अरब जनउभार के मायने
सम्पादकीय
अरब विश्व एक ज़बरदस्त उथल-पुथल से गुज़र रहा है। आज अरब विश्व में जो हो रहा है, वह समकालीन इतिहास की बड़ी घटनाओं में से एक साबित हो सकता है। ट्यूनीशिया में आबिदिन बेन अली और मिस्र में हुस्नी मुबारक की सत्ता से विदाई के बाद अरब विश्व के कई अन्य देशों में भी जनता निरंकुश और तानाशाह सत्ताओं के विरुद्ध सड़कों पर उतरने लगी है। ट्यूनीशिया से शुरू हुआ जनविद्रोह जंगल की आग की तरह फैल रहा है। कई देशों के निरंकुश शासकों ने इससे डरकर पहले ही कुछ दिखावटी सुधार करने शुरू कर दिये हैं। कोई सेना प्रमुख को बर्ख़ास्त कर रहा है, कोई प्रधानमन्त्री को तो कोई पूरे के पूरे मन्त्रीमण्डल को।
ट्यूनीशिया में एक 26 वर्ष के नौजवान द्वारा पुलिस उत्पीड़न के विरुद्ध आत्मदाह करने की घटना ने जनता में सुगबुगा रहे असन्तोष को सतह पर ला दिया। पहले भी कुछ छोटी घटनाएँ जनविद्रोहों की शुरुआत का कारण बनी हैं। रूस में फरवरी क्रान्ति की शुरुआत खाद्य दंगों से हुई थी और फ़्रांसीसी क्रान्ति की शुरुआत बास्तीय कारागार पर धावे के साथ हुई थी। लेकिन व्यक्तिगत विद्रोह या छोटी घटनाएँ जनविद्रोह का कारण तभी बनती हैं जब इनके पीछे के कारणों की अनुगूँज आम जनता के मानस में सुनायी देती है। अरब विश्व में ऐसा ही हुआ है।
ट्यूनीशिया में बेन अली की सत्ता के पतन ने मिस्र में डर के बाँध को तोड़ दिया। बेन अली के देश छोड़कर भागने के कुछ समय बाद ही मिस्र में लम्बे समय से सतह के नीचे सुलग रहा मज़दूर असन्तोष सड़कों पर आ गया। जिस महिला अस्मा महफ़ूज़ ने इण्टरनेट के ज़रिये तहरीर चौक पर विरोध प्रदर्शन का आह्वान किया था, वह वास्तव में ‘6 अप्रैल’ आन्दोलन से जुड़ी हुई थी जो 2008 में मज़दूरों ने किया था। अस्मा महफ़ूज़ ने अपने द्वारा बताये गये नियत दिन तहरीर चौक पर अकेले मुबारक के निज़ाम के ख़िलाफ नारेबाज़ी शुरू कर दी। धीरे-धीरे वहाँ भीड़ एकत्र होने लगी और वह एक बड़े प्रदर्शन में तब्दील हो गया। इससे साफ ज़ाहिर होता है कि मिस्र की जनता भी किसी ‘फर्दीनान्द वध’ के इन्तज़ार में थी। इस घटना ने यही भूमिका निभायी। इसके बाद का इतिहास सभी जानते हैं। मुबारक की सत्ता का पतन हो गया। इसके बाद अभी मिस्र में स्थितियाँ तरल बनी हुई हैं। जनता अभी भी सड़कों पर है। जनविद्रोह अभी शान्त नहीं हुआ है। निश्चित तौर पर, एक जीत इस विद्रोह ने हासिल की है। लेकिन इसके बाद किस प्रकार की सत्ता मिस्र में स्थापित होगी यह अभी एक खुला सवाल है।
मिस्र में मुबारक की सत्ता के पतन का महत्त्व ट्यूनीशिया में बेन अली की सत्ता के पतन से अरब विश्व के पैमाने पर भी और विश्व राजनीति के पैमाने पर भी, ज़्यादा महत्त्व रखता है। इसके बाद, यमन, अल्जीरिया और यहाँ तक कि ईरान में भी जनता सड़कों पर उतरने लगी है। मिस्र में हुए जनविद्रोह के दो प्रमुख कारक थे। मीडिया इसमें से सिर्फ एक कारक पर बल दे रहा है, और वह है जनवादी और नागरिक अधिकारों के लिए जनता का विद्रोह। और इस विद्रोह में भी इण्टरनेट के रूप में नये संचार माध्यमों का पढ़े-लिखे युवाओं द्वारा किया गया इस्तेमाल विशेष रूप से दिलचस्पी का मुद्दा बना हुआ है। इसमें कोई शक नहीं है कि इस विद्रोह का एक प्रमुख पहलू था मुबारक की ग़ैर-जनवादी सत्ता, पुलिस दमन, भ्रष्टाचार और सत्ता द्वारा विभिन्न रूपों में जनता के उत्पीड़न का पढ़े-लिखे निम्न मध्यवर्ग और मध्यवर्ग के युवाओं द्वारा साहसिक विरोध। यह भी सच है कि इसमें आधुनिक संचार माध्यमों का युवाओं ने बहुत ही चतुराई और विवेक के साथ इस्तेमाल किया। लेकिन एक और पहलू भी इस विद्रोह के पीछे मौजूद था और जो वास्तव में ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है। यह पहलू है मज़दूर विद्रोह का पहलू। सन् 2004 से 2011 के बीच मिस्र में मज़दूर आन्दोलन तेज़ी से बढ़ा है। इस बात का अन्दाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि इस बीच करीब 10 लाख मज़दूरों ने हड़ताल समेत विभिन्न विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा लिया। 2008 में मिस्र में दुकानों में काम करने वाले मज़दूरों ने औद्योगिक मज़दूरों और अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों के साथ मिलकर ‘6 अप्रैल’ आन्दोलन की नींव रखी। तब से भूमिगत रूप से और खुले तौर पर मज़दूरों का यह आन्दोलन लगातार जारी थी। इस आन्दोलन में कई तरह की ताकतें सक्रिय थीं, जिसमें से कम्युनिस्ट भी एक थे। अस्मा महफ़ूज़ इसी आन्दोलन से जुड़ी हुई है। इस तरह से देखें तो हम पाते हैं कि मज़दूर आन्दोलन लगातार इस पूरे विद्रोह के आधार के तौर पर मौजूद था। यह बात सच है कि यह मज़दूर आन्दोलन अभी स्वयं काफ़ी हद तक स्वतःस्फूर्त था और इसमें कोई एक स्वीकार्य नेतृत्व और एक स्पष्ट वैकल्पिक सोच मौजूद नहीं है।
मिस्र में मज़दूर असन्तोष के पीछे लगभग वही कारण हैं जो भारत में हैं। भारत में नेहरू ब्राण्ड “समाजवाद” यानी सार्वजनिक क्षेत्र वाले पूँजीवाद के सन्तृप्ति के स्तर तक पहुँच जाने के बाद 1991 में नयी आर्थिक नीतियों की शुरुआत हुई और निजीकरण और उदारीकरण की लहर चल पड़ी। ठीक उसी प्रकार जनरल नासिर द्वारा स्थापित सार्वजनिक क्षेत्र वाले पूँजीवादी ढाँचे को हुस्नी मुबारक ने 30 वर्ष पहले सत्ता में आने के बाद अपने निशाने पर रखा था। मिस्र में मुबारक की सत्ता ने 1990 के ही करीब उदारीकरण और निजीकरण की प्रक्रिया शुरू की। लेकिन इस प्रक्रिया ने नयी सहस्राब्दि में आकर विशेष रूप से गति पकड़ी। 2001 से लेकर 2011 तक के बीच मिस्र में जमकर निजीकरण हुआ, छँटनी और तालाबन्दी हुई, विदेशी कम्पनियों की प्रत्यक्ष लूट में इज़ाफ़ा हुआ और अमीर-ग़रीब के बीच की खाई तेज़ी से बढ़ी। मिस्र की सरकार की रपट के अनुसार इस समय करीब 45 फ़ीसदी मिस्रवासी 2 डॉलर से कम की प्रतिदिन की आय पर बसर कर रहे हैं। करीब आधी आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रही है। बताने की ज़रूरत नहीं है कि यह आबादी इस देश के ग़रीब मज़दूरों और किसानों की है। छोटी किसानी तेज़ी से तबाह हुई है और गाँवों से शहरों की तरफ प्रवास बेहद तेज़ी से बढ़ा है। एक बहुत बड़ी आबादी बेघर हो गयी है या फिर झुग्गियों में रहती है। संक्षेप में, ये ही वे कारक हैं जिन्होंने पिछले एक दशक के दौरान मिस्र में मज़दूर असन्तोष में भयंकर वृद्धि की है और ‘6 अप्रैल’ आन्दोलन इसी बढ़ते असन्तोष की अभिव्यक्ति था।
इस मज़दूर असन्तोष के साथ मुबारक की भ्रष्ट, निरंकुश, दमनकारी और तानाशाह सत्ता के विरुद्ध देश के आम मध्यवर्गीय युवाओं और महिलाओं की नफ़रत और ग़ुस्सा मिल गया और इसी ने मिस्र के मौजूद जनविद्रोह को जन्म दिया। मिस्र में एक प्रकार का पुलिस राज्य कायम था। इस पुलिस राज्य के शिकार आम मध्यवर्गीय नौजवान और महिलाएँ आये-दिन होते रहते थे। विश्वविद्यालय, सामाजिक जीवन के तमाम क्षेत्रों और सांस्कृतिक क्षेत्रों में जनता को कोई आज़ादी नहीं थी और हर जगह लोग अपने आपको हर पल राज्यसत्ता की निगाह तले महसूस करते थे। यह एक दम घोंट देने वाली स्थिति थी। स्त्रियों के ख़िलाफ पुलिस या सशस्त्र बलों द्वारा यौन हिंसा आम थी। इसके विरुद्ध नौजवानों में विद्रोह की भावना पनप रही थी। असमा महफ़ूज़ के सड़क पर उतरने की घटना ने इस भावना के फूट पड़ने का मौका मुहैया कराया। इसके बाद, फ़ेसबुक और यूट्यूब आदि के ज़रिये विद्रोह के फैलने की प्रक्रिया शुरू हुई। कहने का अर्थ यह है, कि बढ़ती बदहाली, बेरोज़गारी, मज़दूरी में कटौती, और आर्थिक दुखों-तकलीफ़ों के विरुद्ध मज़दूर असन्तोष और मुबारक की दमनकारी और ग़ैर-जनवादी सत्ता के विरुद्ध आम मध्यवर्गीय नौजवानों और स्त्रियों का असन्तोष मिस्र के मौजूदा जनविद्रोह के दो प्रमुख कारक थे।
लेकिन इस विद्रोह की ज़मीन दीर्घकालिक तौर पर तैयार हो रही थी। इसके पीछे तीन प्रमुख कारण काम कर रहे थे। और यह बात न सिर्फ मिस्र के मामले में सच है बल्कि पूरे अरब जगत के बारे में सच है। पहला कारण है पूरी अरब जनता में साम्राज्यवाद के विरुद्ध गहरी नफ़रत, जो कई मामलों में अद्वितीय है। उपनिवेशवाद के प्रवेश के पहले तक अरब जगत काफ़ी हद तक एकीकृत था। अरब विश्व में आज जो देश मौजूद हैं उनमें से अधिकांश उपनिवेशवाद की रचना हैं। ब्रिटिश, फ़्रांसीसी, इतालवी साम्राज्यवाद ने अरब जगत के अलग-अलग हिस्सों पर अधिपत्य जमा रखा था। विऔपनिवेशीकरण के दौरान इन साम्राज्यवादियों ने कोई एक अरब राज्य पैदा न होने देने के लिए हर ज़रूरी इन्तज़ाम किये और जाने से पहले कई देशों में विभाजित अरब विश्व छोड़ कर गये। साथ ही जाने से पहले उन्होंने कई देशों में ऐसे शासक बिठा दिये जो जनता की आकांक्षाओं का किसी भी रूप में प्रतिनिधित्व नहीं करते थे और उनके हितों के अनुरूप काम करने को तैयार थे। अरब विश्व में साम्राज्यवाद का प्रभाव विऔपनिवेशीकरण के बाद भी कायम रहा। यह प्रभाव विरासत में साम्राज्यवाद के नये चौधरी अमेरिका को मिला, जिसने अरब देशों में मौजूद तेल और प्राकृतिक गैस की अकूत सम्पदा के दोहन के लिए इसे नये और पहले से अधिक शातिर तरीक़े से इस्तेमाल किया। बीसवीं सदी के मध्य में इज़रायल की स्थापना के बाद फिलिस्तीनी अरबों के साथ किये गये सुलूक (जो कि आज भी जारी है) ने पूरी अरब जनता में अमेरिकी साम्राज्यवाद के प्रति भयंकर घृणा और नफ़रत भर दी। अपनी जगह-ज़मीन से विस्थापित फिलिस्तीनी अरब पूरे अरब जगत में फैल गये और अरब जनता के रैडिकलाइज़ेशन में इसने एक बड़ी भूमिका निभायी। आज तेल की ख़ातिर अरब जगत पर नियन्त्रण रखने के लिए अमेरिका इज़रायल की हत्यारी सत्ता को जिस तरह से समर्थन देता है, वह उसे पूरे अरब में घृणा और नफ़रत का पात्र बनाता है। साथ ही, इस नफ़रत में तेल और प्राकृतिक गैस भण्डार के लिए इराक पर किये गये हमले ने ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी की है। अरब जनता साम्राज्यवाद के जुवे तले विऔपनिवेशीकरण के बाद भी दबी रही है और उसने भयंकरतम दमन और युद्धों का सामना किया और अकूत कुर्बानियाँ दी हैं। यही कारण है कि अरब जनता के रैडिकलाइज़ेशन में सबसे बड़ा कारण साम्राज्यवाद के प्रति उसकी नफ़रत है।
दूसरा कारण है फिलीस्तीन का प्रश्न। अरब विश्व में इज़रायल के प्रति नफ़रत का अन्दाज़ा हम नहीं लगा सकते। जिसने किसी अरब देश का दौरा किया हो और वहाँ आम लोगों से बातचीत की हो, वही समझ सकता है कि इस नफ़रत की गहराई क्या है। पूरे अरब में आम जनता फिलिस्तीनियों के दर्द को शिद्दत के साथ महसूस करती है। हर उस देश के लोग अपनी सरकार से गहरी नफ़रत करते हैं, जिसने फिलिस्तीन के सवाल पर साम्राज्यवादियों और इज़रायल से समझौता किया। मिस्र ऐसा ही एक देश है। 1978 के कैम्प डेविड समझौते के बाद मिस्र मध्य-पूर्व में इज़रायल का मित्र बनकर उभरा। मिस्र के शासकों ने फिलिस्तीनी जनता की पीठ में छुरा भोंका था और इसने जनता को शासकों के प्रति जुगुप्सा से भर दिया था। इज़रायल को दो कोनों से ही समर्थन मिलता था। एक मिस्र और दूसरा तुर्की। तुर्की हाल ही में इज़रायल का साथ छोड़ चुका है और मिस्र में अब स्थितियाँ अनिश्चित हो गयी हैं। इसके कारण मध्य-पूर्व में अमेरिका और इज़रायल के हितों पर प्रश्न-चिन्ह खड़ा हो गया है। मिस्र को पूरे अरब विश्व में अमेरिका से सबसे ज़्यादा सैन्य सहायता मिलती थी। मिस्र में जनविद्रोह के बाद अमेरिका ने प्रतिक्रिया देने में काफ़ी देर की। पहले तो वह मुबारक की सत्ता का साथ देता रहा और जब उसे लगा कि अब मुबारक की सत्ता को ढहने से कोई नहीं रोक सकता, तब वह इस प्रयास में लग गया कि जो भी नयी शक्ति सत्ता में आये वह अमेरिकी हितों के अनुकूल हो। अभी वह इस कोशिश में लगा हुआ है उसके हितों की रखवाली करने वाले कांस्टेबुल सुलेमान (उपराष्ट्रपति) ही सत्ता में आ जाये। बहरहाल, अमेरिका और इज़रायल इस समय काफ़ी घबराये हुए हैं। वे भी जानते हैं कि मिस्र में जो जनउभार हुआ है, वह फिलिस्तीन की जनता के साथ गहरी हमदर्दी रखता है। ऐसे में, नयी सत्ता मध्य-पूर्व में उनके हितों के प्रतिकूल भी हो सकती है।
और अरब जनउभार के पीछे तीसरा बड़ा ऐतिहासिक कारण है, राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलनों और युद्धों के बाद सत्ता में आये रैडिकल बुर्जुआ वर्ग का क्रमिक पतन, उसके नायकत्व का खण्डित होते जाना और अन्ततः उसकी बुर्जुआ सत्ता का निरंकुश, तानाशाह, दमनकारी और भयंकर भ्रष्ट सत्ताओं में तब्दील हो जाना। मिस्र में जनरल नासिर के नेतृत्व में राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन की विजय हुई। जनरल नासिर की सत्ता का व्यापक जनाधार था और स्वयं नासिर की छवि एक नायक के समान थी। नासिर ने लगातार साम्राज्यवाद-विरोधी अवस्थिति अपनायी, देश के भीतर तमाम कल्याणकारी योजनाएँ चलायीं, और तमाम लोकप्रिय कार्यक्रम चलाये। लेकिन नासिर ने भी अपने शासन के दौरान देश में कम्युनिस्टों का ज़बरदस्त दमन किया। कम्युनिस्ट ताकतें अपनी राजनीतिक समझ की कमज़ोरी के चलते नासिर में अपने मित्र की तलाश कर रही थीं और यही कारण था कि नासिर के दमन के सामने वे टिक न सकीं। नासिर का चरित्र एक रैडिकल राष्ट्रीय बुर्जुआ का था, जो साम्राज्यवाद का विरोध निरन्तरता के साथ करता था, लेकिन अपने देश में कम्युनिस्टों के दमन में वह किसी से पीछे नहीं था। नासिर के बाद अनवर सादात की सत्ता आयी और यहाँ से मिस्र की राष्ट्रीय बुर्जुआजी का पतन शुरू हो गया। इसके बाद ही अमेरिकी साम्राज्यवाद के प्रति समझौतापरस्ती का रुख़ अख्त़ियार करना शुरू हो गया और 1978 में इसकी परिणति कैम्प डेविड समझौते में जाकर सामने आयी, जिसके बाद से मिस्र मध्य-पूर्व में अमेरिकी नीति का एक स्तम्भ बना हुआ है। इसके अलावा, 1980 के दशक के समापन से लेकर अब तक मिस्र ही नहीं, बल्कि अल्जीरिया, लीबिया, ट्यूनीशिया, आदि में भी, जहाँ कभी रैडिकल राष्ट्रीय बुर्जुआ सत्ताएँ हुआ करती थीं, उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों का श्रीगणेश हुआ। इसके बाद से इन देशों में बुर्जुआ सत्ताओं का चरित्र अधिक से अधिक निरंकुश, तानाशाह, ग़ैर-जनवादी और दमनकारी होता गया। इसके साथ ही पूरे शासक वर्ग में ज़बरदस्त भ्रष्टाचार पनपा और वह अधिक से अधिक बेशर्म भी हो गया। मिसाल के तौर पर, हुस्नी मुबारक का बेटा कमाल मुबारक एक बैंकर है और वह शासक वर्ग में कारपोरेट पूँजी के एजेण्ट के तौर पर काम करता है। आने वाले समय में हुस्नी मुबारक ने उसकी ताज़पोशी की पूरी योजना बना रखी थी, जो कामयाब न हो सकी। इस पतित बुर्जुआजी ने उदारीकरण और निजीकरण की जो नीतियाँ पिछले दो दशकों और विशेष रूप से पिछले एक दशक के दौरान लागू की हैं, उसने मज़दूर वर्ग पर कहर बरपा किया है। मज़दूरों के हालात इन देशों में ग़ुलामों जैसे हो गये हैं। अनौपचारिकीकरण, तालाबन्दी, छँटनी, ठेकाकरण के प्रकोप ने मज़दूर वर्ग के 90 फ़ीसदी हिस्से को रसातल की ज़िन्दगी में पहुँचा दिया है। यह पतित बुर्जुआ शासक वर्ग अरब विश्व में किसी एक देश की कहानी नहीं है। मिस्र, ट्यूनीशिया, अल्जीरिया, यमन, लीबिया, और अन्य कई देशों में यही स्थिति है। पूरी अरब जनता में अपने-अपने देशों की इस पतित क़िस्म की बुर्जुआजी के ख़िलाफ ज़बरदस्त नफ़रत है।
ये तीन प्रमुख ऐतिहासिक कारण हैं, जो अरब की जनता को बार-बार सड़कों पर उतारते हैं; ये ही वे कारण हैं जो अरब जगत को वह स्थान बनाते हैं जहाँ साम्राज्यवाद के अन्तरविरोध एक एकल गाँठ के रूप में नज़र आते हैं; यही अरब विश्व को विश्व राजनीति का एक विस्फोटक केन्द्र बनाते हैं। इस रूप में अरब विश्व में शुरू हुए इस जनविद्रोह ने साम्राज्यवादियों के दिलों में बेचैनी भर दी है। मध्य-पूर्व में उनके हितों का पूरा समीकरण बड़े बारीक सन्तुलन पर टिका हुआ है और चीज़ें जिस दिशा में जा रही हैं, वे उनके हितों को ख़तरे में डाल सकती हैं। इस पूरे जनविद्रोह में मज़दूरों, नौजवानों और स्त्रियों की भागीदारी अभूतपूर्व थी और यह इस आन्दोलन का एक बहुत बड़ा सकारात्मक है।
लेकिन हमें अति-आशावादी होने से भी बचना चाहिए। यह बात कभी नहीं भूलनी चाहिए कि मिस्र और ट्यूनीशिया में जो हुआ वह काफ़ी हद तक स्वतःस्फूर्त विद्रोह था, जिसमें निरंकुश सत्ताओं और उसकी विनाशकारी आर्थिक नीतियों के विरुद्ध मज़दूर, नौजवान और स्त्रियाँ सड़कों पर उतर आये। लेकिन इस पूरे आन्दोलन का कोई एकीकृत राजनीतिक नेतृत्व नहीं था। मिस्र में मुस्लिम ब्रदरहुड नामक संगठन का काफ़ी आधार था, लेकिन यह संगठन वास्तव में दो धड़ों में बँटता नज़र आ रहा है। यह करीब आठ दशक से भी ज़्यादा पुराना एक संगठन है। पहले के दौर में यह एक आतंकवादी संगठन था जो शरिया को मानता था और इस्लामिक कट्टरपन्थ पर आधारित था। 1970 के दशक में इसमें बदलाव आया और इसने आतंकवाद का मार्ग छोड़ा और मुख्य धारा में आया। इसके बाद इसने अन्य धर्म के लोगों और स्त्रियों के प्रति भी सहिष्णु रुख़ अपनाना शुरू किया और कालान्तर में चुनावी राजनीति में भी आ गया। इसके बाद मुस्लिम ब्रदरहुड विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टियों में से एक बना रहा। वास्तव में, मुबारक की सत्ता ने अपने तीन दशकों के दौरान एक इस्लामिक कट्टरपन्थी सत्ता की तरह व्यवहार किया। इसके चलते, मुस्लिम ब्रदरहुड की एक इस्लामिक कट्टरपन्थी संगठन के रूप में भूमिका अप्रासंगिक हो गयी। इसके एक हिस्से को सत्ता ने सहयोजित भी कर लिया। हालाँकि, मुस्लिम ब्रदरहुड विपक्ष का दल बना रहा, यह व्यवस्था का ही एक अंग बन चुका था। इस जनउभार के समय मुस्लिम ब्रदरहुड को विपक्ष का दल होने के नाते शहरी मध्यवर्ग के नौजवानों और महिलाओं का काफ़ी समर्थन मिला। लेकिन जैसे ही मुस्लिम ब्रदरहुड के नेतृत्व ने सुलेमान के साथ समझौते की राह पकड़ी, उसके युवा विंग और स्त्री विंग ने ‘6 अप्रैल’ आन्दोलन का समर्थन करना शुरू कर दिया। इस समय, मुस्लिम ब्रदरहुड का आधार बहुत तेज़ी से कम हुआ है, और मुख्य रूप से मज़दूर और निम्न मध्यमवर्गीय चरित्र रखने वाले ‘6 अप्रैल’ आन्दोलन का आधार उतनी ही तेज़ी से बढ़ा है। मुस्लिम ब्रदरहुड के जिस नेतृत्व ने सुलेमान से वार्ता की है वह वास्तव में अमीर व्यापारियों, तेल कम्पनी और मोबाइल कम्पनी की मालिकों और पूँजीपतियों की नुमाइन्दगी करता है। और जब वह वार्ता कर रहा था तो उसके पीछे कोई विशेष जनान्दोलन नहीं रह गया था। ऐसे में, मिस्र में आगे यह जनउभार किस हद तक जनवादी अधिकारों को जीत पायेगा, यह काफ़ी कुछ ‘6 अप्रैल’ आन्दोलन पर निर्भर करता है। दिक़्क़त यह है कि इस आन्दोलन का भी कोई एकीकृत नेतृत्व नहीं है और आगे बिना राजनीतिक एकीकरण और सुदृढ़ीकरण के, यह किस हद तक इस विद्रोह की उपलब्धियों को बचा पायेगा, इसका जवाब समय के गर्भ में है।
इसलिए हमें हर स्थिति में यह ध्यान रखना होगा कि मौजूद अरब उभार एक स्वतःस्फूर्त जनविद्रोह है। इसके पास किसी वैकल्पिक व्यवस्था की परिकल्पना मौजूद नहीं है। यह हुस्नी मुबारक की निरंकुश तानाशाह सत्ता के विरुद्ध था। इसका मकसद इस रूप में पूरा हुआ। लेकिन भविष्य में जो सत्ता आयेगी वह जनवादी होगी, अमेरिका-परस्त नहीं होगी, वह उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों पर कुछ लगाम लगायेगी, इसके बारे में कुछ भी कह पाना अभी मुश्किल है। आगे जो कुछ होगा उससे अमेरिकी-इज़रायली हितों के बहुत ज़्यादा कमज़ोर होने की सम्भावना नहीं प्रतीत हो रही है, हालाँकि उसे कुछ चोट पहुँच सकती है। अभी सत्ता सड़कों पर बिखरी हुई है और कोई एक एकीकृत राजनीतिक ताकत नज़र नहीं आ रही है जो पहल लेकर स्थिति को सँभाल पाये। ऐसे में, एक सम्भावना यह भी है कि नयी सत्ता मुबारक जितनी निरंकुश तो न हो, लेकिन गुणात्मक रूप से बहुत भिन्न भी न हो।
लेकिन आगे जो भी हो, ऐसा हर जनविद्रोह जनता की पहलकदमी को खोलता है; उसकी राजनीतिक दृष्टि को खोलता है; उसकी रचनात्मक ऊर्जा को निर्बन्ध करता है। मौजूदा जनविद्रोह भी इस रूप में समकालीन इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटनाओं में गिना जायेगा। जनता कई बार असफल होकर, वर्ग संघर्ष की पाठशाला में सीखती है और पहले से उन्नत धरातल के प्रयोग करती जाती है। इस बार व्यवस्था-परिवर्तन न भी हो, तो जनता इस पूरे प्रयोग से काफ़ी कुछ सीखेगी। ‘6 अप्रैल’ आन्दोलन में तमाम क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट ग्रुप सक्रिय हैं जो इस आन्दोलन के समाप्त होने के बाद नये सिरे से अपने राजनीतिक और वैचारिक प्राधिकार को कायम कर सकते हैं और भविष्य के इन्क़लाब की नींव डाल सकते हैं। ऐसा सम्भाव्य है। चीन में भी मई 4 आन्दोलन के बिना कम्युनिस्ट पार्टी के बनने और कम्युनिस्ट आन्दोलन के खड़े होने की कल्पना नहीं की जा सकती थी।
मौजूद अरब जनउभार अरब जनता के लिए सीखने की एक पाठशाला साबित होगा। इसलिए यह जनविद्रोह हर इंसाफपसन्द और साम्राज्यवाद से नफ़रत करने वाले इंसान के लिए ख़ुशी का सबब है। इसमें आम नौजवानों और स्त्रियों की ज़बरदस्त भागीदारी ख़ासतौर पर उम्मीद का संचार करती है। यह भविष्य के बारे में काफ़ी-कुछ बताता है। निकट भविष्य में शायद साम्राज्यवाद इस अरब जनउभार से बस सिहरकर रह जाये, लेकिन वह भविष्य भी कोई शताब्दी दूर नहीं जब अरब एशिया, अफ़्रीका और लातिनी अमेरिका के साथ उन ज़मीनों में से एक बनेगा जहाँ जनता के बहादुर बेटे-बेटियाँ साम्राज्यवाद और पूँजीवाद की कब्रें खोदेंगे। भारत के नौजवानों को भी मिस्र के नौजवानों से सीखने की ज़रूरत है। उन्हें भी अपने अन्दर अन्याय, अत्याचार, शोषण और उत्पीड़न के ख़िलाफ अपने दिलों में बग़ावत की ऐसी ही आग को जलाना होगा। कहीं ऐसा न हो कि जब निर्णय की घड़ी आये तो हम पीछे छूट जायें!
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2011
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