अमर्त्य सेन बनाम जगदीशचंद्र भगवती
उदार बुर्जुआ बनाम फ़ासीवादः दोनों छद्म विकल्प हैं, हमें दोनों ही नहीं चाहिये!
तर्कवागीश
भारतीय पूँजीवाद के गुप्त रोग विशेषज्ञ अमर्त्य सेन और जगदीशचन्द्र अपने-अपने नुस्खों को लेकर भिड़ गये हैं। अमर्त्य सेन अपनी पुरानी कीन्सीय दुकान पर उदार पूँजीवाद के नुस्खे से बनी दवाइयाँ बेच रहे हैं तो जगदीशचन्द्र खुले बाज़ार की कड़वी फ़ासीवादी दवाई बेच रहे हैं। हालाँकि यह बहस ही बेकार है क्योंकि न तो उदार और न ही खुला बाज़ार पूँजीवाद को उसकी बीमारी से निजात दिला सकता है। ये दोनों ही छद्म विकल्प हैं। इस बीमारी का एकमात्र इलाज पूँजीवाद की अन्त है। और जब तक यह नहीं होता तब तक ऐसे अर्थशास्त्री इस लाइलाज बीमारी पर अपनी दुकान चलाते रहेंगे।
सबसे पहले हम अर्थशास्त्री जगदीशचन्द्र भगवती और अमर्त्य सेन के बीच के विवादों का कारण समझ लेते हैं। जगदीशचन्द्र भगवती मुक्त बाज़ार, भूमण्डलीकरण, उदारीकरण, निजीकरण की विनाशकारी नीतियों के खुले पैरोकार हैं। उनका मानना है कि सरकार की पहली प्राथमिकता है कि वह तेज़ आर्थिक विकास हासिल करे और उसके बाद ही सामाजिक क्षेत्र, सामाजिक सुरक्षा, कल्याणकारी योजनाओं पर ख़र्च करे। उनका कहना है कि 1990 में मनमोहन सिंह के द्वारा शुरू किये गये “आर्थिक सुधारों” का प्रथम चरण अब पूरा हो चुका है और जल्दी से अब दूसरे चरण के “आर्थिक सुधारों” को शुरू किया जाना चाहिये। वे कहते हैं कि प्रथम चरण के आर्थिक सुधारों के बावजूद अभी भी व्यापार के सभी क्षेत्रों में और ज़्यादा उदारीकरण, रीटेल सेक्टर को और मुक्त करना, और श्रम बाजार में और “सुधार” करना अभी भी बाकी है। उनका कहना है कि इन “सुधारों” से आय सृजित होगी जिसे बाद में स्वास्थ्य व शिक्षा जैसे क्षेत्रों में लगाया जा सकता है जिससे ग़रीबों को राहत मिलेगी। ज्ञात हो कि भगवती 1970 के दशक से ही मुक्त बाजार के पैरोकार रहे हैं और लगातार भारत सरकार की आर्थिक नीतियों की आलोचना करते रहे हैं। भगवती खु़द कहते हैं, “मेरा यह भी विश्वास है कि गुजरात टैम्पलेट (मॉडल) आदर्श है; वहाँ के लोग दौलत जमा करने में विश्वास करते हैं पर वे उसका इस्तेमाल करने में भी विश्वास करते हैं, केवल अपने लिये ही नहीं बल्कि सामाजिक भलाई के लिये। यह बात वैष्णव और जैन परम्पराओं से आती है जिनसे गाँधी जी ने भी काफ़ी कुछ लिया है। इस प्रकार का उत्कृष्ट “विदेशी” मॉडल मेरे साथी सिमोन समा के द्वारा प्रदर्शित किया गया है जहाँ उन्होंने डच बर्गरों के बारे में लिखा है, जिनके इसी प्रकार के मूल्य और जीवनशैली थी।”(ऑनलाईन पत्रिका लाइवमिंट से साभार)। साथ ही उन्हें इस बात से भी ख़ासी नाराज़गी है कि ये आर्थिक सुधार 1990 के पहले ही क्यों नहीं शुरू किये गये। अगर पहले ही इन आर्थिक सुधारों को लागू कर दिया जाता तो यह उनके हिसाब से बेहतर होता क्योंकि इससे तेज़ विकास दर हासिल हो जाती। बहुत सीधे शब्दों में कहा जाये तो भगवती के अनुसार सरकार पहले अरबपतियों की दौलत बढ़ाने के लिये उन्हें देश के मज़दूरों के श्रम और प्राकृतिक संसाधनों को लूटने की खुली छूट दे और पूँजी के रास्ते में आनी वाली हर बाधा और स्पीडब्रेकर जैसे श्रम कानून, पर्यावरण क़ानून आदि को “लचीला” बना दे और फिर जब देश में कई सारे अरबपति हो जायेंगे तब जाकर वे ग़रीबों के लिये थोड़ा ख़ैराती अस्पताल, स्कूल, धर्मशाला, लंगर आदि खोल देंगे! अब देखो भइया! ग़रीबों के दिल पर थोड़ा मरहम लगाने के लिये इतनी “भलाई” तो करनी ही पड़ेगी वरना मज़दूरों के बेरहम शोषण से उपजे आक्रोश और प्रचण्ड क्रोध की अग्नि में सारे अरबपति और उनके महल भस्मीभूत होकर स्वाहा हो जायेंगें! भगवती के इसी प्रकार के सुझावों के चलते कई लोगों को ये भ्रम भी हो जाता है कि भगवती किसी मुक्त व्यापार पूँजीवाद के समर्थक हैं क्योकि वे बाज़ार को प्राथमिकता देकर सरकार के हस्तक्षेप को कम करना चाहते हैं। इसी के साथ जिस प्रकार भगवती व अरविन्द पनगड़िया जैसे लोग गुजरात की विकास दर से प्रभावित हैं, उसी प्रकार अमर्त्य सेन व ज्याँ द्रेज़ केरल का उदाहरण देकर उसकी वितरण प्रणाली की प्रशंसा करते हैं। भगवती के विचारों को समझने के बाद हमें तो ऐसा लगता है कि जैसे उनके ये विचार भारत के किसी पिछड़े प्रान्त के सरकारी स्कूल मास्टर के दिमाग की उपज हों। दूसरी ओर अमर्त्य सेन भी मोटे तौर पर भूमण्डलीकरण, उदारीकरण, निजीकरण के “आर्थिक सुधारों” से सहमत हैं पर साथ ही वह यह भी चाहते हैं कि पूँजीवादी सरकारें सामाजिक क्षेत्र/सामाजिक सुरक्षा/कल्याणकारी योजनाओं में भी पैसा खर्च करें! सेन मनरेगा, खाद्य सुरक्षा बिल की ‘एक्टिव रिडिस्ट्रीब्यूशन’ जैसी योजनाओं को चलाने के पक्ष में हैं। वे चाहते हैं कि सरकार ग़रीबी उन्मूलन, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि की सामाजिक मदों में अपने खर्चों को बढ़ाये जिससे लोगों का जीवनस्तर और क्रय क्षमता सुधरे वरना इसके बिना तेज़ आर्थिक विकास दर हासिल नहीं हो पायेगी। पर सेन की बातें भूमण्डलीकरण के इस दौर में महज़ ख़ामख़याली ही है। भगवती बनाम सेन की बहस के लिये यह भी कहा जा सकता है कि यह भगवती के ‘ट्रिकल डाउन’ बनाम सेन के ‘एक्टिव रिडिस्ट्रीब्यूशन’ की बहस है।
सबसे पहले हम भगवती के विचारों को लेते हैं। भगवती इस बात से ख़ासे नाराज़ रहे हैं कि यदि आर्थिक सुधार 1990 के दशक के पहले से ही शुरू हो जाते तो बेहतर रहता। 1990 के पहले के दशकों में भारत की विकास दर 4 प्रतिशत के आसपास रहती थी जिसे ‘हिन्दू ग्रोथ रेट’ भी कहा जाता है और 1990 के बाद मनमोहन सिंह के द्वारा शुरू किये गये ‘आर्थिक सुधारों’ के बाद ये बढ़ कर 8 से 9 प्रतिशत के आसपास पहुँच गयी। भगवती जिस बात को नहीं समझते वह यह है कि सन 1947 से लेकर सन 1970 के दशक तक राष्ट्रीय मुक्ति युद्धुों के बाद एशिया और अमेरीका के कई देशों को आज़ादी मिल चुकी थी और राज्यसत्ता उन देशों के पूँजीपति वर्ग के प्रतिनिधियों के हाथ में आ चुकी थी। इन सभी देशों के बुर्जुआ वर्ग के सामने अपने-अपने मुल्कों की सामन्ती और अर्द्धसामन्ती अर्थव्यवस्था के पूँजीवादी रूपान्तरण का कार्यभार मौजूद था। पर कई दशाब्दियों की औपनिवेशिक लूट के बाद कंगाल हुये इन देशों का पूँजीपति वर्ग बहुत ही कमज़ोर था और उसके पास स्वयं पूँजी की कमी थी जिसके बिना इन देशों का पूँजीवादी रूपान्तरण असम्भव था। पूँजीवादी विकास के लिये यह बहुत ही ज़रूरी था कि पहले एक विशालकाय आधारभूत ढाँचे का निर्माण किया जाये जिसके तहत भारी उद्योग, सड़कों, पुलों, बिजलीघरों आदि का जाल बिछाया जाये। ऐसा करने के लिये पूँजी प्राप्त करने के दो ही रास्ते थे। पहला यह था कि विदेशी साम्राज्यवादी देशों से कर्जा़ लिया जाये पर उससे इन नवस्वाधीन देशों की राजनीतिक आज़ादी ख़तरे में पड़ सकती थी। दूसरा रास्ता था कि यह पूँजी जमा करने के लिये अपने देश की जनता के श्रम की लूट को बढ़ाया जाये। जनता के श्रम की क़ारखानों में मालिकों के द्वारा खुली लूट के अलावा जनता पर बड़े पैमाने पर अप्रत्यक्ष कर लगाकर पैसा इकठ्ठा करके अवरचनागत ढाँचा यानी ‘पब्लिक सेक्टर’ खड़ा किया जाये जिसका इस्तेमाल करके पूँजीपति वर्ग अपना लाभ बढ़ाता जाये। एक और बात यह थी कि 1947 से लेकर 1976 तक कम्युनिज़्म का ‘प्रेत’ पूरी दुनिया के बुर्ज़ुआ वर्ग को डरा रहा था इसलिये जनता के आक्रोश पर कुछ राहत के छींटे मारने का काम करना भी ज़रूरी था। इन सब कारणों के चलते इन नवस्वाधीन देशों में कई मुल्कों के बुर्जुआ नेताओं ने ‘पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद’ का रास्ता पकड़ा। भारत में यही काम नेहरू ने किया, जिसके लिए ‘समाजवाद’ के जुमले का इस्तेमाल किया गया। उन्होंने जनता को बताया कि वे ‘समाजवाद’ का निर्माण कर रहे हैं और इससे फायदा चूँकि जनता का ही है इसलिये कारखाने में काम चालू रहना चाहिये, हड़तालें ज़रा कम हों, और जनता सरकार को अप्रत्यक्ष करों की अदायगी नियमित रूप से करती रहे ताकि इस पैसे से सरकार ‘पब्लिक सेक्टर’ का निर्माण कर सके! इसी को ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ या ‘पब्लिक सेक्टर समाजवाद’ या ‘नेहरूवियाई समाजवाद’ भी कहा जाता है। नेहरू के इस ‘समाजवाद’ में कुछ भी समाजवादी नहीं था, सब कुछ पूँजीवादी था। कुछ कल्याणकारी नीतियाँ ‘समाजवाद’ की इस नौटंकी को जारी रखने के चलायी गयीं थीं। नेहरू के ‘समाजवादी’ और जनपक्षधर होने की असलियत तो उसी समय सामने आ गयी थी जब उन्होंने तेलंगाना में अपने ही देश की उस ग़रीब किसान जनता पर टैंक चलवा दिये थे जो ज़मीन के मालिकाने और सामन्ती शोषण से आज़ादी की माँग कर रही थी! भारत की तरह कुछ अन्य नवस्वाधीन देशों के बुर्जुआ वर्ग ने भी ‘समाजवाद’ के नाम का इस्तेमाल किया और वास्तव में पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद का मॉडल खड़ा किया। उन्होने जो रास्ता अख्त़ियार किया उसके अलावा उनके पास कोई और चारा था भी नहीं। उस समय चीज़ें इसी रास्ते से पूँजीवादी रास्ते पर आगे जा सकती थीं और गयीं भी। यानी कि उस समय बुर्जुआ वर्ग और उसके नेताओं के सामने सवाल चयन का नहीं, बाध्यता का था। अगर सरकार ‘पब्लिक सेक्टर’ के नाम पर एक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप करेगी तो इसी के साथ उसे कोटा, लाइसेंस, परमिट प्रणाली आदि भी अपनानी पड़ेगी जिससे निजी पूँजी निवेश के रास्ते में अड़चन पैदा होगी और उसका तेज़ी से विकास अवरुद्ध होगा जिसके कारण आर्थिक विकास दर कम ही रहेगी और इस वजह से ही 1990 के पहले के दशकों में भारत की विकास दर मात्र 4 प्रतिशत के आसपास रहती थी। उस दौर में ऐसा करना भारतीय पूँजीपति वर्ग के लिये ज़रूरी भी था क्योंकि अगर निजी पूँजी को इन नवस्वाधीन बुर्जुआ देशों में खुलकर खेलने की छूट दी जाती तो बहुत तेज़ी से ग्रामीण कृषि क्षेत्रों से फ़ाजिल आबादी निकलकर शहरों में आ जाती; शहरों में तब इतने क़ारख़ाने आदि थे नहीं कि वे इस पूरी फ़ाजिल आबादी को सोख पाते और शहरों में बेरोज़गार सर्वहारा और अर्द्धसर्वहारा की इतनी बड़ी फौज क्रान्तियों के उस दौर में बुर्जुआ वर्ग के लिये बहुत ही ख़तरनाक बात होती। पूँजीपति वर्ग नाक के आगे देखता है पर उस वर्ग के नेता और सिद्धान्तकार थोड़ी दूर तक देखते हैं और ठीक इसलिये उन्होंने उस समय निजी पूँजी के रास्ते में ये तमाम अड़चनें जानबूझकर खड़ी कीं कि कहीं मुनाफ़े की हवस में पूँजीपति वर्ग सामाजिक उथल-पुथल और क्रान्तिकारी परिस्थिति न पैदा कर दे (अमर्त्य सेन के ग़रीबी और असमानता दूर करने के तमाम नुस्खों का यही वर्गीय सार है!)।
अब इन तमाम वस्तुगत परिस्थितियों को अनदेखा करके भगवती ने तोते की तरह रट लगा रखी है कि सरकार को 1990 के दशक के पहले से ही मुक्त बाज़ार व ‘आर्थिक सुधार’ लागू कर देने चाहिये थे! भगवती एक बुर्जुआ अर्थशास्त्री हैं और अपने वर्ग की सबसे ख़राब बीमारी यानी कि केवल नाक के आगे देखने की बीमारी से ग्रस्त हैं। इसलिये उन्हीं के बुर्जुआ वर्ग के दूर तक देखने वाले नेताओं मसलन नोबेल कमेटी के कर्ताधर्ताओं नें उन्हें अब तक नोबेल पुरस्कार नहीं दिया है पर ‘एक्टिव रिडिस्ट्रीब्यूशन’ की बात करने वाले अमर्त्य सेन व ‘माइक्रो क्रेडिट फाइनेन्स’ की अवधारणा देने वाले मोहम्म्द युनुस को वे अब तक नोबेल पुरस्कारों की स्वर्णपट्टिका और दुशाले से सुशोभित कर चुके हैं! ये भी कोई इत्तेफ़ाक नहीं है कि अमर्त्य सेन व युनुस दोनों ‘तीसरी दुनिया’ के उन देशों से हैं जो लेनिन के द्वारा बतायी गयी ‘कमज़ोर कड़ी’ वाले मुल्कों में आते हैं जो आज की तारीख़ में समाजवादी क्रांति की मंज़िल में हैं। अब कोई विद्वान अर्थशास्त्री अपने वर्ग के अहित की बात करे तो वर्ग उसे पुरस्कार दे तो कैसे? और यही कारण है कि इस प्रकार के लोकरंजतावादी कीमियागिरी के नुस्खे बाँटने वाले तमाम बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों, संशोधनवादी पार्टियों के चिन्तकों व “वामपंथी” सुषेण वैद्यों को पूँजीवादी सरकारें अपने प्लानिंग कमीशनों, थिंक टैंकों, सलाहकार कमेटियों आदि में स्थान व समय-समय पर पुरस्कार आदि भी देती रहतीं हैं ताकि वे पूँजीवादी व्यवस्था के लिये ‘सेफ़्टी वाल्व’ का काम करें, जनता के पक्ष से गद्दारी करके शोषक मालिकों की सरकारों का पक्ष चुनें और उनकी सचेतन या अचेतन ताबेदारी करें!
जहाँ तक भगवती की गुजराती वैष्णव और जैन परम्पराओं की बात है जिनकी तुलना उन्होने सिमोन समा के डच बर्गरों से कर डाली है तो यह भी एक बहुत ही लँगड़ी और ग़लत तुलना है। सिमोन समा का लेख तो हम नहीं देख सके पर पहली बात यह है कि गुजरात को भी सम्पूर्ण भारत की तरह ही लगभग 200 साल की औपनिवेशिक गुलामी झेलनी पड़ी थी जिसके चलते हमारा पूरा देश अपनी परम्परा और इतिहास से कट गया था पर डच बर्गर कभी किसी दूसरे देश के इस तरह गु़लाम नहीं बने थे। भारत का पूँजीपति वर्ग यूरोप की तरह बर्गरों की संतान नहीं था। भारतीय पूँजीवाद का विकास इंगलैण्ड और फ्रांस जैसे मुल्कों की तरह मार्क्स के शब्दों में ‘नीचे से ऊपर’ की ओर नहीं हुआ था यानी कि इसने कृषि से दस्तकारी और मैन्युफैक्चरिंग तक की अपनी नैसर्गिक यात्रा पूरी नहीं की थी। यह प्रक्रिया मध्यकाल में चल रही थी पर औपनिवेशिक गुलामी के कारण बीच में ही बाधित हो गयी। भारत का पूँजीपति वर्ग ब्रिटिश सत्ता द्वारा आरोपित औपनिवेशिक व्यवस्था के भीतर पैदा हुआ था और इसलिये जन्म से ही कमज़ोर था। इस गु़लामी के कारण ही भारत में पूँजीवाद का उदय धर्मसुधार-पुनर्जागरण-प्रबोधन (रिफार्मेशन-रिनेसां-एनलाइटेनमेण्ट) की उस स्वाभाविक गति से नहीं हुआ जिसकी परिणति फ्रांसीसी क्रान्ति जैसी क्लासिकल बुर्जुआ जनवादी क्रान्तियों के रूप में हुई। इसलिये भारत जैसे देशों को पूँजीवादी विकास की सारी बुराइयाँ तो मिलीं पर उससे पैदा होने वाली अच्छाइयाँ नहीं मिली। एक और बात यहाँ ध्यान में रखने की है कि डच बर्गरों के मूल्यों और जीवनशैली के कारण वहाँ पूँजीवाद नहीं पैदा हुआ था बल्कि पूँजीवाद के पैदा होने के कारण डच बर्गरों के उस प्रकार के मूल्य एवं जीवनशैली पैदा हुए थे! वेबर ने भी कभी मार्क्स की बात को उलट कर कहा था कि प्रोटेस्टेंट (खासतौर पर काल्वेंपंथ) मूल्यों, मान्यताओं, व कार्यसंस्कृति के कारण उत्तरी यूरोप में पूँजीवाद पैदा हुआ जबकि असलियत एकदम उलट थी। अरे हाँ, भगवती जी के इस वैष्णव और जैन परम्पराओं वाले आदर्श गुजराती टैम्पलेट से अचानक याद आया कि अभी हाल ही में क्रिकेट मैचफिक्सिंग से जुड़े तमाम सट्टेबाज सटोरिये गुजरात से ही थे और सट्टेबाजी में अपनी जमा दौलत का इस्तेमाल कर रहे थे! धन्य है ये जैन और वैष्णव परम्पराओं वाला गुजराती टैम्पलैट! गुजराती टैम्पलैट की बात करते समय भगवती व अर्थशास्त्री अरविन्द पनगड़िया यह भूल जाते हैं कि गुजरात में पहले से ही ऐतिहासिक रूप से मुख्यतः व्यापारिक पूँजी की प्रधानता रही है। ये अनायास ही नहीं हो गया कि पूरे देश में गुजरात ही फ़ासीवाद की पहली प्रयोगशाला बना ना कि औद्योगिक पूँजी की प्रधानता वाला बंगाल या महाराष्ट्र!
एक और बात उनके वक्तव्य में ग़ौर करने लायक है। वे लिखते हैं कि “इस प्रकार का उत्कृष्ट “विदेशी” मॉडल मेरे साथी सिमोन…” इस वाक्य में भगवती ने ‘विेदेशी’ शब्द को डबल कोट में क्यों रख दिया? कहीं वे “विदेशी” डच की तुलना मोदी के “स्वदेशी” गुजरात से करके जाने-अनजाने आज के फासिस्ट गुजरात को “स्वदेशी” के समकक्ष तो नहीं रखना चाहते? हालाँकि चाहे गाँधी का “स्वदेशी” हो या चाहे मोदी का “स्वदेशी” हो, दोनों की वर्गीय अन्तर्वस्तु एक ही है। किन्तु फिर भी गाँधी का “स्वदेशी” अपने समय में सम्मिलनकारी प्रजाति का था और मोदी का “स्वदेशी” आज के समय में मानवविद्वेषी और विघटनकारी प्रजाति का है। और ठीक यही बात भगवती बनाम सेन के विवाद में देखने को मिली भी जब सेन के यह बयान देते ही कि वे मोदी को देश के प्रधानमंत्री के रूप में नहीं देखना चाहते तमाम संघ समर्थक उन पर टूट पड़े। एक तरफ ‘पायनियर’ के सम्पादक चंदन मित्र जैसे संघप्रेमियों ने उनसे नोबल पुरस्कार छीन लेने तक की बात कही तो वहीं सोशल मीडिया में संघप्रेमियों ने उनके खिलाफ ऊलजलूल टिप्पणियों से लेकर उनकी पुत्री का चरित्र हनन तक शुरू कर दिया जो कि तमाम फासिस्टों की निशानी होती है।
भगवती को बीते दौर के ‘लेसेज़ फेयर’ कैपिटलिज़्म यानी ‘मुक्त बाज़ार’ पूँजीवाद का समर्थक बताना या उदारीकरण, भूमण्डलीकरण, और निजीकरण की नीतियों को ‘लेसेज़ फेयर कैपिटलिज़्म’ में सादृश्यता देखना भी गलत है। लेसेज फेयर कैपिटलिज़्म पूँजीवाद के उठान का दौर था जब साम्राज्यवाद पैदा नहीं हुआ और बाज़ार में एक हद तक मुक्त प्रतियोगिता थी जिसके चलते नये मालिकों के पैदा होने की पूरी सम्भावना रहती थी और इज़ारेदारी नहीं पैदा हुई थी। इसी आर्थिक आधार पर प्रबोधनकाल के बुर्जुआ दार्शनिक बुर्जुआ शासन को एक ऐसी प्राकृतिक व नैसर्गिक व्यवस्था के रुप में देख सके जिसमें उनके अनुसार पूरी मानवजाति का कल्याण सम्भव था। इसी आधार पर उन्होनें ‘स्वतंत्रता, समानता, और भ्रातृत्व’ की बात उठायी। अलबत्ता बाद में अपने कड़वे अनुभव से गुज़रकर ही मज़दूरों को ये समझ में आया कि उत्पादन के साधन पर कब्ज़ा करके बैठे मालिकों और अपनी हाथों की मेहनत बेचने को मजबूर मज़दूरों के बीच प्रबोधनकाल के बुर्जुआ दार्शनिकों की ‘स्वतंत्रता, समानता, और भ्रातृत्व’ की बात करना सरासर जड़मूर्खता है। इसलिये भूमण्डलीकरण के इस दौर के आर्थिक सुधारों को, जब कि कीन्स की ‘चरकसंहिता’ के नुस्खों ने भी अब काम करना बंद कर दिया है, बीते दौर के ‘मुक्त व्यापार’ के समकक्ष रखना एक भ्रामक और ग़लत तुलना है।
भगवती का यह कहना भी ग़लत है कि मुक्त बाज़ार, भूमण्डलीकरण, उदारीकरण, व निजीकरण की दिशा में किये जाने वाले दूसरे चरण के आर्थिक सुधारों से ग़रीबों को कोई फायदा होगा। ना तो पहले चरण से ऐसा हुआ है और ना ही दूसरे चरण से ही ऐसा सम्भव है। भारत में पिछले दो दशकों में विकास दर सबसे ज़्यादा रही है पर इसी दौर में अमीरी-ग़रीबी की खाई सबसे ज़्यादा चौड़ी हुई है। हाल ही में पास हुआ राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा बिल देश की 65 प्रतिशत आबादी को ग़रीब मानकर चलता है। 1990 के बाद रोज़गार निर्माण की दर घटी है। 2004-05 से 2009-10 के बीच कुल रोज़गार निर्माण 10 लाख था पर इस दौरान हर साल लगभग 120 लाख लोग रोज़गार पाने के लिये लाइन में जा खड़े हुए। इसी के साथ संगठित औद्योगिक क्षेत्र में पिछले 10 सालों में बिना सामाजिक सुरक्षा के काम करने वाले ठेका कर्मचारियों का प्रतिशत 19 से बढ़कर 32 प्रतिशत हो गया। इसी के साथ भगवती का ये तर्क भी भारत में कुछ ख़ास काम का नहीं है कि अधिक वृद्धि दर से जो आय सरकार को होगी उसका इस्तेमाल सामाजिक सुरक्षा आदि में लगा दिया जायेगा क्योंकि भारत में टैक्स-जीडीपी अनुपात दुनिया में सबसे कम है बावजूद इसके कि भारत की विकास दर 1990 से अब तक 6 से 8 प्रतिशत के बीच रही है और भारत के अरबपतियों की दौलत 1990 में जीडीपी के 4 प्रतिशत के आसपास से बढ़कर 2009 में जीडीपी के 23 प्रतिशत के आसपास पहुँच गयी (ये आँकड़े हिमांशु कुमार की ऑनलाइन पत्रिका लाइवमिंट में छपे लेख से लिये गये हैं)। भगवती शायद भूल रहे हैं कि जिस गुजरात टैम्पलेट (नरेन्द्र मोदी ने टीवी चैनल ‘आज तक’ को हाल ही में एक बयान दिया जिसका आशय यह था कि गुजरात में श्रम विभाग लगभग ख़त्म कर दिया गया है क्योंकि भला मालिक ख़राब बॉयलर और ख़राब सामान अपनी फैक्ट्री में क्यों लगायेगा!!) की तेज़ वृद्धि दर की बात कर रहे हैं वह गुजरात मानव विकास सूचकांक में फिसड्डी है और एनएसएसओ के 2004-05 और 2009-10 के आँकड़ों के मुताबिक रोज़गार विकास की दर लगभग शून्य है। यानी आर्थिक सुधारों से समृद्धि ‘ट्रिकल डाऊन’ होकर नीचे जनता तक नहीं पहुँच रही बल्कि उल्टा नीचे से निचुड़कर ऊपर सेठों की तिजोरी में चली जा रही है! भगवती के ‘ट्रिकल डाऊन’ के सिद्धांत के लिये वही कहा जाना चाहिये जो शायद अर्थशास्त्री गालब्रेथ ने कहा था कि हाथी को आगे से कुछ भी खिलाओ, पीछे से वो लीद ही निकालेगा। इसलिये अब अगर दूसरे चरण के सुधारों को तेज़ किया गया (जो कि किया भी जायेगा क्योंकि पूँजीवाद के पास और कोई विकल्प भी तो नहीं है!) तो शायद रोज़गार-विहीन तेज़ आर्थिक विकास दर तो हासिल हो जायेगी पर आय की असमानता उससे भी ज़्यादा तेज़ी से बढ़ेगी, अनुत्पादक पूँजी का आकार और बढ़ेगा, बेरोज़गारी बढ़ेगी, छोटे मालिक़ों का वर्ग जल्दी तबाह होगा, फ़ाजिल ग्रामीण आबादी का शहरों की ओर प्रवास तीव्र होगा, और मज़दूर वर्ग के शोषण की रफ्रतार और तेज़ हो जायेगी। संक्षेप में कहें तो समाज का वर्गीय ध्रुवीकरण और तीखा व तेज़ होगा और वहाँ से चीज़ें दो दिशा में आगे जायेंगी। अगर क्रान्तिकारी शक्तियाँ कमजोर रहीं और तबाह होती जनता को उसकी तबाही के वास्तविक कारणों को नहीं समझा सकीं तो फ़ासीवादी शक्तियाँ जनता को गुमराह करके व्यापक तबाही के मार्ग पर लेकर जायेंगी। पर अगर क्रान्तिकारी शक्तियाँ पूँजीवादी संकटों का लाभ उठा सकीं और एक समाजवादी विकल्प जनता को दे सकीं तो चीज़ें समाजवादी रास्ते पर आगे बढेंगी। यानी थोड़े में कहें तो भगवती की सलाह पर अमल भारत में फ़ासीवाद को तेज़ी से मज़बूत कर सकता है पर करेगा या नहीं यह इस बात पर निर्भर करता है कि तब तक देश में एक क्रान्तिकारी विकल्प खड़ा हो पाता है या नहीं। पर अगर भगवती की सलाह पर अमल ना करके यदि हम अमर्त्य सेन की सलाह पर अमल करें तो क्या हम इस विभीषिका से बच पायेगें? तो आइये अब अमर्त्य सेन क्या कहना चाहते हैं इसे भी समझ लिया जाये।
अमर्त्य सेन का कहना है कि पहली प्राथमिकता सामाजिक विकास या ‘एक्टिव रिडिस्ट्रीब्यूशन’ होना चाहिये और सरकार को शिक्षा, स्वास्थ्य, ग़रीबी उन्मूलन आदि कार्यक्रमों को हाथ में लेना चाहिये। वे विकास दर के ऊपर सामाजिक विकास को प्राथमिकता देते नज़र आते हैं। पहली बात यह है कि 1930 के दशक की मन्दी से निपटने के लिये कीन्स ने समाजवाद की कुछ चीजें उधार लेकर पूँजीपति वर्ग को पब्लिक सेक्टर खड़ा करने की सलाह दी क्योंकि ऐसा करके लगातार गिरती प्रभावी माँग को तब बढ़ाया जा सकता था। उस दौर में क्रान्ति की लहर प्रतिक्रांति की लहर पर हावी थी इसलिये पूँजीपति वर्ग ने ऐसा किया भी कि सामाजिक मदों में सरकारी ख़र्च को बढ़ाया पर 1970 के तेल संकट के साथ ही ब्रेटन वुड्स प्रणाली भंग होने के बाद सारी दुनिया में ‘पब्लिक सेक्टर’ के कीन्सीयाई नुस्खे ने काम करना बन्द कर दिया। ‘पब्लिक सेक्टर’ की मौजूदगी निजी पूँजी का गला लगातार दबा रही थी व पूँजीवाद के लिये इस ‘पब्ल्कि सेक्टर’ का ख़र्चा उठा पाना सम्भव नहीं रह गया था क्योंकि इससे पूँजीवादी सरकारों का बजट घाटा लगातार तेज़ी से बढ़ रहा था। इसलिये तमाम सरकारों ने ‘पब्लिक सेक्टर’ को चरणबद्ध रुप से ख़त्म करना शुरू कर दिया। पर सरकारी ख़र्च कम होने के कारण अब ज़रूरी हो गया था कि निजी ख़र्च को बढ़ाया जाये। इसके लिये बड़े पैमाने पर अनुत्पादक पूँजी को ऋण के रूप में देकर हाउसिंग सेक्टर आदि में प्रभावी माँग को बढ़ाने की कोशिश की गयी जिसका अन्त 2005 के सबप्राइम संकट में हुआ जिसका असर अब तक बना हुआ है। जिस बात को अमर्त्य सेन व कई अन्य बुर्जुआ अर्थशास्त्री व “वामपंथी” चिंतक नहीं समझते वह यह है कि ‘पब्लिक सेक्टर’ पूँजीवाद (सेन के एक्टिव रिडिस्ट्रीब्यूशन का चरम रूप) उदारवादी बुर्जुआ वर्ग के दर्शन का मात्र एक क्षण था और वह क्षण अब बीत चुका है और अब मात्र उसकी इच्छा करने या उसके लिये रोने-कलपने से वह क्षण अब वापस नहीं आयेगा। पूँजीवाद भूमण्डलीकरण के इस दौर में अब कल्याणकारी राज्य के नाम पर सामाजिक सुरक्षा की मदों में व्यापक सरकारी खर्चो को नहीं बढ़ा सकता। पर आज भी वाम दायरों के अन्दर और बाहर काम करने वाले कई ऐसे बुद्धिजीवी मिल जाते हैं जो नेहरु के उस ‘पब्ल्कि सेक्टर समाजवाद’ के ‘स्वर्ण युग’ को (जब राजनीति में भी बड़ी ‘शुचिता’ हुआ करती थी!) अश्रुपूरित नयनों से नेहरू के ‘समाजवाद’ को याद करते हैं! राहुल सांकृत्यायन ने ठीक ही कहा था कि-‘ते ही नो दिवसो गता’ (हाय! हमारे वो पुराने दिन कहां गये?!) बड़ी बुरी बीमारी है, इससे बचना चाहिये।
दूसरी बात यह है कि सेन ने अकाल व ग़रीबी पर काफी अध्ययन किया है। इस अध्ययनों से वे अन्तिम नतीजा निकालते हैं कि यह ज़रूरी नहीं कि भोजन की पर्याप्त मात्रा समाज में उपलब्ध होने के बावजूद ग़रीबों को भोजन मिल ही जायेगा क्योंकि जमाखोरी, मँहगाई आदि के कारण हो सकता है कि ग़रीब आबादी भोजन ख़रीद ही ना सके! इसलिये वे सरकार से माँग करते हैं कि सरकारें (उपभोक्ता सामग्री के) वितरण के क्षेत्र में हस्तक्षेप करें। अब इस बात में नया क्या है!? यह भी कीन्स की ही किस्म का एक प्रयास है पूँजीवाद को ‘सुधारने’ का। यानी कि सेन के अनुसार पूँजीवाद में सारी समस्या वितरण के क्षेत्र में है ना कि उत्पादन के क्षेत्र में! इसलिये वे वितरण तंत्र को ठीक करने पर ज़ोर देते हैं जिसका नतीजा उनके ‘एक्टिव रिडिस्ट्रीब्यूशन’ के रूप में सामने आता है। अब ज़ाहिर सी बात है कि जो व्यक्ति वितरण तन्त्र पर ज़ोर देगा और यह बात नहीं समझेगा कि पूँजीवाद में मुख्य समस्या वितरण के क्षेत्र में नहीं बल्कि इसके उलट उत्पादन के क्षेत्र में है, वह व्यक्ति वितरण को ही सुधारने पर ज़ोर देगा। इस प्रकार सेन के लिये पूँजीवाद पर्याप्त रूप से सहनीय हो जाता है और वे प्रकारांतर से एक ‘सन्त पूँजीवाद’ के समर्थक बन जाते हैं। सेन एक ख़राब वितरण तंत्र वाला ‘क्रोनी कैपिटलिज़्म’ नहीं चाहते, वे सुधरे वितरण तंत्र वाला ‘सांता क्लॉज कैपिटलिज़्म’ चाहते हैं। संसदीय वामपंथियों से लेकर उदारवादी बुर्जुआ वर्ग की विचारधारा से प्रभावित कई लोग भी इसी प्रकार के ‘सांता क्लॉज कैपिटलिज़्म’ के मुरीद हैं। ये सभी लोग उस बात को नहीं समझते (और इनमें ‘संसदीय वामपंथी’ यानी सीपीआई, सीपीएम, और भाकपा-माले लिबरेशन सब कुछ समझ कर भी नासमझ बनने की कोशिश करते हैं!) जिसे मार्क्स ने विस्तार से ‘पूँजी’ में समझाया है। मार्क्स के अनुसार किसी भी समाज में उत्पाद (उपभोक्ता सामग्री) के वितरण का स्वरूप स्वामित्व के रूपों से तय होता है यानी कि इस प्रश्न से तय होता है कि उत्पादन के साधनों का मालिक कौन सा वर्ग है और वह वर्ग उन उत्पादन के साधनों का कैसा इस्तेमाल कर रहा है। मार्क्स के अनुसार पूँजीवाद का मुख्य अन्तरविरोध उत्पादन के क्षेत्र में होता है जहाँ पूँजीपति वर्ग उत्पादन के साधनों पर कब्ज़ा करके मज़दूर की मेहनत को लूटकर मात्र मुनाफ़े के लिये माल-उत्पादन करता है इसलिये उपभोक्ता सामग्री का वितरण तभी ठीक हो सकता है जब पहले उत्पादन के साधनों का वितरण ठीक किया जाये। यानी कि बुर्जुआ राज्यसत्ता को बलात् ध्वस्त करके उत्पादन के साधनों के निजी मालिकाने को ख़त्म करके उनका समाजीकरण किया जाये। मार्क्स उत्पादन के क्षेत्र पर ध्यान लगाकर वहाँ मौजूद पूँजीवाद के मुख्य अन्तरविरोधों को दिखलाते हैं और बताते हैं कि क्यों इन अन्तरविरोधों का हल मात्र समाजवाद में ही सम्भव है और तभी जाकर वितरण समतापूर्ण हो पायेगा। किसी भी किस्म का सुधार पूँजीवादी उत्पादन पद्धति को सुधार नहीं सकता। पूँजीवाद में मज़दूर अपनी श्रमशक्ति बेचने को मजबूर होता है व उत्पादन मुनाफ़े के लिये होता है इसलिये जानबूझकर गोदामों में लाखों कुन्तल अनाज सड़ा दिया जाता है पर उसे भूख से मरते मज़दूरों-मेहनतकशों को नहीं दिया जाता। पर समाजवाद में क्योंकि मज़दूर वर्ग ही उत्पादन के साधनों का नियंत्रण करता है इसलिये उत्पाद (उपभोक्ता सामग्री) का वितरण बेहतर ढंग से मज़दूर के पक्ष में होता है। इसलिये किसी भी प्रकार के ‘सुधार’ या वितरण/पुनर्वितरण (यानी अमर्त्य सेन के एक्टिव रिडिस्ट्रीब्यूशन या सामाजिक सुरक्षा) के प्रश्न को उत्पादन के साधनों के मालिकाने के प्रश्न से काटकर देखना ग़लत है। ऐसा करने से आप अमर्त्य सेन या अरविंद केजरीवाल एण्ड कम्पनी के टाईप के ‘सांता क्लॉज कैपिटलिज़्म’ के समर्थक हो जायेंगे। बिना उत्पादन के साधनों के मालिकाने के प्रश्न को उठाये, केवल वितरण की बात करना एक किस्म का ‘वितरण नियतत्ववाद’ है। इसी प्रकार के दक्षिणपंथी भटकाव मज़दूर आंदोलन में भी समय-समय पर सर उठाते रहते हैं। अब से लगभग 130 साल पहले लासाल ने जर्मन मज़दूर आंदोलन में ऐसी ही बातें कही थीं जैसी अमर्त्य सेन कह रहे हैं, हाँ, परिप्रेक्ष्य अलग था। लासाल ने कहा था कि मज़दूरों की ग़रीबी मिट जायेगी यदि ‘समतापूर्ण वितरण’ हो! भारतीय लासाल प्रकाश करात-बर्धन-येचुरी की जमात जो कुछ कहती और करती है उसका वर्गसार भी यही है। सर्वहारा वर्ग के बलात् सत्ता कब्ज़ा कर उत्पादन के साधनों के निजी मालिकाने को ख़त्म कर डालने से पहले ही यदि कोई ये भ्रम पाले कि उत्पादन के साधनों के निजी मालिकाने को बरक़रार रखकर मात्र वितरण पक्ष को सुधार देने से ग़रीबी आदि ख़त्म हो जायेंगे तो यह पूँजीवाद की घृणित चाटुकारिता से ज़्यादा कुछ नहीं है। उत्पादन के साधनों के मालिकाने के प्रश्न को उठाये बिना टुकड़ों-टुकड़ों में केवल ग़रीबी, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास आदि की बातें करने का कोई मतलब नहीं है और अमर्त्य सेन यही करते हैं। इसे समझने के लिये माइकल हैरिंगटन की किताब ‘द अदर अमेरिका’, हारमण्डस्वर्थ, 1963 और ब्रायन ऐबल तथा पीटर टाऊनसेंड की किताब ‘द पुअर एण्ड द पुअरेस्ट’, लंदन, 1963 देखी जा सकती है जिसमें लेखक ने बताया है कि ‘कल्याणकारी राज्य’ के अस्तित्व में आने के 20 साल बाद भी’ ब्रिटिश आबादी का 14 प्रतिशत (70 लाख!) ग़रीबी रेखा के नीचे या पास में रह रहा था। मार्क्स ने इसी बात को तफसील से ‘पूँजी’ में समझाया है कि इस मुफ़लिसी और ग़रीबी की जड़ उजरती श्रम की पूँजीवादी व्यवस्था के अन्दर मौजूद है जिसमें उत्पादन के साधनों पर कब्ज़ा करके पूँजीपति मज़दूर की मेहनत को लूटकर अपनी तिजोरी भरता चला जाता है इसलिये जब तक उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व को ख़त्म करके उनका समाजीकरण नहीं किया जायेगा तब तक किसी भी किस्म का ‘सुधार’ करके ग़रीबी दूर की ही नहीं जा सकती।
तीसरी बात यह है कि इन ‘आर्थिक सुधारों’ से मोटे तौर पर अमर्त्य सेन स्वयं सहमत हैं, बस वे चाहते हैं कि निजी पूँजी के आगे कुछ स्पीडब्रेकर लगाकर रखे जायें। भूमण्डलीकरण, उदारीकरण, निजीकरण के इन ‘आर्थिक सुधारों का कोई क्रान्तिकारी विकल्प अमर्त्य सेन के पास भी नहीं हैं। जहाँ भगवती जल्दी से इन ‘सुधारों’ को लागू करना चाहते हैं तो वहीं अमर्त्य सेन धीरे-धीरे व थोड़ी बहुत सामाजिक सुरक्षा के साथ। अमर्त्य सेन की अवस्थिति वही है जो मनमोहन सिंह के अतिप्रिय सरकारी लाल तोतों यानी कि सीपीआई और सीपीएम की है जो मनमोहनी-छाप लालमिर्च खाकर संसदीय पिंजडे़ में आँगन की मुर्गी की तरह फुदकते रहते हैं। तमाम अकादमिक ‘मार्क्सवादी’ चिन्तक भी यही चाहते हैं कि निजी पूँजी को खुली छूट ना मिले वरना फ़ासीवाद का ख़तरा तेजी से पैदा हो सकता है। भगवती और अमर्त्य सेन में बस यही अन्तर है! पर तब क्या ऐसे में हमें सेन के ‘एक्टिव रिडिस्ट्रीब्यूशन’ या सामाजिक सुरक्षा आदि की बातों को मात्र सस्ता लोकरंजकतावाद कह कर क्रान्तिकारी परिप्रेक्ष्य से एकदम ख़ारिज कर देना चाहिये? बिलकुल नहीं! हाँ, ये ज़रूर है कि इस बात को हम अपने तरीके से कहेंगे। हम ‘एक्टिव रिडिस्ट्रीब्यूशन’ की नहीं जनता के जनवादी अधिकारों की बात करेंगे। हमारे मत में क्रान्तिकारी शक्तियों को जनता के समस्त जनवादी अधिकारों की माँगों को वर्ग संघर्ष के झण्डे के नीचे रखकर लगातार उठाना चाहिये। इस मसले पर हमारा नज़रिया वही होना चाहिये जो लेनिन का था। यहीं पर जनवादी अधिकार संगठनों पीयूडीआर और पीयूसीएल के साथियों के साथ हुई बहस को याद कर लेना भी ज़रूरी है जिसमें पीयूडीआर के साथियों का मत था कि हमें मात्र नागरिक स्वतन्त्रता की नहीं बल्कि जनता के तमाम जनवादी अधिकारों की बात करनी चाहिये। लेनिन इस विषय पर बहुत स्पष्ट थे। वे कहते हैं कि “जो सर्वहारा जनवाद के संघर्ष में शिक्षित नहीं हैं, वह आर्थिक क्रान्ति करने में भी असमर्थ है।” आज भूमण्डलीकरण के दौर में हर जगह बुर्जुआ जनवाद का दायरा सिकुड़ता चला जा रहा है। काम के 8 घण्टे, रोज़गार का अधिकार आदि का कोई मतलब नहीं रह गया है। सरकारें लगातार सार्वजनिक मदों जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य आदि में ख़र्च को घटा रही हैं। भोजन, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, समान शिक्षा, काम के घंटे 8 करने की माँगें बुर्जुआ दायरे के भीतर की जनवादी माँगें ही हैं व क़ागज में तो बुर्जुआ वर्ग भी इन जनवादी माँगों को मानता है। इन माँगों को जैसे ही मज़दूर उठाता है वैसे ही परेशानहाल निम्न-मध्यवर्ग व ग़रीब किसान उसके साथ आने लगते हैं और एक व्यापक जनान्दोलन पैदा होने लगता है और जैसे-जैसे ये जनान्दोलन आगे बढ़ता है वैसे-वैसे बुर्जुआ जनवाद की सीमाएँ जनता को नज़र आने लगती हैं। साथ ही जनता की चेतना का क्रान्तिकारीकरण होने लगता है व जनता तमाम किस्म के धार्मिक कट्टरपन, अन्धराष्ट्रवादी कुप्रचार, संकीर्ण इलाकाई मानसिकता आदि की बुराई से मुक्त होकर फ़ासीवाद की असलियत को पहचानने-समझने लगती है। इसलिये आज की तारीख़ में यह बहुत ज़रूरी है कि क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट ताक़तें जनता को उसके इन जनवादी अधिकारों के लिये लड़ना सिखायें। यह इसलिये भी बेहद ज़रूरी है क्योंकि कई अर्द्ध-अराजकतावादी क्रान्तिकारी धाराएँ ऐसी भी हैं जो बुर्जुआ जनवाद के दायरे के क्रान्तिकारी इस्तेमाल को ही अपने आप में एक किस्म का दक्षिणपंथी विचलन मानती हैं। जनता के जनवादी अधिकारों की बात करना अपने आप में दक्षिणपंथी विचलन नहीं होता है यदि इसके साथ ही बुर्जुआ राज्यसत्ता को बलात् ध्वस्त करके उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व के उन्मूलन के प्रश्न पर उस प्रकार की अवसरवादी कायराना चुप्पी ना साध ली जाये जिस प्रकार की चुप्पी तमाम ‘संसदीय वामपंथी’ साध लेते हैं। पर यदि कोई क्रान्तिकारी शक्ति उत्पादन के साधनों के स्वामित्व के प्रश्न को गोल करके मात्र जनवादी अधिकार या सामाजिक सुरक्षा या ‘एक्टिव रिडिस्ट्रीब्यूशन’ या ‘कल्याणकारी राज्य’ आदि की ही बातें करती है तो तब वह लासाल की तरह ही एक दक्षिणपंथी विचलन में तब्दील हो जाता है।
इस पूरी बहस का सार-संकलन करके कुछ यूँ भी किया जा सकता है कि तेज़ आर्थिक विकास दर के दीवाने जगदीशचन्द्र भगवती गुस्से में आकर अमर्त्य सेन से पूछते हैं कि “मेरे पास गाड़ी है, पैसा है, बंगला है! तुम्हारे पास क्या है?! हांय!” और गलदश्रु सेन भावविह्नल होकर पस्त आवाज़ में जवाब देते हैं कि “मेरे पास ‘एक्टिव रिडिस्ट्रीब्यूशन’ की खै़रात है!” और भइया, राम कसम! सेन बाबू का ये डायलॉग सुनकर तो सिनेमा हॉल में गदर ही मच जाता है! तमाम किस्म के करात-बर्धन-येचुरी-ज्योतिबसु जैसे संशोधनवादी उचक्के भावोद्रेक में आकर सिनेमा हॉल में ज़बर्दस्त करतल ध्वनि के साथ सीटियाँ बजा-बजाकर, टोपियाँ उछाल-उछाल कर आसमान एकदम सर पर ही उठा लेते हैं! और इसमें उनका साथ उदारवादी बुर्जुआ वर्ग की विचारधारा से प्रभावित भद्र और कुलीन लोग भी देते हैं (हालाँकि भद्र और कुलीन लोग सीटी नहीं बजाते!) पर साथ ही साथ वे बीच-बीच में रुक-रुककर अपनी टोपी को भी देखते रहते हैं कि कहीं उन्होने ग़लती से लाल रंग की मार्क्सवादी टोपी तो नहीं पहन ली है! कैसा विहंगम भावप्रवण दृश्य पैदा हो जाता है! सच में!
संक्षेप में कहें तो, भगवती और अमर्त्य सेन में बस यही अन्तर है! भगवती के ‘ट्रिकल डाउन’ बनाम सेन के ‘एक्टिव रिडिस्ट्रीब्यूशन’ की इस बहस के सन्दर्भ में यह भी कहा जा सकता है कि भगवती के रास्ते से फ़ासीवाद के ते़जी से उठान की सम्भावना पैदा हो सकती पर अमर्त्य सेन के बताये रास्ते से फ़ासीवाद सम्भवतः तेज़ी से उठकर सत्ता तक न पहुँचे पर तब भी समाज में ये नासूर के रूप में लगातार बना रहेगा और रिसता रहेगा। इसलिये भगवती की फ़ासीवाद से निकटता बैठती है और अमर्त्य सेन की उदार बुर्जुआ वर्ग से और दोनों के पास ही पूँजीवाद को कोई क्रान्तिकारी विकल्प नहीं है। इज़ारेदारी के दौर के पूँजीवाद ने फ़ासीवाद को जर्मनी और इटली जैसे तुलनात्मक रूप से पिछड़े पूँजीवादी समाजों में जन्म दिया यानी कि पूँजीवाद और फ़ासीवाद में बाप और बेटे का रिश्ता है। फ़ासीवाद आवारा बाप का बदमाश बेटा है! पूँजीवाद फ़ासीवाद को पैदा करता है ना कि उल्टा! इसलिये फ़ासीवाद को केवल वही सामाजिक शक्ति परास्त कर सकती है जो कि पूरे समाज में क्रान्तिकारी वर्ग संघर्ष चलाते हुये स्वयं पूँजीवाद का विकल्प दे। उदारतावादी बुर्जुआ वर्ग के मरियल बुर्जुआ मानवतावाद की पोली, दलदली दार्शनिक ज़मीन पर खड़े होकर सूफ़ी सन्तों और कबीर-नानक की लाठी टेककर फ़ासीवाद के शक्तिशाली दैत्य का मुक़ाबला नहीं किया जा सकता पर अक्सर होता यही है और तमाम गोष्ठियों, सेमिनारों, और चर्चाओं में फ़ासीवाद के खिलाफ होने वाला तमाम बौद्धिक विमर्श मानवतावादी आहों-कराहों के घटाटोप में डूब जाता है। इस बात को ढंग से समझना इसलिये भी ज़रूरी है क्योंकि वाम दायरे के भीतर और बाहर कई ऐसे लोग हैं जो या तो फ़ासीवाद के ख़तरे को हल्के में लेते हैं या फिर एकदम दूसरे छोर पर जाकर अपनी वैचारिक लाठी फ़ासीवाद पर बरसाते रहते हैं और जाने-अनजाने पूँजीवाद को बख्श देते हैं जबकि असली प्रश्न ही पूँजीवाद का विकल्प देने का है! इनमें भी बहुतेरे ऐसे हैं जो जनता के बीच में कोई सामाजिक-राजनीतिक कार्रवाई करके उसे संगठित ही नहीं करते हैं और मात्र कुछ प्रतीकात्मक विरोध प्रदर्शन की कुछ रस्में निभाकर और सोशल मीडिया साइट्स पर कुछ लेख वगैरह लिखकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। ऐसा अक्सर ‘संसदीय वामपंथियों’ से लेकर उदारतावादी बुर्जुआ वर्ग की विचारधारा से प्रभावित लोग करते हैं जो सेन की ही तरह एक ख़राब वितरण तंत्र वाले ‘क्रोनी कैपीटलिज़्म’ की बजाय एक सुधरे वितरण तन्त्र वाले ‘सांता क्लॉज कैपिटलिज़्म’ के मुरीद होते हैं! इनमें भी जहाँ तक ‘संसदीय वामपंथियों’ का सवाल है तो उनकी ना तो फ़ासीवाद के खिलाफ लड़ने की इच्छा है और ना ही औक़ात। गुजरात में गोधरा के दंगों के समय सीटू की ट्रेड यूनियन सबसे बड़ी यिूनयन थी। संघ परिवार के लोग जब वहाँ बेगु़नाह मुस्लिम नागरिकों का नरसंहार कर रहे थे तब संसदीय वामपंथी और सीटू के लोग सड़कों पर पागल दंगाइयों की भीड़ का डटकर मुक़ाबला करते हुये उन्हें मुँहतोड़ जवाब देने की बजाय मोमबत्तियाँ जलाने जैसे नपुंसक प्रतिरोध कर रहे थे! दंगों के बाद संघ परिवार की बीएमएस सबसे बड़ी यूनियन बन चुकी है और सीटू का प्रभाव घट चुका है! इसलिये फ़ासीवाद का सही तरीके से मुक़ाबला केवल एक ऐसी समाजवादी परियोजना के तहत ही हो सकता है जो पूँजीवाद का विकल्प दे और अमर्त्य सेन के पास ये विकल्प नहीं है और ऐसा विकल्प वे देना भी नहीं चाहते क्योंकि अमर्त्य सेन उदार बुर्जुआज़ी के प्रतिनिधि हैं। 1907 में लेनिन ने कहा था कि “मज़दूर वर्ग को अपने रास्ते पर चलने का अधिकार है और यह उसका कर्तव्य भी है। उदारतावादी बुर्जुआ वर्ग के पीछे तो क्या, उसके साथ-साथ भी मज़दूर वर्ग को नहीं चलना है!”
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2013
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