सूचना प्रौद्योगिकी सेक्टर में रोज़गार के अवसर: किसके लिए?
श्वेता
आजकल ज्ञान अर्थव्यवस्था (नॉलेज इकनॉमी बूम) में आ रही ‘‘तेज़ी’’ का खूब राग गाया जा रहा है। बहुत ही ज्यादा हो-हल्ले और हर्षोल्लास के साथ इस बात का ऐलान किया जा रहा है कि सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र (आई.टी. सेक्टर) में लगातार रोज़गार के नए-नए अवसर पैदा हो रहे हैं। यही नहीं बेरोज़गारी के लगातार कम होने के बड़े-बड़े दावे किए जा रहे हैं। केवल सरकार ही नहीं बल्कि दो कौड़ी के बाजारू अख़बार व पत्रिकाएँ भी लोगों के सामने भ्रामक ‘‘गुलाबी’’ तस्वीर पेश कर रही है।
आइए ज़रा देखा जाए कि सरकार के इन बड़े-बड़े दावों में कितनी सच्चाई है! बंगलूर को सूचना प्रौद्यगिकी का केन्द्र माना जाता है। अभी हाल ही में यहाँ किए गए नमूना सर्वेक्षण के जरिए कई ऐसे तथ्य सामने आए जिन पर ग़ौर करना दिलचस्प होगा। अक्सर ऐसा कहा जाता है कि सूचना प्रौद्योगिकी समाज के एक व्यापक हिस्से को रोज़गार दिला पाने में सक्षम है। इस सर्वेक्षण से यह बात सामने आ गयी है कि आखिर जिन रोज़गारों के बूते नॉलेज इकनॉमी बूम का साज़ छेड़ा गया है वह रोजगार इस देश के कितने नौजवानों को नसीब हो पा रहा है।
समाज में शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम के बीच का मतभेद अत्यन्त गहरा है। शारीरिक श्रम के प्रति घृणा का भाव और उसे कम करके आँकने की हमारी मानसिकता बहुत लम्बे समय से हमारे दिलो-दिमाग में रचे-बसे हैं। इसलिए हम लोगों का झुकाव प्रायः ऐसे कामों की तरफ़ होता है जिनमें मानसिक पहलू ज्यादा होता है। यही कारण है कि सूचना प्रौद्योगिकी में पैदा हो रहे रोज़गारों से हमें उम्मीद बँधती दिखाई देती है। इसलिए आम घरों से आए छात्र-छात्राएँ भी इन रोज़गारों में अपनी जगह बना पाए, इसके लिए वे हर मुमकिन कोशिश में जुट जाते है।
सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र के भीतर भी वर्ग पदानुक्रम प्रत्यक्ष रूप में देखने को मिलता है। यहाँ भी अलग-अलग पदों के लिए लोग नियुक्त किए जाते है (जैसे कि एग्जीक्यूटिव, मैनेजर, एसोसिएट्स, इंजीनियर, चपरासी आदि)। कामों में किया गया यह विभाजन किसी भी व्यक्ति विशेष की शैक्षणिक पृष्ठभूमि (जो कि असल में उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि से जुड़ी होती है) के आधार पर तय किया जाता है। खैर, यह चर्चा एक अलग लेख की माँग करता है जिस पर किसी और दिन तफ़सील से बात की जा सकती है। फ़िलहाल हम मुद्दे पर वापस आते हैं।
इस नमूना सर्वेक्षण के दौरान पता चला कि सर्वेक्षण के तहत आए कुल सॉफ्टवेयर पेशेवर (सॉफ़्टवेयर प्राफ़ेशनल) में से 80 प्रतिशत के पिता ग्रेजुएट हैं। इन कम्पनियों में काम कर रहे लोगों में केवल 2.2 फ़ीसदी ऐसे थे जिनके पिता की शिक्षा बारहवीं या उससे कम थी। 56 फ़ीसदी की माताएँ या तो ग्रेजुएट थीं या उससे अधिक शिक्षित थीं। इससे साफ़ तौर पर मालूम पड़ता है कि इन सूचना प्रौद्योगिकी की कम्पनियों में ज्यादातर वे लोग ही अपनी जगह बना पाते हैं जिनके परिवारजनों ने अच्छी शिक्षा प्राप्त की होती है। इनमें 84 फ़ीसदी के पिता ऐसे व्यवसायों में लगे थे जिन्हें उच्च मध्यमवर्गीय व्यवसायों की श्रेणी में गिना जाता है। 21 फ़ीसदी और 10 फ़ीसदी के पिता पब्लिक व प्राइवेट सेक्टर की कम्पनियों क्रमशः मैनेजर और एक्जीक्यूटिव के पद पर काम कर रहे थे, 21 फ़ीसदी के पिता सरकारी अफ़सरी कर रहे थे, 18 फ़ीसदी के पिता या तो डॉक्टर या फ़िर प्रोफेसरी जैसे पेशों से संबंध रखते थे, 13 फ़ीसदी के पिता व्यापार जगत से जुड़े थे। इनमें से केवल 9 फ़ीसदी के पिता छोटे दर्जे के व्यवसायों से जुड़े थे और 3 फ़ीसदी के पिता खेती-बाड़ी का काम कर रहे थे। इससे एक बात स्पष्ट होती है कि सूचना प्रौद्योगिकी में काम करने वाली अधिकतम आबादी खाते-पीते मध्यमवर्गीय परिवारों से आती है जिनका जीवन सुविधा सम्पन्न होता है और जीवन की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के बारे में उन्हें कोई चिंता नहीं होती है।
सर्वेक्षण के अन्य पहलुओं पर अगर एक सरसरी नज़र दौड़ई जाए तो समझ में आता है कि सूचना प्रौद्योगिकी में काम करने वाले लोग जिनका अध्ययन किया गया उसमें से 36 फ़ीसदी का जन्म किसी न किसी मेट्रो शहर में हुआ हैं; 29 फ़ीसदी का जन्म दूसरे दर्जे के शहरों में हुआ है (जैसे मैसूर और पुणे) और 31 फ़ीसदी का जन्म तीसरे दर्जे के शहरों में हुआ था, कम्पनियों में काम करने वाले लोगों में से 5 फ़ीसदी ईसाई हैं, 2 फ़ीसदी हिस्सा मुसलमानों का है। इस परिघटना को भी वर्ग दृष्टिकोण से देखने की जरूरत है क्योंकि इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि अल्पसंख्यकों का अधिकतम हिस्सा गरीबी और बदहाली में गुज़र बसर कर रहा है और अल्पसंख्यकों का जो छोटा-सा हिस्सा ऐसी कम्पनियों में नौकरियाँ पाने में समक्ष है, वह खाते पीते घरों से आता है।
वैसे तो इस पूरी परिघटना को व्यापक परिपेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है क्योंकि इन कम्पनियों में जो लोग जगह बनाते है वे मुख्यतः इंजीनियरिंग छात्र-छात्राएँ होते हैं। और यह बात किसी से छुपी नहीं है कि इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिला पाने वाले छात्र मुख्यतः उच्च मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि से आते है जिनके परिवारजनों के पास इतने आर्थिक संसाधन होते हैं कि वे अपने बच्चों को उच्च और मंहगी शिक्षा दिला पाएँ। ज्यादातर कॉलेजों की सालाना फ़ीस 40,000 से 50,000 रुपये के बीच होती है। यही नहीं ,इन कॉलेजों में दाखिले के लिए जो प्रवेश परीक्षा होती है, उसकी तैयारी कराने के लिए तरह-तरह के कोचिंग सेण्टर आज मैदान में उतरकर छात्रों को लुभाने में जुटे हुए है। इन कोचिंग सेन्टरों की फ़ीस भी कुछ कम नहीं होती, (सालाना तकरीबन 20,000 रुपये)। ऐसे हालातों में क्या आम घर से आए हुए छात्रों के लिए इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिला पाना मुमकिन है? इसलिए एक बहुत बड़ी आबादी तो पहले ही इन कॉलेजों तक पहुँचने में असमर्थ है। वे पहले ही अपनी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि की वजह से दरकिनार कर दिये जाते हैं। इसके बावजूद आम घरों से आने वाली एक छोटी सी आबादी जो किसी तरह से इन कॉलेजों तक अपनी पहुँच बनाती है, उसे भी देर-सवेर इन कम्पनियों से दूर खदेड़ दिया जाता है। इन कम्पनियों में भर्ती की प्रक्रिया को अत्यन्त जटिल बना दिया गया है ताकि साधारण पृष्ठभूमि के छात्र वहाँ तक न पहुँच पाए।
आइये ज़रा एक बार सॉफ्टवेयर कम्पनियों में भर्ती (कैम्पस पैलेसमेंट) की प्रक्रिया पर नज़र डाला जाए। ज्यादातर आई.टी. कम्पनियाँ केवल देश के बेहतरीन माने जाने वाले कॉलेजों में ही जाती है (जिन्हे रैंकों के आधार पर बाँटा गया है) । अब खुद सोचिये कि ऐसे कॉलेजों में पढ़ने वाले छात्र कौन से होते है? केवल वहीं विद्यार्थी कैम्पस प्लेसमेंट में हिस्सा ले सकते हैं जो कम्पनियों द्वारा निर्धारित की हुई न्यूनतम मानक (साधारणतः कोर्स के दौरान 70 फ़ीसदी अंक) को पूरा कर पाते है। यह शर्त निम्न जाति, ग्रामीण एवं कामकाजी परिवारों के छात्रों को बाहर कर देती है क्योंकि उनकी शिक्षा ज़्यादातर सरकारी या फ़िर देसी स्कूलों में होती है। और इन स्कूलों में शिक्षा का स्तर कैसा होता है, इसे बताने की तो कोई आवश्यकता नहीं हैं। आम परिवारों के छात्रों के पास इतने आर्थिक साधन ही नहीं होते है कि वे “अच्छे” कहे जाने वाले स्कूलों में दाखिला ले पाएँ और महँगी फ़ीसें जमा करवा पाएँ। नतीज़तन, होता यह है कि वे अच्छे अंक ला पाने में असमर्थ रहते हैं। खैर, इन सबके बावजूद जो थोड़े-बहुत छात्र किसी तरह से कॉलजों में दाखिले के बाद अच्छे अंक ला पाते हैं, और प्लेसमेंट प्रक्रिया के पहले पायदान पर क़दम रख देते हैं, उनकी छँटनी तो सामूहिक चर्चा (ग्रुप डिस्कशन) और इंटरव्यू के दौरान हो जाती है। सामूहिक चर्चा से कम्पनियाँ इस बात का अन्दाज़ा लगाती है कि आपकी संप्रेषण क्षमता (कम्यूनिकेशन स्किल्स) कितनी बेहतर है, कि आपका व्यक्तित्च उनकी कम्पनी की ‘‘संस्कृति’’ में जगह बनाने लायक है या नहीं। इसके पश्चात् इंटरव्यू की प्रक्रिया को चरणों में बाँटा गया है-एक तकनीकी (टेक्निकल) इंटरव्यू और दूसरा एच.आर. (हयूमन रिसोर्स) इंटरव्यू। एच.आर. इंटरव्यू में यह देखा जाता है कि आपकी अंग्रेजी पर पकड़ कैसी है, और गलती से अगर अंग्रेजी बोल पाने में आपको थोड़ी दिक्कत का सामना करना पड़ता है तो समझ लीजिए कि इन कम्पनियों में आपके लिए कोई जगह नहीं है क्योंकि आपका अंग्रेजी न बोल पाना कम्पनी के लिए “अपमान” का कारण बन सकता है। जाहिरा तौर पर अपनी पिछड़ी और गरीब पृष्ठभूमि की वजह से छात्रों का थोड़ा-सा हिस्सा जो किसी तरह से अपनी पैठ बनानी की कोशिश में लगा रहता है, वह भी पीछे धकेल दिया जाता हं।
कभी-कभी निश्चित तौर पर कई ऐसे अपवाद भी होते हैं जो अपनी गरीब पृष्ठभूमि के बावजूद उच्च शिक्षा संस्थानों तक अपनी पहुँच बना पाते हैं, पर इन अपवादों की संख्या अंगुलियों पर गिनी जा सकती है। गौरतलब बात यह है कि नौजवानों का केवल 7 प्रतिशत हिस्सा ही उच्च शिक्षा पाने की हैसियत रखता है। इनमें से केवल 0.1 प्रतिशत या 0.2 लोग ऐसे है जो सूचना प्रोद्योगिकी के क्षेत्र में रोज़गार पाते हैं और रोज़गार पाने वाली इतनी छोटी आबादी के बूते ज्ञान अर्थव्यवस्था में आ रही तेज़ी की बड़ी-बड़ी हवाई बातें की जा रही है।
असल में ज़मीनी हकीकत तो यह है कि इस व्यवस्था का मकसद सबको रोज़गार देना है ही नहीं। इसलिए शिक्षा को लगातार महँगा किया जा रहा है ताकि एक व्यापक हिस्से को पहले ही कॉलेजों में आने से रोका जाए। यूँ तो अर्थव्यवस्था के बढ़ते वृद्धि दर का भोंपू लगातार बजाया जा रहा है पर अब तो सरकार भी बड़ी बेशर्मी से यह कहती है कि जो विकास हो रहा है वह ‘‘रोज़गारविहीन विकास’’ है। अब यह सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं है कि वह सबको रोज़गार मुहैया कराये। इसलिए जल्द से जल्द इस इस बात को समझने की ज़रूरत है कि उच्च शिक्षा संस्थानों में दाखिला हो पाने के बावजूद आम घरों के लड़के-लड़कियों को रोज़गार मिलने की गारण्टी नहीं है। क्योंकि ये रोज़गार के अवसर उस ‘‘कुलीन’’ मध्यमवर्ग के लिए है जिनके पास पैसे की कोई कमी नहीं है। वैसे भी पूँजीवादी व्यवस्था में तो हर चीज़ माल की तरह बेची जाती है, इसलिए शिक्षा भी माल का रूप अपना लेती है-यानी जिसकी औकात हो, वो आकर खरीदे उसे! और जो खरीद नहीं सकता वह ज़िन्दगी भर सड़कों पर चप्पलें फ़टकारता फ़िरे! इसलिए साधारण परिवेश से आए छात्र जो सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अपना सुरक्षित भविष्य तलाश रहे हैं, उनके लिए ज़रूरी है कि इस क्षे़त्र में बढ़ते रोज़गारों का जो धूम्रावरण खड़ा किया गया है, उसे हटाकर सच्चाई पहचानने की कोशिश करे।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2008
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!