Category Archives: साम्राज्‍यवाद

कद्दाफ़ी की सत्ता का पतनः विद्रोह की विजय या साम्राज्यवादी हमले की जीत?

कद्दाफ़ी की सत्ता का पतन किसी जनविद्रोह के बूते नहीं हुआ है। यह लीबिया में नवउदारवाद की नीतियों के लागू होने के बाद पैदा हुआ पूँजीवाद और पूँजीवादी शासक वर्गों के गठबन्धन का संकट था; यह कद्दाफ़ी की अधिक से अधिक गैर-जनवादी और तानाशाह होती जा रही सत्ता का संकट था; जिसका अन्त हमें एक ऐसे नतीजे के रूप में मिला है, जिसे जनता की जीत या विजय का नाम कतई नहीं दिया जा सकता है। लीबिया की जनता को अपने देश के मामलों का फैसला करने का हक़ है। लेकिन साम्राज्यवादी हस्तक्षेप ने उस प्रक्रिया को बाधित कर दिया है और एक रूप में यह प्रगति की रथ को पीछे ले गया है।

नार्वे के नरसंहार की अन्तःकथा

इस घटना ने एक बार फिर इस इतिहाससिद्ध तथ्य को फ़िर पुख़्ता किया है कि मज़हबी, नस्ली और सांस्कृतिक कट्टरपंथी आर्थिक कट्टरपंथ की ही जारज औलादें है। इतिहास और वर्तमान दौर में भी फ़ासीवादी ताक़तों के उभार ने यही साबित किया है।

ब्रिटेन के दंगेः स्वर्ग के तलघर में फूट रहा है असन्तोष

वैश्विक मन्दी के शुरू होने के बाद से ब्रिटेन में बेरोज़गारी, अमीर-ग़रीब के बीच की खाई और सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा तेज़ी से बढ़ी है। इन समस्याओं के बढ़ने के साथ ही नस्लवाद और क्षेत्रवाद ने भी तेज़ी से सिर उठाया है। इन सबके अलावा पुलिस उत्पीड़न में पिछले एक दशक के दौरान अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हुई है। इन सभी कारकों ने ब्रिटिश समाज के दमित, उत्पीड़ित और ग़रीब तबकों में और ख़ास तौर पर युवाओं में असन्तोष को बढ़ाया है।

साम्राज्यवाद की सेवा का मेवा

पिछले कुछ समय में जिन लोगों को शान्ति का नोबेल पुरस्कार दिया गया है, उसने तो नोबेल की विश्वसनीयता पर ही प्रश्न चिह्न खड़ा कर दिया है। अब बराक ओबामा, अल-गोर, हेनरी किसिंगर जैसे साम्राज्यवादी हत्यारों को क्या सोचकर नोबेल का शान्ति पुरस्कार दिया गया है, इस पर अलग से अनुसन्धान की आवश्यकता पड़ेगी! कुल मिलाकर, इस बार लियू ज़ियाओबो को जो नोबेल शान्ति पुरस्कार मिला है और अतीत में जिन शान्तिदूतों को यह पुरस्कार दिया जाता रहा है, वह नोबेल पुरस्कार के पीछे काम करने वाली पूरी राजनीति का चेहरा साफ कर देता है।

क्या विकीलीक्स से कुछ बदलेगा?

निश्चित रूप से विकीलीक्स ने साम्राज्यवादी अपराधों का दस्तावेज़ी प्रमाण मुहैया कराकर अमेरिका के साम्राज्यवाद के अपराधों पर पड़े बेहद झीने परदे को थोड़ा-सा उठा दिया है। लेकिन ऐसे किसी भी खुलासे का अर्थ तभी हो सकता है जब उसमें कुछ ऐसा नया हो जिसका अन्दाज़ा भी जनता को न हो और जब ऐसे खुलासे का संगम इस पूरी बर्बर और अमानवीय विश्व पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की कोशिशों के साथ हो। यह सोचना एक कोरी कल्पना है कि महज़ खुलासे और भण्डाफोड़ कोई परिवर्तन ला सकते हैं। पूँजीवाद को एक जनक्रान्ति के ज़रिये उखाड़ फेंकने के कामों के इरादे के साथ किये गये खुलासे ही किसी भी रूप में कारगर हो सकते हैं।

ओबामा की भारत यात्रा के निहितार्थ

ओबामा की भारत, इण्डोनेशिया, जापान एवं दक्षिण कोरिया की यात्रा के दो प्रमुख मकसद स्पष्ट हैं। प्रथम है मन्दी की मार झेल रही अमेरिका की अर्थव्यवस्था को बचाना और अमेरिकी कम्पनियों के लिए नये बाज़ार की खोज व अमेरिका में रोज़गार के सृजन से अपने खो रहे जनाधार को वापस लाना। यह यात्रा आगामी चुनावी वर्षों में अमेरिकी पूँजीवाद की नुमाइन्दगी के लिए ओबामा प्रशासन की तैयारी है। दूसरा विश्व पूँजीवाद में पिछले दो दशको में आये बदलाव एवं कई नये राष्ट्र-राज्यों के पूँजी उभार से विश्व बाज़ार में अमेरिकी पूँजी की चौधराहट में कमी आयी है। एशिया में चीन के आर्थिक उभार व विश्व बाज़ार में सशक्त उपस्थिति को देखते हुए अमेरिका दक्षिण पूर्व एशिया को अपनी दूरगामी विदेशी नीति के केन्द्र एवं बाज़ार क्षेत्र के रूप में देखता है। ओबामा की इस यात्रा का मकसद चीन को यह सन्देश भी देना है कि विश्व व्यापार एवं आर्थिक साझेदारी के लिए दक्षिण पूर्वी एशिया अमेरिका के साथ है।

‘मानवाधिकारों’ के हिमायती अमेरिका के बर्बर कारनामे

विकीलीक्स के जूलियन असांजे ने इस सन्दर्भ में एक मार्के की बात कही है जो हर युद्ध के बारे में सही बैठती है। उन्होंने कहा – ‘‘सच के ऊपर पर्दा डालने का काम युद्ध से काफी पहले शुरू हो जाता है जो युद्ध के काफी लम्बे समय बाद तक जारी रहता है।’‘ अमेरिकी शासक वर्ग ने भी इराक पर हमले का औचित्य सिद्ध करने के लिए बुर्जुआ मीडिया के भाड़े के टट्टुओं की मदद से झूठ के पुलिन्दे पेश किये थे। जैव-रासायनिक हथियारों के जखीरे और नाभिकीय हथियारों के गुपचुप निर्माण का काफी शोर अमेरिकी शासकों ने मचाया था। ये बातें इतिहास का ऐसा झूठ साबित हुई हैं, जिनके बारे में अब अमेरिका-ब्रिटेन के सत्ताधारी और उनके अन्धप्रचारक भी कुछ कहने से कतराने लगे हैं।

युद्ध, लूट व अकाल से जूझता कांगो!

अपवादों को छोड़कर, पूर्वी कांगो में सारा खनन अनौपचारिक क्षेत्र में होता है। खदान मज़दूर या तो नंगे हाथों काम करते हैं या फिर कुछ पिछडे़ औज़ारों के सहारे। खदानों की कार्य-स्थितियाँ बेहद अमानवीय हैं। मज़दूरों को खनन का कोई प्रशिक्षण नहीं दिया जाता, न ही खदानों में काम करने के लिए ज़रूरी औज़ार व वर्दी उनके पास होती है। मज़दूरों का गम्भीर रूप से घायल हो जाना या मृत्यु की गोद में चले जाना, आम बात है। खदानों के मज़दूरों में एक बड़ी संख्या बाल मज़दूरों की है। काम के घण्टे तय नहीं हैं। हथियारबन्द सैनिकों के कहने पर काम न करने पर मज़दूरों को जान गँवानी पड़ती है। समय-समय पर ये सैनिक महिलाओं व बच्चों को अपनी पाशविकता का शिकार बनाते हैं। अभी तक इस युद्ध के दौरान 2 लाख महिलाओं के साथ बलात्कार हो चुका है।

इराक से अमेरिका की वापसी के निहितार्थ

आश्चर्य की बात नहीं है कि ओबामा ने अपने भाषण में एक जगह भी इराकियों के दुख-दर्द के बारे में कुछ नहीं कहा। इसके लिए इराकियों से कभी माफी नहीं माँगी गयी कि इराकी जनता के 10 लाख से भी अधिक लोगों की इस साम्राज्यवादी युद्ध में हत्या कर दी गयी; इराक की पूरी अवसंरचना को नष्ट कर दिया गया; इराकी अर्थव्यवस्था की कमर टूट गयी, जो वास्तव में दुनिया के सबसे समृद्ध अर्थव्यवस्थाओं में से हुआ करती थी; आज इराक के बड़े हिस्सों में बिजली और पीने का पानी तक मयस्सर नहीं है; बेरोज़गारी आसमान छू रही है और जनता के पास शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएँ भी नहीं हैं। आज के इराक को देखकर कोई अन्धा भी बता सकता है कि सद्दाम हुसैन के शासन के अन्तर्गत वह कहीं बेहतर स्थिति में था।

पूँजीवादी व्यवस्था के चौहद्दियों के भीतर ग़रीबी नहीं हटने वाली

मुनाफे की होड़ पर टिकी ये व्यवस्था बिल्ली के समान है, जो चूहे मारती रहती है और बीच-बीच में हज करने चली जाती है। व्यापक मेहनतकश आवाम की हड्डियाँ निचोड़ने वाले मुनाफाखोर बीच-बीच में एन.जी.ओ. (गैर-सरकारी संगठन) व स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से जनता की सेवा करने उनके दुख-दर्द दूर करने का दावा करते हैं।