शोषण करवाने के लिए मज़बूर होता है। साफ है, जब तक इस व्यवस्था को चकनाचूर नहीं कर दिया जाता देश की आम मेहनतकश जनता को मुक्ति नहीं मिल सकती।

बाल ठाकरे: भारतीय फासीवाद का प्रतीक पुरुष

बाल ठाकरे और शिव सेना शुरू से ही अपने आपको ‘मराठी मानुस’ का रहनुमा कहते आये हैं। परन्तु ग़ौर करने वाली बात यह है कि उनके ‘मराठी मानुस’ से उनका तात्पर्य उच्च जाति वाले मराठी पुरुषों से होता है। महाराष्ट्र की दलित आबादी राज्य की कुल जनसंख्या का लगभग पाँचवाँ भाग है जो इस दायरे से बिल्कुल बाहर है। 1974 में बनी दलितों की जुझारू पार्टी दलित पैंथर्स पर शिवसेना के गुण्डों ने कई हमले किये क्योंकि उसके सदस्य खुले रूप में हिन्दू धर्म के प्रतिक्रियावादी और दकियानूसी विचारों का विरोध करते थे। दलित पैंथर के एक नेता भगवत जाधव की हत्या शिव सेना के गुण्डों ने ही की थी।

फैजाबाद में हुए साम्प्रदायिक दंगों के निहितार्थ

जनता की लाशों पर राजनीति करने वाले ये पूँजीवादी चुनावी मदारी अपने खूनी खेल में लगे हैं। जो सीधे या परोक्ष रूप में इसमें नहीं शामिल हैं वे अपने को जनता का हितैषी होने, प्रगतिशील होने के रूप में अपने को पेश कर रहे हैं और बड़े शातिराना तरीके से अपना चुनावी खेल खेल रहे हैं। जबकि हम सभी जानते हैं कि सभी चुनावी मदारी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं उनके नारों व झण्डों में ऊपरी फर्क ही होता है। आज के दौर में दक्षिण व ”वाम” की विभाजक रेखाएँ काफी धुंधली होती जा रही हैं। दूसरा संसद और विधान सभाओं में अल्पमत-बहुमत की नौटंकी करके इन साम्प्रदायिक दंगों को नहीं रोका जा सकता है। इतिहास इसका गवाह है।

साम्प्रदायिकता और संस्कृति

साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा आती है, इसलिए वह उस गधे की भाँति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल में जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है। हिन्दू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहत है, मुसलमान अपनी संस्कृति को। दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं, यह भूल गये हैं कि अब न कहीं हिन्दू संस्कृति है, न मुस्लिम संस्कृति और न कोई अन्य संस्कृति। अब संसार में केवल एक संस्कृति है, और वह है आर्थिक संस्कृति मगर आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोये चले जाते हैं। हालाँकि संस्कृति का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं। आर्य संस्कृति है, ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है। हिन्दू मूर्तिपूजक हैं, तो क्या मुसलमान कब्रपूजक और स्थान पूजक नहीं है। ताजिये को शर्बत और शीरीनी कौन चढ़ाता है, मस्जिद को खुदा का घर कौन समझता है। अगर मुसलमानों में एक सम्प्रदाय ऐसा है, जो बड़े से बड़े पैगम्बरों के सामने सिर झुकाना भी कुफ्र समझता है, तो हिन्दुओं में भी एक ऐसा है जो देवताओं को पत्थर के टुकड़े और नदियों को पानी की धारा और धर्मग्रन्थों को गपोड़े समझता है। यहाँ तो हमें दोनों संस्कृतियों में कोई अन्तर नहीं दिखता।