इज़रायल : साम्राज्यवादी हितों के लिए खड़ा किया गया एक सेटलर-कोलोनियल राज्य
सनी
यहूदी राज्य यूरोप की रक्षा की दीवार का अंग बनेगा और यह सभ्यता की बर्बरता के ख़िलाफ़ चौकी होगा।
– थियोडोर हर्ज़ल
ज़ायनवादी सिद्धान्तकार हर्ज़ल ने यह बात अपनी पुस्तक ‘यहूदी राज्य’ में इज़रायल के बनने से क़रीब 50 साल पहले कही थी। यह एक नये क़िस्म के औपनिवेशिक राज्य की वकालत थी जिसे साम्राज्यवाद के युग में खड़ा किया जाना था। 1948 में यही ज़ायनवादी योजना अमली-रूप लेती है और आज जिस इज़रायल को हम देख रहे हैं यह इस सेटलर-कोलोनियल परियोजना का ही नतीजा है। इज़रायल एक सेटलर-कोलोनियल राज्य है। इज़रायल के राज्य के इस चरित्र को समझकर ही फ़िलिस्तीनी अवाम के संघर्ष को, गज़ा के बर्बर नरसंहार के बावजूद इज़रायल को मिल रहे बेशर्म साम्राज्यवादी समर्थन को और इज़रायली राज्य के अन्तरविरोधों को समझ सकते हैं। साथ ही इसकी रोशनी में हम फ़िलिस्तीन पर इज़रायली राज्य द्वारा लागू की जा रही अपार्थाइड नीतियों को समझ सकते हैं।
लेख लिखे जाने तक रफ़ा में इज़रायली हमला जारी है जिसमें हर रोज़ फ़िलिस्तीनी नागरिक मारे जा रहे हैं। इज़रायल हमास के ख़िलाफ़ युद्ध हार चुका है क्योंकि तमाम दावों के बाद भी वह हमास की सैन्य क्षमता को नष्ट करने में असफल रहा है। इज़रायल का गज़ा में नरसंहार 7 अक्टूबर के बाद शुरू हुआ। 7 अक्टूबर का दिन ‘प्रिज़न ब्रेक’ था जिस दिन फ़िलिस्तीनियों ने गज़ा की ‘खुली जेल’ में जारी बर्बर औपनिवेशिक दमन के ख़िलाफ़ इज़रायल में घुसकर हमला किया और सैकड़ों उपनिवेशवादियों को मार दिया। यह फ़िलिस्तीनियों का प्रतिरोध युद्ध के दौरान उठाया गया साहसपूर्ण क़दम था। हथियारों के विराट ज़ख़ीरे और ‘आइरन क्लेड’ अमरीकी मदद के बावजूद इज़रायल के भीतर हमला हुआ और सैकड़ों सेटलरों को हमास के लड़ाके बन्धक बनाकर गज़ा ले गये। आइरन डोम से लेकर दुनिया में सर्वश्रेष्ठ सर्विलांस के तमाम उपकरणों के बावजूद इज़रायल 7 अक्टूबर के हमले के जवाब में हमास को सैन्य तौर हराने में असफल रहा है। इस असफलता के प्रतिशोध में ही इज़रायली सेना गज़ा में मासूमों पर बमवर्षा कर एक पूरी क़ौम को ख़त्म करने पर आमादा है। न सिर्फ़ इस बम वर्षा में आम नागरिक मारे जा रहे हैं बल्कि इज़रायल एआई का चुनिन्दा तौर पर इस्तेमाल कर रहा है। फ़िलिस्तीनी कलाकारों-लेखकों को निशाना बनाया गया है ताकि फ़िलिस्तीन की कविताओं, गीतों, चित्रों, कहानियों और उसकी संस्कृति तथा उसके इतिहास को मिटाया जा सके। डॉक्टरों को मारकर, अस्पतालों को नेस्तनाबूद कर गज़ा को यातना गृह में तब्दील कर दिया गया है। गज़ा से लेकर दुनिया भर में सड़कों पर फ़िलिस्तीनी मुक्ति का झण्डा लहरा रहा है जबकि सत्ता के गलियारों में झूठे शान्ति प्रस्तावों के साथ ही हत्यारों की ‘आत्मरक्षा’ के ‘डिस्कोर्स’ में हथियारों के ज़ख़ीरों के सौदे हो रहे हैं। अरब देशों के शासक वर्ग फ़िलिस्तीनी मुक्ति युद्ध को साम्राज्यवादियों के समक्ष बटखरे के तौर पर इस्तेमाल करते हैं हालाँकि अरब जनता के फ़िलिस्तीनी जनता के प्रति गहरे लगाव के दबाव में वे इज़रायल से नाराज़गी भी व्यक्त करते रहते हैं। साम्राज्यवादी शक्तियाँ खोखले शान्ति प्रस्तावों के साथ और दीर्घकालिक समाधान की बातें करते हुए इस युद्ध को जारी रखना चाहती हैं। 1917 का बाल्फ़ोर घोषणापत्र, ब्रिटिश उपनिवेशवादियों का व्हाइट पेपर, 1948 का यूनाइटेड नेशंस का प्रस्ताव, 1967 का प्रस्ताव या ‘ओस्लो समझौता’; सब इज़रायल के सेटलर-कोलोनियल राज्य पर मुहर लगाने का ही काम करते आये हैं।
आज साम्राज्यवादी मीडिया के माध्यम से इज़रायल द्वारा गज़ा में किये जा रहे नरसंहार का विरोध करना भी ‘यहूदी-विरोधी’ घोषित किया जा रहा है और आलम यह है कि इज़रायल नाज़ियों द्वारा किये नरसंहार की आड़ में इस शताब्दी के सबसे बड़े नरसंहार को अंजाम दे रहा है। शान्ति प्रस्तावों, मानवीय सहायता के ढोंग और दीर्घकालिक तौर पर ‘टू-स्टेट सोल्यूशन’ की बातें असल में एक पर्दा है जो इज़रायल के कृत्रिम सेटलर-कोलोनियल राज्य पर और उसकी अपार्थाइड नीतियों पर पर्दा डालने का काम करता है। गज़ा में आज जो नरसंहार हो रहा है उसके पीछे छिपे मुनाफ़े के सौदों और उन सौदों को बरक़रार रखने के लिए बनाये गये कृत्रिम इज़रायली सेटलर कोलोनियल राज्य की निशानदेही करनी होगी।
इज़रायली सेटलर कोलोनियल राज्य की स्थापना और अपार्थाइड नीतियाँ
“अगर हमें ज़िन्दा रहना है तो हमें हत्या करनी होगी, हत्या करनी होगी और हत्या करनी होगी। .. अगर हम हत्या नहीं करते हैं तो हम अस्तित्वमान नहीं रह सकते.. एकतरफ़ा विलगाव से ‘शान्ति’ की कोई गारण्टी नहीं मिलेगी- यह एक ज़ायनवादी- यहूदी राज्य की गारण्टी देता है जिसमें बहुसंख्या यहूदियों की होगी।” – अरनोन सोफ्फ़र, इज़रायली प्रोफ़ेसर
यह कथन इज़रायली राज्य का सच ज़ाहिर करता है। वह सच जो तमाम इज़रायली कुकर्मों पर सफ़ेदी पोतने वाले लाख चाहकर भी छिपा नहीं पाते हैं। आज जिसे इज़रायल देश कहा जाता है वह असल में फ़िलिस्तीन ही है। ज़ायनवादियों ने 19वीं शताब्दी के अन्त से ही इस योजना को पेश किया कि फ़िलिस्तीन की ज़मीन पर यहूदियों का देश बसे और इसके लिए साम्राज्यवादियों से गुहार भी लगायी। यह एक लम्बी परियोजना थी जिसे ज़ायनवादी अंजाम देना चाहते थे। सबसे पहले 1883 से 1903 के बीच यहूदियों को इस इलाक़े में आने के लिए प्रेरित किया गया। तब 25 हज़ार से ज़्यादा यहूदी यहाँ आये। उस समय मुख्य रूप से फ़्रांस ने इन यहूदीवादी गतिविधियों को आर्थिक प्रोत्साहन दिया था। दूसरी घुसपैठ 1904 से 1914 के बीच हुई। तब 40 हज़ार यहूदी इस इलाक़े में आकर बसे।
थियोडोर हर्ज़ल के अनुसार:
“हमें निर्धारित की गयी भूसम्पदा पर निजी सम्पत्ति को लगातार धीरे-धीरे ज़ब्त करना होगा। हमें ग़रीब जनता को बॉर्डर के पार भेजने का प्रोत्साहन देने के लिए उसे अपने ही देश में रोज़गार से वंचित करके पारगमन देशों में रोज़गार उपलब्ध कराने के लिए प्रयत्न करने होंगे। सम्पत्ति मालिक हमारी तरफ़ आ जायेंगे। ज़ब्ती लूट और ग़रीबों को हटाये जाने की प्रक्रिया दोनों ही बहुत सावधानी और सोचे-समझे तरीक़े से करनी होगी।
ज़ायनवादी उपनिवेश मूल निवासी जनता की इच्छा की अवज्ञा करके ही बनाया जाये। यह उपनिवेश बरक़रार और विकसित केवल देशी जनता से स्वतन्त्र, एक ताक़तवर सैन्यदल के संरक्षण में ही हो सकता है – एक ऐसी लौह दीवार जिसे मूल जनता तोड़ न पाये। यही सम्पूर्णता में अरब के प्रति हमारी नीति है। इसे प्रतिपादित निरूपित करने के लिए कोई भी अन्य तरीक़ा पाखण्ड होगा।”
यह कथन इज़रायल बनने की प्रक्रिया को समझा देता है और इसमें प्रथम विश्व युद्ध के बाद प्रमुखतः ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की भूमिका रही। 20वीं शताब्दी की शुरुआत में ओटोमन साम्राज्य की ब्रिटेन से हार के बाद फ़िलिस्तीन ब्रिटिश हुकूमत का उपनिवेश बन गया। 1918 में ब्रिटिश सेना ने फ़िलिस्तीन पर क़ब्ज़ा कर लिया था। ब्रिटिश कैबिनेट ने ‘बाल्फ़ोर घोषणा’ में इस ज़ायनवादी परियोजना पर मुहर लगा दी। इस घोषणा में ब्रिटेन ने फ़िलिस्तीन को ‘राष्ट्रीय यहूदी मातृभूमि’ बनाने का समर्थन किया। इसमें फ़िलिस्तीनी बाशिन्दों का कहीं भी ज़िक्र नहीं था। 1922 में लीग ऑफ़ नेशंस ने ‘मैण्डेट फॉर फ़िलिस्तीन’ में ब्रिटेन की हुकूमत को स्वीकार किया। इस मैण्डेट ने ‘बाल्फ़ोर घोषणा’ को ही शब्दशः अपना लिया। एक ओर सत्ता के गलियारों में सौदेबाजी हो रही थी तो दूसरी ओर यहूदी घरानों ने फ़िलिस्तीनी ज़मीन खरीदना और यहाँ बसना शुरू किया। यहूदी सेटलरों का लगातार फ़िलिस्तीन आकर बसने को ज़ायनवादी बढ़ावा देते रहे क्योंकि वे आबादी के अनुपात में सेटलरों की संख्या इतनी बढ़ाना चाहते थे कि फ़िलिस्तीनी अस्मिता को मिटाया जा सके। 1935 तक ही 60,000 से अधिक यहूदी प्रवासी फ़िलिस्तीन आये। यह 1917 में कुल यहूदी आबादी की संख्या से भी अधिक थी। आर्थिक तौर पर फ़िलिस्तीनी आबादी मुख्यतः खेती पर निर्भर थी। 1930 के दशक में यहूदी आबादी ने आर्थिकी में फ़िलिस्तीनियों को पछाड़ दिया। ज़ायनवादियों ने 1921 में हैगनाह के नाम से एक गिरोह संगठित किया जो एक ख़तरनाक आतंकवादी संगठन के रूप में विकसित हो गया। इसका काम ही था अरब गाँवों और मुहल्लों पर हमला करके उनके घरों और खेतों को जलाने के साथ-साथ उन्हें मार-पीटकर भगा देना तथा वहाँ यहूदियों के लिए नयी बस्तियाँ बसाना। आज भी गज़ा को नेस्तनाबूद कर सेटलर बसावट का प्रस्ताव या वेस्ट बैंक में लगातार ज़मीनों का सेटलरों और इज़रायली सेना का फ़िलिस्तीनी घरों और ज़मीन पर क़ब्ज़ा ज़ायनवाद की ऐतिहासिक योजना की ही निरन्तरता है। यह कोई आकस्मिक उठा बर्बरता का उन्मादी दौरा नहीं है। 1948 तक ब्रिटिश हुकूमत के मातहत रहते हुए भी फ़िलिस्तीन में एक यहूदी अर्द्ध-राज्य अस्तित्व में आ चुका था जिसे ब्रिटिश उपनिवेशवादियों का समर्थन प्राप्त था। 1936-39 में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ अरब विद्रोह उठ खड़ा हुआ। इस युद्ध में फ़िलिस्तीनी राष्ट्रवादी ताक़तों के बिखरे प्रयासों को बरतानवी हुकूमत ने ख़ून में डुबो दिया। राशिद खालिदी बताते हैं कि:
“ब्रिटिश राज के विरुद्ध 1936-39 की महान अरब बगावत के दमन में दस प्रतिशत वयस्क पुरुष आबादी मार दी गयी, घायल हुई या निर्वासित कर दी गयी। ब्रिटेन ने 1 लाख सैनिकों और हवाई ताक़त का इस्तेमाल कर फ़िलिस्तीनी विद्रोह को कुचल दिया। नात्सी दमन के चलते 1932 से ही यहूदी प्रवासियों की विशाल लहर के चलते यहूदी आबादी फ़िलिस्तीन की कुल जनसंख्या में मात्र 18 प्रतिशत से बढ़कर 31 प्रतिशत हो गयी। इसने वह क्रिटिकल जनसांख्यिकीय भार और सैन्य शक्ति मुहैया करायी जो 1948 के नस्लीय सफ़ाये के लिए ज़रूरी था। पहले ज़ायनवादी मिलिशिया और बाद में इज़रायली सेना के दम पर फ़िलिस्तीन से आधी से ज़्यादा अरब आबादी को निष्कासित किया और ज़ायनवाद की सैन्य तथा राजनीतिक जीत को सुनिश्चित किया।”
फ़िलिस्तीन में ब्रिटिश देखरेख में पनपे ज़ायनवादी आतंकवादी संगठन स्टर्न, हैगनाह और इरगोन ज़ायनवादी अर्द्ध-राज्य के रूप में ही काम कर रहे थे। ज़ायनवादी अर्द्ध-राज्य, अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर साम्राज्यवादी ताक़तों और ब्रिटिश उपनिवेशवादी हुकूमत ने फ़िलिस्तीनी राष्ट्रीय आन्दोलन को कुचलने का प्रयास किया। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद नाज़ियों द्वारा यहूदियों के भीषण नरसंहार के बाद ज़ायनवादी राज्य की परिकल्पना को निर्णायक संवेग मिला। 1948 में ब्रिटिश सत्ता ने सत्ता इज़रायली राज्य के हाथ में दे दी और फ़िलिस्तीनी आबादी को नव-स्थापित राज्य द्वारा और सेटलर मिलिशिया द्वारा ज़मीन से बेदखल करना शुरू कर दिया गया। यह व्यापारिक पूँजीवाद के युग से अलग एक नये क़िस्म का उपनिवेशवाद था जहाँ विदेशों से आकर फ़िलिस्तीन में बसे यहूदी सेटलरों ने ख़ुद को राज्य के रूप में स्थापित किया जिसे उस वक़्त की साम्राज्यवादी ताक़तों का समर्थन हासिल था। फ़िलिस्तीनी लोगों को अपने खेत और घरों को छोडकर भागना पड़ा। जो नक़बा 1948 में शुरू हुआ उसमें एक साल में ही 850000 फ़िलिस्तीनी अपने देश में ही शरणार्थी हो गये और अपनी ज़मीन और अपने घरों को छोडने को मजबूर हुए। मेण्डेट से फ़िलिस्तीन की 75 प्रतिशत ज़मीन पर इज़रायल ने क़ब्ज़ा जमा लिया। गज़ा पट्टी को मिस्त्र ने अपने क़ब्ज़े में ले लिया तो वेस्ट बैंक तथा यरुशलम ट्रांसजॉर्डन के मातहत रहा।
1907 में मध्यपूर्व में तेल के अपार भण्डार की खोज होने से सभी साम्राज्यवादी गिद्धों की निगाह उस पर अटकी थी। अमरीका द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सबसे बड़ी शक्ति बनकर उभरा। 1967 में अरब युद्ध में इज़रायल ने अरब देशों को निर्णायक तौर हराकर पेट्रो उत्पादों के रणनीतिक माल के भण्डार मध्य पूर्व में अमरीका के लठैत के तौर पर अपनी अवस्थिति सुदृढ़ की और वेस्ट बैंक, जेरूसलम और गज़ा को भी अपने क़ब्ज़े में ले लिया। वेस्ट बैंक को जॉर्डन की अन्न की टोकरी कहा जाता था। इज़रायल ने वेस्ट बैंक के खेतों को उजाड़ दिया, उनके जैतून के पेड़ों, अंगूर की बेलों को बूटों के नीचे कुचल दिया और पानी के बहाव को इज़रायली शहर की ओर मोड़ दिया। वेस्ट बैंक में रह रहे फ़िलिस्तीनियों को सस्ती श्रम की रिज़र्व आर्मी में तब्दील कर दिया गया जो इज़रायली उद्योगों में बेहद कम उजरत पर खटती है। यही गज़ा और यरुशलम के साथ हुआ। इज़रायल में काम पर जाने के लिए वेस्ट बैंक में रह रहे फ़िलिस्तीनियों को एक अलग पहचान पत्र दिया जाता है। वेस्ट बैंक को कई ज़ोन में बाँट दिया गया जिसमें समय-समय पर कर्फ्यू, एक ज़ोन से दूसरे ज़ोन में आवागमन पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। गज़ा और वेस्ट बैंक के बीच यातायात को नामुमकिन बना दिया गया। गज़ा में बिजली, पानी, अन्न, इण्टरनेट तथा दवा तक को इज़रायल नियन्त्रित करता है। यह इज़रायल द्वारा फ़िलिस्तीन का ‘बन्तुस्टानिकरण’ यानी अपार्थाइड ही है। ‘बन्तुस्टानिकरण’ दक्षिण अफ़्रीका में अश्वेत आबादी वाले क्षेत्रों को विखण्डित कर उन्हें आर्थिक तौर पर खाद्य संसाधनों तक के लिए उपनिवेशवादियों पर निर्भर कर क़ब्ज़े में लाने की प्रक्रिया को कहते हैं। इज़रायल में संस्थाबद्ध अपार्थाईड की शुरुआत भी दक्षिण अफ़्रीका की तरह ही 1948 में हुई। 1994 में दक्षिण अफ़्रीका में अपार्थाईड ख़त्म हो गया परन्तु फ़िलिस्तीन में पूर्वी जेरूसलम, वेस्ट बैंक और गज़ा में यह स्थिति बनी रही। दक्षिण अफ़्रीका में अश्वेत आबादी के विखण्डित क्षेत्रों को स्व-शासन का झुनझुना पकड़ा कर क़ब्ज़े में रखा जाता है। इज़रायल में 1967 के बाद ‘एलोन योजना’ और ‘शेरोन योजना’ का यही मक़सद था कि फ़िलिस्तीनी बसावट के क्षेत्रों को सैन्य-प्रशासनिक ताक़त के दम पर विभाजित किया जाये, फ़िलिस्तीन की ज़मीन और संसाधनों पर क़ब्ज़ा जमाया जाये और फ़िलिस्तीनी आबादी को कठपुतली स्व-शासन के निकायों के द्वारा काबू किया जाये। वेस्ट बैंक और गज़ा में इज़रायली उद्योगों के अनुषंगी उद्योगों के रूप में घरों में कार्यशालाएँ पैदा हुई हैं। इज़रायली प्रशासन द्वारा कुछ व्यापारियों को आयात-निर्यात का अधिकार दिया गया है। यही व्यापारी पूँजीपति वर्ग और मज़दूरों को ठेके पर काम करवाने वाली कम्पनियाँ दलाल पूँजीपति वर्ग के रूप में इज़रायली क़ब्ज़े को समर्थन देती है। इनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व ‘पैलेस्टेनियन अथॉरिटी’ के रूप में वेस्ट बैंक में मौजूद है। एडम हानिया बताते हैं:
“पश्चिमी तट और गज़ा पट्टी में विखण्डन की प्रक्रिया इज़रायल द्वारा फ़िलिस्तीनी गाँवों और शहरों में सैन्य उपस्थिति बनाये रखने के ख़र्चे का बोझ उठाये बिना, फ़िलिस्तीन की जनता पर नियन्त्रण स्थापित करने की रणनीति के कारण घटित हुई है। यह नया नहीं है, 1967 का अलोन प्लान पश्चिमी तट पर आधिपत्य स्थापित करने के लिये ठीक इसी रणनीति का उल्लेख करता है। यह चौंकाने वाला है कि कैसे अलग-अलग नक़्शे जो आज की यथास्थिति बतलाते हैं, वे अलोन प्लान द्वारा इंगित सीमाओं से हुबहू मिलते हैं। 90 के दशक से ही, कण्ट्रोल का यह सिस्टम, परमिट, चेकपॉइण्ट्स और जॉनिंग क़ानूनों के ज़रिये एक जटिल अफ़सरशाही वाले ढाँचे में विकसित हुआ है, जिसके द्वारा पश्चिमी तट के क्षेत्रों में लोगों और माल के आवागमन को नियन्त्रित किया जाता है (जहाँ गज़ा ख़ुद क़ैद में बन्द दूसरा हिस्सा है)। सैन्य आदेशों की व्यवस्था जो 1967 से फ़िलिस्तीनी जीवन को नियन्त्रित कर रही है, वह आज भी अस्तित्व में है। इसके अलावा इज़रायल बिजली, पानी, मोबाइल सेवा और यह तक कि इण्टरनेट को भी नियन्त्रित करता है; इन आधारभूत सेवाओं की मार्केटिंग फ़िलिस्तीनी कम्पनियाँ कर रही हैं, पर अपने अन्तिम विश्लेषण में इनकी आपूर्ति और नियन्त्रण इज़रायल द्वारा की जाती है। ये सब पहले दर्जे़ के नियन्त्रण का ही उदाहरण है- फ़िलिस्तीनी जनता से विशेष तरीक़ों से व्यवहार करने को मज़बूर कर देने की क्षमता। फ़िलिस्तीनी स्वायत्तता के दिखावे के बावजूद, ओस्लो समझौते ने इज़रायली नियन्त्रण को कम नहीं किया है बस इसके रूप को बदला है। ओस्लो समझौते के बाद के वर्षों में, इज़रायल ने अपना नियन्त्रण तीखा और सुदृढ़ किया है, जिसके परिणामस्वरूप फ़िलिस्तीन का विकास इतिहास के किसी भी कालखण्ड की तुलना में आज इज़रायल की ताक़त का मोहताज है।”
आज गज़ा में जो नरसंहार चल रहा है और वेस्ट बैंक में इज़रायली हमले हो रहे हैं, उन्हें इज़रायली राज्य के सेटलर कोलोनियल चरित्र तथा उसके द्वारा स्थापित अपार्थाइड की रोशनी में समझा जा सकता है। परन्तु यह अमरीका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैण्ड सरीखा सेटलर कोलोनियल देश नहीं है जो साम्राज्यवाद पूर्व उपनिवेशवाद का एक अस्तित्व-रूप था। लातिन अमरीका से लेकर अमरीका, ऑस्ट्रेलिया में उपनिवेशवादी जाकर बस गये। व्यापारिक पूँजी के उस युग में प्रकृति की लूट के लिए मूल निवासी आबादी का सफ़ाया कर दिया गया। अमरीका और ऑस्ट्रेलिया में कोई सेटलर कोलोनियलिज़्म मौजूद नहीं है। यह उस ‘श्वेत मज़दूर-वर्ग अवधारणा’ का भी खण्डन है जो श्वेत सर्वहारा वर्ग को सर्वहारा चेतना से रिक्त मानता है और आज भी अमरीका, ऑस्ट्रेलिया में मूल निवासियों के मुक्ति युद्ध को लड़ने की बात करता है। इज़रायल 20वीं सदी में साम्राज्यवाद के दौर में बना सेटलर कोलोनियल राज्य है जिसका अस्तित्व साम्राज्यवादी मदद के ज़रिये ही सम्भव है। यूनाइटेड नेशंस में बैठकर सभी मुनाफ़ाखोर जन-दबाव के चलते गज़ा को ‘मानवीय मदद’ के पैकेज की घोषणा करते रहते हैं और दूरगामी तौर पर ‘टू-स्टेट सोल्यूशन’ की बात करते हैं परन्तु सच तो यह है कि यह सब खोखली दलीलें हैं। पूरा साम्राज्यवादी खेमा, चाहे वह अमरीकी धुरी हो या रूस-चीन धुरी, उनके लिए इज़रायल एक ऐसा कृत्रिम राज्य है जो अरब जगत में उनके हितों को बनाये रखने के लिए ज़रूरी है। मध्य-पूर्व में अमरीका और पश्चिमी यूरोप की साम्राज्यवादी धुरी को तेल सरीखे रणनीतिक माल पर एकाधिकार हेतु मध्य-पूर्व और अफ़्रीका के रणनीतिक क्षेत्र में जिस सामरिक हस्तक्षेप की ज़रूरत थी उस भूमिका को इज़रायल बख़ूबी निभा रहा है। आज इज़रायल साम्राज्यवादी चौकी के रूप में अमरीकी वित्तीय मदद पर मूलतः निर्भर है परन्तु स्वतन्त्र तौर पर फ़िलिस्तीनी जनता और विदेशी मज़दूरों के सस्ते श्रम पर विशाल मैन्युफैक्चरिंग हब के रूप में भी विकसित हुआ है जहाँ कई विदेशी कम्पनियों का सघन निवेश हो रहा है। चीन को सिलिकॉन चिप के क्षेत्र में पीछे छोड़ने के मक़सद से ‘अमरीका-इज़रायल-ताइवान’ की मैन्युफैक्चरिंग तिकड़ी को अमरीका खड़ा कर रहा है। इज़रायल ने सैन्य उपकरण बेचने के मामले में ख़ुद को विश्व-बाज़ार में स्थापित किया है। इज़रायल ने स्वतन्त्र तौर पर चीन और रूस, अरब जगत व भारत सरीखे देशों यानी साम्राज्यवाद के कनिष्ठ साझीदारों से भी अपने आर्थिक सम्बन्ध स्थापित किये हैं। कुल मिलाकर इज़रायल प्रमुखतः अमरीकी धुरी के हितों और आम तौर पर साम्राज्यवादी हितों की सेवा कर रहा है इसलिए ही इज़रायली नरसंहार पर इन देशों के शासक गान्धारी की तरह आँखों पर पट्टी बाँधे बैठे हैं। यह साम्राज्यवादी हितों के लिए ज़रूरी है जिस वजह से अमरीका बार-बार आइरन क्लेड समर्थन की बात करता है तथा अन्य देश मुखर या मौन समर्थन करते हैं। लेकिन यह भी तय है कि इज़रायली कृत्रिम राज्य की परियोजना ख़ात्मे की ओर आगे बढ़ रही है। मौजूदा नरसंहार और इज़रायल की सैन्य हार इसकी ओर इशारा कर रहे हैं। इज़रायल को ख़त्म होना ही है। इज़रायल की समस्या का कोई ‘टू स्टेट सोल्यूशन’ नहीं हो सकता है। यह बात साम्राज्यवादी भी जानते हैं और ख़ुद इज़रायल के सेटलर भी अन्यथा वे अपनी दोहरी नागरिकता बनाकर नहीं रखते। जॉर्डन नदी से लेकर भूमध्य सागर तक फ़िलिस्तीन मुक्त होगा और दुनिया भर में प्रवासियों की तरह जी रहे फ़िलिस्तीनी अपने मुल्क में लौटेंगे।
प्यारे फ़िलिस्तीन
मैं कैसे जी सकता हूँ
तेरे टीलों और मैदानों से दूर
ख़ून से रँगे
पहाड़ों की तलहटी
मुझे बुला रही है
और क्षितिज पर वह रंग फैल रहा है
हमारे समुद्र तट रो रहे हैं
और मुझे बुला रहे हैं
और हमारा रोना समय के कानों में गूँजता है
भागते हुए झरने मुझे बुला रहे हैं
वे अपने ही देश में परदेसी हो गये हैं
तेरे यतीम शहर मुझे बुला रहे हैं
और तेरे गाँव और गुम्बद
मेरे दोस्त पूछते हैं-
‘क्या हम फिर मिलेंगे?’
‘हम लोग लौटेंगे?’
हाँ, हम लोग उस सजल आत्मा को चूमेंगे
और हमारी जीवन्त इच्छाएँ
हमारे होठों पर हैं कल हम लौटेंगे
और पीढियाँ सुनेंगी हमारे क़दमों की आवाज़
हम लौटेंगे आँधियों के साथ
बिजलियों और उल्काओं के साथ
हम लौटेंगे
अपनी आशा और गीतों के साथ
उठते हुए बाज के साथ
पौ फटने के साथ
जो रेगिस्तानों पर मुस्कराती है
समुद्र की लहरों पर नाचती सुबह के साथ
ख़ून से सने झण्डों के साथ
और चमकती तलवारों के साथ
और लपकते बरछों के साथ
हम लौटेंगे
– अबू सलमा
(फ़िलिस्तीन पर केन्द्रित विशेष खण्ड)
(मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2024)
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