नरेन्द्र मोदी, यानी झूठ बोलने की मशीन!

वारुणी

प्रधानमन्त्री पद के एक उम्मीदवार ने बिहार में कहा कि तक्षशिला बिहार में है और सिकन्दर बिहार में आकर हार गया! यह बात जो कह रहा है वह या तो निरा बेवकूफ है या फिर जनता को बेवकूफ समझता है। ख़ैर, नरेन्द्र मोदी के बारे में क्या सोचना है, यह आप ही तय कर लीजिये क्योंकि हम तो वाकई तय नहीं कर पा रहे हैं। क्योंकि फासीवादियों का इतिहास-बोध ऐसा ही होता है, और दूसरी तरफ़ ‘एक झूठ को सौ बार दुहराकर सच बना देने’ का नारा भी फासीवादियों का ही है। इसलिए दोनों ही सम्भावनाएँ मौजूद हैं!

हिटलर के प्रचार तन्त्र के ही समान नरेन्द्र मोदी का व्यापक प्रचार तंत्र वैसे तो झूठ और ग़लत बातें तो हमेशा से ही करता आया है। मोदी ने चीन से शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का 20 प्रतिशत ख़र्च करवाया (असल में सिर्फ़ 4 प्रतिशत), तो कभी अपने प्रदेश में सबसे अधिक निवेश का दम्भ भरा जबकि इस मामले में भी दिल्ली और महाराष्ट्र उनसे आगे हैं। तो कभी अपनी पार्टी भाजपा के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी को भारत को आज़ादी मिलने से पहले ही मार दिया गया और उनकी अस्थियों को भी विदेश पहुँचा दिया!  अपनी पार्टी के ही संस्थापक के बारे में यह भी बोला कि उनका विवेकानन्द से सम्पर्क था, जबकि श्यामाप्रसाद मुखर्जी विवेकानन्द की मृत्यु के समय दूध पीता बच्चा था!

बिलकुल इसी तरह मोदी ने अपने राज्य के बारे में जमकर झूठ बोला। चाहे बात गुजरात के कुपोषण की हो, भूखमरी की हो, किसानों की आत्महत्या की हो, मज़दूरों के बर्बर दमन की हो, मोदी ने एक के बाद एक झूठ की मिसाल कायम की। शोषण और दमन की सारी बातें ग़ायब हो गयीं (हालाँकि, आप लोगों को हाल ही में हीरा कारीगरों, सूरत के मज़दूरों आदि के आन्दोलन याद होंगे!) और गुजरात की एक चमत्कारिक तस्वीर नरेंद्र मोदी ने पेश करनी शुरू की। इसके लिए जमकर झूठ बोले गए। परन्तु असलियत आज भी अलग अपना मुंह बाए खड़ी है। जिस शख्स ने 2002 में फासीवादी हत्यारों की बर्बर सेना को कई दिनों तक बेरोक-टोक गुजरात में बेगुनाह अल्पसंख्यकों का नरसंहार करने, बच्चों और महिलाओं तक को बर्बरता से क़त्ल करने की इजाज़त दी थी, वह अचानक देश की समस्याओं के ‘अन्तिम समाधान’ के तौर पर उभर आया। बरबस बिना तितली कट मूछों वाले हिटलर का चेहरा उभर आता है। हिटलर के मंत्री गोयबल्स ने ही कहा था कि “एक झूठ को सौ बार दुहराओ तो वह सच बन जाता है”। मोदी भी झूठ की मशीनगन लेकर जमकर झूठ बरसा रहा है। अज्ञानता के भैंसे पर सवार मोदी जमकर टीवी चैनलों से, बड़े-बड़े मंचों से, पर्चों से अपने झूठ फैला रहा है।

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अपनी छवि का निर्माण करने के लिए जगह होर्डिंग पर “भारत माँ का शेर” जैसे जुमले लिखवाये जा रहे हैं तो कभी सरदार वल्लभ भाई पटेल की लौह प्रतिमा निर्माण के लिए लोहे की माँग कर अपने चरित्र पर लोहे कि परत चढ़वायी जा रही थी। ख़ैर, “सुशासन” और लोहे की परत चढे़ इस मुख्यमंत्री ने गुजरात में क्या किया है यह एक बार देख लेना ज़रूरी है।

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हाल ही में ‘कैग’ की रिपोर्ट ने एक बार फिर से मोदी के चमकते गुजरात की असली तस्वीर को उजागर कर दिया है। कैग की रिपोर्ट के अनुसार गुजरात में हर तीसरा बच्चा कुपोषण का शिकार हैं। सरकारी आँकड़े के मुताबिक 14 ज़िलों में कम से कम 6.73 लाख बच्चे कुपोषित हैं और 1.87 करोड़ लोगों को आई.सी.डी.एस. के लाभ से वंचित रखा गया है। अन्य शहरों के मुकाबले गुजरात के सबसे बड़े वाणिज्यिक शहर अहमदाबाद में सबसे ज़्यादा बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। गुजरात में पिछले सालों सबसे अधिक मज़दूर विद्रोह हुए हैं।

साम्प्रदायिक फासीवाद का एजेण्डा तो भाजपा की पुरानी लाइन है, पर देश स्तर पर सत्ता हासिल करने के लिए विकास का एजेण्डा लाना भी ज़रूरी हो गया है। इसलिए गुजरात के विकास की तस्वीर पेश जा रही है और मोदी की झूठ की राजनीति काफी कारगर तरीके से काम कर रही है। इस सबसे मोदी के पक्ष में मध्यवर्ग लामबन्द हो रहा है क्योंकि मोदी-ब्राण्ड विकास इस खाते-पीते मध्यवर्ग को खूब भा रहा है। यह मध्यवर्ग अपनी वर्ग प्रवृति से ही मोदी के “विकास”, “सुशासन”, आदि में यक़ीन करता है; जब तक इस मध्यवर्ग को आठ लेन की सड़कें, शॉपिंग मॉल, मल्टीप्लेक्स, अम्यूज़मेण्ट पार्क, आदि का “विकास” और “सुशासन” मिलता रहे, तब तक यह उन भूख और कुपोषण से मरते बच्चों, बेरोज़गार होते मज़दूरों की व्यथा से आँख मूँदने को तैयार है, जिसकी मेहनत के बूते पर यह सारी चमक-दमक हासिल होती है। इन मज़दूरों के ज़रा भी आवाज़ उठाने पर बर्बर दमन करना भी यह मध्यवर्ग “सुशासन”, “कठोर नेतृत्व”, “कानून व व्यवस्था” का एक हिस्सा मानता है! पूँजीपतियों का दलाल मीडिया मोदी का महिमामण्डन कर उसे विकास का नया चेहरा बतला रहा है। इसलिये यह ज़रूरी है कि मोदी के गुजरात मॉडल के विकास की असलियत को जाना जाय। जिस विकास का राग मोदी और जन सम्पर्क मीडिया अलाप रही है वह यह है की गुजरात में 31 प्रतिशत आबादी ग़रीबी रेखा से नीचे है, तेज़ी से बढ़ती प्रति व्यक्ति आय के बावजूद गुजरात में भूखे लोगों की संख्या बढ़ रही है क्योंकि अमीर और अमीर होते जा रहे हैं और ग़रीब और अधिक ग़रीब। गुजरात में 70 प्रतिशत दलित लड़कियाँ माध्यमिक शिक्षा तक नहीं पहुँच पातीं। शहरी क्षेत्र में महिलाओं के साथ यौन हिंसा, छेड़छाड़, बलात्कार तेज़ी से बढ़ रहे हैं। 69.7 प्रतिशत 5 साल की कम उम्र से बच्चे रक्त की कमी के शिकार हैं। करीब 44.6 बच्चे कुपोषित हैं। 2009 में ‘वाईब्रेंट गुजरात समिट’ में सरकार के 8380 ‘मेमोरैण्डम ऑफ अण्डरस्टैण्डिंग’ में से सिर्फ़ 120 ही ज़मीन पर उतरे हैं बाकि सब हवाई था! वैसे भी इन दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर होता ही इसलिए है कि जनता की साझा सम्पत्ति, यानी देश की ज़मीन, बिजली, पानी, आदि सबको औने-पौने दामों पर पूँजीपतियों की लूट के लिए बेच खाना! इस मामले में तो नरेन्द्र मोदी ने वाकई अपने सभी करीबी प्रतिस्पर्द्धियों को पीछे छोड़ दिया है, जैसे कि बादल, हूड्डा, आदि!

गुजरात के आर्थिक मॉडल पर दृष्टिपात करने के बाद हम एक नज़र वहाँ के सामाजिक भूदृश्य पर नज़र डालें तो गुजरात की तस्वीर और साफ़ हो जायेगी। गुजरात की रिहायशें विभाजित हैं। मुस्लिमों और हिंदुओं के बीच सामाजिक ध्रुवीकरण चरम पर है। ग्रामीण क्षेत्रों से लेकर शहरी क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी ‘घेटो’ जैसे क्षेत्रों में सीमित हो गयी है। कईं मुस्लिम दरगाहों तक का “हिन्दुकरण” हुआ है। शिवराम विज तथा कई पत्रकारों ने अपने लेखों में इस ध्रुवीकरण का चित्रण किया है। और यही ध्रुवीकरण, हिन्दू और मुस्लिम के रूप में लोगों की पहचान, मोदी की राजनीति को गुजरात में जीता रही है। इसके लिए ही संघ गिरोह ने मोदी के निर्देशन में गुजरात के 2002 दंगे करवाये। यह राज्य द्वारा प्रायोजित नरसंहार था। पूरी सरकारी मशीनरी के इसमें मिले होने के सबूत तहलका से लेकर संजीव भट्ट और खुद बाबू बजरंजी सरीखे आदमखोर भी बयान कर चुके हैं। लेकिन सवाल उठता है कि पर्याप्त सबूतों के बावजूद भारतीय पूँजीवादी सत्ता न तो संघ परिवार को प्रतिबन्धित करती है, और न ही इस नरसंहार को आयोजित करवाने वालों को गिरफ़्तार करती है! इससे कहीं कम सबूतों पर, बल्कि कोई सबूत न होने पर भी, देश के तमाम हिस्सों से बार-बार मुसलमान नौजवानों को आतंकवाद के आरोप में गिरफ़्तार किया गया है और कई बार तो कई वर्ष उन्हें जेलों में यातनाएँ देने के बाद सरकार ने स्वयं माना कि वे बेगुनाह थे और फिर उन्हें रिहा कर दिया! लेकिन गुजरात से लेकर मुज़फ़्फ़रनगर के दंगों तक में संघ परिवार के संलग्न होने के स्पष्ट प्रमाणों के बावजूद इसे व्यक्तियों की ग़लती बना कर पेश किया गया और संघ परिवार को बरी कर दिया गया। इसका कारण यह है कि सरकार किसी की भी हो, मज़दूरों और आम मेहनतकश जनता की शक्तियों को आतंकित करके रखने के लिए ऐसे गुण्डा गिरोहों की ज़रूरत हर पूँजीवादी सरकार को होती है। इसीलिए फासीवादी सत्ता में रहें न रहें, वे इस व्यवस्था के ज़ंजीर से बँधे कुत्ते के समान होते हैं।

संघ गुजरात में भुज में आये भूकम्प के समय से ही पूरी ताक़त लगा कर काम कर रहा था। बस्तियों में संघ की शाखाएँ थीं, मेडिकल कैम्प व कल्याण कार्यक्रमों की आड़ में हिन्दुत्व का प्रचार किया। ‘त्रिशूल दीक्षा’ के तहत राज्य भर में लाखों त्रिशूल बाँटे गए। 2002 के जनसंहार व लूटपाट में लगी उन्मादी भीड़ का नेतृत्व संघ के कार्यकर्ता कर रहे थे। हज़ारों जानें गयीं और हजारों बच्चियों और महिलाओं के साथ बलात्कार हुए। इन दंगों का ज़िक्र ‘आह्वान’ के पन्नों पर हम एक बार फिर इसलिए कर रहे हैं क्योंकि आज बिल्कुल इसी तरह के प्रयोग देश के ग्रामीण क्षेत्रों में संघियों द्वारा किये जा रहे हैं। इन दंगों के ज़रिये फिर से पूरे देश को गुजरात में तब्दील करने की तैयारी की जा रही है। सामाजिक ध्रुवीकरण कर साम्प्रदायिक फ़ासीवाद सत्ता में आने की तैयारी कर रहा है। इसका बुनियादी और बड़ा प्रयोग गुजरात है। गुजरात में व्यापारी वर्ग और नौकरीपेशा लोगों, मध्य वर्ग का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा शामिल हुआ था। और फेसबुक पर बैठकर देशभक्ति के नाम पर सीना पीटने वाले तमाम मोदीभक्त आई.टी. प्रोफेशनल, इंजीनियर भी इसी जमात में आते हैं। इन वर्गों में प्रतिक्रियावाद होने की अधिक सम्भावना  है और मोदी इसी सम्भावना को भुनाता रहा है। गुजरात में वाणिज्यिक पूँजी और व्यापरियों का बोलबाला है। भारत की ज़मीन पर सांस्कृतिक पिछड़ेपन के कारण प्रतिक्रियावाद वैसे भी जमकर खाद पाता है। इन साम्प्रदायिक दंगों में बेरोज़गार व अर्द्धबेरोज़गार टुटपुँजिया वर्ग और पिछड़े आदिवासी कबीलों से आने वाले नौजवानों और लम्पट सर्वहाराओं की संख्या देखने को ज़्यादा मिलती है। इसका कारण द्रुत गति से हुए उद्योगीकरण और “विकास” के कारण निम्न पूँजीपति वर्ग का बर्बाद होना और उनके बीच बढ़ती बेरोज़गारी है। इन वर्गों के सामने कोई क्रान्तिकारी विकल्प न होने के कारण फ़ासीवादी नारों की और आकृष्ट होते हैं, जैसे “18 करोड़ मुसलमान मतलब 18 करोड़ हिन्दू बेरोज़गार” या मोदी का “आमे पाँच, अमारे पच्चीस” जैसे नारे। परन्तु सत्तासीन होने के बाद फ़ासीवाद अपने मालिक वर्ग के समर्थन में खड़ा होता है। इस टुटपुँजिया “पीले चेहरे वाले नौजवानों” की आबादी की ताक़त का इस्तेमाल तो फासीवादी ताक़तें केवल एक प्रतिसन्तुलनकारी ताक़त के रूप में करती हैं, ताकि मज़दूर आन्दोलन और क्रान्तिकारी ताक़तों को रोक सकें, कुचल सकें। फ़ासीवाद बड़ी पूँजी का सबसे निर्मम और बर्बर चाकर होता है। जर्मनी और इटली में हमें यह उदाहरण बखूबी देखने को मिलता है। सत्ता में आकर पूँजीवादी लूट की छूट मिली और मज़दूर आन्दोलन को जमकर कुचला गया। गुजरात में मोदी ने जो किया संघ अब यही देश स्तर पर लागू करने की जुगत में भिड़ा हुआ है। आर्थिक असामनता सामाजिक ध्रुवीकरण पर झूठे विकास की चिप्पियाँ लगाकर ही मोदी सरकार बनाने कि जुगत में बैठा है। यहाँ बात सिर्फ मोदी की नहीं है क्योंकि फ़ासीवाद संकटग्रस्त पूँजीवादी व्यवस्था की ज़रूरत और उपज है। यह अकारण नहीं है कि समूचा कारपोरेट जगत और उसका टुकड़खोर मीडिया मोदी का चारण-भाट बना बैठा है!

जब तक इस व्यवस्था का कोई क्रान्तिकारी विकल्प नहीं आएगा तब तक फ़ासीवाद का खतरा अस्तित्वमान रहेगा और मोदी जैसा फ़ासीवादी व्यक्तित्व उभरता रहेगा।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्‍बर-दिसम्‍बर 2013

 

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