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साम्राज्यवाद की सेवा का मेवा

पिछले कुछ समय में जिन लोगों को शान्ति का नोबेल पुरस्कार दिया गया है, उसने तो नोबेल की विश्वसनीयता पर ही प्रश्न चिह्न खड़ा कर दिया है। अब बराक ओबामा, अल-गोर, हेनरी किसिंगर जैसे साम्राज्यवादी हत्यारों को क्या सोचकर नोबेल का शान्ति पुरस्कार दिया गया है, इस पर अलग से अनुसन्धान की आवश्यकता पड़ेगी! कुल मिलाकर, इस बार लियू ज़ियाओबो को जो नोबेल शान्ति पुरस्कार मिला है और अतीत में जिन शान्तिदूतों को यह पुरस्कार दिया जाता रहा है, वह नोबेल पुरस्कार के पीछे काम करने वाली पूरी राजनीति का चेहरा साफ कर देता है।

अरब जनउभार के मायने

मौजूद अरब जनउभार अरब जनता के लिए सीखने की एक पाठशाला साबित होगा। इसलिए यह जनविद्रोह हर इंसाफपसन्द और साम्राज्यवाद से नफ़रत करने वाले इंसान के लिए ख़ुशी का सबब है। इसमें आम नौजवानों और स्त्रियों की ज़बरदस्त भागीदारी ख़ासतौर पर उम्मीद का संचार करती है। यह भविष्य के बारे में काफ़ी-कुछ बताता है। निकट भविष्य में शायद साम्राज्यवाद इस अरब जनउभार से बस सिहरकर रह जाये, लेकिन वह भविष्य भी कोई शताब्दी दूर नहीं जब अरब एशिया, अफ़्रीका और लातिनी अमेरिका के साथ उन ज़मीनों में से एक बनेगा जहाँ जनता के बहादुर बेटे-बेटियाँ साम्राज्यवाद और पूँजीवाद की कब्रें खोदेंगे। भारत के नौजवानों को भी मिस्र के नौजवानों से सीखने की ज़रूरत है। उन्हें भी अपने अन्दर अन्याय, अत्याचार, शोषण और उत्पीड़न के ख़िलाफ अपने दिलों में बग़ावत की ऐसी ही आग को जलाना होगा। कहीं ऐसा न हो कि जब निर्णय की घड़ी आये तो हम पीछे छूट जायें!

चीन के सामाजिक फासीवादी शासकों का चरित्र एक बार फिर बेनकाब

1976 में माओ की मृत्यु के बाद से चीन ने समाजवाद के मार्ग से विपथगमन किया और देघपन्थी ‘‘बाज़ार समाजवाद’‘ का चोला अपना लिया। इसके बाद से मेहनतकश आबादी की जीवन स्थितियाँ लगातार रसातल में जा रही हैं। हर साल कोयला खदानों में ही हज़ारों मज़दूर अपनी जान गवाँ देते हैं तो दूसरी तरफ समाजवादी व्यवस्था की ताकत की नींव पर खड़े होकर संशोधनवादी शासक आज साम्राज्यवादी ताकत के रूप में उभर रहे हैं। यही कारण है कि चीन में अरबपतियों और करोड़पति पूँजीपतियों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। 2006 की ‘फॉर्चून’ पत्रिका के अनुसार दुनिया के अरबपतियों की सूची में सात चीनी उद्योगपति थे। ये तस्वीरें चीन में अमीर-ग़रीब की बढ़ती खाई को दिखाती हैं।

युद्ध, लूट व अकाल से जूझता कांगो!

अपवादों को छोड़कर, पूर्वी कांगो में सारा खनन अनौपचारिक क्षेत्र में होता है। खदान मज़दूर या तो नंगे हाथों काम करते हैं या फिर कुछ पिछडे़ औज़ारों के सहारे। खदानों की कार्य-स्थितियाँ बेहद अमानवीय हैं। मज़दूरों को खनन का कोई प्रशिक्षण नहीं दिया जाता, न ही खदानों में काम करने के लिए ज़रूरी औज़ार व वर्दी उनके पास होती है। मज़दूरों का गम्भीर रूप से घायल हो जाना या मृत्यु की गोद में चले जाना, आम बात है। खदानों के मज़दूरों में एक बड़ी संख्या बाल मज़दूरों की है। काम के घण्टे तय नहीं हैं। हथियारबन्द सैनिकों के कहने पर काम न करने पर मज़दूरों को जान गँवानी पड़ती है। समय-समय पर ये सैनिक महिलाओं व बच्चों को अपनी पाशविकता का शिकार बनाते हैं। अभी तक इस युद्ध के दौरान 2 लाख महिलाओं के साथ बलात्कार हो चुका है।

यूरोपीय महाद्वीप के रंगमंच पर इक्कीसवीं सदी की ग्रीक त्रासदी

‘‘सभी ने सोचा था कि अब ‘दास कैपिटल’ की कभी कोई माँग नहीं होगी, लेकिन अब यह समझने के लिए तमाम बैंकर और मैनेजर भी ‘दास कैपिटल’ पढ़ रहे हैं कि वे हमारे साथ क्या कारस्तानी करते रहे हैं।’‘ ये शब्द हैं जर्मनी के एक प्रतिष्ठित प्रकाशक कार्ल डिएट्ज़ वर्लेग के प्रबन्ध निदेशक जोअर्न श्यूट्रम्फ के जिन्होंने प्रसिद्ध समाचार एजेंसी रायटर को एक साक्षात्कार में यह बताया। इस वर्ष के मात्र चार महीनों में कार्ल डिएट्ज़ वर्लेग ने मार्क्स की महान रचना ‘पूँजी’ की 1500 प्रतियाँ बेची हैं। बैंकर और मैनेजर ही नहीं बल्कि पूँजीवादी राजसत्ता के मुखिया भी आजकल उस जटिल वित्तीय ढाँचे को समझने के लिए ‘पूँजी’ पढ़ रहे हैं जो उन्होंने अपने मुनाफे की हवस में अन्धाधुन्ध बना दिया है। हाल ही में एक कैमरामैन ने फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोज़ी को ‘पूँजी’ पढ़ते हुए पकड़ लिया था!

पूँजीवादी व्यवस्था के चौहद्दियों के भीतर ग़रीबी नहीं हटने वाली

मुनाफे की होड़ पर टिकी ये व्यवस्था बिल्ली के समान है, जो चूहे मारती रहती है और बीच-बीच में हज करने चली जाती है। व्यापक मेहनतकश आवाम की हड्डियाँ निचोड़ने वाले मुनाफाखोर बीच-बीच में एन.जी.ओ. (गैर-सरकारी संगठन) व स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से जनता की सेवा करने उनके दुख-दर्द दूर करने का दावा करते हैं।

साम्राज्यवाद के ‘चौधरी’ अमेरिका के घर में बेरोज़गारी का साम्राज्य

इन तथ्यों और आँकड़ों की रोशनी मे साफ़ है कि विश्व को लोकतन्त्र व शान्ति का पाठ पढ़ने वाला अमेरिका खुद अपनी जनता को बेरोज़गारी, ग़रीबी, भूखमरी, अपराध से निजात नहीं दिला पाया। दूसरी तरफ़ शान्तिदूत ओबामा की असलियत ये है कि जिस हफ़्ते ओबामा को नोबल शान्ति पुरस्कार दिया गया, उसी हफ़्ते अमेरिकी सीनेट ने अपने इतिहास में सबसे बड़ा सैन्य बजट पारित किया 626 अरब डॉलर। और बुशकालीन युद्धनीति में कोई फ़ेरबदल नहीं किया गया और इस कारण आज भी अफ़गान-इराक युद्ध में अमेरिकी सेना वहाँ की निर्दोष जनता को ‘शान्ति का अमेरिकी पाठ’ पढ़ा रही है इन हालतों से साफ़ है कि पूँजीवादी मीडिया द्वारा जिस अमेरिका समाज की चकाचौंध दिखाई जाती है उससे अलग एक और अमेरिकी समाज है जो पूँजीवाद की लाइलाज बीमारी बेरोज़गारी, ग़रीबी आदि समस्या से संकटग्रस्त है।

साम्राज्यवादियों के लिए कुछ सबक

साम्राज्यवादियों की इतिहास से कुछ ख़ास दुश्मनी या खुन्नस है। इतिहास उन्हें जो सबक सिखाना चाहता है वे उसे सीखते ही नहीं हैं। पहले वियतनाम युद्ध में, कोरिया युद्ध में, इराक और अफगानिस्तान में, और भी तमाम देशों में हुए साम्राज्यवादी हमलों और हस्तक्षेपों में यह बात साबित हुई है कि युद्ध में निर्णायक जनता होती है हथियार नहीं। वियतनाम में अमेरिकी साम्राज्यवादियों के मंसूबों को नाकाम बनाते हुए वियतनामी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में वहाँ की जनता ने अमेरिकी सेना को मार–मारकर खदेड़ा। कोरिया में भी अमेरिकी सेना का हश्र उत्तर कोरिया की कम्युनिस्ट पार्टी ने कुछ ऐसा ही किया। इराक और अफगानिस्तान पर कब्जे के बावजूद यह बात साबित हो गई कि युद्ध अभी ख़त्म नहीं हुआ है बल्कि जनता का जवाब तो अब मिलना शुरू हुआ है और कब्जे के बाद हुए छापामार हमलों में हजारों अमेरिकी और मित्र देशों के सैनिक मारे जा चुके हैं। और सबसे नया उदाहरण है इजरायल की अत्याधुनिक हथियारों और अमेरिकी हथियारों से लैस सेना की लेबनान के एक छोटे–से छापामार समूह हिज़्बुल्लाह के हाथों शर्मनाक शिकस्त।

यासूकुनी, शिंज़ो एबे और जापान की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाएँ

पिछले कुछ समय में जापान के भीतर अंधराष्ट्रवाद काफ़ी तेज़ी से बढ़ा है। इसमें वहाँ की दक्षिणपंथी ताक़तों को काफ़ी योगदान रहा है जो लम्बे समय से जापानी स्वाभिमान की बात करती रही हैं और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जापान के अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अपमानित होने को याद दिलाते हैं और इस बात पर जोर देते हैं कि जापान ने कोई युद्ध अपराध नहीं किया बल्कि वह तो अपने एशियाई पड़ोसियों को पश्चिमी गुलामी से मुक्त करा रहा था। यासूकूनी में एक स्वतंत्र संगठन द्वारा ऐसी प्रदर्शनियों का आयोजन भी किया जाता है जिसमें ऐसे दृष्टिकोण से ही तथ्यों को प्रस्तुत किया जाता है। यासूकूनी धार्मिक से ज़्यादा जापान के उभरते राष्ट्रवाद का प्रतीक चिन्ह बन गया है।

तारीख़ सभी साम्राज्यवादियों की मुश्तरक़ा दुश्मन है…. और तारीख़ जनता बनाती है!

यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि साम्राज्यवाद ने एशिया और अफ्रीका के प्राकृतिक और मानव संसाधनों की जो लूट मचाई वह इतिहास में अद्वितीय है। पश्चिम ने हमें सिविलाइज नहीं किया है। बल्कि यह कहना चाहिए कि पश्चिम में सभ्यता, जनवाद, आजादी, समानता, भ्रातृत्व आदि के सिद्धान्त पैदा करने का अतिरिक्त समय वहाँ के लोगों को पूरब से लूटी गई भौतिक सम्पदा के कारण मिल पाया। ब्रिटेन का औद्योगीकरण भारत से होने वाली लूट के कारण हो पाया। यही बात फ्रांस, स्पेन, पुर्तगाल और उनके उपनिवेशों के बारे में भी कही जा सकती है। यह सच है कि पश्चिम में प्रबोधन और नवजागरण के कारण तमाम मुक्तिदायी विचारों ने जन्म लिया। लेकिन ऐसा इसलिए नहीं हुआ कि हम नस्ली तौर पर कमजोर हैं और वे नस्ली तौर पर श्रेष्ठ। नस्ली श्रेष्ठता और हीनता के तमाम सिद्धान्त विज्ञान ने गलत साबित कर दिये हैं। आज पश्चिम का जो शानदार विकास हुआ है उसके पीछे बहुत बड़ा कारण एशिया और अफ्रीका की साम्राज्यवादी लूट है।