संकट से उबरने के सभी दावे फेल!
मृत्युशैया पर पड़ा पूँजीवाद बेलआउट पैकेजों के जीवनदायी तंत्र पर जिन्दा है
यूरोपीय महाद्वीप के रंगमंच पर इक्कीसवीं सदी की ग्रीक त्रासदी

अभिनव

2006 में शुरू हुए और 2008 में अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचे वैश्विक आर्थिक संकट के रूप में पड़े हृदयघात से विश्व पूँजीवाद उबरने की कोशिश कर ही रहा था कि यूरोपीय सम्प्रभु ऋण संकट के रूप में उसे एक नया हृदयघात पड़ गया है। पिछली बार भी बेलआउट पैकेज की डायलिसिस पर रखकर विश्व पूँजीवाद के नियन्ताओं ने उसकी जान बचायी थी और इस बार भी 1 ट्रिलियन डॉलर के बेलआउट पैकेज के जरिये यूरोपीय संघ और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष उसे बचाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन वॉल स्ट्रीट और दलाल स्ट्रीट के बैंकरों, दल्लालों और परजीवी सट्टेबाज़ों से लेकर वाशिंगटन डी-सी-, डाउनिंग स्ट्रीट और भारत के जनपथ के पूँजीवादी नीति निर्धारक तक, सभी जानते हैं कि यह रोग का निदान नहीं है बल्कि लक्षणों का दमन है। 2008 में वित्तीय मुनाफाखोरी के कारण लालची बैंकों की असमाधेयता के संकट से लेकर 2010 के सम्प्रभु ऋण संकट (यानी, सरकारों के ही दीवालिया हो जाने का संकट) तक, महज़ एक ऐसी अतार्किक अराजक आर्थिक व्यवस्था की मूल और अन्तकारी (टर्मिनल) बीमारी के लक्षण मात्र हैं, जिसका इलाज इस व्यवस्था के दायरे के भीतर रहते सम्भव नहीं है। पूँजीवादी सरकारें जो पूँजीपति वर्ग के हितों के प्रबन्धन और उनकी रक्षा का काम करती हैं, ज़्यादा से ज़्यादा यही कर सकती हैं कि हर संकट के बाद बेलआउट पैकेज जैसा कोई तात्कालिक उपाय अमल में लाएँ और फिर (इन्हीं अतार्किक उपायों के ही कारण) मन्दी के और भयंकर होकर आने का इन्तज़ार करें। गलाकाटू प्रतिस्पर्द्धा वाली पूँजीवादी बाज़ार व्यवस्था कभी भी नीति निर्धारकों को दीर्घकालिक आयाम में सोचने की इजाज़त नहीं देती। जो तात्कालिक मुनाफे की बजाय दूरगामी रणनीति के बारे में सोचेगा वह मारा जाएगा।

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हाल ही में यूनान की सरकार दीवालिया होने की कगार पर पहुँच गयी। यूनान के ऊपर कर्ज उसके सकल घरेलू उत्पाद से भी 15 फीसदी ज़्यादा हो गया। उसके सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर नकारात्मक में पहुँच गयी (-4 से -5 प्रतिशत के बीच)। वित्तीय घाटा भी ख़तरनाक अनुपात में पहुँच चुका है। सरकार ने 2006 में शुरू हुए वैश्विक संकट में दीवालिया हो रहे बैंकों को बचाने के लिए अपने सार्वजनिक मदों में कटौती करके सहायता पैकेज दिये। और बाद में सार्वजनिक कार्यक्रमों और सरकारी खर्चों के लिए उन्हीं बैंकों से भयंकर रूप से ऊँची ब्याज़ दरों पर कर्ज लिया। चूँकि यूनान यूरोपीय आर्थिक संघ का सदस्य है और यूरोपीय आर्थिक संघ के सभी सदस्य अपनी अलग-अलग मुद्रा की जगह यूरो का उपयोग करते हैं इसलिए कोई एक देश यूरो के अवमूल्यन या विनिमय दरों के बारे में अकेले फैसला नहीं ले सकता है। दूसरी बात यह कि सम्प्रभु ऋण संकट या दीवालिया होने जैसी स्थिति में यूरोपीय संघ में किसी भी देश की सरकार को कोई बेलआउट पैकेज देने का कोई प्रावधान नहीं था। इसलिए यूनान के पास ऐसा कोई उपकरण नहीं था जिससे कि वह अपने देश के सरकारी ख़ज़ाने को वापस थोड़ा सेहतमन्द बना पाता। अगर यूनान के पास अपनी मुद्रा होती तो वह अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करके मुद्रा आपूर्ति को बढ़ा लेता और साथ ही विनिमय दर में परिवर्तन करके अपने मुद्रा भण्डार को बढ़ा लेता। लेकिन यूरोपीय संघ का सदस्य रहते हुए यूनान ऐसा नहीं कर सकता था। लेकिन इन वित्तीय-मौद्रिक उपकरणों (जो स्वयं एक स्टीरॉयड से ज़्यादा अहमियत नहीं रखते) से वंचित होने के कारण यूनान की सरकार ने अपनी योजनाओं और सरकारी काम-काज के वित्तपोषण के लिए निजी बैंकों से बेहिसाब ऊँची ब्याज़ दरों पर ऋण लेना जारी रखा। जैसा कि होना ही था, कुछ समय बाद निजी बैंकों ने ऋण देना बन्द कर दिया, हालाँकि उन्हें साल भर पहले ही यूनानी जनता के ही पैसों से बचाया गया था, और अपने कर्ज की अदायगी के वे लिए यूनानी सरकार पर दबाव डालने लगे। लेकिन यूनानी सरकार का ख़ज़ाना तो ख़ाली था। ये बैंक आगे ऋण देने को तैयार नहीं थे और यूरोपीय संघ यूनान को किसी किस्म का सहायता पैकेज देने को तैयार नहीं था। ये दोनों ही यूनान की सरकार पर दबाव डाल रहे थे कि सरकार सभी सार्वजनिक उपक्रमों को निजी हाथों में सौंप दे और ‘‘कल्याणकारी’‘ योजनाओं को तिलांजलि देकर कुछ पैसे जुटाए और अपने ख़र्चों को कम करे। इसके साथ ही मज़दूरी कम करने और पेंशन योजनाओं आदि को रद्द करने के लिए भी यूनान की सरकार पर दबाव बनाया जाने लगा। जैसे ही यूनानी सरकार ने ऐसे दबाव के आगे घुटने टेकने शुरू किये यूनानी मज़दूर और छात्र-युवा बड़ी तादाद में सड़कों पर उतर पड़े। जगह-जगह सत्ता प्रतिष्ठानों पर हमले होने लगे। पहले से ही ग़रीबी और मुफलिसी की मार झेल रहे यूनानी मज़दूर और नौजवान अपनी कीमत पर बैंकों, दल्लालों, सट्टेबाज़ों और जुआखोरों की सेवा और खि़दमत किये जाने को अब बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। पुलिस और सेना इस सामाजिक उथल-पुथल पर काबू पाने में पूरी तरह नाकाम साबित हो रहे थे। यूनानी जनता ने संसद पर घेरा डाल दिया और सरकारी दमन-तंत्र से उलझने लगी। जल्द ही यूनान के पूँजीपति वर्ग के दूरदर्शी राजनीतिज्ञों को यह समझ में आ गया कि बैंकरों और वित्तीय शार्कों की लालच की कीमत देने के लिए यूनानी जनता को बाध्य किया गया तो उसके विनाशकारी नतीजे सामने आ सकते हैं। यूनान की सरकार ने यूरोपीय संघ के सामने स्पष्ट कर दिया कि या तो उसे सहायता पैकेज दिया जाय, नहीं तो यूनान के सामने यूरोपीय आर्थिक संघ की सदस्यता छोड़ अपनी मुद्रा को पुनर्स्थापित करने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं होगा।

जर्मनी और फ्रांस यूरोपीय संघ के सबसे बड़े और सबसे अमीर देश होने के नाते अधिकांश मामलों में निर्णयकारी स्थिति में होते हैं। शुरुआती दौर में जर्मनी और फ्रांस ने यूनान को मदद देने से साफ इंकार कर दिया। इसके पीछे उनकी अपनी मजबूरियाँ थीं, क्योंकि 2006 में संकट शुरू होने के बाद से वे बहुत अच्छी स्थिति में नहीं थे। जर्मनी यूरोपीय संघ के अन्य कमज़ोर देशों के शोषण के बल पर अपनी स्थिति को थोड़ा सम्भाले रख पाया था, लेकिन यह भी एक बारीक सन्तुलन ही था। ऐसे में जर्मनी अपने सरकारी ख़ज़ाने के बूते अगर किसी बेलआउट पैकेज की इजाज़त देता तो उसकी अपनी अर्थव्यवस्था जो बड़े प्रयासों के बाद थोड़ा साँस लेने की स्थिति में पहुँची थी, वह फिर से हिचकियाँ लेने लगती। और एंजेला मर्केल को यह स्वीकार नहीं था। यूरोपीय संघ यूनान की सरकार पर यह दबाव डाल रहा था कि वह अपनी जनता को और निचोड़कर (यानी विनिवेश करके, निजीकरण करके, कल्याणकारी योजनाओं को बन्द करके, मज़दूरी में कटौती करके, आदि) अपने संकट को दूर करे और बैंकों के ऋण चुकता करे। लेकिन जल्द ही यूनानी जनता के प्रतिरोध संघर्ष से यह साफ हो गया कि यह कर पाना सम्भव नहीं है। जिन बैंकों ने कर्ज दिया था, वे यूनानी सरकार के डिफॉल्ट करने की वास्तविक सम्भावना पैदा होते ही हताशा में डूब गये। अगर यूनानी सरकार अपने कर्ज अदा नहीं करती तो इन बैंकों का बच पाना सम्भव नहीं था। यहीं पर संयुक्त राज्य अमेरिका भी इस मामले में शामिल हो गया। इसका कारण यह था कि जिन बैंकों के तबाही की सम्भावना पैदा हो रही थी, उसमें 3.6 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर भी फँसे हुए थे। नतीजतन, ओबामा ने सरकोज़ी और मर्केल से फोन पर लम्बी वार्ता की और उन्हें बेलआउट पैकेज देने के लिए राज़ी किया। लेकिन जर्मनी पूरी सहायता खुद देने को तैयार नहीं था। इसलिए अमेरिका ने अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष को भी इस समीकरण में शामिल कर लिया। अन्त में यह तय हुआ कि यूरोपीय संघ और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष मिलकर 1 ट्रिलियन डॉलर का बेलआउट पैकेज मुख्य रूप से यूनान को देंगे, लेकिन इस पैकेज का लाभ भयंकर सम्प्रभु ऋण तले दबे पुर्तगाल और स्पेन को भी मिलेगा। लेकिन प्रमुख मरीज़ तो यूनान ही था जिसे जीवनदायी उपकरण की आवश्यकता थी। लेकिन यह बेलआउट पैकेज मिलने पर वे सट्टेबाज़ बहुत मिनमिनाए जिन्होंने यूनान के दीवालिया होने पर ही सट्टा लगा दिया था! जी हाँ! चौंकिए नहीं! ऐसे भी सट्टेबाज़ थे जिन्होंने एक वित्तीय उपकरण ‘कण्ट्री डिफॉल्ट स्वॉप’ (सी.डी.एस.) के जरिये इस बात पर सट्टा लगाया था कि यूनान दीवालिया हो जाएगा। सट्टेबाज़ी के इस हद तक जाने से ‘सन्त पूँजीवाद’ की आराधना करने वाले लोगों को बड़ी ठेस पहुँची। उन्होंने बहुत ही क्षुब्ध होकर नेकी और संयम के उपदेश दिये, लेकिन सट्टेबाज़ उसे सुनने के बजाय नये दाँव लगाने में व्यस्त हो गये थे। सट्टेबाज़ पूँजी का विश्व पूँजीवादी तन्त्र पर किस कदर कब्ज़ा है इसे इस बात से समझा जा सकता है कि इन सी.डी.एस. सट्टेबाज़ों ने बैंकों पर अपने प्रभाव के जरिये यूनान को मिलने वाले ऋण की ब्याज़ दरें भयंकर तरीके से बढ़वा दीं या फिर ऋण देने से ही इंकार करवा दिया, क्योंकि इससे यूनान की दीवालिया होने की सम्भावना बढ़ जाती थी! लेकिन विश्व पूँजीवाद के मुखियाओं को यह बात समझ आ गई थी कि यूनान का डिफॉल्ट करना एक ‘चेन रिएक्शन’ को शुरू कर देगा जो पूँजीवादी व्यवस्था के लिए जानलेवा सिद्ध हो सकता है। इसलिए इन सट्टेबाज़ों की उम्मीद पर पानी फिर गया।

इसी बीच यूनान के नये सामाजिक जनवादी प्रधानमन्त्री जॉर्ज पापैण्ड्रू, जो कि एक कीन्सियाई अर्थशास्त्री भी हैं, इस बात को अच्छी तरह समझ रहे थे कि पूँजीवादी वित्तीय लूट को छुट्टा छोड़ देने से यही स्थिति पैदा होगी और इससे बचना है तो राज्य को हस्तक्षेप करना पड़ेगा। राज्य को पूँजीपति वर्ग की प्रबन्धन समिति की भूमिका निभानी ही होगी। पूँजीवादी बाज़ार अर्थव्यवस्था में सारे खिलाड़ियों को बाज़ार के ‘’स्‍वचालित सन्तुलनकारी तंत्र’‘ के भरोसे छोड़ देने के विनाशकारी परिणाम सामने आएँगे। ऐसे संशोधनवादी हर-हमेशा पूँजीवाद के कन्धे पर बैठे चालाक, धूर्त वामन के समान यही मन्त्र जपते रहते हैं-‘’संयम! संयम! धीरे चलो! सम्भलकर चलो!’‘ लेकिन पूँजीवादी की नैसर्गिक गति ही ऐसी होती है कि वह मुनाफे की हवस में आत्मघाती कदम उठाता रहता है। लेकिन ऐसे कितने भी शकुनि-सरीखे परामर्शदाता हों, वे पूँजीवाद को अपने अन्तकारी रोग से मुक्ति नहीं दे सकते। यह अन्तकारी रोग है अति-उत्पादन और मन्दी का रोग, जो पूँजीवादी अराजकतापूर्ण गलाकाटू प्रतिस्पर्द्धा वाली गति हमेशा पैदा करती रहती है। पहले चक्रीय तौर पर आने वाले इन संकटों की आवर्तिता दशकों में नापी जाती थी, लेकिन अब यह वर्षों और महीनों में नापी जाने लगी है। यह स्वयं दिखलाता है कि पूँजीवाद के अजर-अमर होने के दावों के विपरीत वह अन्दर से और अधिक परजीवी और मरणासन्न हो चुका है। वह सिर्फ़ अपनी जड़ता की ताक़त से टिका हुआ है। वह सिर्फ़ इसलिए टिका हुआ है कि उसे धक्का देकर इतिहास के कूड़ेदान में पहुँचा देने वाली कोई ताक़त आज संगठित तौर पर मौजूद नहीं है। 20वीं सदी के महान समाजवादी प्रयोगों के गिरने के बाद, पूरे विश्व में क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन हताशा और बिखराव का शिकार है। एक भयंकर विभ्रम की स्थिति बनी हुआ है और पूरा आन्दोलन एक संकट का शिकार है। पस्तहिम्मती और पराजयबोध में क्रान्ति के विज्ञान पर कमज़ोर पकड़ रखने वाले तमाम क्रान्तिकारी संगठन और चिन्तक पूँजीवादी विचारधारात्मक हमलों के सामने घबराए से खड़े हैं और समाजवाद के पहले चक्र के प्रयोगों की कुछ कथित गलतियों को लेकर क्षमायाचना या बचाव की मुद्रा में हैं। ऐसे चिन्तक और संगठन कभी अस्मितावादी राजनीति के सामने घुटने टेकते नज़र आ रहे हैं तो कभी बहुपार्टी जनवाद के बुर्जुआ सिद्धान्त पर चिन्तन-मनन करते दिख रहे हैं। किसी और मौके पर वे यह कहते नज़र आ सकते हैं कि उत्तर- आधुनिकतावाद और उत्तर-औपनिवेशिक सिद्धान्त ने मार्क्सवाद के सामने ‘‘विचारधारात्मक संकट’‘ उत्पन्न कर दिया है! यहाँ पर विडम्बना, नहीं त्रासदी, की बात यह है कि इन पूँजीवादी विचारधारात्मक हमलों में कुछ भी नया नहीं है। बस नाम और तिथि बदल गयी है। ये सब वही पुरानी पूँजीवादी बकवास और लफ्फाज़ी है जो पूँजीवादी चिन्तक-राजनीतिज्ञ-दार्शनिक 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध और 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में उचार रहे थे और जिनको मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन और माओ और साथ ही अन्य मार्क्सवादी चिन्तकों ने वैचारिक रूप से तबाह, बेघर और विक्षिप्त कर दिया था। इसे विडम्बना नहीं तो और क्या कहें कि आज के नौबढ़ चिन्तक इन हमलों में कुछ नया तलाश लेने का दावा कर रहे हैं और ‘‘संकट-संकट’‘ का हल्ला मचाकर इस ‘‘संकट’‘ के निवारण के लिए ‘‘दार्शनिक छुट्टी’‘ पर चले गये हैं?

वास्तविक वैश्विक स्थिति पर एक नज़र साफ कर देती है कि संकट का शिकार वैचारिक तौर पर बहुत पहले पराजित हो चुकी पूँजीवादी व्यवस्था है। यह आर्थिक और सामाजिक तौर पर जितनी अधिक मरणासन्न होती जा रही है, उतने ही सड़े-गले सिद्धान्त भी यह प्रतिपादित कर रही है। तमाम प्रतिक्रियावादी पूँजीवादी दार्शनिकों की सड़ी-गली आत्माएँ अपनी-अपनी कब्रों में से निकलकर तलवारें भाँज रही हैं।

यूरोपीय संघ के सम्प्रभु ऋण संकट ने फिर से साबित कर दिया है कि विश्व पूँजीवादी व्यवस्था भीतर से सड़-गल चुकी है और उसमें कुछ भी नहीं बचा है। वह अपनी जड़ता की शक्ति से सिर्फ इसलिए टिकी हुई है कि आज दुनिया भर में क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन वैचारिक, राजनीतिक और सांगठनिक तौर पर बिखरा हुआ है। इसके कारण काफी हद तक इस आन्दोलन में कठमुल्लावाद और अतीत के क्रान्तियों और सर्वहारा वर्ग के महान शिक्षकों की सन्दर्भित शिक्षाओं का आँख मूँदकर अनुसरण करने में निहित हैं। जब तक भारत और तीसरी दुनिया के तमाम देशों के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी बीसवीं सदी की महान सर्वहारा क्रान्तियों के अन्धानुकरण की मानसिकता से बाहर नहीं निकलेंगे, तब तक क्रान्ति का आगे का मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकता और तब तक पूँजीवाद अपने संकटों से निजात पाने के लिए युद्ध, ग़रीबी, दमन, और भुखमरी की विभीषिका को दुनिया भर की जनता पर थोपता रहेगा।

 

 

मार्क्स की वापसी

‘‘सभी ने सोचा था कि अब ‘दास कैपिटल’ की कभी कोई माँग नहीं होगी, लेकिन अब यह समझने के लिए तमाम बैंकर और मैनेजर भी ‘दास कैपिटल’ पढ़ रहे हैं कि वे हमारे साथ क्या कारस्तानी करते रहे हैं।’‘ ये शब्द हैं जर्मनी के एक प्रतिष्ठित प्रकाशक कार्ल डिएट्ज़ वर्लेग के प्रबन्ध निदेशक जोअर्न श्यूट्रम्फ के जिन्होंने प्रसिद्ध समाचार एजेंसी रायटर को एक साक्षात्कार में यह बताया। इस वर्ष के मात्र चार महीनों में कार्ल डिएट्ज़ वर्लेग ने मार्क्स की महान रचना ‘पूँजी’ की 1500 प्रतियाँ बेची हैं। बैंकर और मैनेजर ही नहीं बल्कि पूँजीवादी राजसत्ता के मुखिया भी आजकल उस जटिल वित्तीय ढाँचे को समझने के लिए ‘पूँजी’ पढ़ रहे हैं जो उन्होंने अपने मुनाफे की हवस में अन्धाधुन्ध बना दिया है। हाल ही में एक कैमरामैन ने फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोज़ी को ‘पूँजी’ पढ़ते हुए पकड़ लिया था!

2006 में वैश्विक मन्दी के भयंकर रूप धारण कर लेने के बाद से ही यूरोप ही नहीं बल्कि दुनिया भर में मार्क्सवाद के प्रति रुचि बहुत तेज़ी से बढ़ी है, ख़ास तौर पर छात्रों और नौजवानों के बीच में। एक हालिया सर्वेक्षण में बतलाया गया कि पूर्वी जर्मनी के 52 फीसदी लोग मानते हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था उन्हें कुछ नहीं दे सकती है और बाज़ार व्यवस्था उनके लिए उपयुक्त नहीं है। इनमें 43 प्रतिशत स्पष्ट तौर पर समाजवाद की वापसी चाहते हैं। पूर्वी बर्लिन एक सूचना प्रौद्योगिकी कर्मचारी थॉमस पिव्ट ने कहा, ‘‘हमने स्कूल में ‘पूँजीवाद की भयावहता’ के बारे में पढ़ा था। उन्होंने वाकई सही समझा था। कार्ल मार्क्स एकदम सटीक थे।’‘

एशिया, अमेरिका, यूरोप-दुनिया का कोई भी कोना हो, हर जगह से जो नयी सूचनाएँ आईं हैं वे स्पष्ट रूप से बता रही हैं कि लोग पूँजीवादी मुनाफे की व्यवस्था से आजिज आ चुके हैं और यह समझ चुके हैं कि यह व्यवस्था उन्हें कुछ नहीं दे सकती। इसकी सही जगह इतिहास का कूड़ेदान है। ऐसे में लोग विकल्प को तलाश रहे हैं। पूरी दुनिया में मार्क्स और मार्क्सवाद की शिक्षाओं के प्रति बढ़ती दिलचस्पी विकल्प तलाशने की बेचैनी को ही दर्शाती है। लोग अन्धेरे में भविष्य की चाभी टटोल रहे हैं, जल्द ही उनके हाथ यह चाभी लग भी जाएगी क्योंकि तलाशने वाले हाथ बढ़ते जा रहे हैं।

 

 

अमेरिका में रोज़गार निर्माण का सच

2008 में सहायता पैकेज देने के बाद से अमेरिकी सरकार मन्दी से बाहर निकलने का दावा कर रही है। ओबामा प्रशासन रोज़गार पैदा करने के आँकड़ों का खूब प्रचार कर रहा है ताकि उसकी लोकप्रियता बरकरार रहे। लेकिन यूरोपीय संकट ने दिखला दिया कि मन्दी कतई ख़त्म नहीं हुई है और किसी हल्के झटके से भी पूरा तन्त्र डगमगा जा रहा है। सहायता पैकेज तात्कालिक राहत देने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर पा रहे हैं, उल्टे वे अगले चरण में संकट को और विकराल बनाकर ले आ रहे हैं क्योंकि हर सहायता पैकेज के बाद बैंकर, सट्टेबाज़ और दलाल अपनी आर्थिक लुच्चई और लफंगई पर और बुरी तरह आमादा हो जाते हैं! नतीजतन, वित्तीय इजारेदार पूँजीपतियों की गैरजिम्मेदाराना हवस संकट को हर बार और अधिक गहरा कर देती है। न ही ओबामा प्रशासन के रोज़गार निर्माण के आँकड़े सच हैं। हमेशा की तरह अमेरिकी प्रशासन धड़ल्ले से झूठ बोल रहा है।

अमेरिकी सरकार ने दावा किया कि अप्रैल महीने में 2,90,000 नौकरियाँ पैदा हुईं। लेकिन इसमें से 62,000 जनगणना के लिए दिये गये अस्थायी काम थे। अमेरिकी सरकार के ही आँकड़ों के मुताबिक हर महीने कार्यशक्ति में 1,50,000 नये कामगार शामिल होते हैं। तो इसके बाद कौन-सी नौकरी बची? जो आबादी पहले से मन्दी के कारण बेरोज़गार हुई है उसके लिए तो एक भी नौकरी नहीं बची। इसलिए अमेरिकी प्रशासन अधिक से अधिक यह दावा कर सकता है कि उसने बेरोज़गारी बढ़ने की रफ्तार में इस महीने थोड़ा-सा ब्रेक लगाया। रोज़गार-सृजन जैसे शब्दों का तो उन्हें इस्तेमाल भी नहीं करना चाहिए। अमेरिका के ब्यूरो ऑफ लेबर स्टैटिस्टिक्स के अनुसार कुल बेरोज़गारी 3 करोड़ तक पहुँच चुकी है। बेरोज़गारी दर वास्तव में अप्रैल के ही माह में 9.7 प्रतिशत से 9.9 प्रतिशत तक पहुँच गयी और कुल बेरोज़गारी 16.9 प्रतिशत से 17.1 प्रतिशत पर पहुँच गयी जो अमेरिका के लिए भयंकर है। वस्तुतः अमेरिकी अर्थव्यवस्था अभी भी संकट के भँवर में बुरी तरह से फँसी हुई है और उसके निकलने की कोई सम्भावना भी तत्काल नज़र नहीं आ रही है।

संकट की विकरालता से कब तक बचेंगी ‘‘उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएँ’‘?

‘‘उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएँ’‘ कोई नया नाम नहीं है। यह नाम पिछले ढाई दशकों में कई देशों के लिए इस्तेमाल किया जा चुका है। और जिन देशों के लिए इस नाम को इस्तेमाल किया गया उनके बीच में एक त्रासद समानता नज़र आती है-ये सभी देश दीवालिया होते-होते बचे! आइये, एक निगाह उन देशों पर डालते हैं जिनके लिए इस दुर्भाग्यपूर्ण नाम का इस्तेमाल किया गया है।

1990 के दशक के पूर्वार्द्ध में मेक्सिको, ब्राज़ील और अर्जेण्टीना के लिए इस नाम का इस्तेमाल किया गया था। ज्ञात हो कि लगभग इसी समय विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने ढाँचागत समायोजन कार्यक्रम का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था। इस कार्यक्रम को तीसरी दुनिया के ग़रीब देशों के सामने रखा गया। अगर उन्हें ऋण, तकनीकी सहायता और पूँजी निवेश चाहिए, तो उन्हें इस कार्यक्रम को अमल में लाना पड़ता। इस कार्यक्रम का नारा था ‘‘निजीकरण! उदारीकरण! भूमण्डलीकरण! मुक्त पूँजी प्रवाह! मुक्त बाज़ार!’‘ मेक्सिको और लातिनी अमेरिका के कुछ देश इस विनाशकारी नीति की पहली प्रयोग भूमि बने। शुरुआती कुछ समय तक इन देशों के पूँजीपतियों ने विदेशी कम्पनियों के साथ समझौते के तहत अपने देश की जनता को जमकर निचोड़ा और अन्धाधुन्ध मुनाफा कमाया। वहाँ भी ‘‘वृद्धि दर’‘, ‘‘विकास’‘ आदि का काफी ढिंढोरा पीटा गया। शॉपिंग मॉल, एयरपोर्ट और एक्सप्रेस-वे बन रहे थे, बड़े-बड़े स्काईस्क्रेपर्स बन रहे थे और कई शहरों को ‘वैश्विक शहर’ के रूप में चित्रित किया जा रहा था। ठीक उसी प्रकार जैसे कि आज भारत में किया जा रहा है। ‘’ब्राइट सिटी लाइट्स’‘ की तस्वीरों और छवियों के साथ असमानतापूर्ण और अन्यायपूर्ण पूँजीवादी विकास का प्रचार किया जा रहा था। विश्व पूँजीवादी मीडिया ने उस समय इन देशों को ‘‘उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएँ’‘ कहा था। 1995 आते-आते ये सभी देश दीवालिया होने की कगार पर पहुँच गये थे या फिर बुरी तरह से सम्प्रभु ऋण के तले दबे हुए थे।

इसके बाद दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों को विश्व पूँजीवाद के शीर्ष संस्थानों और विश्व पूँजीवादी मीडिया ने ‘नेक्स्ट बिग स्टोरी’, ‘एशियन टाइगर्स’ और ‘‘उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं’‘ की शापित उपाधियों से नवाज़ा। इन देशों में भी शुरुआती दौर ज़बर्दस्त पूँजीवादी तरक्की का रहा। पूँजीवादी मानकों और हितों के अनुसार इन देशों ने काफी तरक्की की। लेकिन फिर 1997 आया और साथ में आया दक्षिण एशियाई ‘‘उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं’‘ में मौद्रिक संकट। इसके साथ ही एशियाई बाघों के दाँत और नाखून झड़ने शुरू हो गये।

और उसके बाद आज भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका आदि को इस ख़तरनाक नाम से पुकारा जा रहा है। इस पर हमारे देश का खाया-पिया-अघाया मध्यवर्ग गर्व से फूला नहीं समाता है। ‘इंडिया इंक.’ की ‘ग्रोथ स्टोरी’ से वह हर्षातिरेक की अवस्था में है। लेकिन एक बार इन ‘‘उभरती अर्थव्यवस्थाओं’‘ पर निगाह डालने से ही साफ हो जाता है कि ये तरक्की और विकास महज़ दृष्टिभ्रम होते हैं। जिन देशों में पूँजीवादी विकास की मामूली सम्भावना भी मौजूद थी, वे अर्थव्यवस्थाएँ कुछ-कुछ समय के लिए वृद्धि का केन्द्र बनीं लेकिन वैश्वीकरण के इस दौर में जब सभी अर्थव्यवस्थाएँ आपस में जुड़ चुकी हैं, यह विकास जल्द ही संतृप्ति बिन्दु पर पहुँच गया और ये अर्थव्यवस्थाएँ जिस गति से ‘‘उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएँ’‘ बनीं थीं, उससे भी तेज़ रफ्तार से वे ‘’बिखरती हुई अर्थव्यवस्थाएँ’‘ बन गयीं। इतिहास का सबक सिखलाता है कि इस नाम पर खुश होकर उछलने नहीं बल्कि आतंकित होने की ज़रूरत है!

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2010

 

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