भारत छोड़ो आन्दोलन की 79वीं बरसी : एक विश्लेषण

वारुणी

भारत छोड़ो आन्दोलन का पूरे स्वतन्त्रता संग्राम में एक अलग महत्व है। यह एक ऐतिहासिक जन आन्दोलन के रूप में उभरा था। आज़ादी के अन्य सभी आन्दोलनों की तुलना में इस आन्दोलन में आम मेहनतकश जनता की सबसे ज़्यादा भागीदारी थी। क़रीब 40 प्रतिशत मज़दूरों और किसानों ने इस आन्दोलन में हिस्सेदारी की और यह आन्दोलन सिर्फ़ शहरों तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि गाँव-गाँव में फ़ैल गया। भारत छोड़ो आन्दोलन की व्यापकता और जुझारूपन तथा अंग्रेज़ी हुक़ूमत पर इसके प्रभाव को हम तत्कालीन वायसराय लिनलिथगो के उस वक्तव्य से जान सकते हैं,जो उन्होंने ब्रिटिश प्रधानमन्त्री चर्चिल को भेजे पत्र में लिखा था- “यह 1857 के बाद का सबसे गम्भीर विद्रोह है, जिसकी गम्भीरता और विस्तार को हम अब तक सैन्य सुरक्षा की दृष्टि से छुपाये हुए हैं।” इस आन्दोलन में औपनिवेशिक ग़ुलामी से मुक्ति के लिए छटपटाती भारतीय जनता ने अपने साहस व बलिदान की एक मिसाल क़ायम की, जिसने ब्रिटिश साम्राज्य का अन्त सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
ब्रिटिश सत्ता के ख़िलाफ़ जनता का असन्तोष द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत तक इतना बढ़ चुका था कि अगर महात्मा गाँधी ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ का आह्वान न करते तो सामाजिक विस्फ़ोट की जो स्थिति पैदा होने की सम्भावना थी, उसमें कांग्रेस द्वारा बुर्ज़ुआ वर्ग के हितों के प्रतिकूल जनान्दोलन विनियमन की सीमाओं का अतिक्रमण कर जाता। इस पूरी अवस्थिति को समग्रता में समझने के लिए हमें इतिहास में थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा कि किस प्रकार दो विश्व युद्धों के दौरान भारतीय पूँजीपति वर्ग अपनी शक्ति लगातार बढ़ाता गया और राजनीतिक आत्मविश्वास को हासिल करता गया। डोमिनियन स्टेटस से लेकर पूर्ण स्वराज, असहयोग आन्दोलन और नमक सत्याग्रह से भारत छोड़ो आन्दोलन तक की यात्रा पूँजीपति वर्ग की शक्ति व पूँजी संचय के बढ़ते जाने का परिणाम है। भारतीय बुर्ज़ुआ वर्ग को अपने वर्ग हितों के मद्देनज़र कई मौकों पर समझौता करने की ज़रूरत हुई और अपनी शक्ति अनुसार कई मौक़ों पर दबाव बनाने की। गाँधी के नेतृत्व में बुर्ज़ुआ वर्ग की पार्टी कांग्रेस ने जब ज़रूरत हुई तब ब्रिटिश उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ जनता को उद्वेलित भी किया और जब आन्दोलन का नेतृत्व अपने हाथों से फिसल जाने की सम्भावना हुई तो उसे वापस लेने या आन्दोलन को नियन्त्रित करने का भी काम किया। भारत छोड़ो आन्दोलन भी एक ऐसे समय शुरू किया गया जब रूस द्वारा हिटलर की सेना को पीछे धकेलने की शुरुआत हुई। भारतीय बुर्ज़ुआ वर्ग के कुशलतम राजनीतिक प्रतिनिधि और रणनीति-निर्माता गाँधी समझ चुके थे कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद पर जनान्दोलन का दबाव बनाकर अधिकतम सम्भव हासिल करने का अनुकूलतम समय आ चुका है।
युद्ध की शुरुआत से पहले ब्रिटेन स्पष्ट रूप से फ़ासिस्टों की पीठ थपथपा रहा था और जर्मनी को सोवियत संघ के ख़िलाफ़ उकसा रहा था। एक ऐसे वक़्त में ब्रिटिश विरोधी पक्ष और फ़ासीवाद विरोधी पक्ष लेने में कोई अन्तरविरोध मौजूद नहीं था। कांग्रेस ने भी फ़ासीवादी आक्रमण की भर्त्सना की लेकिन उसके बावजूद भी कांग्रेस 1938 तक मन्त्रिमण्डलों में शामिल थी। कांग्रेस के इस शासनकाल में जिस प्रकार किसानों-मज़दूरों का दमन किया गया और आम जन का उसका अलगाव साफ़ दिख रहा था, यदि उस समय भारत की कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा कांग्रेस का पर्दाफ़ाश किया गया होता तो सम्भवतः आज तस्वीर दूसरी होती। लेकिन पहले मिले अन्य मौकों की तरह भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ये मौका भी चूक गयी। आगे सितम्बर 1939 में जब युद्ध की शुरुआत हुई तब मजबूरन कांग्रेसी नेताओं को मन्त्रिमण्डलों से त्यागपत्र देना पड़ा। वरना जिस प्रकार वायसराय ने प्रान्तीय मन्त्रिमण्डलों या किसी भी नेता से बिना कोई विमर्श किये भारत को जर्मनी के विरुद्ध ब्रिटेन के युद्ध में घसीट लिया था, ऐसे में युद्ध विरोधी कांग्रेसी प्रदर्शनकारियों व आम जन के ख़िलाफ़ कांग्रेस मन्त्रिमण्डलों को आपातकालीन शक्तियों का प्रयोग करना पड़ता! शुरू में युद्ध की ऐसी परिस्थिति थी कि ब्रिटेन को कांग्रेस के सहयोग की ज़रूरत नहीं पड़ती और इसलिए ही लिनलिथगो ने कांग्रेस द्वारा प्रस्तावित न्यूनतम शर्तों पर पूर्ण सहयोग के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। कांग्रेस ने युद्ध के पश्चात संविधान सभा बुलाने का वादा और केन्द्र में एक उत्तरदायी सरकार जैसी किसी चीज़ के गठन का प्रस्ताव रखा था। लेकिन लिनलिथगो डोमिनियन स्टेटस सम्बन्धी पुरानी पेशकश तक ही सीमित रहा। ज्ञात हो युद्ध की घोषणा के दिन ही नागरिक आज़ादी को सीमित करने वाला ‘भारत रक्षा अध्यादेश’ लागू कर दिया गया था। इस दौरान कांग्रेस समझौते का प्रयास करती रही। नेहरु का कहना यह था कि बिना शर्त ब्रिटेन का युद्ध में समर्थन करने के लिए जनता तैयार नहीं होगी। तात्पर्य यह है कि कांग्रेस अन्त तक बातचीत जारी रखे हुए थी ताकि किसी तरह समझौता हो जाये। युद्ध जैसे आगे बढ़ा अगस्त 1940 में ब्रिटेन को यह ज़रूरत महसूस हुई कि भारत का इसमें समर्थन चाहिए होगा और ठीक इसलिए ही लिनलिथगो कुछ रियायतें देने के लिए मान गये थे। लेकिन मई 1940 में ही बनी ब्रिटेन की मिली जुली राष्ट्रीय सरकार के प्रमुख चर्चिल ने उनके प्रस्तावों में अड़ंगा डाल दिया। नतीजतन लिनलिथगो का ‘अगस्त प्रस्ताव’ भी कुछ ख़ास नयी चीज़ नहीं लेकर आया, इसमें सिर्फ़ भविष्य में डोमिनियन स्टेटस और युद्ध पश्चात संविधान बनाने के लिए एक निकाय के गठन की बात की गयी थी लेकिन इसके लिए भी ब्रिटिश पार्लियामेण्ट की अनुमति आवश्यक थी। गाँधी बार-बार इसी प्रयास में रहे कि किसी तरह समझौता हो जाये। कांग्रेस के भीतर का “वामपन्थी” धड़ा और आम जन के दवाब को देखते हुए गाँधी ने ‘अगस्त प्रस्ताव’ से निराश होकर आन्दोलन करने की अनुमति तो दे दी लेकिन यह आन्दोलन जान बूझकर सीमित और प्रभावहीन रखा गया। मार्च 1940 में सविनय अवज्ञा आन्दोलन छेड़ने की बात की गयी थी, लेकिन इस आन्दोलन में सिर्फ़ युद्ध विरोधी बातें कहने के अधिकार को एकमात्र मुद्दा बनाया गया। जून 1941 में आन्दोलन शिखर पर पहुँचा, जिसमें क़रीब 20,000 लोग जेल जा चुके थे। लेकिन उसके बाद आन्दोलन बिखरने लगा। यह कमज़ोर और प्रभावहीन आन्दोलन जानबूझ कर बनाये रखा गया क्योंकि गाँधी को बख़ूबी पता था कि यदि आन्दोलन को और आम जन के गुस्से को खुली छूट दे दिया जाये तो हो सकता है कि आन्दोलन कांग्रेस के नेतृत्व से बाहर निकल जाये। और तब तक भारत की कम्युनिस्ट पार्टी भी राष्ट्रीय आन्दोलन को मुख्य अन्तरविरोध मान रही थी जो कि नाज़ी-सोवियत सन्धि के पश्चात कोमिण्टर्न की नीति थी। कम्युनिस्ट एक ताकत के तौर पर आज़ादी के आन्दोलन में सक्रिय थे और कम्युनिस्ट पार्टी देश में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी थी। जनवरी 1941 में बिड़ला के साथ बातचीत में गाँधी ने कहा था कि वे आन्दोलन से ज़्यादा परेशानी नहीं उत्पन्न करना चाहते और साथ ही उन्होंने युवाओं की मानसिकता पर चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा था कि “…..दुर्भाग्य से हमारे युवा कम्युनिज़्म की ओर आकर्षित होते हैं” (ठाकुरदास पेपर्स, फा.न. 177)। इससे यह साफ़ अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि किस प्रकार गाँधी बुर्ज़ुआ वर्ग के एक परोकार के रूप में हर दाँव-पेंच सही रूप में इस्तेमाल कर रहे थे। जब तक कम्युनिस्ट पार्टी की नीति नहीं बदली तब तक गाँधी राष्ट्रीय आन्दोलन को तीव्र करने के पक्ष में नहीं थे, क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं रूस जैसी परिस्थिति यहाँ ना पैदा हो जाये। दूसरी तरफ़ श्रमिक असन्तोष को महँगाई भत्ते में बढ़ोतरी करके और वेज गुड्स की कीमतें कम कर के नियन्त्रण में रखा गया था। युद्ध जब तक भारत के नज़दीक नहीं आया था यानी जब तक सम्पत्ति के नष्ट होने का ख़तरा नहीं था तब तक व्यापारियों और दुकानदारों के लिए लाभ कमा लेने का यह अच्छा मौका था। कांग्रेस पर इन बड़े व्यापारियों का दवाब भी था कि युद्ध की इस स्थिति में अंग्रेज़ों से लकड़ी, कोयला व अन्य वस्तुओं की आपूर्ति में जितने ठेके हासिल किये जा सकते हैं, वह उन्हें हासिल करे और लाभ कमाने का यह मौका नहीं छोड़े। युद्धकालीन परिस्थिति में आयात बन्द होने से भारतीय उद्योग को भी विकास करने का मौका मिला। यह परिस्थिति युद्ध के शुरुआती काल में बनी रही और इसी के अनुसार पूँजीपति वर्ग की पार्टी कांग्रेस ने अपनी नीतियाँ तय की।
जब तक दक्षिण पूर्वी एशिया के संकट का दवाब नहीं बढ़ा तब तक ब्रिटिश सरकार शान्त बैठी रही। युद्ध के नये चरण में परिस्थितियाँ बिलकुल बदल गयीं। विश्वयुद्ध की दो घटनाओं ने भारत की स्थिति को अचानक से बदल दिया। बदली परिस्थिति के अनुसार अंग्रेज़ सरकार की नीतियाँ भी बदली और कांग्रेस व कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों में भी परिवर्तन आया। पहली घटना थी 1941 के अन्तिम महीनों में सोवियत रूस पर हिटलर की सेना का आक्रमण और दूसरी घटना दक्षिण पूर्वी एशिया में जापान का आक्रमण जिसने चार महीनों में ही अंग्रेज़ों को मलाया, बर्मा और सिंगापुर से खदेड़ दिया, जिससे अंग्रेज़ों को अपने साम्राज्य के नष्ट होने का ख़तरा महसूस होने लगा था। अन्ततः 1942 के मार्च में जब अण्डमान द्वीप समूह पर कब्ज़ा कर लिया गया, तब अंग्रेज़ सरकार को यह अहसास हुआ कि भारतीय जनता को अपने पक्ष में करने के लिए कोई सद्भावनापूर्ण क़दम उठाना पड़ेगा और मार्च-अप्रैल में क्रिप्स मिशन को भेजा गया। भारतीय नेताओं से समझौते की बात करने क्रिप्स भारत आये लेकिन वार्ता में लिनलिथगो को यह लग रहा था कि क्रिप्स कांग्रेस को कुछ अधिक ही शक्तियाँ प्रदान कर रहे हैं और अन्तिम क्षण में लिनलिथगो चर्चिल के साथ मिलकर समझौते में बाधा डाल देते हैं। वे क्रिप्स की निन्दा करते हैं कि उनको राष्ट्रीय सरकार बनाने का हवाला देने की क्या ज़रूरत थी व उनको सारी बातचीत को पुनः मन्त्रिमण्डल योजना पर लाने को कहा जाता है। इस पूरी बातचीत में नेहरु मौजूद रहते हैं और वे पूरी कोशिश करते हैं अन्त तक कि किसी तरह से समझौता हो जाये। परन्तु राष्ट्रीय सरकार बनाने व संविधान सभा बुलाने के अपने पुराने वायदे को नहीं निभाते हुए क्रिप्स मिशन असफल होता है। क्रिप्स मिशन के असफल होने के बाद कांग्रेस की वर्किंग समिति के अधिवेशन में गाँधी ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आन्दोलन छेड़ने और पूरी आज़ादी की माँग को उठाने के लिए ज़ोर दिया। “भारत छोड़ो” प्रस्ताव को सहमति मिल गयी। कांग्रेस का पूरा दक्षिणपन्थी धड़ा इसके समर्थन में था। केवल कम्युनिस्ट इसके विरोध में थे।
अगस्त 1942 में पूरे देश की आम जनता की मनःस्थिति को गाँधी ने कम्युनिस्टों की अपेक्षा बेहतर समझा था। एक तरफ़ मलाया, बर्मा व सिंगापुर से पीछे हटने के दौरान अंग्रेज़ों ने यातायात के सभी साधनों को अपने अधिकार में कर लिया और वहाँ मौजूद भारतीय प्रवासी मज़दूरों को उनके हाल पर छोड़ दिया। बाद में इन प्रवासियों को कई कठिनाईयों से जूझते हुए वापस लौटना पड़ा और इनके बीच अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ एक रोष उत्पन्न हो रहा था। दक्षिण पूर्वी एशिया में भेजे जाने वाले अधिकतर प्रवासी मज़दूर संयुक्त प्रान्त और उत्तरी बिहार से आते थे, इसलिए ही बिहार में ‘अगस्त का विद्रोह’ सबसे उग्र व विस्तृत था। विदेशों से और ख़ास कर बर्मा के मोर्चे से घायल लौटने वाले भारतीय सिपाहियों को देखकर आम जन में उस युद्ध के प्रति रोष बढ़ता गया। नस्ल भेद आधारित दुर्व्यवहार बढ़ते जा रहे थे, इसके अलावा खाद्यान मूल्यों में भी वृद्धि हो रही थी। विशेष रूप से चावल और नमक की कमी हो गयी थी। खाद्यानों की कीमतों के बढ़ने के कारण और देश में मित्र देशों की सेनाओं के विशाल जमाव को देखते हुए आम जन में यह भाव बैठ गया था कि देश के खाद्यान भण्डार को सेना चट कर जा रही है। दूसरी तरफ़ बड़े व्यापारी वर्ग को भी युद्ध के नज़दीक पहुँचने के कारण सम्पत्ति नष्ट होने और व्यापार के तबाह होने का ख़तरा महसूस हो रहा था। अब भारतीय व्यापारी वर्ग अपनी सम्पत्ति को सम्भावित जापानी आक्रमण से बचाने के लिए तत्पर था और इसलिए एक ऐसे आन्दोलन को समर्थन देने को तैयार था जो अंग्रेज़ों को निकाल बाहर करता। हिटलर का सोवियत रूस पर आक्रमण के बाद भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने जनवरी 1942 में ही फ़ासीवाद विरोधी “जनयुद्ध” को समर्थन देने का फैसला कर लिया था। हालाँकि वे भी राष्ट्रीय सरकार के गठन की बात कर रहे थे लेकिन यह युद्ध में ब्रिटेन का समर्थन करने की कोई शर्त के बतौर नहीं रखे थे। मतलब साफ़ था कि वे बिना शर्त ब्रिटेन का समर्थन करते और राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन को तेज़ करने के पक्ष में उस दौरान नहीं होते। गाँधी ने इस पूरी परिस्थिति का फ़ायदा उठाया और 8 अगस्त 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अधिवेशन में “भारत छोड़ो आन्दोलन” का प्रस्ताव रखा जिसमें यह कहा गया कि अहिंसक रूप से जितना सम्भव हो उतने बड़े स्तर पर जन संघर्ष का आह्वान किया जायेगा। गाँधी ने यहीं अपने वक्तव्य में ‘करो या मरो’ का नारा दिया और यह भी कहा कि यदि आम हड़ताल करना आवश्यक होगा तो उससे भी पीछे नहीं हटेंगे। गाँधी पहली बार अपने राजनीतिक जीवन में राजनीतिक हड़ताल का समर्थन करने के लिए तैयार हुए थे और यह भी इसलिए क्योंकि कम्युनिस्टों का उससे अलग रहना निश्चित था।

कम्युनिस्ट पार्टी की ऐतिहासिक भूल और उसके कारण

भारत का कम्युनिस्ट आन्दोलन विचारधारा की दृष्टि से हमेशा ही कमज़ोर रहा और यहाँ का नेतृत्व कभी अपने देश की परिस्थितियों की स्वतन्त्र रूप से जाँच पड़ताल व अध्ययन कर अपनी नीतियाँ नहीं तय की बल्कि हमेशा अन्तरराष्ट्रीय नेतृत्व से मिली आम लाइन को बिना सोचे समझे अपने देश पर लागू करते गये। इसी का परिणाम था कि आज़ादी के आन्दोलन में कई बार ऐसे मौके आये जब उसका नेतृत्व कम्युनिस्ट पार्टी अपने हाथों में ले सकती थी परन्तु ऐसा नहीं हुआ। सबसे पहली ग़लती थी यह सोचना कि राष्ट्रीय आन्दोलन को सिर्फ़ बुर्ज़ुआ वर्ग की पार्टी नेतृत्व दे सकती है और मज़दूर वर्ग को बस उसका समर्थन करना चाहिए। पार्टी के महासचिव पी. सी. जोशी ने पार्टी के मुखपत्र में अप्रैल 1939 में कहा था कि ‘आज का सबसे बड़ा संघर्ष राष्ट्रीय संघर्ष है’ जिसका प्रमुख हथियार कांग्रेस है और इसलिए कांग्रेस किसान एकता को बनाये रखना जरुरी है। पी.सी.जोशी के इस दक्षिणपन्थी भटकाव ने पार्टी को भारी क्षति पहुँचाई। यही कारण था कि कम्युनिस्ट पार्टी ने 1937 में गठित कांग्रेस मन्त्रिमण्डल के शासन के दौरान हो रहे दमन और अत्याचार को आम जन के बीच मुद्दा नहीं बनाया। एक ऐसा वक़्त आया था जब कांग्रेस की कारगुजारियों के कारण आम जनता की कांग्रेस से दूरी बढ़ती जा रही थी लेकिन इस मौके का भी फ़ायदा कम्युनिस्ट पार्टी ने नहीं उठाया।
इसके बाद 1940 के लिनलिथगो के अगस्त प्रस्ताव में भी जब संविधान सभा के गठन और राष्ट्रीय सरकार बनाने को लेकर कोई बात नहीं की गयी, तब भी कांग्रेस ने आम कार्यकर्ता व कांग्रेस के अन्दर के ‘वामपन्थी’ धड़े के दबाव के कारण असहयोग आन्दोलन की शुरुआत तो की लेकिन गाँधी ने जानबूझ कर इस आन्दोलन को सीमित रखा और आन्दोलन का मुख्य मुद्दा सिर्फ़ युद्ध के ख़िलाफ़ बोलने की स्वतन्त्रता पर ही केन्द्रित रखा। बिना भारतीय नेताओं से बातचीत किये भारत को युद्ध में झोंक देने से आम जन में भी रोष था और तब तक सोवियत-जर्मनी सन्धि क़ायम थी, कम्युनिस्ट पार्टी के सामने एक बार फिर यह अवसर था कि वह कांग्रेस के बुर्ज़ुआ नेतृत्व की इस कमज़ोरी का लाभ उठाती और राजनीतिक आज़ादी और संविधान सभा की माँग को केन्द्रीय नारा बनाकर देशव्यापी संघर्ष छेड़ देती। आम जन के सामने कांग्रेस के विदेशी पूँजी से समझौते करने की नीति का भी पर्दाफाश किया जा सकता था लेकिन इस मौके को भी कम्युनिस्ट पार्टी चूक गयी। इस वक़्त तक कम्युनिस्ट पार्टी का युद्ध विरोधी दृष्टिकोण एक़दम साफ़ था और वे ब्रिटेन के ख़िलाफ़ राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन के भी पक्ष में थे। यह नीति कोमिण्टर्न की नीति के अनुसार तय की गयी थी।
पार्टी नेतृत्व की विचारधारात्मक-राजनीतिक व सांगठनिक कमज़ोरी ही वह कारण था कि राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन पर कम्युनिस्ट धारा अपना राजनीतिक वर्चस्व नहीं क़ायम कर सकी। इन ऐतिहासिक भूलों के लिए मुख्य रूप से कम्युनिस्ट आन्दोलन की विचारधारात्मक कमज़ोरी ही कारण थी। भारत की ठोस परिस्थितियों का मूल्यांकन व अध्ययन कर पार्टी की नीति तय करने की बजाय पार्टी नेतृत्व हमेशा ही अन्तरराष्ट्रीय नेतृत्व और बड़ी एवं अनुभवी बिरादर पार्टियों का मुँह जोहती रही। दूसरा मुख्य कारण था पार्टी का लम्बे समय तक एक ग़ैर बोल्शेविक ढाँचे के रूप में काम करना व कार्यकर्ताओं को कोई बोल्शेविक ट्रेनिंग नहीं मिलना। इसी का नतीजा था कि जब युद्ध के दूसरे चरण में 22 जून 1941 को सोवियत रूस पर हिटलर की सेना का आक्रमण हुआ तब 6 महीने की बहस के बाद जनवरी 1942 में कम्युनिस्ट पार्टी ने फ़ासीवाद विरोधी “जनयुद्ध” के समर्थन का आह्वान किया। कम्युनिस्ट पार्टी के अनुसार मित्र राष्ट्रों में ब्रिटेन उस समाजवादी देश का मित्र था और पार्टी फ़ासीवाद विरोधी मोर्चे को कमज़ोर नहीं करना चाहती थी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने विश्व स्तर पर प्रधान अन्तरविरोध को राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रधान अन्तरविरोध मान लिया था। विश्व स्तर पर मित्र राष्ट्रों का सोवियत संघ के साथ मोर्चा बनाना (धुरी राष्ट्रों के विरुद्ध) ब्रिटेन व सभी पश्चिम साम्राज्यवादियों की मजबूरी थी। आज यह स्थापित हो चुका है कि ब्रिटेन व उसके साम्राज्यवादी मित्रों की यह नीति थी कि समाजवाद के गढ़ को ढहाकर, फ़ासिस्ट शक्तियों को पराजित किया जाये। युद्धकालीन प्रधानमन्त्री चर्चिल का कहना था कि ‘‘अगर हिटलर जीत की तरफ़ बढ़ेगा तो हम सोवियत संघ का साथ देंगे और यदि सोवियत संघ जीत की ओर बढ़ेगा तो हम हिटलर का साथ देंगे।’’ हिटलर की 200 डिवीजनों का मुकाबला अकेले रूस कर रहा था लेकिन बार-बार कहने के बावजूद तीसरा मोर्चा बहुत देर से खोला गया, जब हिटलर की हार सुनिश्चित हो चुकी थी। यदि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी को सोवियत संघ की मदद भी करनी थी तो वह इसी रूप में की जा सकती थी कि पार्टी राष्ट्रीय स्वाधीनता व संविधान सभा के लिए राष्ट्रव्यापी संघर्ष का दबाव बनाती और राष्ट्रीय आन्दोलन के कांग्रेसी नेतृत्व के सामने प्रभावी चुनौती प्रस्तुत करने के साथ ही ब्रिटेन पर पश्चिम में भी युद्ध का मोर्चा खोलने का दबाव बनाती।
पूरे स्वतन्त्रता आन्दोलन में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में लड़ी गयी लड़ाईयों और कुर्बानियों से सभी परिचित हैं। 1942 के वक़्त भी कम्युनिस्ट पार्टी ने राष्ट्रीय सरकार के गठन व पूर्ण स्वतन्त्रता की बात उठायी थी लेकिन ये माँगें युद्ध का समर्थन करने की अनिवार्य शर्तें नहीं मानी गयी थी! नेतृत्व की ग़लत विचारधारात्मक समझ के कारण भारत छोड़ो आन्दोलन में कम्युनिस्ट पार्टी ने भागीदारी नहीं की और यह एक ऐतिहासिक भूल थी। इन ग़लतियों ने भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन को गम्भीर धक्का पहुँचाया और ज़मीनी स्तर पर मज़दूरों-किसानों के जुझारू संघर्षों और उनमें अपनी गहरी साख के बावजूद राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व कांग्रेस के हाथों से छीनने के मामले में कम्युनिस्ट पार्टी पीछे छूट गयी तथा पार्श्वभूमि में धकेल दी गयी।

“देशभक्त” संघ परिवार का ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में ग़द्दारी भरा इतिहास

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा आज पूरे देश में जिस प्रकार “देशभक्ति” का राग अलाप रहे हैं और सबको देशभक्ति का प्रमाणपत्र बाँटता फिर रहा है, उसकी देशभक्ति की सच्चाई यह है कि 1925 में अपनी स्थापना से लेकर 1947 तक संघ ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ चूँ तक नहीं की! उलटे संघ के संस्थापक हेडगेवार, दूसरे सर संघचालक गोलवलकर और “वीर” सावरकर ने ख़ुद को तो आज़ादी के आन्दोलन से दूर रखा परन्तु अन्य कार्यकर्ताओं व आम लोगों की स्वतन्त्रता आन्दोलन में भागीदारी करने की चाहत को हतोत्साहित किया! वैसे तो संघ ने पूरे स्वतन्त्रता आन्दोलन से अलग रहने की नीति तय की थी। अन्त के भारत छोड़ो आन्दोलन के समय भी गोलवलकर (संघ संचालक) ने यही रुख क़ायम रखा: “1942 में भी अनेकों के मन में तीव्र आन्दोलन था। उस समय भी संघ का नित्य कार्य चलता रहा। प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ न करने का संकल्प किया। परन्तु संघ के स्वयंसेवकों के मन में उथल-पुथल चल ही रही थी। संघ अकर्मण्य लोगों की संस्था है, इनकी बातों में कुछ अर्थ नहीं, ऐसा केवल बाहर के लोगों ने ही नहीं, कई अपने स्वयंसेवकों ने भी कहा। वे बड़े रुष्ट भी हुए।” (‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खण्ड-4, पृष्ठ 40, भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981)
जब देश की जनता का देशप्रेम, आज़ादी के संघर्ष में अपना सबकुछ बलिदान करने की तीव्र इच्छा थी। लोग ग़ुलामी की ज़ंजीरों को तोड़कर आज़ाद होने के लिए लड़ रहे थे तो ‘संघ ने कुछ न करने का संकल्प किया’। असल में अंग्रेज़ भक्ति ही उनकी देशभक्ति थी। 9 मार्च 1960 को इन्दौर, मध्यप्रदेश में आरएसएस के कार्यकर्ताओं की एक बैठक को सम्बोधित करते हुए गोलवलकर ने कहा था : “नित्यकर्म में सदैव संलग्न रहने के विचार की आवश्यकता का और भी एक कारण है। समय-समय पर देश में उत्पन्न परिस्थितियों के कारण मन में बहुत उथल-पुथल होती ही रहती है। सन् 1942 में ऐसी उथल-पुथल हुई थी। उसके पहले सन् 1930-31 में भी आन्दोलन हुआ था। उस समय कई लोग डॉक्टर जी (हेडगेवार) के पास गये थे। इस ‘शिष्टमण्डल’ ने डॉक्टर जी से अनुरोध किया कि इस आन्दोलन से स्वातन्त्र्य मिल जायेगा और संघ को पीछे नहीं रहना चाहिए। उस समय एक सज्जन ने जब डॉक्टर जी से कहा कि वे जेल जाने के लिए तैयार हैं, तो डॉक्टर जी ने कहा – “ज़रूर जाओ। लेकिन पीछे आपके परिवार को कौन चलायेगा?’’ उस सज्जन ने बताया- ‘दो साल तक केवल परिवार चलाने के लिए ही नहीं तो आवश्यकता अनुसार जुर्माना भरने की भी पर्याप्त व्यवस्था उन्होंने कर रखी है।’ तो डॉक्टर जी ने कहा, ‘आपने पूरी व्यवस्था कर रखी है तो अब दो साल के लिए संघ का ही कार्य करने के लिए निकलो।’ घर जाने के बाद वह सज्जन न जेल गये न संघ का कार्य करने के लिए बाहर निकले।’’ (श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खण्ड-4, पृष्ठ 39-40, भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981)
आरएसएस के संस्थापक हेडगेवार, गोलवलकर या ‘हिन्दुत्व’ के प्रचारक सावरकर या इस गिरोह का कोई भी नेता अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आज़ादी की लड़ाई में ख़ुद तो भाग नहीं लिया परन्तु आम भारतीय को भी जो इनके सम्पर्क में थे, अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश की कि वह अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ स्वतन्त्रता आन्दोलन में शरीक न हो। गोलवलकर अंग्रेज़ शासकों को विजेता मानते थे और उनकी दृष्टि में विजेताओं का विरोध न करके उनके साथ अपनापन रखना चाहिए। एक जगह गोलवलकर ने यह तक कहा था कि अंग्रेज़ हमारे दुश्मन नहीं हैं, बल्कि मुस्लिम और इसाई हमारे दुश्मन हैं और हमें उनके ख़िलाफ़ संगठित होना होगा! आज हमें अपने इतिहास से इसलिए भी परिचित होने की ज़रूरत है ताकि हम देश की आज़ादी के आन्दोलन के ग़द्दारों को पहचान सकें। इसके साथ ही हमें यह भी जानना चाहिए कि साम्प्रदायिक धारा की दूसरी प्रतिनिधि ‘मुस्लिम लीग’ भी अन्त तक ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में तटस्थता की नीति अपनाये रही और भारत छोड़ो आन्दोलन में शिरकत नहीं किया। आज जिस प्रकार संघ परिवार अपनी ग़द्दारी को छुपाने के लिए इतिहास का मिथ्याकरण कर रही है, ऐसे में हमारे लिए यह और ज़रूरी बन जाता है कि हम अपने देश के इतिहास की सटीक व सम्पूर्ण जानकारी रखें।

‘अगस्त क्रान्ति’ का विस्तार व स्वरूप

8 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आन्दोलन का आह्वान किया गया। गाँधी ने ‘करो या मरो’ के नारे के साथ पूर्ण स्वतन्त्रता की माँग उठाई। 9 अगस्त को सारे बड़े कांग्रेसी नेता गिरफ़्तार हो गये और उसके बाद एक व्यापक व स्वतःस्फूर्त जन आन्दोलन की शुरुआत हुई। आन्दोलन का नेतृत्व नये युवा एवं संघर्षशील लोगों के हाथ में आने के कारण नीचे के दवाब को उभरने का पूरा मौका मिला। आन्दोलन के विस्तार में जाने से पहले यह जान लेना जरुरी है कि गाँधी के “भारत छोड़ो” प्रस्ताव में आन्दोलन की गतिविधियों के सम्बन्ध में पूरी कार्यदिशा को अस्पष्ट रखा गया ताकि आगे अंग्रेज़ों से बातचीत या समझौते का रास्ता बन्द ना हो। कार्यक्रम की रूपरेखा मोटे तौर पर नमक सत्याग्रह, न्यायालय, स्कूल, और सरकारी नौकरी का बहिष्कार करने, विदेशी सामानों का बहिष्कार करने और अन्त में लगान की नाअदायगी जैसे गाँधीवादी कार्यक्रम शामिल थे। मज़दूर हड़ताल भी आयोजित करने की बात की गयी थी (क्योंकि अब कम्युनिस्ट पार्टी का इस आन्दोलन में शिरकत नहीं करना निश्चित था)। अहिंसात्मक होकर आन्दोलनों को विस्तार करने की बात की गयी थी। लेकिन आन्दोलन अपने पहले ही चरण में काफ़ी हिंसक हो गया था। शुरुआत में मुख्यतः शहरों में हड़तालें होने लगी और सेना व पुलिस के साथ झड़पें होने लगी। 9 से 14 अगस्त तक बम्बई में हड़तालें हुई, फ़िर कोलकाता और फिर दिल्ली में मिल मज़दूरों की हड़तालें और हिंसक झडपें शुरू हो गयी। पटना में 11 अगस्त को सचिवालय के सामने होने वाले विख्यात संघर्ष के बाद दो दिनों तक शहर में कोई क़ानून-व्यवस्था नहीं रही। अहमदाबाद के कपड़ा मिलों में तीन महीने तक हड़ताल चलती रही। शुरुआत में इस आन्दोलन में मज़दूरों, विद्यार्थियों व शहरी मध्य वर्ग का हिस्सा सक्रिय रहा। अगस्त के मध्य से विद्यार्थियों के ज़रिये आन्दोलन गाँव में फैलने लगा। जुझारू विद्यार्थी किसान विद्रोह का नेतृत्व करने लगे। बड़े स्तर पर संचार साधनों को नष्ट किया गया व पुलिस चौकी को नष्ट किया गया। उत्तरी और पश्चिमी बिहार और पूर्वी संयुक्त प्रान्त, बंगाल में मिदनापुर, महाराष्ट्र, कर्नाटक और उड़ीसा के कुछ हिस्से आन्दोलन के इस दूसरे चरण में सक्रिय रहे। इनमें से कई जगहों पर ‘राष्ट्रीय सरकारों’ की स्थापना की गयी लेकिन यह ज़्यादा दिन नहीं चल सकी। आन्दोलन का प्रचण्ड रूप धारण करने का कारण था भारी संख्या में किसानों का विद्रोह और यह मूलतः छोटे किसानों का विद्रोह था। ऊपर उल्लिखित चार राज्यों में भयानक जन-आन्दोलन हुआ। तीव्रता और विस्तार दोनों में ही बिहार आगे था। आन्दोलन को अंग्रेज़ी सरकार ने कुचल कर रख दिया। भारी दमन का सामना करते हुए भी आन्दोलन छिट-पुट रूप में अक्टूबर तक जारी रहा। आन्दोलन कितना शक्तिशाली व गम्भीर था यह इस बात से पता लगाया जा सकता है कि अंग्रेज़ों ने किस क़दर आन्दोलन का दमन किया। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ 1943 के अन्त तक 91,836 लोगों को गिरफ़्तार किया गया। आन्दोलनकारियों द्वारा 208 पुलिस चौकी, 332 रेलवे स्टेशन और 945 डाक घर नष्ट कर दिये गये थे। क़रीब 1000 लोग सेना व पुलिस की गोलियों से शहीद हुए। बिहार, बंगाल व उड़ीसा में तो आन्दोलन का दमन करने के लिए वायुयानों का प्रयोग किया गया था।इस आन्दोलन के चन्द घटनाओं के ब्योरे इसके विस्तार और प्रभाव का अहसास दिलाते हैं। इस आन्दोलन ने निश्चित रूप से जन पहलक़दमी को खुलने का अवसर दिया लेकिन इसका नेतृत्व बुर्ज़ुआ वर्ग के तहत ही बना रहा।
हमें इस बात का अहसास होना चाहिए कि कांग्रेस किस प्रकार अन्त तक बातचीत व समझौते का रास्ता खुला रखे हुए थी क्योंकि भारतीय पूँजीपति वर्ग साम्राज्यवाद से निर्णायक विच्छेद कर ही नहीं सकता था। ज़्यादा से ज़्यादा वह मोल-तोल कर सकता था। इसलिए कांग्रेस ने बिना किसी निश्चित कार्यदिशा के या देश स्तर पर बिना कोई योजना के भारत छोड़ो आन्दोलन की घोषणा कर दी। कांग्रेसी नेताओं को पता था कि उनकी गिरफ़्तारी आसन्न थी और इसलिए ही उनमें से ज़्यादातर 8 अगस्त से पहले ही अपने व्यक्तिगत पारिवारिक मामले और वित्त का निपटारा कर चुके थे। वैसे गाँधी ने अपने वक्तव्य में अहिंसात्मक तरीकों को ही अपनाने की बात कही थी लेकिन पूरे अगस्त क्रान्ति के घटनाक्रम के हिंसात्मक रवैये पर उन्होंने कुछ नहीं कहा। यहाँ ब्रिटिश सरकार द्वारा सीधे कांग्रेस पर हिंसा करने का आरोप नहीं लगाया जा सकता था। कांग्रेस ने बहुत चालाकी से बातचीत और समझौते का रास्ता भी खुला रखा और दूसरी तरफ़ भारत छोड़ो आन्दोलन की शुरुआत कर आम जन के बीच फिर से अपना नेतृत्व स्थापित किया। (जो कुछ हद तक 1937 के कांग्रेस मन्त्रिमण्डलों के काल में खो चुका था)। डी.डी.कोसाम्बी ने भी अपने लेख ‘दी बुर्ज़ुआ कॉमंस ऑफ़ एन ऐज इन इण्डिया’ में लिखा है कि “जेल और यन्त्रणा-शिविरों की चमक-दमक कांग्रेसी मन्त्रिमण्डलों की कारगुजारी से ध्यान हटाने में सहायक हुई और इस प्रकार कांग्रेस जन सामान्य के बीच पुनः लोकप्रियता प्राप्त कर सकी।”
पूरे आन्दोलन में कांग्रेस पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी व संघ की भूमिका और उनकी नीतियों पर विस्तार से चर्चा की गयी ताकि यह समझा जा सके कि किस प्रकार कांग्रेस के नेतृत्व में यहाँ का पूँजीपति वर्ग अपनी शक्ति व हितों के अनुसार ब्रिटिश सरकार से समझौता-दवाब-समझौता की नीति के तहत चलता रहा और दूसरी तरफ़ कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व की विचारधारात्मक कमज़ोरी के कारण भारत छोड़ो आन्दोलन में शिरकत नहीं करने की नीति लागू करना उनकी बहुत बड़ी भूल थी। इसी का नतीजा था कि कम्युनिस्ट पार्टी का किसानों व मज़दूरों के बीच ठोस आधार होने के बावजूद वे स्वतन्त्रता आन्दोलन में एक क़दम पीछे धकेल दिये गये और कांग्रेस से स्वतन्त्रता आन्दोलन का नेतृत्व छीनने में असफल रहे।
इन तमाम भूलों के बावजूद ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ देश की जनता की क्रान्तिकारी विरासत का एक अहम हिस्सा है। यह ऐसा आन्दोलन था जिसने ब्रिटिश सरकार की चूलें हिला दी थी। बेशक आन्दोलन अंग्रेज़ो के दमन द्वारा ख़त्म कर दिया गया। लेकिन यही वो आन्दोलन था जिसने अंग्रेज़ी सरकार पर दवाब बनाया जिससे कि आगे की आज़ादी का रास्ता प्रशस्त हुआ। हालाँकि नेतृत्व समझौतापरस्त कांग्रेस के हाथों में ही रहा और यह किसी जन क्रान्ति की तरफ़ नहीं बढ़ सका। परन्तु इसी आन्दोलन के बूते कांग्रेस वह समझौता कर सकी जिसकी परिणति 15 अगस्त 1947 की खण्डित-विकलांग आज़ादी थी।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2021

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