इज़रायल : एक औपनिवेशिक-सेटलर राज्य

फ़िल गैस्पर

ज़ायनवाद एक राजनीतिक आन्दोलन है जो मूल रूप से उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में यहूदी-विरोधी (एण्टी-सेमीटिज़्म) प्रतिक्रिया के रूप में विशेष तौर पर पूर्वी यूरोप में उभरा। पूँजीवादी विकास के साथ यहूदियों द्वारा पुरानी सामन्ती अर्थव्यवस्था में निभायी जाने वाली पारम्परिक व्यावसायिक भूमिकाएँ कमज़ोर पड़ गयीं। जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था आवर्ती संकट से घिरती गयी, कई देशों के शासक वर्ग ने आर्थिक कठिनाई और राजनीतिक दमन के ख़िलाफ़ उमड़ रहे जनता के गुस्से के सामने यहूदियों को बलि का बकरा बनाकर पेश किया।
ज़ायनवादियों ने यह निराशावादी नतीजा निकाला कि यहूदी-विरोधी भावना (एण्टी-सेमीटिज़्म) को ख़त्म नहीं किया जा सकता है, और उत्पीड़न से बचने के लिए यहूदियों को एक ऐसे क्षेत्र में पलायन करना पड़ेगा जहाँ वे सिर्फ़ यहूदियों के लिए एक राज्य की स्थापना कर सकें। फ्रांस के ड्रेफ़स मामले के दौरान, जब एक यहूदी आर्मी अफ़सर पर गुप्तचर होने के झूठे आरोप लगे थे, ज़ायनवाद का जनक कहे जाने वाले थियोडोर हर्ज़ल ने लिखा :
मैं यहूदी-विरोध (एण्टी-सेमीटिज़्म) के प्रति ज़्यादा खुले रवैये तक पहुँचा, जिसे मैंने अब ऐतिहासिक रूप में समझना और दोष-मुक्त करना शुरू कर दिया है। उससे भी बढ़ कर, यहूदी-विरोध (एण्टी-सेमीटिज़्म) के खिलाफ़ संघर्ष करने के प्रयासों की निरर्थकता और खोखलेपन को मैंने पहचान लिया। 
ठीक ऐसी ही दलील रूसी ज़ायनवादी लियो पिंसकर ने भी थी
“जूडियो-फोबिया (यहूदी-भय) एक क़िस्म का मतिभ्रंश है” जो “आनुवांशिक” और “लाइलाज” है।
हर्ज़ल ने 1896 में “यहूदियों का राज्य” नामक एक पर्चे के ज़रिये ज़ायनवाद का कार्यक्रम पेश किया। उसने यूरोप के बाहर एक अविकसित देश में यहूदी राज्य स्थापित करने का आह्वान किया। हर्ज़ल का स्पष्ट मानना था कि यह कार्यक्रम किसी प्रमुख साम्राज्यवादी शक्ति की पनाह में ही सम्भव है, जो उस वक़्त दुनिया का आपस में बँटवारा तय कर रहे थे। एक दफ़ा ऐसा समर्थन मिल गया, तो ज़ायनवादी आन्दोलन औपनिवेशीकरण के अन्य परियोजनाओं की ही तरह संचालित होगा।
इस नये राज्य की स्थापना के लिए अर्जेण्टीना और मेडागास्कर समेत कई स्थलों पर विचार किया गया, लेकिन धार्मिक यहूदियों के प्रभाव में ज़ायनवादियों ने बाइबल में प्रतिज्ञात भूमि फ़िलिस्तीन को चुना।
हर्ज़ल ने ऐलान किया कि यदि ऐसा यहूदी राज्य बनता है तो वह “एशिया के ख़िलाफ़ यूरोप के किलेबन्दी का हिस्सा होगा, बर्बरता के खिलाफ़ सभ्यता की एक चौकी।” दूसरे शब्दों में, यह नया राज्य बाक़ी विश्व पर साम्राज्यवादी प्रभुत्व की व्यवस्था का हिस्सा होगा।
फ़िलस्तीन को चुन लेने के बाद, ज़ायनवादी आन्दोलन ने उसे उपनिवेश बनाने में मदद के लिए किसी साम्राज्यवादी ताक़त को राज़ी करने की कोशिश की। शुरुआत में तुर्की और जर्मनी से सम्पर्क किया गया। एक ज़ायनवादी प्रवक्ता के अनुसार,
तुर्की को इस बात का यक़ीन दिलाया जा सकता है कि उसके लिए फ़िलिस्तीन और सीरिया में एक मज़बूत और सुव्यवस्थित समूह की मौजूदगी ज़रूरी है जो सुल्तान की सत्ता पर किसी भी हमले का विरोध करेगा और उसकी सत्ता की अपने पूरे सामर्थ्य से रक्षा करेगा।
जर्मनी को भी ऐसे ही प्रस्ताव भेजे गये।
ज़ायनवाद के संस्थापक तो सबसे पतित यहूदी-विरोधियों तक से सन्धि करने को तैयार थे। हर्ज़ल ने रूस में बदतरीन यहूदी-विरोधी क़त्ल-ए-आम के प्रयोजक काउण्ट वॉन प्लेहवे से सम्पर्क किया : “मुझे जल्द से जल्द ज़मीन तक पहुँचने दीजिये और (ज़ार के खिलाफ़) बग़ावत ख़त्म हो जाएगी।” हर्ज़ल और अन्य ज़ायनवादी नेताओं ने फ़िलिस्तीन में ज़ारशाही के हितों की नुमाइन्दगी तथा पूर्वी यूरोप और रूस में मौजूद ख़तरनाक और बाग़ी अराजकतावादी बोल्शेविक यहूदियों से – दूसरे शब्दों में, यहूदी-विरोध (एण्टी-सेमीटिज़्म) से समझौता करने के बदले उसके ख़िलाफ़ संघर्ष करने वालों से छुटकारा दिलाने की पेशकश की। वॉन प्लेहवे ज़ार के ख़िलाफ़ जारी समाजवादी संघर्ष के तोड़ के तौर पर ज़ायनवादी आन्दोलन को वित्तीय सहायता देने को राज़ी हो गया:
यहूदी इंक़लाबी पार्टियों में शामिल हो रहे हैं। हमें आपके ज़ायनवादी आन्दोलन से तब तक सहानुभूति थी जब तक इसका मक़सद उत्प्रवासन था। आपको मेरे सामने इस आन्दोलन की सफ़ाई पेश करने की ज़रूरत नहीं। तुम पहले से राज़ी इंसान को राज़ी करने की कोशिश कर रहे हो।
प्रथम विश्व युद्ध के आख़िर में ब्रिटेन द्वारा फ़िलिस्तीन पर क़ब्ज़ा कर लिये जाने के बाद ज़ायनवादियों ने ब्रिटिश सरकार के पक्ष में माहौल बनाने में ज़ोर लगा दिया। ज़ायनवादी नेता चैम वीज़मैन ने दलील दी, “एक यहूदी फ़िलिस्तीन इंग्लैण्ड ले लिए ज़मानत होगा, ख़ासतौर पर स्वेज़ नहर के लिहाज़ से।” यह दलील ब्रिटिश शासक वर्ग के लिए ख़ासी दिलचस्प बन गयी। युद्ध ने सूदूर पूर्व के समुद्री मार्गों के पहरेदार और बेहद मुफ़ीद और रणनीतिक तौर पर ज़रूरी फ़ारसी तेल क्षेत्र वाले मध्य पूर्व की अहमियत को रेखांकित कर दिया था।
ब्रिटेन अन्य साम्राज्यवादी ताक़तों और मिस्र जैसे देशों में उभर रहे उपनिवेशवाद-विरोधी राष्ट्रवादी आन्दोलनों, दोनों के मद्देनज़र इस क्षेत्र में अपनी शक्ति को मज़बूत करने तरीक़े ढूँढने के लिए बेताब था। 2 नवम्बर 1917 को ब्रिटिश विदेश मन्त्री, एक कुख्यात यहूदी-विरोधी (एण्टीसेमाइट), लॉर्ड बालफ़ोर, ने निम्नलिखित घोषणा जारी की:
महामहिम की सरकार फ़िलिस्तीन में यहूदियों के लिए राष्ट्रीय निवास-स्थान की स्थापना की हिमायती है और इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए पूरी मदद करेगी…
इस घोषणा के हक़ में दलील देने वाले एक अहम व्यक्ति ब्रिटिश युद्ध मन्त्रिमण्डल के दक्षिण अफ़्रीका के प्रतिनिधि जेनरल जान स्मट्स थे, जो वाइज़मैन के क़रीबी दोस्त और आगे दक्षिण अफ़्रीका के प्रधान मन्त्री बने। असल में, हर्ज़ल और वाइज़मैन जैसे ज़ायनवादी नेता अक्सर अपने मक़सद की दक्षिण अफ़्रीका के जातिगत रूप पर आधारित विशिष्ट उपनिवेशिक आबादी की अवधारणा से तुलना करते थे, और उन्होंने दक्षिण अफ़्रीका से क़रीबी रिश्ते क़ायम किये। हर्ज़ल ने अपनी डायरी में दक्षिण अफ़्रीका में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के प्रमुख नुमाइन्दे, सेसिल रोड्स से अपनी तुलना की है:
ज़ाहिरा तौर पर सेसिल रोड्स और मुझ नाचीज़ में कई फ़र्क हैं, ख़ास कर निजी मामलों में असंगति है खिलाफ़ हैं, लेकिन मक़सद हमारे [ज़ायनवादी] आन्दोलन के पक्ष में है।
बाल्फ़ोर घोषणा के ज़रिये कोई यहूदी राष्ट्र तो अस्तित्व में नहीं आया, लेकिन इसने फ़िलिस्तीन में बड़े पैमाने पर उत्प्रवासन और व्यापक सेटलर समूह के निर्माण को बढ़ावा दिया जो आगे चल कर इज़राइल राज्य की बुनियाद बना। लेकिन एक मसला था। ज़ायनवाद के इस प्रोपगैण्डा के बरक्स कि फ़िलिस्तीन “बिना निवासियों कि ज़मीन है बिना किसी निवास स्थान वाले लोगों के लिए”, यह इलाक़ा पूर्वी भूमध्यसागर की सबसे घनी आबादी वाला क्षेत्र था जहाँ 1,000 सालों से एक अरब आबादी बसी हुई थी और जिसने एक व्यापक अर्थव्यवस्था विकसित की थी।
फ़िलिस्तीन में छोटे पैमाने पर यहूदी बस्तियाँ उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से मौजूद थीं लेकिन 1917 के बाद औपनिवेशिक प्रक्रिया ने तेज़ रफ़्तार पकड़ ली। यहूदी संगठनों ने अनुपस्थित ज़मींदारों से बड़े ज़मीनी क्षेत्र ख़रीदे और बड़ी फ़िलिस्तीनी किसान आबादी को विस्थापित किया। ज़ायनवादियों ने फ़िलिस्तीन में यहूदी श्रमिकों के सामान्य संगठन – हिस्ताद्रुत के इर्द गिर्द ख़ास यहूदी “एन्क्लेव” अर्थव्यवस्था का निर्माण भी शुरू कर दिया। उपनिवेशियों ने अरब श्रमिकों को काम पर रखने से इन्कार कर दिया और अरबी माल का बहिष्कार कर दिया।
1930 में यूरोप में फ़ासीवाद के उदय के साथ यहूदी प्रवास को और बल मिला, हालाँकि ज़्यादातर यहूदियों को फ़िलिस्तीन में बसने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। ज़ायनवाद अब तक यहूदियों के बीच स्थापित नहीं हो पाया था और महज़ 8.5 फ़ीसदी यहूदी प्रवासियों ने इस दौरान फ़िलिस्तीन का रुख़ किया। यदि अमेरिका और इंग्लैण्ड की प्रवासी नीतियाँ नस्लीय और यहूदियों को वर्जित करने वाली न होतीं तो यह संख्या और कम होती। फिर भी, फ़िलिस्तीन में बसने वाले शरणार्थियों ने सेटलर समूहों को मजबूत किया।
ज़ायनवादी राज्य की स्थापना को अक्सर फ़ासीवाद के उदय और नात्सी होलोकॉस्ट में हुए छः मिलियन यहूदियों के जनसंहार की प्रतिक्रिया के रूप में जायज़ ठहराया जाता है। लेकिन फ़ासीवाद से संघर्ष करना तो दूर, ज़ायनवादियों ने अक्सर फ़ासीवादियों के साथ साँठ-गाँठ की। 1933 में जर्मनी के ज़ायनवादी संघ ने नात्सियों के समर्थन में एक ज्ञापन भेजा :
नस्ली सिद्धान्त को स्थापित करने वाले नये [नात्सी] राज्य के संस्थापन पर हम अपनी बिरादरी के लिए भी ऐसे ही ढाँचे की उम्मीद करते हैं ताकि हमारे लिए नियुक्त किये गये क्षेत्र में हम अपने पितृभूमि की सेवा कर सकें।
उसी साल बाद में, अन्तरराष्ट्रीय ज़ायनवादी संगठन के कांग्रेस में हिटलर के ख़िलाफ़ एक प्रस्ताव को 43 वोटों के बरक्स 240 वोटों से ख़ारिज कर दिया।
जोसेफ़ गोएबल्स जैसे प्रमुख नात्सियों ने ज़ायनवाद कि सराहना करते हुए लेख लिखे, कुछ ज़ायनवादियों को नात्सियों द्वारा आर्थिक सहायता भी मिल रही थी। फ़िलिस्तीन के एक ज़ायनवादी मिलिशिया हैगनाह के एक सदस्य ने 1937 में जर्मन एसएस को निम्नलिखित सन्देश पहुँचाया था :
यहूदी राष्ट्रवादी गुट…जर्मनी की रैडिकल नीतियों से बेहद खुश थे, क्योंकि इससे फ़िलिस्तीन में यहूदियों की आबादी बढ़ेगी और आने वाले समय में यहूदीयों की संख्या अरबियों से ज़्यादा होने की सम्भावना बनेगी।
ज़ायनवादी आन्दोलन अमेरिका और पश्चिमी यूरोप में यहूदियों को पनाह देने के हक़ में प्रवासी क़ानूनों में होने वाले बदलावों के विरोध के हद तक भी गया। इज़रायल के पहले प्रधानमन्त्री बनने वाले डेव्हिड बेन-गुरियन ने 1938 में लिखा : यदि मुझे पता होता कि इंग्लैण्ड भेज कर जर्मनी में मौजूद सभी बच्चों को और ग्रेटर इज़रायल पहुँचा कर सिर्फ़ आधे बच्चों को बचाया जा सकता तो मैं दूसरे विकल्प को चुनता।
यह सिद्धान्त अमल में लाया गया। द हिडन हिस्ट्री ऑफ़ ज़ायोनिज़्म में लेखक राल्फ़ स्कोनमैन ने दर्ज किया है:
तीस और चालीस के दशक के अन्त में यूरोप में यहूदी प्रवक्ताओं ने सावर्जनिक अभियानों के लिए, संगठित प्रतिरोध के लिए और मित्र राष्ट्रों की सरकारों को मजबूर करने के लिए मदद की पुकार की – इसके प्रत्युत्तर में न केवल उन्हें ज़ायनवादियों की ख़ामोशी मिली बल्कि ग्रेट ब्रिटेन और संयुक्त राष्ट्र द्वारा किये जा रहे थोड़े बहुत प्रयासों को भी नाकाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
ज़ायनवादी इतिहास का घिनौना सच यह है कि ज़ायनवाद को ख़ुद यहूदियों से ख़तरा था। यहूदी लोगों को उत्पीड़न से बचाने का मतलब था शासकों के ख़िलाफ़ बग़ावत खड़ा करना जो उनके लिए परेशानी का सबब था। लेकिन इन शासकों में वह साम्राज्यवादी व्यवस्था सन्निहित थी जो फ़िलिस्तीनी ज़मीन पर सेटलर कॉलोनी बसाने के लिए तैयार एकमात्र सामाजिक ताक़त थी। इसलिए ज़ायनवादियों के लिए यहूदियों को उपनिवेशवादी बनने को राज़ी करने के लिए यहूदियों का उत्पीड़न ज़रूरी था, और इस काम के लिए उन्हें उत्पीड़कों की ज़रूरत थी।
बहरहाल, फ़िलिस्तीन के यहूदियों को ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता ने विशेष दर्जा दिया था। ब्रिटिशों ने एक ज़ायनवादी मिलिशिया को स्थापित किया और प्रशिक्षण दिया, यहूदी पूँजी को 90 फ़ीसदी आर्थिक छूटें दीं, समान काम के लिए अरबियों की तुलना में यहूदियों को ज़्यादा वेतन दिये। 1920 के पूर्वार्ध में ब्रिटिश सरकार ने यहूदी निवासियों की मदद से बेघरी और बेकारी के ख़िलाफ़ और आज़ादी के लिए होने वाले अरब की जनता के प्रदर्शनों का दमन किया। फ़िलिस्तीनियों की सबसे दीर्घकालिक बग़ावत 1936 से 1939 तक चली, जिसमें एक महीने तक चली आम हड़ताल, कर अदायगी पर रोक, सिविल नाफ़रमानी और हथियारबन्द विद्रोह शामिल थे। इसका जवाब ब्रिटिशों ने ज़ायनवादी ताक़तों की मदद से मार्शल लॉ लागू करके और आम जनता के भयंकर दमन के साथ दिया। सैकड़ों फ़िलिस्तीनियों को मौत की सज़ा सुना दी गयी या क़त्ल कर दिया गया, हज़ारों को क़ैद कर दिया गया और हज़ारों के घर तबाह कर दिये गये।
इज़रायल की बुनियाद
लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध से बेहद कमज़ोर हो चुका ब्रिटेन फ़िलिस्तीन से हाथ खींच लेने को मजबूर हो गया। 1947 में, संयुक्त राष्ट्र समेत तमाम प्रमुख साम्राज्यवादी ताक़तों ने यहूदी और फ़िलिस्तीनी राज्य के रूप में देश के दो हिस्से करने का फैसला किया। तब तक यहूदी पूरी आबादी का केवल 31 फ़ीसदी थे, पर ज़ायनवादियों को उपजाऊ ज़मीन का 54 फ़ीसदी हिस्सा दे दिया गया।
इतने पर भी ज़ायनवादियों को सन्तोष नहीं हुआ। 1928 में बेन गुरियन ने घोषणा की:
ज़ायनवादी आकांक्षा की सीमाओं में दक्षिण लेबनान, दक्षिण सीरिया, आज का जॉर्डन, जॉर्डन से लगे हुए इलाक़े [वेस्ट बैंक] और सीनाई शामिल हैं… इस राज्य के निर्माण से जब हम ताक़तवर शक्ति बन जायेंगे तब हम इस विभाजन रेखा को ख़त्म कर पूरे फ़िलिस्तीन में फैल जायेंगे। ज़ायनवाद के अन्तिम लक्ष्य में राज्य महज़ एक पड़ाव होगा जिसका काम विस्तार के लिए ज़मीन तैयार करना होगा। राज्य को व्यवस्था भी बरक़रार रखनी होगी … मशीन गनों की मदद से।
ज़ायनवादी परियोजना तभी सफ़ल हो सकती थी जब स्थानीय अरब आबादी को बेदख़ल कर दिया जाये। जैसा कि यहूदी संगठन के उपनिवेशीकरण विभाग के प्रधान योसेफ़ वीट्ज़ ने बताया था:
इस देश में दोनों तरह के लोगों के लिए जगह नहीं है… हम ख़ुद को आज़ाद करने के लक्ष्य को इस छोटे से देश में अरब के लोगों के साथ हासिल नहीं कर पायेंगे… और इसके लिए यहाँ से अरबों को पड़ोसी देशों में भेज देने के अलावा कोई चारा नहीं। पूरी की पूरी आबादी का स्थानान्तरण करना होगा, एक गाँव या एक जनजाति भी नहीं बची रहनी चाहिए।
एक अन्य ज़ायनवादी दस्तावेज़, कोएनिग रिपोर्ट का मत कहीं ज़्यादा दो टूक था :
हमें गैलिली को अरब आबादी से छुटकारा दिलाने के लिए आतंक, क़त्ल, धमकी, ज़मीन ज़ब्ती से लेकर तमाम सामाजिक सेवाओं को बाधित करने जैसे क़दम उठाने चाहिए।
1948 में इस नीति को लागू किया गया। ज़ायनवादी ताक़तों ने तीन-चौथाई ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया और क़रीब दस लाख फ़िलिस्तीनियों को बेदख़ल कर दिया। फ़िलिस्तीनी आबादी को आत्मरक्षा में भागने के लिए मजबूर करने को आतंक फैलाने के लिए डेयर यासीन समेत अन्य गाँवों में आगे चलकर इज़रायल के प्रधान मन्त्री बनने वाले मेनाचेम बेगिन और यीत्ज़ाक शमीर जैसे लोगों के नेतृत्व में सैन्य गुटों ने क़त्ल-ए-आम मचाया। डेयर यासीन में 254 पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों का क़त्ल कर दिया गया। बेगिन के शब्दों में :
यहूदी सेनाएँ हाइफ़ा में इस तरह आगे बढ़ीं, जैसे मक्खन में चाकू। अरबी “डेयर यासीन” चीख़ते हुए दहशतज़दा हो भागने लगे।
बाक़ी क़त्ल-ए-आम को आधिकारिक इज़रायली रक्षा बलों ने अंजाम दिया। दुएमा गाँव में मौजूद रहे एक चश्मदीद गवाह सैनिक के अनुसार,
उनहोंने अस्सी से सौ के बीच अरब पुरुषों, महिलाओं और बच्चों का क़त्ल कर दिया। बच्चों को मारने के लिए वे डण्डों से उनकी खोपड़ी फोड़ दिया करते थे। एक भी ऐसा घर नहीं बचा था जहाँ लाशें न हों… शिक्षित और शिष्ट अफ़सर जिन्हें “अच्छा” माना जाता था… नीच हत्यारे बन गये, और किसी युद्ध की आँधी में नहीं, बल्कि निष्कासन और संहार के मंसूबे के लिए।
1947 के बँटवारे के बाद इज़रायल के अधिग्रहण क्षेत्र में तक़रीबन 500 फ़िलिस्तीनी गाँव मौजूद थे। 1948 और 1949 के दौरान इनमें से लगभग 400 गाँव ज़मींदोज़ कर दिये गये। 1950 के दशक में इससे भी ज़्यादा उजाड़ दिये गये। 1969 में चीफ़ ऑफ़ स्टाफ़ और रक्षा मन्त्री मोशे दयान ने जायनवादी उपनिवेशवाद की प्रकृति का सारांश पेश किया था:
हम एक ऐसे देश में आये थे जहाँ अरबी लोगों की बसाहट थी, और हम यहाँ एक यहूदी राज्य की स्थापना कर रहे हैं। अरब गाँव की जगह यहूदी गाँव बसाये गये… एक भी ऐसी यहूदी बसाहट नहीं है जो किसी पूर्व अरब गाँव की जगह नहीं होगी।
ज़ायनवाद के समर्थक इज़राइली विस्तार की इस आधार पर वकालत करते हैं कि यहूदी राज्य के अस्तित्व को दुश्मनाना रुख रखने वाले अरब पड़ोसियों से ख़तरा था। फ़िलिस्तीनियों के बचाव के बहाने से अरब देशों ने 1948 में एक सैन्य आक्रमण किया, लेकिन जैसा कि जॉन रोज़ कहते हैं, “यह बिलकुल ग़ैर-ज़रूरी था। सैन्य मुठभेड़ हुए – लेकिन प्रमुख अरब सरकारें पहले ही इज़रायलियों के साथ समझौता वार्ता में लगी हुई थीं।” इज़रायली सेना अरब सेनाओं के मुक़ाबले ज़्यादा बेहतर थीं और इस मौक़े का इस्तेमाल उन्होंने ज़्यादा से ज़्यादा ज़मीन हड़पने के लिए किया।
इज़रायल के 1950 के दशक के प्रधान मन्त्री मोशे शारेट अपनी डायरी में क़बूलते हैं कि सुरक्षा का हवाला हमेशा से बहाना था। शारेट के मुताबिक़, इज़रायल के राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व ने कभी अरब को इज़रायल के लिए ख़तरा नहीं समझा था। बल्कि इज़रायल ने हमेशा ही अरब देशों को सैन्य मुक़ाबले के लिए, जिसमें ज़ायनवादी नेतृत्व को अपनी जीत पर यक़ीन था, उकसाया और मजबूर किया है, ताकि अरब सत्ताओं को अस्थिर किया जा सके और ज़्यादा से ज़्यादा ज़मीन पर क़ब्ज़ा किया जा सके। इज़रायल का उद्देश्य ही था कि “अरब जगत को तोड़ा जा सके, अरब के राष्ट्रीय आन्दोलन को हराया जा सके और इज़रायली शक्ति के मातहत कठपुतली सरकार बैठायी जा सके” और “इज़रायल को मध्य पूर्व में प्रमुख शक्ति के रूप में स्थापित किया जा सके और उस क्षेत्र के शक्ति सन्तुलन का पूर्ण रूपान्तरण किया जा सके।”
1947 से पूर्व यहूदियों का फ़िलिस्तीन की क़रीब 6 फ़ीसदी ज़मीन पर मालिकना था। इज़रायली राष्ट्र की स्थापना की प्रक्रिया में ज़ायनवादियों ने 90 फ़ीसदी ज़मीन हथिया ली, जिसका अधिकतर हिस्सा अरब का था। पूरे के पूरे शहर से फ़िलिस्तीनियों को उजाड़ दिया गया, फ़िलिस्तीनी बाग़ों, उद्योगों, रोलिंग स्टॉक, कारख़ानों, मकानों और सम्पत्तियों नस्लभेदी को ज़ब्त कर लिया गया। लगभग 10 लाख फ़िलिस्तीनियों का उनके वतन से नस्ली सफ़ाया कर दिया गया।
इज़रायल में बचे रह गये अरब दोयम दर्जे के नागरिक बना दिये गये, जबकि देश से बेदख़ल हुए फ़िलिस्तीनी पूरे मध्य पूर्व में शरणार्थी शिविरों में मुफ़लिसी की ज़िन्दगी बिताने को मजबूर हो गये। इज़रायल ने “वापसी का क़ानून” पारित किया, जिसके अनुसार यहूदी वंशज के किसी भी व्यक्ति को इज़रायल में बसने का हक़ है लेकिन फ़िलिस्तीनियों को अपनी सर-ज़मीन पर लौटने का हक़ नहीं।
1967 के छः दिवसीय युद्ध के बाद इज़रायल ने वेस्ट बैंक और गज़ा समेत और भी ज़मीन हथिया ली। वेस्ट बैंक में 55 फ़ीसदी ज़मीन और 70 फ़ीसदी पानी को आबादी के बेहद छोटे हिस्से के यहूदी सेटलर्स के लिए ज़ब्त कर लिया गया। गाज़ा में 2,200 सेट्लर्स को 40 फ़ीसदी से भी ज़्यादा ज़मीन दे दी गयी जबकि 5,00,000 फ़िलिस्तीनियों को खचाखच भरे शिविरों और बस्तियों में क़ैद कर दिया गया।
इज़रायली गतिविधियों की संयुक्त राष्ट्र ने बार-बार भर्त्सना की है, लेकिन अमेरिकी सरकार ने यह सुनिश्चित किया है कि संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों का कोई सिलसिला लागू न किया जा सके। अपने जन्म से ही इज़रायल तेल समृद्ध मध्य पूर्व क्षेत्र में वाशिंगटन के दिलचस्पी का हिमायती रहा है। अमेरिका को उस क्षेत्र में एक ग्राहक देश की ज़रूरत थी जो उसके तेल पर नियन्त्रण के ख़िलाफ़ मक़बूल बग़ावतों को थाम सके। जैसा कि प्रसिद्ध यहूदी अख़बार हारेत्ज़ ने 1951 में कहा था :
इज़रायल मुहाफ़िज़ साबित होगा। अमेरिका और इंग्लैण्ड की इच्छा के ख़िलाफ़ जाकर इज़रायल कभी अरब देशों के प्रति आक्रामक रुख़ अख़्तियार नहीं करेगा। लेकिन, अगर किन्हीं कारणों से पश्चिमी ताक़तों ने कभी नज़रअन्दाज़गी का रुख़ चुना, तो इज़रायल एक या कई पड़ोसी देशों को पश्चिम की हद से ज़्यादा अवमानना करने की सज़ा देगा।
इसके एवज़ में इज़रायल ने अमेरिका से हर साल करोड़ों डॉलर हासिल किये हैं, जिसने उसे विश्व के सबसे ज़्यादा सैन्यीकृत देशों की सूची में शामिल कर दिया है।

(इण्टरनेशनल सोशलिस्ट रिव्यू, अंक 15,
दिसम्बर 2000-जनवरी 2001 में प्रकाशित)
(अंग्रेज़ी से अनुवाद : वृषाली)

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