एलओसीएफ़-2021 : उच्च शिक्षा के भगवाकरण और इतिहास के मिथ्याकरण का नया हथियार

आकाश

फ़ासीवाद की प्रमुख विशेषता होती है कि वह बहुसंख्यक आबादी पर अपना आधिपत्य बनाये रखने के लिए मिथकों को सहज बोध बनाकर दकियानूसी संस्कृति का वर्चस्व क़ायम करती है। इस वर्चस्व को बनाये रखने के लिए इतिहास का मिथ्याकरण उनका सबसे बड़ा हथियार होता है। भारत के हिन्दुत्ववादी–संघी फ़ासिस्ट पहले से ही यह कोशिश कर रहे हैं, मगर 2014 में मोदी के सत्ता में आने के बाद यह काम बहुत व्यवस्थित तरीके से सांस्थानिक स्तर पर किया जा रहा है। सत्ता में आते ही सरकार ने तमाम शैक्षणिक और अकादमिक संस्थानों के उच्च पदों पर संघ के लोगों को भरना शुरू कर दिया था। 2014 में ही आरएसएस ने ‘भारतीय शिक्षा नीति आयोग’ बनाया जिसका मक़सद ही शिक्षा का भगवाकरण करना था। इसके बाद संस्थागत तरीके से स्कूली पाठ्यक्रमों की किताबों में साम्प्रदायिक सामग्री परोसकर और इतिहास के विकृतीकरण के ज़रिये हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्टों द्वारा हमारे बच्चों में साम्प्रदायिक ज़हर भरने की कोशिश जारी है। ‘इण्डियन एक्सप्रेस’ की एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2014 से 18 के बीच नेशनल काउंसिल ऑफ एजुकेशन रिसर्च एण्ड ट्रेनिंग (एनसीईआरटी) की स्कूली टेक्स्ट की 182 किताबों में से 1334 बदलाव किये जा चुके थे।
उच्च शिक्षा के स्तर पर भी इतिहास का विकृतीकरण किया जा रहा है। नई शिक्षा नीति के द्वारा पहले ही उच्च शिक्षा को भगवा रंग से रंगने का रास्ता खोलने के बाद अब यूजीसी द्वारा विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में नये बदलाव किये गये हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा स्नातक के लिए बनाये गये नए पाठ्यक्रम ‘लर्निंग आउटकम्स बेस्ड करिकुलम फ्रेमवर्क (एलओसीएफ़) प्रोग्राम 2021’ नाम दिया गया है। देशभर में तमाम विश्वविद्यालयों को इसी पाठ्यक्रम को पढ़ाना होगा। इस पाठ्यक्रम द्वारा संघ के वैचारिक कारखाने से ‘इतिहास’ को ‘मिथ्या’ और ‘मिथ्या’ को ‘इतिहास’ के उत्पादन की व्यवस्था की गयी है। ज़ाहिर है इसका अर्थ यह है कि इसमें साम्प्रदायिकता और अन्धराष्ट्रवाद की जहरीली घोल परोसी जाने वाली है। इसकी झलक प्रस्तावना की पहली ही पंक्ति में मिल जाती है जिसमें इतिहास को ‘राष्ट्र के गौरव को जानने का स्रोत’ बताया गया है। आगे पूरे पाठ्यक्रम में हिन्दुत्व का महिमामण्डन और मुस्लिम कम्युनिटी को टारगेट करने पर भरपूर ज़ोर दिया गया है। इतिहास के तथ्यों को आधे-अधूरे या फिर तोड़- मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया है। संघ और आईटी सेल द्वारा व्हाट्सएप पर प्रचारित किये जा रहे मिथकों को पाठ्यक्रम में घुसा कर इतिहास बदलने की संघी लंगूरों की कोशिशें साफ़़ दिखती है।
प्राचीन भारत के इतिहास को पेपर-III में रखा गया है। इसे ग़ौर से देखने पर साफ़ पता चलता है कि इसमें कई चीज़ें गीता प्रेस की किताबों से सीधी उठा ली गयी हैं। सिन्धु घाटी की सभ्यता को ‘सिन्धु सरस्वती की सभ्यता’ का नाम दिया गया है। इसके पीछे का उद्देश्य हड़प्पा संस्कृति को ज़बरदस्ती वैदिक संस्कृति से जोड़ना है। इसके साथ ही इससे यह तथ्य भी ख़ारिज हो जाता है कि पुरातात्विक प्रमाणों में हड़प्पा संस्कृति और द्रविड़ियन संस्कृति के बीच लिंक (सम्बन्ध) मिलते हैं। साथ ही इस पेपर की दूसरी इकाई में आर्यों के भारत आगमन और आक्रमण को मिथक बताया गया है। साफ़़ ज़ाहिर है इससे भगवा गिरोह आर्यों को यहाँ के मूलनिवासी बताकर मुस्लिमों के ख़िलाफ़़ ज़हर बोना चाहता है। आज पुरातात्विक प्रमाणों से यह साबित हो चुका है कि आर्य 1500 ईसा पूर्व के आसपास उत्तर पश्चिमी पहाड़ियों के रास्ते पहले पंजाब के आसपास के क्षेत्रों में और बाद में गंगा के मैदानी क्षेत्रों में आए।
इसी पेपर में अन्य अध्याय कुछ इस तरह हैं — ‘एपिक लिटरेचर एण्ड कल्चर’, ‘महाजनपद रिपब्लिक एण्ड ग्रोथ ऑफ़ अर्बन सेण्टर्स’ आदि। संघ सालों से यह कोशिश करता रहा है कि रामायण, महाभारत आदि की मिथक कहानियों को इतिहास का हिस्सा बना सके। आज यह वैज्ञानिक ऐतिहासिक तथ्यों को झुठला कर यह काम कर रही है। ‘महाजनपदों’ की बात करें तो सबसे पहली बात यही है कि जिसे संघी बिग्रेड ‘रिपब्लिक’ यानी कि जनतन्त्र कह रहे हैं वह कुलीन तन्त्र था, जहाँ कुछ वंशों को ही राज करने का अधिकार प्राप्त था, बहुत बड़ी आबादी को कोई जनतान्त्रिक अधिकार था ही नहीं। दूसरी बात यह कि महाजनपद का एक हिस्सा जिसे जनतन्त्र के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है असल में उसे ‘गणतन्त्र’ कहा जाता था। अपनी तमाम समस्याओं के बावजूद वह ख़ुद वैदिक रूढ़िवादिता का विरोध करता था जिसे आज भी ब्राह्मणवादी स्थापित करने में लगे हैं।
इसके अलावा जो सबसे ज़रूरी बात प्राचीन भारत के इतिहास से ग़ायब है वह है- वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था एवं उसका उद्गम। यह बात इतिहास का कोई नौसिखिया भी जानता है कि भारत के प्राचीन इतिहास में सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने को समझने के लिए उस समय के वर्ण और जाति व्यवस्था को समझना बहुत ज़रूरी है। जाति का सन्दर्भ मध्यकालीन भारत के इतिहास (पेपर-VII) के चौथी इकाई में आता है। पेपर VII में 1206 ईसवी से 1707 ईसवी तक के इतिहास की बात की गयी है। इससे ऐसा प्रतीत होता है जैसे जाति व्यवस्था कल की ही बात हो।
पेपर-V में ब्राह्मणवादी मूल्यों और साम्प्रदायिकता की और भी बदबूदार चाशनी बनायी गयी है। ‘राजपूतों’ के प्रति ख़ास चिन्ता दिखती है। राजपूतों के उद्भव और पतन पर ख़ास ज़ोर दिया गया है। राजपूतों के पतन के बाद मुस्लिम शासकों के आक्रमण का भारत पर प्रभाव को अगले अध्यायों में शामिल किया गया है। ठीक इसी तरह पेपर-VII में मध्यकालीन भारत के इतिहास को हिन्दू शासकों और मुस्लिम शासकों एवं हिन्दू संस्कृति और मुस्लिम संस्कृति में बाँटा गया है। यहाँ भी राजपूत राज्यों की अलग से चर्चा की गयी है। इसके साथ ही मुगलकालीन इतिहास के बड़े हिस्से को ग़ायब कर दिया गया है। ज़ाहिर है यहाँ सरकार राजपूतों की शान की कसीदे पढ़ कर हिन्दुत्व की श्रेष्ठता और मुस्लिमों के प्रति नफ़रत को आनेवाली पीढ़ियों के दिमाग में स्थापित करना चाहती है।
पेपर-IX में सन् 1707-1857 ईसवी तक के इतिहास को शामिल किया गया है। 1707 वह साल था जब औरंगजेब की मृत्यु हुई थी। कहने की ज़रूरत नहीं कि भारतीय जनता पार्टी के नेताओं द्वारा औरंगजेब को लेकर बार-बार ऐतिहासिक तथ्यों को झुठलाने की कोशिश की जाती है। इतिहास के अध्ययन और अध्यापन में कालखण्डों के बँटवारे का भी बहुत महत्त्व होता है। वैसे तो पहले के भी कोर्स में कालखण्डों के बँटवारे, ऐतिहासिक परिघटनाओं और उनके कार्य-कारण सम्बन्धों को बहुत सही तरीके से नहीं रखा गया था, मगर इस बार मनोगत तौर से पेश किया गया है। मिसाल के लिए 1757 की प्लासी का युद्ध एक प्रमुख परिघटना मानी जा सकती है, जिसके बाद यहाँ अंग्रेज़ों का उभार होता है और भारत का इतिहास एक नये दौर में प्रवेश करता है। जबकि इस पाठ्यक्रम में इसे उपरोक्त कालखण्ड के बीच में रखा गया है।
पेपर-X में 1857 से 1947 तक के भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को जगह दी गयी है। यह एक ऐसा कालखण्ड है जिसके तथ्यों और साक्ष्यों से भगवा बिग्रेड सबसे ज़्यादा डरती है। इसका कारण यह है कि इसी कालखण्ड में संघ और इनके गुरुओं ने देश के साथ ग़द्दारी करते हुए क्रान्तिकारियों की मुखबिरी की थी और अंग्रेज़ों को माफ़ीनामे लिखे थे। संघ की फ़ासिस्ट विचारधारा का जन्म भी इसी कालखण्ड में हुआ था। यही कारण है कि इस पेपर में ‘राष्ट्रवाद’ पर बहुत ज़ोर दिया गया है। इसके साथ ही इसी कालखण्ड में घटित कई घटनाओं का ज़िक्र तक नहीं है। चापेकर बन्धुओं से लेकर भगत सिंह की क्रान्तिकारी धारा और इसके वैचारिक विकास का समय भारत के क्रान्तिकारी आन्दोलन में एक ज़रूरी स्थान रखता है। क्रान्तिकारी आन्दोलन, भगत सिंह का ट्रायल और वाम उभार को एक ही शीर्षक में समेट दिया गया है।
ठीक इसी प्रकार पेपर-XI आज़ादी के बाद के भारत की बात करता है। लेकिन इसमें आज़ादी के तुरन्त बाद की और अब तक की सबसे बड़ी त्रासदी 1947-48 के साम्प्रदायिक दंगे और उसके इतिहास का कोई ज़िक्र तक नहीं है। साथ ही धर्म निरपेक्षता पर कोई अध्याय नहीं है। जबकि एक अध्याय में भारत की परिभाषा ‘एक शाश्वत राष्ट्र’ के रूप में स्थापित की गयी है। अगले पेपर में भारत की सांस्कृतिक विरासत के नाम पर त्योहारों के धार्मिक पहचान पर ज़ोर दिया गया है। साफ़ है सरकार संघ के एजेण्डे को लागू करना चाहती है।
पूरे पाठ्यक्रम में यूजीसी द्वारा जो किताबों की सूची दी गयी है ऐसा लगता है जैसे ज़्यादातर किताबें संघ के दफ़्तर से निकलकर आयीं हो। डी डी कोसम्बी, आर एस शर्मा, डी एन झा, इरफ़ान हबीब आदि जैसे देश के जाने माने इतिहासकारों का नाम इस सूची से ग़ायब है। साफ़ है मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से तमाम संस्थानों का बहुत तेजी से भगवाकरण किया जा रहा है। यूजीसी द्वारा बनाया गया नया पाठ्यक्रम इसी कड़ी में एक और क़दम है। फ़ासीवाद का यह गुण ही होता है कि यह आधुनिकता को नकारकर छद्म इतिहास का महिमा मण्डन कर इसे स्थापित करने की कोशिश करता है। इसका इस्तेमाल अल्पसंख्यकों को नकली दुश्मन बनाकर बहुसंख्यक आबादी के सामने वर्तमान बुरी परिस्थितियों का ज़िम्मेदार के रूप में पेश करना है। आज यही काम संघी फ़ासीवादी लगातार कर रहे हैं।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अक्टूबर 2021

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