युद्ध, लूट व अकाल से जूझता कांगो!

कुणाल

मोबाइल फोन, लैपटॉप, आईपॉड के नवीनतम मॉडल आज उच्च-मध्यवर्ग के लिए ‘स्टेटस सिम्बल’ बन गये हैं। मानव समाज के उन्नत दौर के इन उत्पादों का बाज़ार गर्म है। आये दिन इलेक्ट्रॉनिक व मोबाइल कम्पनियाँ इनका कोई नया मॉडल बाज़ार में उतार देती हैं और इनको पाने की एक होड़-सी लग जाती है। जहाँ एक तरफ इलेक्ट्रॉनिक गैजेट व मोबाइल कम्पनियों ने मीडिया व प्रचार-तन्त्रों के ज़रिये उनको उन्नत होने की निशानी बना दिया है, वहीं यह भी सच है कि यह आधुनिक जीवनशैली की एक ज़रूरत भी है! यदि बस में सफर करते वक़्त आपके कानों से तार न निकल रहे हों या अगर आप मोबाइल के लेटेस्ट मॉडलों की विशेषताएँ न जानते हों, तो ताजुब की बात नहीं कि आपके मित्र आपको ‘आउटडेटेड’ समझ लें। मोबाइल, लैपटॉप, एम.पी.-3 प्लेयर आदि आज शहरी युवा आबादी की एक ज़रूरत बन गये हैं या बना दिये गये हैं, लेकिन क्या हम अपने दोस्त को एस-एम-एस- लिखते समय या अपना पसन्दीदा गाना सुनते समय इस बात का अन्दाज़़ा लगा सकते हैं कि हमारे मोबाइल या एम.पी.3 प्लेयर की कीमत हमारे जेब से ख़र्च किये गये कुछ सौ या हज़ार रुपयों से कई गुना अधिक है? जी हाँ, इंसानियत आज इनकी बहुत भारी कीमत चुका रही है।

इलेक्ट्रॉनिक गैजेटों को आकार में छोटा बनाने के लिए टेण्टेलम की ज़रूरत होती है। साथ ही इलेक्ट्रॉनिक सर्किट में इस्तेमाल होने वाले सोल्डर में टिन भी एक आवश्यक तत्त्व है। टेण्टेलम एक दुर्लभ तत्त्व है जो धरती के बहुत कम हिस्सों में पाया जाता है। टेण्टेलम के अयस्क को कोल्टान कहा जाता है। दुनिया का 70% कोल्टान पूर्वी कांगो की खदानों में पाया जाता है। खनन की लागत और उत्पाद की मात्र के लिहाज़ से पूर्वी कांगो टिन के अयस्क कैसिट्राईट के खनन का भी एक मुख्य स्थान है। टिन व टेण्टेलम के अतिरिक्त कांगो की खदानें हीरे, सोने, टंग्सटन व कोबाल्ट के भी कीमती स्रोत हैं। अपनी इसी समृद्ध खनिक सम्पदा के कारण यह मध्य-अफ्रीकी देश औपनिवेशिक ताकतों का निशाना बना रहा और आज यह अमेरिकी व यूरोपीय साम्राज्यवादी ताकतों के हस्तक्षेप का शिकार है। कांगो का इतिहास बेहद उथल-पुथल भरा रहा है और यह एक स्वतन्त्र विस्तृत चर्चा की माँग करता है, लेकिन आज कांगो में मौजूद पूँजीवादी लूट का घिनौना चेहरा देखने के लिए हम इतिहास की संक्षिप्त चर्चा करेंगे।

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अमेरिका व यूरोप कांगो से क्या चाहते हैं?

कांगो की जनता पिछले पन्द्रह वर्षों से युद्धों का बोझ उठा रही है। प्रथम कांगो युद्ध की शुरुआत 1996 में हुई। 1961 से राज कर रहे तानाशाह मोबूटू सेसे सेको के प्रति देशभर में असन्तोष गहरा रहा था। मोबूटू की तानाशाही के विरुद्ध आवाज़ उठा रहे कांगो के नेताओं का प्रतिनिधित्व लॉरेण्ट कबीला कर रहे हैं। वहीं कांगो के पड़ोसी देश रवाण्डा को अमेरिका की सैन्य व आर्थिक मदद प्राप्त थी। विश्व भर में मोबूटू की तानाशाही के विरुद्ध अपने सैन्य कार्यक्रम को जायज़ बताते हुए अमेरिका ने खदानों पर कब्ज़ा कर लिया और अवैध खनन के ज़रिये अमेरिका की सैन्य मदद का उधार चुकाना शुरू कर दिया।

वहीं रवाण्डा के सैन्य अफसरों ने कबीला की मदद से कांगो की सेना में अपना स्थान बनाना शुरू कर दिया। कुछ ही समय में रवाण्डा की सेना के खनन उद्योग में बढ़ते हस्तक्षेप को देख और स्वयं अपनी गद्दी के छिनने के डर से, 1998 में कबीला ने सेना को वापस लौटाने की माँग की। खनन से भारी मुनाफा कमा रही रवाण्डा की सेना ने ख़ुद को पुनर्संगठित कर एक बार फिर कांगो में युद्ध छेड़ दिया। अगले पाँच सालों की सैन्य कार्यवाहियों ने देश को विभिन्न सैन्य दलों द्वारा नियन्त्रित क्षेत्रों में बाँट दिया। 2001 में लारेण्ट कबीला की हत्या हो गयी और उसकी जगह उसके पुत्र जोजेफ कबीला ने ले ली। 2003 में मुख्य सशस्त्र दलों के बीच सत्ता -विभाजन के आधार पर अस्थायी सरकार बनी और 2006 तक राष्ट्रीय चुनावों के ज़रिये जोजे़फ कबीला सत्ता पर काबिज़ हो गया। एक बेहद कमज़ोर सरकारी ढाँचे के चलते कांगो की सेना के अफसरों का नियन्त्रण अब जनतन्त्र के मुखौटे के नीचे सम्भव हो गया। एक तरफ अमेरिका ने अपने जनतन्त्र प्रेम के लिए वाहवाही लूटी और वहीं दूसरी तरफ रवाण्डा की सेना व सशस्त्र दलों की मदद के ज़रिये कांगो की सेना के खनिज सम्पदा की लूट को और व्यापक रूप भी दे दिया। कांगो में आज तक युद्ध की स्थिति बनी हुई है। रवाण्डा की सेना को हथियार पहुँचाने से लेकर सैनिक प्रशिक्षण में अमेरिका कोई कसर नहीं छोड़ रहा। यह युद्ध अब तक 60 लाख से भी ज़्यादा लोगों की जानें ले चुका है। हर महीने 45,000 लोग कांगो की सेना या रवाण्डा के सशस्त्र दलों का शिकार बन रहे हैं। कांगो की खदानों पर आज मुख्यतः दो सैन्य ताकतों का कब्ज़ा है। इनमें से एक तो स्वयं कांगो की राष्ट्रीय सेना (Forces armee’ de la Republique de’mocration du congo) है और दूसरी पूरे तौर पर अमेरिका द्वारा सहायता प्राप्त एफ.डी.एल.आर. (Forces de’maratiques porn la liberation du Rwanda) है। पेण्टागन एफ.डी.एल.आर. को जनता पर बर्बर शासन चलाने के लिए विशेष ‘मिलिटी ट्र्रेनिंग सेशन’ आयोजित करवाता है।

अपवादों को छोड़कर, पूर्वी कांगो में सारा खनन अनौपचारिक क्षेत्र में होता है। खदान मज़दूर या तो नंगे हाथों काम करते हैं या फिर कुछ पिछडे़ औज़ारों के सहारे। खदानों की कार्य-स्थितियाँ बेहद अमानवीय हैं। मज़दूरों को खनन का कोई प्रशिक्षण नहीं दिया जाता, न ही खदानों में काम करने के लिए ज़रूरी औज़ार व वर्दी उनके पास होती है। मज़दूरों का गम्भीर रूप से घायल हो जाना या मृत्यु की गोद में चले जाना, आम बात है। खदानों के मज़दूरों में एक बड़ी संख्या बाल मज़दूरों की है। काम के घण्टे तय नहीं हैं। हथियारबन्द सैनिकों के कहने पर काम न करने पर मज़दूरों को जान गँवानी पड़ती है। समय-समय पर ये सैनिक महिलाओं व बच्चों को अपनी पाशविकता का शिकार बनाते हैं। अभी तक इस युद्ध के दौरान 2 लाख महिलाओं के साथ बलात्कार हो चुका है। सेना के अफसर बच्चों व महिलाओं को बन्दी बना कर भी यौन उत्पीड़न करते हैं। काम मिलने की कोई गारण्टी नहीं है। मज़दूर चाहे किसी भी खदान पर काम करने जायें, एफ.डी.एल.आर. व एफ.ए.आर.डी.सी. के सैनिक मौत के रूप में उनका इन्तज़ार कर रहे होते हैं। एफ.ए.आर.डी.सी. द्वारा नियन्त्रित खदानों पर वेतन की व्यवस्था का कोई अस्तित्व नहीं है। सैनिक मज़दूरों द्वारा खोदे गये सारे खनिज को ज़ब्त कर लेते हैं या फिर एक छोटा-सा हिस्सा मज़दूर के पास छोड़ देते हैं। कुछ खदानों पर गुलामों की तरह खटना व उत्पीड़न सहना ही केवल कांगो की मज़दूर आबादी की बरबादी का हिस्सा नहीं है। मज़दूर जिन रास्तों से गुज़रते हैं, उन पर उन्हें एफ.डी.एल.आर. व एफ.ए.आर.डी.सी. की चौकियाँ मिल जाती हैं। इन चौकियों पर हथियारबन्द सैनिक मज़दूरों की कमाई का एक हिस्सा वसूल लेते हैं। एक रास्ते में दस से पन्द्रह चौकियाँ भी मिल सकती हैं। जिन जगहों पर सड़कें नहीं हैं, वहाँ पर मज़दूर खनिजों को हवाई अड्डे तक पहुँचाने का काम भी बिना वेतन करते हैं। कांगो का कानून सेना के किसी भी व्यक्ति को खनिक उद्योग या खनन से जुड़ने से प्रतिबन्धित करता है लेकिन एक जर्जर न्यायिक ढाँचे में विदेशी दबाव व सेना के अफसरों की बढ़ती आर्थिक ताकत के चलते यह कानून धरा का धरा रह जाता है। आज तक एक भी ऐसा मौका नहीं आया जब किसी एफ.ए.आर.डी.सी. अधिकारी पर ग़ैरकानूनी खनन के लिए सफलतापूर्वक मुकदमा चला हो।

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार एफ.डी.एल.आर. खनिजों के व्यापार से प्रति वर्ष करोड़ों डॉलर का मुनाफा कमा रही है। इसी के चलते एफ.डी.एल.आर. बिना किसी दिक्‍कत के उन्नत हथियार भी इकट्ठा कर लेती है। एफ.डी.एल.आर. द्वारा नियन्त्रित पूर्वी कांगो के इलाकों में इनके कमाण्डर व सैनिक हथियारों के दम पर समानान्तर आर्थिक, राजनीतिक व सामाजिक ढाँचे भी चला रही हैं, जिसमें समानान्तर न्याय व्यवस्था भी शामिल है। एफ.डी.एल.आर. व एफ.ए.आर.डी.सी. के लूट व उत्पीड़न के तरीकों में व बर्बरता की हदों में कोई अन्तर नहीं है। एक नागरिक के अनुसार – ‘‘अगर कोई मज़दूर किसी नयी खदान को खोज लेता है, तो एफ.डी.एल.आर. तुरन्त उस पर अपना कब्ज़ा जमा लेती है, उन्हें कोई नहीं रोक सकता, हम केवल मूक दर्शक ही बने रह सकते हैं।’‘ कुछ खदानों के मज़दूरों को वेतन भी दिया जाता है, ‘‘लेकिन अगर निश्चित समय-सीमा तक तय मात्र में खनिज खोद कर नहीं ढूँढ़ निकाला जाता, तो मज़दूर को ‘दिक्‍कतों’ का सामना करना पड़ता है।’‘ एफ.डी.एल.आर. के सैनिक खनिजों को या तो खदान-स्थल पर ही बेच देते हैं या फिर स्थानीय मण्डियों में भेज देते हैं। यहाँ पर कांगो के व्यापारियों के एजेण्ट उन्हें ख़रीदकर व्यापारियों की कम्पनियों तक पहुँचा देते हैं। अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में खनिजों की बढ़ती माँग के कारण एफ.डी.एल.आर. के ऊपर अपने द्वारा नियन्त्रित खदानों से अधिक से अधिक उत्पादन करवाने का दबाव भी बढ़ता जा रहा है।

अब यहाँ युद्ध सेना और सशस्त्र दलों के बीच नहीं, बल्कि सेना, सशस्त्र दल और कांगो की ग़रीब जनता के बीच है। एफ.ए.आर.डी.सी. या एफ.डी.एल.आर. एक-दूसरे के क्षेत्रों में दख़लअन्दाज़ी नहीं करते हैं। कांगो की सरकार इस सह-अस्तित्व पर चुप है। सरकार ने अपना काम केवल निर्यात किये गये खनिजों के आँकड़े जुटाने तक ही सीमित कर लिया है। सरकारी अधिकारियों को खनिजों की लूट का हिस्सा पहुँच जाता है और वह सरकारी रिपोर्टों के पन्नों पर खनिजों को ‘कॉनफ्लक्ट फ़्री’ होने का दावा पेश कर देते हैं। अगर कुछ सरकारी अधिकारी खदानों पर सर्वेक्षण के लिए जाना भी चाहते हैं, तो उन्हें भी एफ.डी.एल.आर. धमकाकर वापस भेज देता है। एक अधिकारी के अनुसार – ‘’राज्य ने स्वयं राज्य की सभी संरचनाओं को ध्वस्त कर दिया है।’‘

कांगो के शहरों में स्थित खनिज कम्पनियाँ वे केन्द्र हैं, जहाँ से विदेशी कम्पनियाँ इन खनिजों को ख़रीदती हैं। यह कम्पनियाँ एफ.ई.सी. (Federation des Enterpries du congo) से सम्बद्ध हैं। एफ.ई.सी. के उच्च अधिकारी ही इन कम्पनियों के मालिक या शेयर होल्डर भी हैं। ये कम्पनियाँ स्थानीय बाज़ारों से, अपने एजेण्टों के ज़रिये खनिज ख़रीदती हैं। एजेण्टों के ज़रिये एफ.डी.एल.आर. को वित्तीय मदद भी पहुँचती है, जिसके बदले खनिजों की माँग व निश्चित समय-सीमा एफ.डी.एल.आर. को दे दी जाती है। कम्पनियों के मालिक कांगो के बड़े पूँजीपति हैं, इसलिए काग़ज़ी तौर पर खनिजों को ‘कॉनफ्लिक्ट फ्री’ घोषित कर देना एकदम आसान है। यह कम्पनियों, एफ.ए.आर.डी.सी. या एफ.डी.एल.आर. से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से व्यापार करती हैं। कुछ मानवाधिकार संगठनों द्वारा एफ.ए.आर.डी.सी. या एफ.डी.एल.आर. से इन कम्पनियों के गँठजोड़ पर सवाल उठाते हुए उन्हें लोगों की हत्याओं का कारण बताया गया तो इन कम्पनियों ने यह जवाब दिया कि यह सुनिश्चित करना कि कौन-सा खनिज सैन्य दलों या सशस्त्र दलों द्वारा नियन्त्रित खदानों से आ रहा है, बेहद कठिन है। उनके पास खनिज पहुँचने से पहले ही विभिन्न खदानों के उत्पाद को मिला दिया जाता है। इस तरह से काग़ज़ी तौर पर खनिज उद्योग पर लगे ख़ून के धब्बे ‘वैध’ रूप से साफ कर दिये जाते हैं और खनिजों को निर्यात कर विदेशी प्रोसेसिंग कम्पनियों तक भेज दिया जाता है। एशिया, यूरोप व अप़फ़्रीका स्थित मेटल प्रोसेसिंग कम्पनियाँ व कांगो के खनिजों को अपने मोबाइल फोन व इलेक्ट्रॉनिक गैजेटों में इस्तेमाल करने वाली कम्पनियाँ और इन कम्पनियों के देशों की सरकारें भी कांगो की जनता की ठण्डी हत्याओं की उतनी ही जिम्मेदार हैं जितनी कि एफ.ए.आर.डी.सी. ए-एफ.डी.एल.आर., एफ.ई.सी.आई-।

ये कम्पनियाँ कांगो को सस्ते कच्चे माल की मण्डी के रूप में इस्तेमाल करती हैं। प्रत्यक्ष सैन्य मदद या अप्रत्यक्ष रुप से सरकार पर दबाव बनाकर ये कम्पनियाँ अपनी लूट को अधिक व्यवस्थित और तीव्र करना चाहती हैं। इन कम्पनियों में शामिल हैं बेल्जियम की Tradment,Traxy,Sde,Sti और स्पेश्येलिटी मेटल्स, थाइलैण्ड की थाइलैण्ड स्मेल्टिंग एण्ड रिफाइनिंग कॉर्पोरिशन (विश्व की पाँचवीं सबसे बड़ी टिन उत्पादक), मलेशियन स्मेल्टिंग कॉर्पोरेशन, चीन की अफ्रीकन वेंचर्स लिमिटेड, भारत की मेट ट्रेड, रूस की यूरोसिब लॉगिस्टिक्स व कनाडा की BEB अफ्रीका की एफ्रीमेक्स आदि। ये कम्पनियाँ इन खनिजों से धातुओं को परिष्कृत कर एचपी, नोकिया, डेल, मोटोरोला, एपल, इंटेल जैसी कम्पनियों को बेचती हैं। कुछ कम्पनियाँ तो सीधे एफ.ए.आर.डी.सी. या एफ.डी.एल.आर. से ही व्यापार करती हैं। अपने एजेण्टों के ज़रिये सैनिकों व कमाण्डरों का वित्त-पोषण कर ये कम्पनियाँ अपनी माँग बता देती हैं। इनमें से कुछ कम्पनियाँ जैसे सोडेक्स्समाइंस (जोकि अमेरिकी पूँजीपति एल्विन ब्लैटनट के ग्रुप की एक कम्पनी है) अब कांगो के अन्य आर्थिक व सामाजिक क्षेत्रों में भी हस्तक्षेप कर रही हैं।

लाखों लोगों की मौत का कारण ये कम्पनियाँ दूसरी तरफ विकास के नाम कृषि, दूरसंचार, बैंकिंग आदि में निवेश करके भी भारी मुनाफा पीट रही हैं। कांगो की सरकार का इन कम्पनियों को पूरा समर्थन प्राप्त है। जहाँ एक तरफ ये कम्पनियाँ कांगो की जनता की तबाही के दम पर अरबों डॉलर का मुनाफा कमा रही हैं, वहीं दूसरी ओर एचपी, नोकिया, डेल, मोटोरोला, एपल, इंटेल आदि जैसी कम्पनियाँ अपने प्रचारों में उपभोगताओं से यह भी वादा कर रही हैं कि उनके प्रोडक्ट ‘कॉनफ्लिक्ट फ़्री’ हैं। और इसकी बुनियाद है ‘’कांगो के सरकारी अधिकारियों की रिपोर्टे।’‘

कांगो में हत्याएँ और बलात्कार बदस्तूर जारी है। 1960 में आज़ादी के समय कांगो अफ़्रीका का दूसरा सबसे औद्योगीकृत देश था। कांगो का कृषि क्षेत्र समृद्ध था। लेकिन दो युद्धों ने और खनिजों की लूट ने कांगो की अर्थव्यवस्था को जर्जर कर दिया है। कांगो की दो तिहाई आबादी कुपोषण का शिकार है। 76%  आबादी युद्ध के चलते मौत के कगार पर खड़ी रहती है। लेकिन ये सच्चाइयाँ आधुनिकता की चमक-धमक और शोर के बीच दब जाती हैं।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अक्‍टूबर 2010

 

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