फ़ासीवादियों और ज़ायनवादियों की प्रगाढ़ एकता!

भारत

जब से इज़रायल ने गज़ा में बमबारी करते हुए इस सदी के बर्बरतम नरसंहार को शुरू किया है, तब से आज तक दुनिया भर में इसका विरोध हो रहा है। भारत सहित पूरी दुनिया के तमाम इंसाफ़पसन्द लोग इज़रायल द्वारा की जा रही इस बर्बरता के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतर रहे हैं। ज्ञात हो कि इज़रायल द्वारा फ़िलिस्तीन अवाम के ऊपर जारी हमले में अब तक 37,000 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं, जिसमें 15 हज़ार बच्चे व महिलाएँ शामिल हैं। इसके अलावा 83,530 लोग घायल हैं और हज़ारों की संख्या में मलबों में दबे हैं। जो लोग बन्दूक की गोली और बम के धमाकों से बचे हुए हैं, वे भूख़ और कुपोषण से मरने को मज़बूर हैं। भारत में सत्ता में तीसरी बार पहुँचे फ़ासीवादियों की इज़रायली ज़ायनवादियों के साथ गलबहियाँ खुलकर सामने आ चुकी हैं।
दुनिया भर के साम्राज्यवादी देशों ने विशेषकर पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों ने इज़रायल के साथ एकजुटता ज़ाहिर की है। साथ ही, दुनिया भर के धुर दक्षिणपन्थी व फ़ासीवादी सत्ताधारियों ने भी इज़रायल के ज़ायनवादी उपनिवेशवाद के साथ एकजुटता जतायी है, मसलन भारत के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने 2014 में सत्ता में आने के बाद से ही इज़रायल के साथ रिश्ते मज़बूत करना शुरू कर दिया था। भारत का ऐसा स्टैण्ड भाजपा के सत्ता में आने के साथ ही हुआ है क्योंकि ज़ायनवादी नस्लवादियों की भारत के साम्प्रदायिक फ़ासीवादियों के साथ नैसर्गिक एकता बनती ही है।
अभी हाल ही में फ़ासीवादी मोदी सरकार का ज़ायनवादी इज़रायल के साथ गठजोड़ का उदाहरण एक बार फिर सामने आया है। फ़िलिस्तीन के कुद्स न्यूज़ की रिपोर्ट के मुताबिक़ 6 जून को इज़रायल द्वारा मिसाइल हमला किया गया। इन मिसाइलों के अवशेषों पर ‘मेड इन इण्डिया’ लिखा हुआ था, यानी यह मिसाइलें भारत में बनायी गयीं और इसे इज़रायल को बेचा गया है। एक तरफ़ प्रधानमन्त्री मोदी गज़ा में युद्ध रुकवाने का झूठा दावा करते हैं और दूसरी तरफ़ उनकी सरकार इज़रायल के साथ हथियारों की ख़रीद-फ़रोख़्त कर रही है। भारत के इतिहास में कोई भी सरकार इतनी बेशर्मी के साथ ज़ायनवादी इज़रायल के पक्ष में नहीं खड़ी हुई थी जैसे कि आज फ़ासीवादी मोदी सरकार खड़ी है। हिन्दुत्ववादी भाजपा की सरकार ने अपने आचरण से यह साफ़ कर दिया है कि वह ज़ायनवादी बर्बरों की वैचारिक रिश्तेदार है। इस वैचारिक रिश्तेदारी को और सुदृढ़ करने के मक़सद से नरेन्द्र मोदी कई बार इज़रायल की यात्रा भी कर चुके हैं।

फ़ासीवादियों और ज़ायनवादियों की एकता की शुरुआत

फ़िलिस्तीन मसले पर इन्दिरा गाँधी के दौर तक भारत ने कम-से-कम औपचारिक तौर पर फ़िलिस्तीनी मुक्ति के लक्ष्य का समर्थन किया था और इज़रायल द्वारा फ़िलिस्तीनी ज़मीन पर औपनिवेशिक क़ब्ज़े को ग़लत माना था। 1970 के दशक से प्रमुख अरब देशों का फ़िलिस्तीन के मसले पर पश्चिमी साम्राज्यवाद के साथ समझौतापरस्त रुख़ अपनाने के साथ भारतीय शासक वर्ग का रवैया भी इस मसले पर ढीला होता गया और वह शान्ति की अपीलों और ‘दो राज्यों के समाधान’ की अपीलों में ज़्यादा तब्दील होने लगा। अभी भी औपचारिक तौर पर तो भारत फ़िलिस्तीन का समर्थन करता है, पर सिर्फ़ नाम के लिए ही।

हमारे देश के हुक्मरानों के इज़रायली ज़ायनवादी हत्यारी औपनिवेशिक सत्ता के साथ पिछले तीन दशकों के दौरान अपवित्र गठबन्धन बने हैं। इज़रायल के साथ भारत के रिश्तों में गरमाहट नवउदारवाद के पदार्पण के साथ ही आनी शुरू हो गयी थी जब नरसिम्हा राव की कांग्रेसी सरकार ने 1992 में इज़रायल के साथ राजनयिक रिश्तों की शुरुआत की। उसके बाद देवगौड़ा की संयुक्त मोर्चा की सरकार ने बराक मिसाइल के सौदे के समझौते पर हस्ताक्षर करके इज़रायल के साथ सामरिक सम्बन्धों की नींव रखी। ग़ौरतलब है कि उस सरकार में संसदमार्गी छद्म कम्युनिस्टों ने भी हिस्सा लिया था और गृह मन्त्रालय जैसा महत्वपूर्ण मन्त्रालय उनके पास था। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार इज़रायल के साथ सम्बन्धों को नयी ऊँचाइयों पर ले गयी। यही वह दौर था जब इज़रायल के नरभक्षी प्रधानमन्त्री एरियल शैरोन ने भारत की यात्रा की। यह किसी इज़रायली प्रधानमन्त्री की पहली भारत यात्रा थी। 2004 से 2014 के बीच मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस शासन में भी इज़रायल के साथ सामरिक सम्बन्धों में विस्तार की प्रक्रिया निर्बाध रूप से जारी रही।
मोदी के नेतृत्व में हिन्दुत्ववादियों के सत्ता में पहुँचने के बाद से ही इज़रायल के साथ सम्बन्धों को पहले से भी अधिक प्रगाढ़ करने की दिशा में प्रयास शुरू हो चुके थे। गज़ा में बमबारी के वक़्त हिन्दुत्ववादियों ने संसद में इस मुद्दे पर बहस कराने से साफ़ इनकार कर दिया था ताकि उसके ज़ायनवादी भाई-बन्धुओं की किरकरी न हो। 2014 में सितम्बर के महीने में न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र संघ की जनरल असेम्बली की बैठक के दौरान मोदी ने गुज़रात के मासूमों के ख़ून से सने अपने हाथ को गज़ा के निर्दाषों के ताज़ा लहू से सराबोर नेतन्याहू के हाथ से मिलाया। नेतन्याहू इस मुलाक़ात से इतना गदगद था मानो उसका बिछड़ा भाई मिल गया हो। उसने उसी समय ही मोदी को इज़रायल आने का न्यौता दे दिया था। गुज़रात के मुख्यमन्त्री रहने के दौरान मोदी पहले भी इज़रायल की यात्रा कर चुका था। नरेन्द्र मोदी और बेंजामिन नेतन्याहू दोनों के ख़ूनी रिकॉर्ड को देखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि यह दोनों एक-दूसरे के नैसर्गिक जोड़ीदार हैं।
2014 में प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता वाली सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी ने इज़रायल की 262 बराक मिसाइलों की ख़रीद को हरी झण्डी दी थी। ग़ौरतलब है कि इन्हीं बराक मिसाइलों की ख़रीद को लेकर 2001 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय में ही एक घोटाला सामने आया था जिसमें तत्कालीन रक्षामन्त्री जार्ज फ़र्नाण्डीज़, उनकी सहयोगी जया जेटली और नौसेना के एक अधिकारी सुरेश नन्दा का नाम सामने आया था। इस घोटाले में एनडीए के एक घटक समता पार्टी के पूर्व कोषाध्यक्ष आर के जैन को गिरफ़्तार भी किया गया था। लेकिन इसके बावजूद मोदी सरकार ने इज़रायल से अपनी मित्रता का सबूत देते हुए एक बार फिर से इस सौदे को मंज़ूरी दे दी थी। मोदी-नेतन्याहू मुलाक़ात के बाद से रक्षा अधिग्रहण परिषद ने 80,000 करोड़ रुपये की रक्षा परियोजनाओं को मंज़ूरी दी। इसमें से 50,000 करोड़ रुपये नौसेना के लिए छह पनडुब्बियों के निर्माण में ख़र्च करने की बात की गयी। 3,200 करोड़ रुपये 8000 इज़रायली टैंकरोधी मिसाइल स्पाइक की ख़रीद में ख़र्च किये किये गये। ग़ौर करने वाली बात यह है कि भारत ने इज़रायल की इस मिसाइल को अमेरिका की जैवेलिन मिसाइल के ऊपर तवज्जो दी थी जिसके लिए अमेरिका लम्बे समय से लॉबिंग कर रहा था। अमेरिकी रक्षा मन्त्री चक हेगल ने भारत यात्रा के दौरान भी इस मिसाइल को भारत को बेचने के लिए लॉबिंग की थी। लेकिन अमेरिकी मिसाइल के ऊपर इज़रायली मिसाइल को तवज्जो देना हिन्दुत्ववादियों के इज़रायली ज़ायनवादियों से ग़हरे रिश्तों को उजागर करता है।
वहीं दूसरी तरफ़ भारत से बढ़ती क़रीबी इज़रायल की अर्थव्यवस्था के लिए एक संजीवनी का काम कर रही है क्योंकि पिछले एक-दो दशक से जारी बीडीएस (बॉयकॉट, डाइवेस्टमेण्ट एण्ड सैंक्शन) आन्दोलन की वजह से दुनिया के कई देशों ने इज़रायल के साथ व्यापारिक सम्बन्धों को बहुत सीमित कर दिया है, जिससे उसकी अर्थव्यवस्था पर ख़तरे के बादल मँडरा रहे हैं। ऐसे में अमेरिका के अलावा भारत उन चन्द गिने-चुने देशों में है जिसका इज़रायल के साथ सामरिक और व्यापारिक सम्बन्ध फल-फूल रहा है। भारत इज़रायल द्वारा बेचे जाने वाले हथियारों का दुनिया में सबसे बड़ा ख़रीदार है और भारत को हथियारों की सप्लाई करने वाले देशों में इज़रायल का स्थान दूसरा है। केवल रक्षा के क्षेत्र में ही नहीं इज़रायल भारत के कई राज्यों में जल संरक्षण, सिंचाई आदि के क्षेत्र में तकनीकी सहायता के लिए सेण्टर ऑफ एक्सीलेंस खोल चुका है।
जनता के आन्दोलनों को कुचलने के तौर-तरीक़े भारत की पुलिस और सेना को सिखाने इज़रायल की पुलिस व खुफ़िया एजेंसी मोसाद के लोग नियमित तौर पर भारत आते हैं। भारत के भीतर प्रतिरोध को कुचलने के लिए खुफ़िया पेगासस ऐप भी भारतीय सरकार को इज़रायली ज़ायनवादियों से ही मिला है। मोदी सरकार पेगासस जैसे ख़ुफ़िया तन्त्र जिसे अब तक का सबसे उन्नत व सबसे ख़तरनाक जासूसी स्पाइवेयर माना जा रहा है, ख़रीद कर भारत में प्रतिरोध की आवाज़ों का दमन करने के लिए इस्तेमाल कर रही है। पेगासस का इस्तेमाल मोदी सरकार द्वारा अपने ही देश के राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं, मानवाधिकार कर्मियों, जनपक्षधर पत्रकारों, वकीलों, बद्धिजीवियों, विपक्षी नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों आदि पर किया जा रहा है। साथ ही, दंगा नियन्त्रण के नाम पर मज़दूरों को कुचलने से लेकर कश्मीर और उत्तर-पूर्व में दमित कौमों के उत्पीड़न के तमाम तौर-तरीक़े भारतीय हुक्मरान अपने इज़रायली ज़ायनवादी हत्यारे बन्धुओं से ही सीख रहे हैं। वहीं दोनों के ख़ुफ़िया तन्त्र में भी काफ़ी समानता है। आतंकवाद विरोध के नाम पर मासूमों के नृशंस क़त्ले-आम को अंजाम देने के इज़रायली तरीक़े को एक प्रसिद्ध इज़रायली इतिहासकार ने क्रमिक नरसंहार की संज्ञा दी है। हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्ट अपने वैचारिक रिश्तेदार ज़ायनवादियों से क्रमिक नरसंहार के इसी हुनर को सीखने के लिए बेकरार हैं ताकि भारत में भी उसे आजमाया जा सके।
दुनिया के कुछ अन्य प्रतिक्रियावादी शासन के विपरीत, भारत में अभी भी ज़ायनवादी इज़रायल के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन और बहिष्कार-विनिवेश-प्रतिबन्ध (बीडीएस, दुनिया भर में इज़रायल के आर्थिक बहिष्कार के लिए चलाया जा रहा आन्दोलन) आन्दोलन को प्रतिबन्धित करने के लिए कोई क़ानून नहीं है। इसके बावजूद फ़ासीवादी मोदी सरकार द्वारा सारी संवैधानिकता और वैधानिकता को ताक़ पर रखकर फ़िलिस्तीन के समर्थन में हो रहे प्रदर्शनों को कुचला गया। इससे यह सवाल उठता है कि जब भारत में फ़िलिस्तीन समर्थक प्रदर्शनों या बीडीएस अभियानों पर रोक लगाने वाला कोई क़ानून नहीं है, तो मोदी सरकार किस आधार पर इन कार्रवाइयों को अंजाम दे रही है? वास्तव में देशभर में ऐसे किसी भी विरोध प्रदर्शन को रोकने के लिए सीधे गृह मन्त्रालय द्वारा आदेश जारी किये जा रहे हैं। इसलिए मोदी सरकार अपने ज़ायनवादी इज़रायली दोस्तों के ख़िलाफ़ विरोध की आवाज़ों को दबाने के लिए हर तरह के दमनकारी उपायों का सहारा ले रही है। यह भी एक कारण है कि मोदी सरकार देश भर में जारी इज़रायल के प्रतिरोध से घबरायी हुई है, कि कहीं इससे उनके ज़ायनवादी दोस्त नाराज़ न हो जायें।
ज़ायनवादी इज़रायली उपनिवेशवादी केवल फ़िलिस्तीनी जनता के ही दुश्मन नहीं हैं, वे पूरी दुनिया के सभी दमित-शोषित जनता के दुश्मन हैं। यही कारण है कि दुनिया भर के तमाम इंसाफ़पसन्द लोग आज फ़िलिस्तीनी जनता के मुक्ति संघर्ष के पक्ष में खड़े हैं। दुनिया के तमाम हिस्सों से प्रतिरोध की आवाज़ें उठ रही हैं। वहीं फ़ासीवादी मोदी सरकार के ज़ायनवादी इज़रायल के साथ गठजोड़ के कई हज़ार उदाहरण आज हमारे सामने हैं। इज़रायल भारतीय मिसाइलों का इस्तेमाल फ़िलिस्तीनी आवाम के नरसंहार के लिए कर रहा है। इज़रायल से हथियारों के सबसे बड़े ख़रीददार होने की बात हो या फिर भारत में फ़िलिस्तीन के समर्थन में हो रहे प्रदर्शन के दमन करने का मसला हो। इसीलिए हमें जब फ़िलिस्तीनी जनता की हत्या करती हुई कोई मिसाइल मिले, जिसका निर्माण भारत में हुआ हो तो हमें चौंकना नहीं चाहिए। इससे मोदी सरकार का चाल-चेहरा-चरित्र ही उजागर हो रहा है। ज़ायनवादी इज़रायल और फ़ासीवादी मोदी सरकार का यह दमनकारी रवैया दर्शाता है कि ज़ायनवादियों और फ़ासीवादियों की कितनी प्रगाढ़ एकता है।
हम माँग करते हैं कि फ़ासीवादी मोदी सरकार ज़ायनवादी इज़रायल के साथ फ़ौरन अपने सभी व्यापारिक सम्बन्धों को ख़त्म करे और ज़ायनवादी इज़रायल का प्रतिरोध कर रही फ़िलिस्तीनी जनता के मुक्ति संघर्ष का समर्थन करे।

 

(मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2024)

 

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