‘महान अक्टूबर क्रान्ति और इक्कीसवीं सदी की नयी समाजवादी क्रान्तियाँ : निरन्तरता और परिवर्तन के तत्व’ पर नयी दिल्ली में व्याख्यान
प्रवक्ता (अक्टूबर क्रान्ति शतवार्षिकी समिति)
‘अक्टूबर क्रान्ति शतवार्षिकी समिति’ के बैनर तले 21 फ़रवरी 2017 को कांस्टीट्यूशन क्लब ऑफ़ इण्डिया, नयी दिल्ली में ‘महान अक्टूबर क्रान्ति और इक्कीसवीं सदी की नयी समाजवादी क्रान्तियाँ: निरन्तरता और परिवर्तन के तत्व’ पर व्याख्यान आयोजित किया गया। इस कार्यक्रम में राजनीतिक चिन्तक, राजनीतिक कार्यकर्ता, क्रान्तिकारी कवि और नयी अँग्रेजी मार्क्सवादी सैद्धान्तिक पत्रिका ‘दि ऐन्विल’ के सम्पादक शशि प्रकाश को बतौर वक्ता आमन्त्रित किया गया।
अपनी बात की शुरुआत करते हुए शशि प्रकाश ने अतीत की क्रान्तियों के प्रति एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाते हुए इतिहास के साथ आलोचनात्मक रिश्ता स्थापित करने की बात कही। उन्होंने कहा कि इतिहास हर-हमेशा निरन्तरता और परिवर्तन के तत्वों के बीच के द्वन्द्व में विकासमान रहता है और भविष्य को बदलने के लिये इतिहास के प्रति एक मार्क्सवादी नज़रिया होना अनिवार्य है। आज इतिहास का अन्त, क्रान्ति के महाख्यानों का विसर्जन, उत्तर मार्क्सवाद, उत्तर सत्य के युग के आगमन के शोरगुल के बीच मानव मुक्ति की परियोजना के प्रति अपना विश्वास बरकरार रखने के लिये क्रान्ति के विज्ञान और इतिहास की मार्क्सवादी समझ बेहद ज़रूरी है। जिनके पास भविष्य का कोई स्वप्न नहीं होता, वे इतिहास को अपनी अन्तिम शरण मानकर उसके इर्द-गिर्द एक मिथकीय आभामण्डल की पुनर्रचना करते हैं और उसी की अन्धपूजा में जुट जाते है; ऐसे लोग शतुरमुर्ग की भाँति अपनी गर्दन ज़मीन में गाड़े जि़न्दा रहते हैं। आगे अपनी बात विस्तार से रखते हुए शशि प्रकाश ने कहा कि अक्टूबर क्रान्ति मानव इतिहास के एक नये युग की निर्माता क्रान्तियों में से है जिसने 20वीं सदी को एक नयी शक्ल दी, जिसकी 20वीं सदी के इतिहास रचने वाले उपादानों में से सबसे अहम भूमिका थी। आज भविष्य में परिवर्तन के लिये सबसे ज़रूरी है इतिहास में घटी क्रान्तियों के प्रासंगिक तत्वों को आत्मसात करते हुए उनके अप्रासंगिक तत्वों या कमज़ोरियों से सीखते हुए नये मार्गों की तलाश करना। 7 नवम्बर 1917 के बाद दुनिया वैसी नहीं रह गयी थी जैसे उसके पहले थी और अक्टूबर क्रान्ति के बाद साल दर साल दुनिया इतने आमूलगामी परिवर्तनों से गुजरी जितना कि शायद ही मानव इतिहास में कभी हुए हों। साहित्यिक भाषा में कहा जाता है कि अक्टूबर क्रान्ति की तोपों के धमाके पूरी दुनिया में गूँज उठे। केवल रूस में नहीं बल्कि दुनिया भर में चल रहे वर्ग संघर्षों को एक नयी जीवनदायिनी गति मिली। 1917 से 1930 में भारत में प्रकाशित होने वाली बंगाली, मलयालम, हिन्दी पत्रिकाओं जैसे सुधा, स्वदेश, प्रताप, माधुरी आदि में वे लोग जो मार्क्सवाद को नहीं मानते थे और गाँधीवादी धारा से प्रभावित थे, वे भी रूसी क्रान्ति के बारे में, लेनिन के बारे में, सोवियत क्रान्ति के पक्ष में कविताएँ और लेख, सोवियत संघ में स्त्रियों की स्थिति, कृषि के सामूहिकीकरण, पंचवर्षीय योजनाओं के बारे में लिख रहे थे। अक्टूबर क्रान्ति के बाद न सिर्फ़ भारत बल्कि एशिया के जिन देशों में राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष चल रहे थे वहाँ के क्रान्तिकारियों ने ताशकन्द, मास्को पहुँचकर बोल्शेविकों से सम्पर्क स्थापित किया। किस प्रकार न सिर्फ़ भारत बल्कि पेरिस, बर्लिन की क्रान्तिकारी कमेटियों ने सोवियत संघ से सम्पर्क किया और बाद में उनमें से कितनी धाराएँ आकर कम्युनिस्ट आन्दोलन में शामिल हुई, आज इसका इतिहास हमसे छुपाया जाता है। भारत में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के भीतर मार्क्सवाद के विचारों ने कैसे प्रवेश किया और 1928 में भगत सिंह और उनके साथियों ने फिर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन नाम रखते हुए मार्क्सवादी सिद्धान्तों पर सर्वहारा वर्ग की पार्टी बनाने की घोषणा की। ये वो चन्द घटनाएँ हैं जिनसे यह अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि सोवियत क्रान्ति ने किस प्रकार पूरे विश्व में चल रहे वर्ग संघर्षों और सीधे मार्क्सवाद के दायरे से अलग लोगों के बौद्धिक जगत पर अपना प्रभाव डाला था। सोवियत क्रान्ति ने न सिर्फ़ दुनिया भर में चल रहे राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों को गति प्रदान की बल्कि दुनियाभर के कम्युनिस्ट आन्दोलन में एक नयी लहर पैदा की जो कि 1919 में कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल के गठन के बाद और स्फूर्ति से आगे बढ़ी। लेकिन अक्टूबर क्रान्ति की विश्व एेतिहासिक महत्ता केवल इतने में सीमित नहीं है। विश्व इतिहास में घटित महत्वपूर्ण घटनाएँ जैसे पुनर्जागरण, फ़्रांसीसी क्रान्ति और अक्टूबर क्रान्ति मानव इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण परिघटनाएँ हैं। ज्ञात इतिहास में जबसे वर्ग और वर्ग संघर्षों का उद्भव दिखायी देता है, निजी स्वामित्व के साथ राज्यसत्ता का अस्तित्व दिखायी देता है तबसे अक्टूबर क्रान्ति के बाद स्थापित राज्यसत्ता एकमात्र ऐसी व्यवस्था थी जहाँ बहुसंख्या का अल्पसंख्या पर अधिनायकत्व स्थापित हुआ। इससे पहले के मानव इतिहास में सभी सत्ताएँ बहुसंख्या पर अल्पसंख्या का राज थी। यह एक सर्वथा भिन्न किस्म की राज्यसत्ता थी, एंगेल्स के शब्दों में इस राज्यसत्ता के भीतर राज्य के साथ अराज्य के भी तत्व थे। यह एक ऐसी राज्यसत्ता थी जिस राज्यसत्ता में अल्पसंख्या पर बहुसंख्या का अधिनायकत्व था, इसीलिये इस राज्यसत्ता को फिर किसी दूसरी राज्यसत्ता के द्वारा, दूसरे वर्ग द्वारा बलात ध्वस्त किया जाना और दूसरी राज्यसत्ता का स्थापन नहीं किया जाना था। पहली बार एक ऐसी राज्यसत्ता अस्तित्व में आयी जिसका विलोपन होना था। पहली बार मानव इतिहास में एक ऐसे वर्ग की राज्यसत्ता अस्तित्व में आयी जिसके पास निजी स्वामित्व के रूप में कुछ नहीं था और जो पूँजी का जीवन्त निषेध था। इस वर्ग की सत्ता ने पहली बार निजी स्वामित्व पर चोट की। निश्चित तौर पर समाजवाद का कार्यभार मात्र निजी स्वामित्व पर चोट करने तक सीमित नहीं था, उसे उससे आगे बढ़ना था लेकिन अपने आप में निजी स्वामित्व पर चोट एक आमूलगामी परिवर्तन था। उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व को ख़त्म करके सामूहिक मालिकाने की स्थापना करना इतिहास में मौजूद यूटोपिया के बरक्स एक वैज्ञानिक परिघटना थी। प्रबोधन काल से चली आ रही परिवार की संस्था और स्त्री-पुरुष समानता पर गृहयुद्ध और भुखमरी की मार झेल रहे सोवियत संघ ने मारक चोट की। 1918 की विवाह और परिवार संहिता में पहली बार स्त्री को बराबर के अधिकार दिये गये। न केवल काम करने के अधिकार स्त्रियों को प्राप्त थे, बल्कि चूल्हे-चौखट से महिलाओं को मुक्त करने के लिये सामूहिक भोजनालयों से लेकर बड़े स्तर पर शिशु शालाओं का निर्माण भी किया गया। क्रान्ति के तुरन्त बाद समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया था, क्योंकि मार्क्सवाद की मानक समझ के अनुसार बोल्शेविकों का मानना था कि किसी भी प्रकार के विचलनशील सेक्सुअल व्यवहार के सामाजिक-आर्थिक संरचना में कारण मौजूद होते हैं और उनको दण्ड की श्रेणी में रखकर ख़त्म नहीं किया जा सकता। वेश्यावृत्ति को भी अपराध की श्रेणी से बाहर निकाल दिया गया और जैसे ही समाजवाद के भीतर पहले की आर्थिक सामाजिक संरचनाओं का लोप हुआ उसी के साथ वेश्यावृत्ति का भी लोप हो गया। स्त्रियों की आज़ादी, पितृसत्तात्मक मूल्यों पर आधारित परिवार संस्था को ख़त्म करने के लिये अक्टूबर क्रान्ति के ठीक बाद से ही काम शुरू कर दिया गया था। वर्ग समाज के बुनियादी सामाजिक स्तम्भ यानी परिवार की मूल्य-मान्यताओं, पितृसत्तात्मक सोच पर आधारित पारिवारिक संस्था पर 1917 के 10-12 सालों में जो आघात किये गये, वे अभूतपूर्व थे। अक्टूबर क्रान्ति ने जिस वर्ग को पहली बार सत्तासीन किया, जिस प्रकार की राज्यसत्ता पहली बार अस्तित्व में आयी और जिसने वर्ग समाज के बुनियादी खम्बों पर मारक चोट की, वह अपने आप में अक्टूबर क्रान्ति के सबसे आमूलगामी महत्व को दर्शाता है। अक्टूबर क्रान्ति केवल 500 वर्ष के पूँजीवाद के विरुद्ध क्रान्ति नहीं थी, वह 5000 वर्षों के पूरे वर्ग समाज के विरुद्ध एक सतत क्रान्ति की शुरूआत का एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर थी। सर्वहारा वर्ग की क्रान्तियों में पेरिस कम्यून, अक्टूबर क्रान्ति, 1949 की चीनी क्रान्ति और 1966-67 तक महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति शामिल हैं। कोई भी क्रान्ति अपने आप में शुद्ध क्रान्ति नहीं होती और क्रान्ति के विज्ञान का भी मार्क्सवादी विश्लेषण करते हुए एक सतत प्रक्रिया में पहले की क्रान्तियों से सीख लेते हुए आज नयी क्रान्तियों को जन्म दिया जाना है। अक्टूबर क्रान्ति के बाद हुए समाजवादी संक्रमण के प्रयोगों ने जिस मंजिल तक समाज को पहुँचाया था, उसमें निजी मालिकाने का ख़ात्मा तो हो चुका था, लेकिन अभी भी समाज में अन्तर-वैयक्तिक असमानताएँ, जैसे कि मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के बीच का अन्तर, कृषि और उद्योग के बीच का अन्तर, शहर और गाँव के बीच का अन्तर बना हुआ था। इस ज़मीन पर पनपने वाले बुर्जुआ अधिकारों का अस्तित्व तब तक समाज में असमानता पैदा करता रहता है और ऐसी असमानताएँ पूँजीवादी पुनर्स्थापना के लिये ज़िम्मेदार साबित हो सकती है। इन समस्याओं का समाधान 1966-67 की महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति ने किया। लेकिन जब तक इन समस्याओं से निजात पाने का रास्ता निकला तब तक चीन में भी वर्ग शक्ति सन्तुलन पूँजीवादी पथगामियों के पक्ष में झुका हुआ था और माओ की मृत्यु के बाद चीन में भी बाज़ार समाजवाद के नाम पर पँजीवाद की पुनर्स्थापना की शुरुआत हो चुकी थी। इसके बावजूद महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति एक बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण प्रयोग था जिसने अक्टूबर क्रान्ति के अनसुलझे सवालों को एजेंडा बनाते हुए उनके समाधान ढूँढ़ने का काम अपने हाथ में लिया और बहुत हद तक उनके समाधान की दिशा खोजने का काम किया। सर्वहारा वर्ग की क्रान्तियों में पेरिस कम्यून सर्वहारा वर्ग के हिरावल की अगुआई में की गयी सुनिश्चित क्रान्ति नहीं थी। विशेष एेतिहासिक परिस्थितियों में एक शहर विशेष के मज़दूरों ने एक साथ उठ खड़े होकर अपनी सामूहिक सर्जनात्मकता के बल पर कुछ ऐसी समाजवादी संस्थाओं और उपकरणों का सर्जन किया जिसने आने वाले लम्बे समय तक मनुष्यता को भविष्य की एक आम दिशा में आगे बढ़ने का मार्गदर्शन किया। लेकिन क्योंकि पेरिस कम्यून को सर्वहारा वर्ग के उन्नत चेतस तत्वों का कोई अगुआ दस्ता, उसकी कोई हिरावल पार्टी नेतृत्व नहीं दे रही थी, इसीलिये पेरिस कम्यून की यह नियति थी कि वह अल्पकालिक अवधि तक जीवित रहकर अपना जीवन समाप्त कर लेती। लेकिन अक्टूबर क्रान्ति सर्वहारा वर्ग की एक हिरावल पार्टी की अवधारणा लेकर आयी। उस पार्टी के नेतृत्व में जनवादी क्रान्ति होने पर जनता के मित्र वर्गों का संयुक्त मोर्चा कैसा बनेगा, समाजवादी क्रान्ति होने पर संयुक्त मोर्चा किस प्रकार बनेगा आदि प्रश्नों को अक्टूबर क्रान्ति ने न सिर्फ़ उठाया बल्कि हल भी किया। मार्क्स और एंगेल्स के जर्मनी के सन्दर्भ में इस सवाल पर चिन्तन के बाद, जिसमेंं उन्होंने कहा था कि क्रान्ति की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि किसानों का संघर्ष उसके पक्ष में कितना खड़ा होता है, किसानों का रणनीतिक मोर्चा सर्वहारा वर्ग के साथ कैसे बनेगा अक्टूबर क्रान्ति ने इस सवाल को सबसे पहले उठाया। सबसे रेडिकल तरीक़े से जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों को किस प्रकार सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में पूरा करने का श्रेय भी अक्टूबर क्रान्ति को जाता है। अक्टूबर क्रान्ति न सिर्फ़ सर्वहारा वर्ग की क्रान्तियों का एक मील का पत्थर है बल्कि वो लाइट हाउस है जो आने वाले समय की क्रान्तियों का पथ प्रदर्शक रही। यह एक युगान्तरकारी क्रान्ति थी। सोवियत संघ में कृषि का सामूहिकीकरण, उद्योगों का राष्ट्रीयकरण और पूरे विश्व को फासीवाद के चंगुल से छुड़ाने का श्रेय अक्टूबर क्रान्ति को जाता है। लेकिन उसके बावजूद सोवियत संघ में पूँजीवादी पुनर्स्थापना होने के पीछे के कारणों की पड़ताल करना आज अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करणों की रचना करने के लिये बेहद ज़रूरी है। मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के मुताबिक़ उत्पादन सम्बन्ध के तीन पहलू होते हैं – पहला उत्पादन के साधनों का स्वामित्व, दूसरा वितरण की प्रक्रिया, तीसरा श्रम प्रक्रिया और उत्पादन प्रक्रिया। उत्पादन के साधनों के बदलाव में समाजवादी उत्पादन सम्बन्ध कोई स्थिर वस्तु नहीं है, वह एक संक्रमणकालिक व्यवस्था है जिसमेंं समाजवादी उत्पादन सम्बन्ध और पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्ध साथ-साथ मौजूद रहते हैं। अक्टूबर क्रान्ति ने उत्पादन के साधनों से निजी मालिकाने का उन्मूलन तो किया लेकिन पूरे उत्पादन सम्बन्ध नहीं बदले, उत्पादन सम्बन्धों के तीन पहलुओं में से एक को बदला गया। अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन और विशेष तौर पर, यूरोपीय मज़दूर आन्दोलन में हावी उत्पादक शक्तियों की प्रधानता की सोच के प्रभाव में उत्पादन के साधनों पर से निजी मालिकाने के ख़ात्मे को पूरे उत्पादन सम्बन्धों का परिवर्तन मान लेना एक भ्रान्ति थी जबकि उत्पादन सम्बन्धों के दो और महत्वपूर्ण पहलू अभी बदलाव से बचे रह गये थे जो कि समाजवादी ढाँचे के बीच लगातार असमानताओं को जन्म देते हुए बुर्जुआ अधिकारों को पनपने की ज़मीन मुहैया करा रहे थे। इस समझदारी के अनुसार समाजवादी उत्पादन सम्बन्धों के बहाल हो जाने के बाद ज़्यादा ज़ोर उत्पादक शक्तियों के निरन्तर विकास पर होना चाहिए और इस विकास की प्रक्रिया में उत्पादक शक्तियाँ स्वतः समाजवादी उत्पादन सम्बन्धों को उन्नत करती जायेंगी और इस प्रकार मनुष्यता उस मंजिल में पहुँच जायेगी जहाँ लोग क्षमता मुताबिक़ काम करेंगे और आवश्यकता मुताबिक़ पायेंगे। यह सोच एक प्रकार के स्वतःस्फूर्ततावाद और आर्थिक नियतत्ववाद की सोच है। 1936 में सोवियत समाज में निजी स्वामित्व के ख़ात्मे के बाद शत्रुतापूर्ण वर्गों की मौजूदगी न होने की सोच एक चूक थी। उत्पादन के सम्बन्धों का निरन्तर क्रान्तिकारीकरण और अधिरचना में निरन्तर क्रान्ति की ज़रूरत को न समझ पाना दो मूल कारण थे, जिसके कारण 1953 के बाद से एक प्रक्रिया में बुर्जुआ वर्ग के नेतृत्व में राजकीय इज़ारेदार पूँजीवाद की स्थापना हुई। अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करणों को रचने के लिये जहाँ अक्टूबर क्रान्ति की समस्याओं की समझ अनिवार्य है, वहीं आज के दिक् और काल में दुनिया के पूँजीवादी समीकरण को समझना भी बेहद ज़रूरी है। आज दुनियाभर के देशों में उपनिवेश, अर्धउपनिवेशों जैसी स्थिति नहीं है और इन देशों में राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति के कार्यभार भी सम्पन्न हो चुके हैं इसीलिये आज के युग की क्रान्तियाँ चीन की नवजनवादी क्रान्ति जैसी नहीं होंगी। साथ ही, आज की क्रान्तियाँ अक्टूबर क्रान्ति की हू-ब-हू कार्बन कॉपी या नक़ल भी नहीं हो सकतीं। आज के युग की क्रान्तियाँ केवल देशी पूँजीवाद के विरुद्ध न होकर साम्राज्यवाद विरोधी और पूँजीवाद विरोधी क्रान्तियाँ होंगी। आज के दौर में पूँजीवादी राज्यसत्ता तथा इसके तमाम सामाजिक अवलम्ब पहले से कहीं ज़्यादा मज़बूत और गहरे जड़ जमाये हुए हैं। इसके अलावा, आज की साम्राज्यवाद विरोधी क्रान्तियों की रणनीति और आम रणकौशल लेनिन-कालीन साम्राज्यवाद की रणनीति और आम रणकौशल से भिन्न होंगे। इक्कीसवी सदी की क्रान्तियाँ नयी समाजवादी क्रान्तियाँ होंगी। जिन्हें अंजाम देने के लिये आज सर्वहारा वर्ग के क्रान्तिकारी हिरावल को मुक्त-चिन्तन और कठमुल्लावाद के दोनों छोरों से बचते हुए मार्क्सवाद के वैज्ञानिक अध्ययन और दृष्टिकोण का इस्तेमाल करते हुए इतिहास में घटी क्रान्तियों से एक आलोचनात्मक सम्बन्ध स्थापित करना होगा। आज के पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों और उत्पादक शक्तियों के सम्बन्ध का ठोस विश्लेषण करते हुए जनता के बीच सोवियत समाजवाद के प्रयोगों से शिक्षा लेते हुए सचेतन तौर पर सोवियत-जैसी संस्थाओं का निर्माण करना होगा। क्रान्तिकारी ताक़तों को जनता के बीच अपनी पैठ बनाकर जनदुर्गों का निर्माण भी करना होगा। जनता को लामबन्द कर आज एक व्यापक आम बग़ावत ही दुनिया के किसी भी देश में बुर्जुआ सत्ता को चकनाचूर कर सर्वहारा सत्ता का निर्माण कर सकती है। साथ ही आज की नयी समाजवादी क्रान्तियों में संस्कृति और कला के क्षेत्र को भी वर्ग संघर्ष का एक मंच बनाना होगा। अपने व्याख्यान का अन्त शशि प्रकाश ने लेनिन की 1905-1907 की क्रान्ति के कुचल दिये जाने के बाद लिखी कविता और स्वयंरचित कविता के पाठ से किया। इस कार्यक्रम में बुद्धिजीवियों, मज़दूर संगठनकर्ताओं, छात्रों, युवाओं, पत्रकारों, नागरिकों आदि ने भारी संख्या में शिरकत की।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-अगस्त 2017
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