यासूकुनी, शिंज़ो एबे और जापान की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाएँ
आशु
जापान हाल ही में तमाम चीजों को लेकर चर्चा में रहा। पहले भूतपूर्व प्रधानमन्त्री जूनीचीरो कोईजूमी के यासूकूनी युद्ध स्मारक के दौरे को लेकर, शिंजो एबे के प्रधानमन्त्री बनने के कारण और फिर उनके जापान के पुन:सैन्यकरण और अमेरिका द्वारा बनाए गए संविधान में संशोधन की बात कहने के कारण। इन सभी घटनाओं में आपसी रिश्ता है। हम सिलसिलेवार ढंग से उनकी पड़ताल करेंगे।
पहले यासूकूनी युद्ध स्मारक और भूतपूर्व प्रधानमन्त्री कोईजूमी द्वारा उसके दौरे की बात। सबसे पहले यासूकूनी युद्ध स्मारक के बारे में जान लेना महत्वपूर्ण है। यासूकूनी युद्ध स्मारक का निर्माण 1869 में हुआ था। 1868 में जापान में मेइजी पुनर्स्थापना हुई थी और टोकूगावा शोगुनेट का पतन हुआ था। इससे पहले चले गृहयुद्ध में मारे गए लोगों को धार्मिक रूप से प्रतिष्ठित करने के लिए यासूकूनी का निर्माण किया गया था। बाद में द्वितीय विश्वयुद्ध में मारे गए लोगों को इसमें स्थान दिया गया। द्वितीय विश्वयुद्ध में पराजय के बाद यासूकूनी को राज्यसत्ता से अलग कर दिया गया और वह एक स्वतंत्र धार्मिक संस्थान हो गया। 1978 में इसमें कई जापानी युद्ध अपराधियों को भी स्थान दिया गया। 1985 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री नाकासोन यासूहिरो ने सार्वजनिक रूप से यासूकूनी का दौरा किया। इससे जापान, चीन और कोरिया सभी जगहों पर काफी हंगामा हुआ। इसके बाद 2001 तक किसी भी प्रधानमन्त्री ने ऐसा नहीं किया, जब कोईजूमी ने अपना वार्षिक दौरा शुरू किया।
कोईजूमी द्वारा शुरू की गई इस प्रथा को शिंजो एबे निश्चित रूप से निभाते रहेंगे क्योंकि कोईजूमी को यासूकूनी के दौरे पर सहमत करने में उनका ही प्रमुख हाथ था। दरअसल, यासूकूनी पर प्रधानमन्त्री के दौरे की शुरुआत के कुछ विशेष निहितार्थ हैं। पिछले कुछ समय में जापान के भीतर अंधराष्ट्रवाद काफ़ी तेज़ी से बढ़ा है। इसमें वहाँ की दक्षिणपंथी ताक़तों को काफ़ी योगदान रहा है जो लम्बे समय से जापानी स्वाभिमान की बात करती रही हैं और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जापान के अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अपमानित होने को याद दिलाते हैं और इस बात पर जोर देते हैं कि जापान ने कोई युद्ध अपराध नहीं किया बल्कि वह तो अपने एशियाई पड़ोसियों को पश्चिमी गुलामी से मुक्त करा रहा था। यासूकूनी में एक स्वतंत्र संगठन द्वारा ऐसी प्रदर्शनियों का आयोजन भी किया जाता है जिसमें ऐसे दृष्टिकोण से ही तथ्यों को प्रस्तुत किया जाता है। यासूकूनी धार्मिक से ज़्यादा जापान के उभरते राष्ट्रवाद का प्रतीक चिन्ह बन गया है।
शिंजो एबे का प्रधानमन्त्री बनना एक अन्य घटना थी जो पिछले दिनों चर्चा में रही। शिंजो एबे का रुख़ कोईजुमी से काफी अलग है। शिंजो एबे जापान के युद्ध अपराधों के बारे में संशय प्रकट कर चुके हैं और टोकियो युद्ध अदालत पर भी प्रश्न चिन्ह लगा चुके हैं। वह स्वयं एक ए–ग्रेड युद्ध अपराधी के पौत्र हैं। एबे ने उस आधिकारिक क्षमा याचना को भी ख़ारिज कर दिया है जो जापान के शासकों ने बार–बार अपने पूर्व एशियाई पड़ोसियों से युद्ध कालीन अपराधों के लिए प्रस्तुत की है। शिंजो ने यह भी कहा है कि वह अमेरिका द्वारा बनाए गए शान्तिवादी संविधान को भी बदलेंगे।
इन दोनों घटनाओं के पीछे जो चीज काम कर रही है वह है जापान की बढ़ती साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा। जापान अमेरिका के बाद विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। द्वितीय विश्वयुद्ध में पराजय के बाद जापान पर अमेरिका का कब्जा रहा जिस दौरान वहाँ अमेरिकी शैली के जनतांत्रिक सुधार हुए। अमेरिका ने एक ऐसा प्रशासन खड़ा किया जो उसके प्रति वफादार रहे और जापान निकट भविष्य में सैन्य ताकत न बन सके, इसका इंतजाम अमेरिका ने शान्तिवादी संविधान बनाकर किया। कब्जे से मुक्त होते ही कुछ सुधारों को जापान ने पलट दिया। लेकिन जापान की सैन्य सुरक्षा की जिम्मेदार अमेरिका के पास रही और जापानी संविधान वही बना रहा जिसके कारण जापान सेना नहीं रखता है। लेकिन 1960 के बाद से ही जापान का एक आर्थिक शक्ति के रूप में उदय शुरू हो गया और बीसवीं शताब्दी के आखिरी चतुर्थांश के आते–आते वह दुनिया की आर्थिक महाशक्तियों में से एक बन चुका था। आर्थिक रूप से तो जापान ताक़तवर था लेकिन उसकी कोई सैन्य ताक़त और स्वायत्तता नहीं थी। अब जापान का पूँजीपति वर्ग अमेरिका के मित्र होने से अलग अपनी एक पहचान स्थापित करना चाहता है। उसकी अपनी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाएँ हैं। इनके अभी सामने आने का एक कारण चीन की बढ़ती ताकत भी है। जापान के भूतपूर्व प्रधानमन्त्री कोईजूमी ने दावा किया था कि जापान जब चाहे परमाणु बम बना सकता है। इसके अलावा उन्होंने यह भी कहा था कि जापान पुन: सैन्यीकरण के विकल्प पर विचार कर रहा है। जाहिर है कि इसके पीछे चीन से बढ़ते ख़तरे को कारण बताया गया था। लेकिन स्वतंत्र रूप से जापान की अपनी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाएँ और अमेरिका के प्रभाव से बाहर निकलने की छटपटाहट भी है।
यह जापान के द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर इतिहास की तार्किक परिणति ही है। जापान एक आर्थिक नवसाम्राज्यवादी शक्ति के रूप में तो अस्तित्वमान था ही, लेकिन उसके सैन्यशक्ति विहीन होने और अमेरिका पर अपनी सैन्य रक्षा के लिए निर्भर होने का उसकी आर्थिक शक्ति पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता था और यह उसकी एक सीमा निर्धारित कर देता था। जापान का पूँजीपति वर्ग अब इस सीमा को मानने को तैयार नहीं। अब वह पूर्ण रूपेण साम्राज्यवादी शक्ति बनना चाहता है। ऐसे में यह सोचना कि दुनिया किसी भी रूप में एकध्रुवीय हो सकती है, मूर्खता है। आज साफ तौर पर दुनिया कई साम्राज्यवादी धुरियों में विभाजित है और उनमें परस्पर अन्तरविरोध है। अमेरिका–ब्रिटेन धुरी निश्चित तौर पर सबसे शक्तिशाली है लेकिन उसकी शक्तिमत्ता को अब रूस–चीन धुरी और यूरोपीय संघ से चुनौती मिलने लगी है। जापान भी अमेरिका से अलग एक साम्राज्यवादी शक्ति के रूप में अपनी पहचान बनाने के संकेत देने लगा है। तमाम अन्तरराष्ट्रीय मसलों पर हाल में उसने अमेरिका से अलग अवस्थिति अपनायी है। आश्चर्य की बात नहीं होगी अगर निकट भविष्य में ही जापान अपना पुन:शस्त्रीकरण शुरू कर देता है।
आह्वान कैम्पस टाइम्स, जुलाई-सितम्बर 2006
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