इतिहास से भयाक्रान्त फासीवादी
नमिता
भाजपा के सत्ता में आने बाद से दलितों और अल्प-संख्यकों पर जिस तरह अपराध बढ़ा है वह किसी से छिपा नहीं है। आज भाजपा वाले चाहे औरतों को बराबरी का दर्जा देने का कितना भी नाटक क्यों न करें परन्तु वास्तविकता यह है कि वह दलितों, अल्पसंख्यकों और औरतों को वास्तव में अपने पैरों तले ही रखना चाहते हैं। आज लोगों को जो भी थोड़े-बहुत से लोकतांत्रिक हक हासिल हैं उनके लिये हमारी पिछली पीढ़ियों ने बहुत संघर्ष और कुर्बानियाँ दी हैं। परन्तु यह भगवे फासीवादी इतिहास से इस कदर डरते हैं कि वे इतिहास को तोड़ -मरोड़ कर पाठ्यक्रमों में बदलाव करके दलितों और औरतों के संघर्षों के इतिहास को भी दबा देना चाहते हैं क्योंकि वह नहीं चाहते कि कोई भी अपने हकों-अधिकारों के प्रति जागरूक हो। यदि ऐसा हो गया तो इन फासीवादियों को कौन बचाएगा ?
आज सभी शैक्षिक संस्थाओं और अकादमिक संस्थाओं के अन्दर भगवा ब्रिगेड के फासीवादी टट्टुओं को भरा जा रहा है, पाठ्य-पुस्तकों में मनमानी तब्दीलियाँ करके उनको अपने हिसाब से बदला जा रहा है। इसी कड़ी में एक और कोशिश की है भारत सरकार की तरफ से संचालित सी.बी.एस.ई बोर्ड (सेन्ट्रल बोर्ड ऑफ़ सेकेण्डरी एजुकेशन) ने। सी.बी.एस.ई ने 19वीं सदी में दक्षिणी भारत में औरतों की ओर से अपने शरीर के ऊपर वाले हिस्से को ढकने के हक के लिये लड़ने वाली नंगेली नाम की औरत की कहानी को सिलेबस में से हटाने का फ़ैसला किया है ।
ज्ञात हो कि सी.बी.एस.ई ने 2006 -07 के अपने पाठ्यक्रम में जातीय संघर्ष और पहनावे में बदलाव (कास्ट कनफ्लिक्ट एण्ड ड्रेस चेंज) नाम से एक कहानी शामिल की थी। उस समय भी कुछ राजनैतिक संगठनों ने इस का विरोध किया था। उन का कहना था कि एक औरत का अपने ऊपरी हिस्से को ढकने को लेकर संघर्ष और उसकी छाती को काट लिये जाने की कहानी शर्मनाक है और इसलिये इसे बच्चों को नहीं पढ़ाया जाना चाहिए ।
औरतों को अर्ध-नग्न अवस्था में रखना और उन के स्तनों को काटना उस समय के बर्बर सामन्ती ज़ुल्म को दर्शाता है। लोगों ने इस ज़ुल्म को चुपचाप बरदाश्त नहीं किया बल्कि इसके ख़िलाफ़ संघर्ष किया। फासीवादी अतीत की इस बर्बरता के बारे में और जनता की ओर से इस बर्बरता के ख़िलाफ़ किये गये संघर्ष को लोगों की यादों में से मिटा देना चाहते हैं क्योंकि यह ख़ुद इन मध्य-युगीन बर्बरों के वारिस हैं और आज भी धार्मिक अल्प-संख्यकों, दलितों, मज़दूरों और औरतों पर बर्बर ज़ुल्म कर रहे हैं और आने वाले समय में और भी भयंकर ज़ुल्मी कार्यों की तैयारी कर रहे हैं ।
लोगों को सत्ताधारियों के इस तरह के ग़ैर-मानवीय बर्बर ज़ुल्मों की याद और मौजूदा समय में हो रहे ज़ुल्म, इन सत्ताधारियों के ख़िलाफ़ नफ़रत और गुस्से के साथ भर देती हैं। हर तरह के ज़ोर-ज़ुल्म के ख़िलाफ़ अपने पूर्वजों के ऐसे संघर्ष लोगों को आज के समय में अन्याय और अत्याचार के ख़िलाफ़ लड़ने के लिये प्रेरित करते हैं ।
कितना घृणित है कि इन संगठनों को औरतों के संघर्ष की कहानी तो शर्मनाक लगती है परन्तु आये दिन औरतों के साथ होते बलात्कार, छेड़ -छाड़, शारीरिक शोषण और अश्लील फब्तियाँ कसना , एक माल के रूप में उनको पेश करके यह संगठन अपने “संस्कृति की रक्षा” करते हुए गर्वित महसूस करते हैं। इन को ज़रा भी शर्म नहीं आती।
नंगेली केरला के ट्रावनकोर की एक दलित औरत थी जिस ने 19वीं सदी में दलित जाति की औरतों के स्तन ढकने के अधिकार के लिये वहाँ के राजा के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी थी। पाठ्यक्रमों में शामिल नंगेली की कहानी इस तरह है ।
केरला के ट्रावनकोर में 19वीं सदी में दलित औरतों को अपने शरीर का ऊपरी हिस्सा ढकने की इजाज़त नहीं थी । इस का उल्लंघन करने पर उनको सख़्त सज़ा दी जाती थी। और स्तनों को ढकने के लिये राजा को टैक्स भी अदा करना पड़ता था जिस को बहुत सख़्ती के साथ वसूला जाता था। नंगेली ने राजा के इस ग़ैर-मानवीय टैक्स का विरोध किया ।उसने अपने स्तनों को ढकने के लिये टैक्स नहीं दिया तो ट्रावनकोर के राजा द्वारा नियुक्त अधिकारियों ने उस पर दबाव बनाया जिसके कारण उसने अपने स्तनों को काटकर ही अधिकारियों को दे दिया जिसके चलते उसकी मौत हो गयी ।
नंगेली की मौत ने दक्षिण भारत में एक सामाजिक आन्दोलन की चिंगारी भड़का दी। सभी दलित जातियों ने इस अपमान भरे कानून के ख़िलाफ़ बग़ावत कर दी। नंगेली की शहादत के निष्कर्ष के तौर पर औरतों के ख़िलाफ़ बने इस काले कानून को ख़त्म किया गया।
अब इस कहानी को किस तरह शर्मनाक कहा जा सकता है यह तो इन बेशर्मों को ही पता होगा। कितना भद्दा मजाक है कि जो लगातार औरतों को भद्दी और गंदी टिप्पणियाँ करके उनको मानसिक पीड़ा पहुँचाते हैं, संसद में बैठकर पोर्न फ़िल्में देख-देख कर अपनी काम-वासना को तृप्त करते हैं, छोटी -छोटी बच्चियों के साथ कुकर्म होने के बाद में कहते हैं कि लड़के हैं, इन से गलतियाँ हो जातीं हैं, कि लड़कियों को ख़ुद ध्यान रखना चाहिए, इन लोगों को औरतों की तरफ से अपने ख़िलाफ़ होते ज़ुल्मों का विरोध करना शर्मनाक लग रहा है।
उस पुराने समाज में व्याप्त जातिगत अपमान, जोर-जबरदस्ती और नीचता की कोई हद नहीं थी ।”सभ्य” और “सुसंस्कृत” कहे जाने वाले तथाकथित उच्च जाति के सामन्त दलितों को अपमानित करना और उनको दबाये रखने के लिये औरतों को अर्ध -नग्न अवस्था में रहने के लिये मजबूर करना अपना अधिकार समझते थे ।
इतिहास को अपने ढंग से तोड़-मरोड़ कर परोसना इन भगवा फासीवादियों की आम प्रकृति है क्योंकि इतिहास और तर्क इन के ख़िलाफ़ खड़े हैं। क्योंकि इन का ख़ुद का इतिहास ही बहुत घिनौना, शर्मनाक और नाक़ाबिले बरदाश्त है, इसी लिये यह सच्चाई पर पर्दा डालने, जनता के संघर्षों के ताप से ख़ुद की रक्षा करने के लिये इतिहास के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं, इसको मिट्टी तले दबा देना चाहते हैं।
यह सभी काम नौजवान वर्ग के विवेक को कुण्ठित करने, उनको ठण्डा, कायर, बुज़दिल और दुनियादार बनाने की साजिश के अन्तर्गत किया जा रहा है । इतिहास गवाह है कि हर ज़िन्दा कौम के बेटे-बेटियों ने अपनी आज़ादी और सामाजिक न्याय के आदर्श के लिये निरन्तर संघर्ष किया और अथाह कुर्बानियाँ दी हैं। एक -एक हक संघर्ष करके हासिल किया है, इसलिये ये शासक उस इतिहास को ही मिटा देना चाहते हैं जो अपने हकों-अधिकारों के लिये हमें लड़ना सिखाये ।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-अगस्त 2017
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