बिरादराने वतन के नाम क़ब्र के किनारे से पैग़ाम

(काकोरी ऐक्शन के शहीद अशफ़ाक़ उल्ला खाँ के यौमे-पैदाइश (22 अक्टूबर) पर उनका अन्तिम पैग़ाम)

बिरादराने वतन की ख़िदमत में उनके उस भाई का सलाम पहुँचे जो उनकी इज़्ज़त व नामूसे वतन की ख़ातिर फैज़ाबाद जेल में क़ुर्बान हो गया। आज जबकि मैं वह पैग़ाम बिरादराने वतन को भेज रहा हूँ, इसके बाद मुझको तीन दिन और चार रातें और गुजारनी हैं और फिर मैं हूँगा और आग़ोश-ए-मादरेवतन होगा। हम लोगों पर जो जुर्म लगाये गये थे वह इस सूरत में पब्लिक में लाये गये कि हमको बहुत से लोग जो ग़ैर-तालीमयाफ़्ता या हुकूमत के दस्तरख्वान की पसेखुर्दा (बची हुई) हड्डियाँ चचोड़नेवाले थे, डाकू, ख़ूनी क़ातिल के लक़ब से पुकारा किये। मैं आज इस फाँसी की कोठरी में बैठा हुआ भी ख़ुश हूँ और अपने उन भाइयों का शुक्रिया अदा करता हूँ। और कहूँगा-

मर मिटा आप पे कौन आपने यह भी न सुना,
आपकी जान से दूर आप से शिकवा है मुझे।

ख़ैर, यह तुम्हारा फ़ेल है कि हमारी क़ुर्बानियों को क़बूल न करो और यह हमारा फ़र्ज़ है कि तुम बार-बार ठुकराओ मगर हम तुम्हारा ही दम भरे जायेंगे। बिरादराने वतन, मैं उसी पाक व मुक़द्दस वतन ही की कसम खाकर कहूँगा कि हम नंगे नामूस-ए-वतन पर क़ुर्बान हो गये। क्या यह शर्म की बात नहीं थी कि हम अपनी आँखों से देखते कि नित नये मज़ालिम हो रहे हैं और ग़रीब हिन्दुस्तानी हर हिस्सा-ए-मुल्क और खित्त-ए-दुनिया में ज़लील और रुस्वा हो रहे हैं और कहीं न ठिकाना है न सहारा। क़िस्सा मुख़्तसर ये कि हमारा वतन भी हमारा नहीं। हम पर टैक्स की भरमार, हमारी माली हालत का रोज़बरोज़ गिरते जाना, 33 करोड़ बहादुर हिन्दुस्तानी हिन्दू और मुसलमान भेड़-बकरियों की मानिन्द बनाये गये। हमारे गोरे आका हमें ठोकरें मार दें तो बाज़-पुर्स न हो। जनरल डायर जलियान वाला बाग को नमूना-ए-हशर बना दें। हमारी माताओं की बेइज़्ज़ती करें। हमारे बूढों और बच्चों पर बम के गोले गनमशीनों की गोलियाँ बरसायें और हर नया दिन हमारे लिए नयी मुसीबतें ले़कर आये। फिर भी हम मस्ते-बादए-ग़फ़लत रहें। और ऐश-ओ-इशरत में अय्यामे जवानी गुजार देते। यह ख़याल करके-

जनूने हुब्बे वतन का मज़ा शबाब में है,
लहू में फिर यह रवानी रहे रहे न रहे।

जो भी किया, भला किया, आज हम नाकाम रहे डाकू हैं। कामयाब होते मुहिब-ए-वतन के पाक लक़ब से पुकारे जाते। और जो आज हम पर झूठी गवाहियाँ दे गये, हमारे नाम के जयकारे लगाते-

बहे बहरे फ़ना में जल्द यारब लाश बिस्मिल की,
कि भूखी मछलियाँ हैं जौहरे शमशीरे क़ातिल की।

आह! क्या ऐसे दौर की ज़िन्दगी प्यारी ख़याल की जा सकती है? जबकि हमारे ही गिरोहे-सियासी में ख़लफ़िशार मचा है। कोई तबलीग़ का दिलदादा है, तो कोई शुद्धी पर मर मिटने को (बाइसे-निजात) समझ रहा है। मुझे तो रह-रहकर इन दिमाग़ों और अक़्लों पर तरस आ रहा है जो कि बेहतरीन दिमाग़ हैं और माहरीने सियासत हैं। काश कि वह आज़ादी-ए-मिस्र की जद्दोजहद, एहरारान मिस्र के कारनामे और बर्तानवी सियासी चालें स्टडी कर लें और फिर हमारे हिन्दुस्तान की मौजूदा हालत से मुक़ाबिला व मवाज़ना करें क्या ठीक वही हाल इस वक़्त नहीं है। गवर्नमेण्ट के ख़ुफ़िया एजेण्ट प्रोपेगण्डा मज़हबी बुनियाद पर फैला रहे हैं। इन लोगों का मक़सद मज़हब की हिफ़ाज़त या तरक़्क़ी नहीं है बल्कि चलती गाड़ी में रोड़े अटकाना है। मेरे पास वक़्त नहीं और न मौका कि सब कच्चा चिट्ठा खोलकर रख देता जो मुझे अय्यामे फ़रारी में और उसके बाद मालूम हुआ है। यहाँ तक मुझे मालूम है कि मौलवी नियामतुल्ला कादियानी कौन था कि काबुल में संगसार किया गया था। वह ब्रिटिश एजेण्ट था जिसके पास हमारे करम-फ़रमा खानबहादुर तसदुक हुसैन साहब, डिप्टी सुपरिटेण्डेण्ट सीआईडी, गवर्नमेण्ट ऑफ इण्डिया पैग़ाम लेकर गये थे मगर बेदारमग़ज़ हुक़ूमत काबुल के इलाज़ जल्द कर दिया और मर्ज़ को फैलने न दिया। मैं अपने हिन्दुओं और मुसलमान भाइयों को बता देना चाहता हूँ कि सब ढोंग है जो सीआईडी के ख़ुफ़िया खजाने के रुपए से रचा गया है। मैं मर रहा हूँ और वतन पर मर रहा हूँ। मेरा फ़र्ज़ है कि हर नेकोबद बात भाइयों तक पहुँचा दूं। मानना न मानना उनका काम है। मुल्क के बड़े-बड़े लोग इससे बचे हुए नहीं हैं। पर अवाम को आँखें खोलकर इत्तवा करना चाहिए। भाइयो! तुम्हारी खानाजंगी तुम्हारी आपस में फूट, तुम दोनों में किसी के भी सूदमन्द साबित न होगी। यह ग़ैरमुमकिन है कि 7 करोड़ मुसलमान बना लिए जायें। मगर हाँ यह आसान है और बिलकुल आसान है कि यह सब मिलकर शुद्ध हो जायें और वैसे ही यह भी महमल सी बात है कि 22 करोड़ हिन्दू मुसलमान ग़ुलामी का तौक गले में डाल लें। ये वह क़ौम जिसका कोई क़ौमी झण्डा नहीं – ऐ वह कि तेरा वतन मेरा वतन नहीं – ऐ वह कि तू दूसरों की तरफ़ हाथ फैलाये हुए रहम की दरख़्वास्त पर नज़र रखने वाली बेकस क़ौम तेरी अपनी ग़लतियों का यही नतीजा है कि आज तू ग़ुलाम है और फिर भी वही गलतियाँ कर रही है कि आनेवाली नस्लों के लिए धब्बा ग़ुलामी का छोड़ जाएगी कि जो भी सरज़मीने हिन्द पर क़दम रखेगा, ग़ुलामी में रखेगा और ग़ुलाम बनायेगा। ऐ ख़ुदावन्दे क़ुद्दूस, क्या कोई ऐसा सवेरा नहीं आयेगा कि जिस सुबह को तेरा आफ़ताब आज़ाद हिन्दुस्तान पर चमके? और फ़िज़ा-ए-हिन्द आज़ादी के नारों से गूँज उठे? कांग्रेसवाले हों कि सौराजिस्ट, तबलीग़वाले हों कि शुद्धीवाले, कम्युनिस्ट हों कि रिवोलूशनरी, अकाली हों कि बंगाली। मेरा पयाम हर फ़रज़न्देवतन को पहुँचे। मैं हर शख़्स को उसकी इज़्ज़त व मज़हब का वास्ता देता हूँ। अगर वह मज़हब का क़ायल नहीं तो उसके ज़मीर को और जिसको भी वह मानता हो, अपील करता हूँ कि हम काकोरी केस के मर जानेवाले नौजवानों पर तरस खाओ। और फिर हिन्दुस्तान को सन् 20 व 21 वाला हिन्दुस्तान बना दो। फिर अहमदाबाद कांग्रेस जैसा इत्तिहाद व इत्तिफ़ाक़ का नज़ारा सामने हो बल्कि उससे बढ़कर हो और मुकम्मल आज़ादी का जल्द अज-जल्द ऐलान करके इन गोरे आकाओं को हटा दो कि ये काले अब केचुली उतार चुके हैं और अब वह किसी मन्त्र से बस में न होंगे- तबलीग़ व शुद्धी वालो ख़ुदारा आँख खोलो, कहाँ थे और कहाँ पहुँच गये, अपनी-अपनी शान ख़त्म करो, सोचो तो मज़हब में जबरदस्ती इख़्तिलाफ़-ए-राय पर जंग, एक काम नामुकम्मल छोड़कर दूसरी तरफ़ रुजू हो गये। आज कौन ऐसा हिन्दू या मुसलमान है जो मज़हबी आज़ादी इतनी रखता है कि जितना उसका हक़ है। क्या ग़ुलाम क़ौम का कोई मज़हब होता है? तुम अपने मज़हब का सुधार क्या कर सकते हो तुम ख़ुदा की इबादत पुरसुकून तरीक़े पर करो। तुम ईश्वर का ध्यान ख़ामोशी से करो और दोनों मिलकर इस सफ़ेद भूत को मन्त्र से जन्त्र से उतार भगाओ। इसी की यह सारी कार्यवाही है। जब यह भूत उतर जायेगा, हमारी आँखें खुल जायेंगी। आओ हमारी भी सुनो, पहले हिन्दुस्तान को आज़ाद करो, फिर कुछ और सोचना, ख़ुदा ने जिसके लिए जो रास्ता मुन्तख़ब कर दिया है, वह उसी पर रहेगा। तुम किसी को भी नहीं हटा सकते। आपस में मिल-जुलकर रहो और मुत्तहिद हो जाओ, नहीं तो सारे हिन्दुस्तान की बदबख़्ती का बार तुम्हारी गर्दन पर है और ग़ुलामी का बाइस तुम हो। कम्युनिस्ट ग्रुप से अशफ़ाक़ की गुज़ारिश है कि तुम इस ग़ैर मुल्क की तहरीक़ को लेकर जब हिन्दुस्तान में आये हो तो तुम अपने को ग़ैरमुल्की ही तसव्वुर करते हो, देशी चीजों से नफ़रत, विदेशी पोशाक और तर्जेमआशरत के दिलदादा हो, इससे काम नहीं चलेगा। अपने असली रंग में आ जाओ। देश के लिए मरो, देश के लिए जियो। मैं तुमसे काफ़ी तौर से मुत्तफ़िक़ हूँ और कहूँगा कि मेरा दिल ग़रीब किसानों के लिए और दुखिया मज़दूरों के लिए हमेशा दुखी रहा है। मैं अपने अय्यामे फ़रारी में भी अकसर इनकी हालत देखकर रोया किया हूँ क्योंकि मुझे इनके साथ दिन गुज़ारने का मौक़ा मिला है। मुझसे पूछो तो मैं कहूँगा कि मेरा बस हो तो मैं दुनिया की हर मुमकिन चीज़ इनके लिए वक़्फ़ कर दूँ। हमारे शहरों की रौनक इनके दम से है। हमारे कारख़ाने उनकी वजह से आबाद और काम कर रहे हैं। हमारे पम्पों से इनके ही हाथ पानी निकालते हैं, गर्ज कि दुनिया का हर एक काम इनकी वजह से हुआ करता है। ग़रीब किसान बरसात के मूसलाधार पानी और जेठ बैसाख की तपती दोपहर में भी खेतों पर जमा होते हैं और जंगल में मँडराते हुए हमारी ख़ुराक का सामान पैदा करते हैं। यह बिलकुल सच है कि वह जो पैदा करते हैं जो वह बनाते हैं उनमें उनका हिस्सा नहीं होता, हमेशा दुखी और मफ़लूक-उल-हाल रहते हैं। मैं इत्तिफ़ाक़ करता हूँ कि इन तमाम बातों के ज़िम्मेदार हमारे गोरे आका और उनके एजेण्ट हैं मगर इनका इलाज़ क्या है कि उनको उस हालत पर ले आयें कि वह महसूस करने लगें कि वह क्या हैं? इसका वाहिद ज़रिया यह है कि तुम उन जैसी वज़ा – कित्ता इख़्तियार करो और जेण्टिलमैनी छोड़कर देहात का चक्कर लगाओ। कारखानों में डेरे डालो और उनकी हालत स्टडी करो और उनमें एहसास पैदा करो। तुम कैथरीन, ग्राण्ड मदर ऑफ रशिया की सवानेहउम्री पढ़ो और वहाँ के नौजवानों की क़ुर्बानियाँ देखो। तुम कालर टाई और उम्दा सूट पहनकर लीडर ज़रूर बन सकते हो, मगर किसानों और मजदूरों के लिए फ़ायदेमन्द साबित नहीं हो सकते। दीगर पोलिटिकल जमाअतों से मुत्तहिद होकर काम करो। और अपनी माद्दापरस्ती से किनारा करो कि यह फ़िजूल है जो तुम्हें दूसरी जमाअतों से अलग किये हुए हैं। मेरे दिल में तुम्हारी इज़्ज़त है और मैं मरते हुए भी तुम्हारे सयासी मक़सद से बिलकुल मुत्तफ़िक़ हूँ। मैं हिन्दुस्तान की ऐसी आज़ादी का ख़्वाहिशमन्द था जिसमें ग़रीब ख़ुश और आराम से रहते और सब बराबर होते। ख़ुदा मेरे बाद वह दिन जल्द लाये जबकि छत्तर मंज़िल लखनऊ में अब्दुल्ला मिस्त्री, लोको वर्कशाप और धनिया चमार, किसान भी मिस्टर खलीकुज्जमा और जगत नारायण मुल्ला व राजा साहब महमूदाबाद के सामने कुर्सी पर बैठे हुए नजर पड़ें। मेरे कामरेडो मेरे रिवोलूशनरी भाइयो- तुम से में क्या कहूँ और तुमको क्या लिखूँ, बस यह तुम्हारे लिए क्या कुछ कम मुसर्रत की बात होगी, जब तुम सुनोगे कि तुम्हारा एक भाई हँसता हुआ फाँसी पर चला गया और मरते-मरते ख़ुश था। मैं ख़ूब जानता हूँ कि जो स्प्रिट तुम्हारा तबक़ा रखता है-चूंकि मुझको भी फ़ख़्र है और जब बहुत ज़्यादा फ़ख़्र है कि एक सच्चा रिवोलूशनरी होकर मर रहा हूँ। मेरा पयाम तुमको पहुँचाना फ़र्ज़ था, मैं ख़ुश -मसरूर हूँ, मैं उस सिपाही की तरह हूँ जो फाइरिंग लाइन पर हँसता हुआ चला जा रहा हो और खन्दकों में बैठा हुआ गा रहा हो। तुम्हें दो शेर हसरत मोहानी साहब के लिख रहा हूँ-

जान को महवे ग़म बना दिल को वफ़ा निहाद कर
बन्द-ए-इश्क़ है तो यूँ कता रहे मुराद कर।
ऐ कि निजाते हिन्द की दिल से है तुझको आरज़ू
हिम्मते सर बुलन्द से यास या इंसदाद कर?

हज़ार दुख क्यों न आएं-बहरे ज़खार दरमियान में मौजें मारें-आतिश पहाड़ क्यों न हायल हो जाएँ, मगर ऐ आज़ादी के शेरों अपने-अपने गरम ख़ून को मातृभूमि पर छिड़कते हुए और जानों को मातृवेदी पर क़ुर्बान करते हुए आगे बढ़े चले जाओ। क्या तुम ख़ुश न होगे जब तुमको मालूम होगा कि हम हँसते हुए मर गये। मेरा वज़न ज़रूर कम हो गया है, और वह मेरे कम खाने की वजह से हो गया है-किसी डर या दहशत वजह से नहीं हुआ है-और मैं कन्हाईलाल दत्त की तरह वज़न न बढ़ा सका मगर हाँ ख़ुश हूँ, और बहुत ख़ुश हूँ। क्या मेरे लिए इससे बढ़कर कोई इज़्ज़त हो सकती है कि सबसे पहला और अव्वल मुसलमान हूँ जो आज़ाद-ए-वतन की ख़ातिर फाँसी पा रहा है-मेरे भाइयो! मेरा सलाम लो और इस नामुकम्मल काम को, जो हमसे रह गया है, तुम पूरा करना। तुम्हारे लिए यूपी में मैदानेअमल तैयार कर दिया। अब तुम जानो, तुम्हारा काम जाने। इससे ज़्यादा उम्दा मौक़ा तुम्हारे हज़ार प्रोपेगण्डे से न होता। स्कूल और कॉलिजों के तुलबा हमारी तरफ़ दौड़ रहे हैं, अब तुम्हें बहुत अर्से तक दिक़्क़त न होगी-

उठो-उठो सो रहे हो नाहक पयामेबाँगे जरस तो सुन लो
बढ़ो कि कोई बुला रहा है निशाने-मंज़िल दिखा-दिखाकर।

ज़्यादा क्या लिखूँ, सलाम लो और कमर हिम्मत बाँध लो और मैदानेअमल में आन पहुँची। ख़ुदा तुम्हारे साथ हो, मेरी मुल्की मुत्तहिदा जमाअत के सियासी लीडरो मेरा सलाम क़बूल करो और तुम हम लोगों को उस नज़र से न देखना जिस नज़र से दुश्मनाने वतन और खाइनीने क़ौम देखते थे। न हम डाकू थे, न क़ातिल-

कहाँ गया कोहेनूर हीरा किधर गई हाय मेरी दौलत,
वह सबका सब लूटकर कि उलटा हमीं को बता रहे डाकू हैं।

हम को दिनदहाड़े लूटा, फिर हमीं डाकू हैं। हमारे भाइयों और बहनों और बच्चों को जलियानवाला बाग में भून डाला और अब हमीं को कालस बलूट फ़ैसले में लिखा जाता है। अगर हम ऐसे हैं तो वह कैसे हैं और किस ख़िताब से पुकारे जाने क़ाबिल हैं, जिन्होंने हिन्दुस्तान का सुहाग लूट लिया, जिन्होंने लाखों बहादुरों को अपनी गरज के लिए मेसोपोटामिया और फ़्रांस के मैदान में सुलवा दिया, खूंखार जानवर, ज़ालिम दरिन्दे वह हैं या कि हम । हम बेबस थे, कमज़ोर थे, सब कुछ सुन लिया और ऐ वतनी भाइयो यह तुमने सुनवाया। आओ फिर मुत्तहिद हो जाओ, फिर मैदाने अमल में कूद पड़ो और मुकम्मल आज़ादी का ऐलान कर दो। अच्छा अब मैं रुख़सत होता हूँ और हमेशा के लिए ख़ैरबाद कहता हूँ। ख़ुदा तुम्हारे साथ हो और फ़िज़ा-ए-हिन्द पर आज़ादी का झण्डा जल्द लहराये। मेरे पास न वह ताकत है कि हिमालय की चोटी पर पहुँचकर एक ऐसी आवाज निकालूँ जो हर शख़्स को बेदार कर दे और न वह असबाब हैं कि जिससे फिर तुम्हारे दिल मुश्ताइल कर दूँ कि तुम उसी जोश से आगे बढ़कर खड़े जाओ जैसे सन् 20 व 21 में थे। मैं चन्द सुतूर के बाद रुख़सत होता हूँ।
To every man upon this earth,
Death cometh son of late,
But (then) how can a man die better,
Than facing fearful odds,
For the ashes of his fathers and,
Temples of his God
बाद को मैं अपने उन भाइयों से रुख़सत शुक्रिए के साथ होता हूँ जिन्होंने हमारी मदद ज़ाहिरा तौर पर की या पोशीदा। और यक़ीन दिलाऊँगा कि अशफ़ाक़ आख़िर दम तक सच्चा रहा और ख़ुश-ख़ुश मर गया-और ख़्यानते-वतनी का उसपर कोई ज़ुर्म नहीं लगाया जा सकता। वतनी भाइयों से गुज़ारिश है कि मेरे बाद मेरे भाइयों को वक़्त ज़रूरत न भूलें और उनकी मदद करें और उनका ख़याल करें।

वतन पर मर मिटनेवाला
अशफ़ाक़ वारसी हसरत
अज, फैज़ाबाद जेल

मेरी तहरीर मेरे वतनी भाइयों तक पहुँच जाये। ख़्वाह विद्यार्थीजी अख़बार के ज़रिये से या अंग्रेज़ी, हिन्दी, उर्दू में छपवाकर कांग्रेस के अय्याम में तक़सीम करा दें, मशकूर हूँगा। मेरा सलाम कबूल करें और मेरे भाइयों को न वह कभी भूलें और न मेरे वतनी भाई फ़रामोश करें। अलविदा !

अशफ़ाक़ उल्ला वारसी हसरत
फैज़ाबाद जेल,
19 दिसम्बर, 1927

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