गरीब हटाओ! – बिल गेटस का नया नारा
पूँजीवादी व्यवस्था के चौहद्दियों के भीतर ग़रीबी नहीं हटने वाली

सत्या

मुनाफे की होड़ पर टिकी ये व्यवस्था बिल्ली के समान है, जो चूहे मारती रहती है और बीच-बीच में हज करने चली जाती है। व्यापक मेहनतकश आवाम की हड्डियाँ निचोड़ने वाले मुनाफाखोर बीच-बीच में एन.जी.ओ. (गैर-सरकारी संगठन) व स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से जनता की सेवा करने उनके दुख-दर्द दूर करने का दावा करते हैं।

ऐसा ही दावा करने वाले एक शख्स बिल एण्ड मिलिण्डा गेटस फाउण्डेशन के कर्त्ता-धर्त्ता बिल गेटस है जो हाल ही में भारत यात्रा पर आए। राहुल गाँधी के साथ उन्होंने अमेठी व रायबरेली के कई पिछड़े इलाकों का दौरा किया। उन्होंने दुनिया की स्थिती बदलने का दावा किया। क्या कारण है कि तमाम अमेरिकी फाउण्डेशन जैसे फोर्ड फाउण्डेशन, रॉकफेलर फाउण्डेशन, बिल एण्ड मिलिण्डा गेटस फाउण्डेशन व भारत में काम कर रहे एन.जी.ओ. (जिनकी फण्डिंग का बहुत बड़ा हिस्सा विदेशी स्रोतों से आता है), जो आलीशान होटलों में रहते हैं व ए.सी. कारों में पिछड़े इलाकों का दौरा करते हैं, ‘जनता की सेवा’ करना चाहते हैं?

Bill gates in india

19वीं शताब्दी के दौरान ‘धर्म के साथ सेवा’ का नारा लगाते हुए तमाम पश्चिमी देशों ने तीसरी दुनिया के तमाम देशों में ईसाई मिशनरियों को भेजा। इन मिशनरियों का असली उद्देश्य जनता व शासक वर्ग के बीच तीव्र होते वर्ग अन्तरविरोधों की धार को कुन्द करना था। ये मिशनरियाँ आम ग़रीब जनता को बताती थीं कि उनकी दुख-तकलीफ़ों का कारण इहलोक में नहीं बल्कि परलोक में है! जब विश्व के कई हिस्सों में मज़दूर क्रान्तियाँ हुईं और मज़दूर सत्ताएँ अस्तित्व में आईं तो इन देशों में ज़बर्दस्त तरक्की हुई। बेरोज़गारी, ग़रीबी, भुखमरी, वेश्यावृत्ति, रोग-व्याधियों का सफाया हो गया। ऐसे में पूँजीवादी देशों की सत्ताएँ कुछ ‘‘कल्याणकारी’‘ उपक्रम हाथ में लेने को मजबूर हो गयीं। तीसरी दुनिया में उन देशों में जहाँ धीरे-धीरे मज़दूर वर्ग आमूल परिवर्तन की चेतना की ओर बढ़ रहा था, वहाँ उन्होंने ऐसे संगठनों को भेजना शुरू किया जो समाज में शिक्षा और स्वरोज़गार, रोग-निवारण आदि जैसे तमाम काम करते थे। इसका लक्ष्य था तीखे होते सामाजिक अन्तरविरोधों पर पानी की बौछारें डालना। कुछ समय बीतने के बाद ऐसे स्वयंसेवी संगठनों का एक व्यापक नेटवर्क अस्तित्व में आने लगा। तमाम विशालकाय कारपोरेशनों ने फण्डिंग एजेंसियों की स्थापना की और इन स्वयंसेवी संगठनों को अपने लूट के अकूत माल से वित्त-पोषित करना शुरू किया। बताने की ज़रूरत नहीं है कि यह वित्त-पोषण लूट की अथाह सम्पदा का एक मामूली हिस्सा मात्र था। इन स्वयंसेवी संगठनों के पूरे दर्शन और कार्यप्रणाली पर पूँजीपति वर्ग के टुकड़ों पर पलने वाले बुद्धिजीवियों ने काफी काम किया। इन बुद्धिजीवियों में से तमाम निराश रिटायर्ड वामपंथी बुद्धिजीवी थे। पश्चिमी यूरोप के देशों में सर्वहारा क्रान्तियों की असफलता के बाद ‘’वामपंथी’‘ बुद्धिजीवियों का एक पूरा वर्ग अस्तित्व में आया जो निराशावादी हो चुका था और शब्दों में तो वामपंथ के जुमलों का इस्तेमाल करता था लेकिन हरकतों से वह पूँजीवादी वर्चस्व को व्यापक बनाने के जुर्म में संलग्न हो चुका था। ऐसे बुद्धिजीवियों का एन.जी.ओ. सेक्टर ने जमकर इस्तेमाल किया। इन्हीं की दिमाग़ की यह पैदावार थी कि तीसरी दुनिया के देशों में अस्मितावादी राजनीति को बढ़ावा देकर वर्ग राजनीति को कमज़ोर किया जाय। ऑक्सफैम और एक्शन एड जैसी तमाम संस्थाओं ने इस सोच पर काफी संजीदगी से काम किया और आज भी कर रहे हैं। ये दलितों और महिलाओं के आन्दोलनों की बात करते हैं, दमित राष्ट्रीयताओं और आदिवासियों आदि के आन्दोलनों की बात करते हैं और इन्हीं आन्दोलनों के लिए आजकल ‘‘सामाजिक आन्दोलन’‘ शब्द काफी चलन में है। इनके बीच में ये तरह-तरह के सुधार की गतिविधियाँ चलाते हैं; पैसे और सामानों की बारिश कर इनके बीच भिक्षावृत्ति की भावना पैदा करते हैं; राजसत्ता को उनकी निगाह में दोषमुक्त करते हैं और ‘नीचे से पहलकदमी’ का हवाला देकर उन्हें ही उनकी बदहाली के लिए जिम्मेदार महसूस कराने लगते हैं। इनकी जन्मपत्री पर एक निगाह डालते ही इनका असली चरित्र सामने आ जाता है।

1892 में होम्सटेड में अपने 16 मजदूरों को हथियारबन्द हमला कर मारने वाले कार्नेगी ने 1911 में कार्नेगी फाउण्डेशन की स्थापना की। 1913 में तेल सम्राट रॉकफेलर ने भी रॉकफेलर फाउण्डेशन बनाया व उसी के अगले वर्ष 1914 में अपनी खान पर मजदूरों का नरसंहार किया (33मरे, 100 घायल)। फोर्ड फाउण्डेशन की स्थापना 1936 में हुई। यही वही दौर था जब फोर्ड मोटर कम्पनी समेत हर जगह मजदूरों के संगठित होने की लहर चरम सीमा पर थी।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जब सोवियत संघ ने हिटलर को पराजित किया, 1949 में चीन में समाजवाद की स्थापना हुई व कई अन्य देशों में कम्युनिस्टों के नेतृत्व में मुक्ति संघर्ष शुरू हो गये तो साम्राज्यवादी बौखला उठे। लाखों की तादाद में एन.जी.ओ. व स्वयंसेवी संगठन अस्तित्व में आए और कुकुरमुत्ते की तरह फैलते ही चले गये।

भारत में भी जब 1967-68 में नक्सलबाड़ी का उभार चरम पर था तो सी.आई.ए. ने अपने बहुत सारे बुद्धिजीवी जासूसों को भारतीय समाज का अध्ययन करने के लिए भेजा। रिपोर्टां के आधार पर जनता के बीच विभिन्न एन.जी.ओ., स्वंयसेवी संस्थाओं व धार्मिक बाबाओं को करोड़ों डॉलर झोंककर खड़ा किया गया। जनता के उभार को सैनिक दमन से दबाने के साथ-साथ उनकी एकता को तोड़ने के प्रयास शुरू हुए। पहचान की राजनीति को बढ़ावा दिया जाने लगा, जाति, धर्म, क्षेत्र इत्यादि के आधार पर जनता को बाँटने का काम शुरू हो गया।

आज भी यह सिलसिला जारी है। इस पूरे काम में जिस शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है वह कई बार सरकार की आलोचना करने वाली रैडिकल शब्दावली होती है। लेकिन जब भी जनता वास्तविक रूप में रैडिकल दिशा में मुड़ती है तो ये संगठन वस्तुतः उनके गुस्से और नफरत को ठण्डा करने का काम करते हैं। इस पूरे सेक्टर में ज़बरदस्त भ्रष्टाचार भी है। पूरे देश में आज लाखों एन.जी.ओ. काम कर रहे हैं और उनके पास ‘‘समाजसेवा’‘ के नाम पर अरबों डॉलर आते हैं। इस अथाह सम्पदा पर एन.जी.ओ. सेक्टर के खिलाड़ियों और उनके ललुओं की आने वाली पुश्तों का भविष्य तक सँवर जाता है। इसका एक छोटा-सा हिस्सा जनता के बीच सुधारवादी कार्रवाइयों और अस्मितावादी राजनीति (दलितवादी राजनीति, स्त्रीवादी राजनीति, पर्यावरणवादी राजनीति, आदिवासियों की बात करने वाली राजनीति, आदि) के प्रचार पर ख़र्च होता है।

एक रिपोर्ट के मुताबिक हाल के कुछ दिनों में देश की 18,996 स्वंयसेवी संस्थाओं को 11 हजार अरब रुपये मिले हैं। ये धनवर्षा स्वंयसेवी संस्थाओं को स्पेन, जापान, इंग्लैण्ड, बेल्जियम, जर्मनी, कनाडा, फ्रांस की नामी-गिरामी कम्पनियों की ओर से हुई है (देखें तालिका)।

तालिका

राज्य          संस्था संख्या    अवमुक्त राशि

दिल्ली         1172                       2183.03

तमिलनाडु      3006                       2117.82

आन्ध्रप्रदेश      2316                       1210.82

महाराष्ट्र        1585                       1195.45

उत्तर प्रदेश      935                         191.57

कर्नाटक        1417                       1077.13

केरल          1533                       884.39

पश्चिम बंगाल    1616                       515.33

गुजरात        1008                       214.46

उत्तराखण्ड       201                         70.41

(करोड़ रुपये में)

जीवन की तमाम बुनियादी समस्याओं जैसे ग़रीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, कुपोषण इत्यादि को दूर करने के लिए एन.जी.ओ. व स्वयंसेवी संस्थाएँ रामबाण नुस्खे लेकर आ रही है! हमें बताया जा रहा है कि हमारी समस्याओं के जिम्मेदार हम खुद हैं! टीबी, मलेरिया, जैसी बीमारियों (जिनका इलाज 100 साल से पहले खोज जा चुका था) के कारण लाखों लोग मर रहे हैं। 12 से लेकर 14 घण्टे तक मज़दूर अपनी हड्डियाँ गलाकर भी अपने परिवार के लिए दो जून की रोटी मुश्किल से जुट पाते हैं। तब ये संस्थाएँ हमसे कहती हैं कि आप के लिए सबसे बड़ी बीमारी एड्स हैं व मजदूर निठल्ले हो गये हैं!

शिक्षा व स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं से सरकारें लगातार अपने हाथ पीछे खींच रही है। ऐसे में ये एन.जी.ओ. हमारे बीच आकर कुछ लोगों को शिक्षा व स्वास्थ्य की नाममात्र की सेवाएँ देकर ये कहते है कि शिक्षा सरकार की जिम्मेदारी नहीं है। इसके लिए हमें ‘नीचे से पहलकदमी’ करनी होगी (अब भगवान ही बताए कि यह ‘नीचे से पहलकदमी’ क्या होती है?)

ये संस्थाएँ आजकल ऐसी भाषा बोल रही है जिन्हें सुनकर आम जनता खुश हो जाये। अभी हाल ही में बिल गेटस ने कहा है,

‘’पूरी दुनिया में करीब 2-5 अरब लोग प्रतिदिन 2 डालर से कम पैसों में गुज़ारा करते हैं और 1 अरब से भी ज्यादा लोग भीषण भूख के शिकार हैं। हमारा विश्वास है कि यह स्थिति बदल सकती है और बड़े पैमाने पर विकास सम्भव है।’‘

इन लच्छेदार बातों के फेर में पड़कर बहुत सारे विद्रोही युवा जो समाज को बदलना चाहते है, एन.जी.ओ. की तरफ मुड़ जाते हैं। एन.जी.ओ. बदलाव का भ्रम खड़ाकर और उनकी सदिच्छाओं का फायदा उठाकर क्रान्तिकारी आन्दोलन के भरती केन्द्रों पर गहरी चोट करते हैं। समाज में मौजूद शोषण-उत्पीड़न को खत्म करने की दिली इच्छा रखने वाले, सक्षम, सम्भावित कार्यकर्त्ताओं के सामने बदलाव को तुरत-फुरत नतीजा देने वाला, पर कम कठिनाई व जोखिम भरा रास्ता पेश कर वे आरक्षित क्रान्तिकारी सम्भावनाओं की सेंधमारी करते हैं।

लेकिन थोड़े समय के लिए एन.जी.ओ. भले ही जनता को गुमराह कर लें व पूँजीवाद के फटे कुरते में पैबन्द लगा लें लेकिन पूँजीवाद के खून से सने हाथ एन.जी.ओ. व स्वयंसेवी संस्थाओं के बहाए गन्दे नाले में धुलने वाले नहीं हैं। अन्ततोगत्वा इसे इतिहास की कचरापेटी में जाना ही है। लातिन अमेरिका का इतिहास इसका गवाह है। जब 1990 के दशक में कई लातिन अमेरिकी देश आर्थिक संकट और दिवालियेपन के ख़तरे को झेल रहे थे, उस समय भी स्वयंसेवी संगठनों के सेंधमार जनता को यह बताने में लगे हुए थे कि सरकार बेचारी क्या करे! गलती तुम्हारी है! तब नौजवानों, छात्रों और मज़दूरों ने उन्हें मार खदेड़ा था। जहाँ भी पूँजीवादी समाज के अन्तरविरोध अत्यधिक तीक्ष्ण होंगे वहाँ वर्ग चेतना अधिक उन्नत होगी और स्वयंसेवी संगठनों के ख़तरनाक जाल में फँसने वाले लोग भी कम होंगे। हमारे देश में भी स्वयंसेवी संगठनों के खि़लाफ कई जगहों पर जनता का गुस्सा फूटने लगा है। अब ये संस्थाएँ जनता के निगाह में काफी हद तक नंगी भी हो चुकी हैं। इस हथियार के धीरे-धीरे निष्प्रभावी होने पर दुनिया भर के पूँजीवादी सामाजिक चिन्तक काफी चिन्तित और परेशान हैं। निश्चित रूप से पूँजीवाद की उम्र बढ़ाने वाले किसी नये उपकरण को ईजाद करने के काम में लग गये होंगे। हमें पूँजीवाद की कब्र खोदने के काम में लगना होगा। और कोई विकल्प नहीं है। ऐसी सड़ी-गली व्यवस्था की सही जगह केवल कचरापेटी हो सकती है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2010

 

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