मन्दी का मार से छिनते रोज़गार
श्वेता
‘आह्वान’ के पिछले अंकों में लगातार विश्व आर्थिक मन्दी पर सामग्री दी गयी है। इसमें हमने सिलसिलेवार ढंग से मन्दी के कारणों, वैश्विक स्तर पर पड़ने वाले उसके प्रभावों और अलग-अलग देशों की सरकारों द्वारा मन्दी से निजात पाने के लिए अपनाये गये नुस्खों की विस्तार से चर्चा की है। इस लेख में हम मुख्यतः मन्दी के कारण रोज़गार पर पड़ने वाले प्रभाव को कुछ तथ्यों के ज़रिये समझने की कोशिश करेंगे। साथ ही, 1930 के दशक की महामन्दी एवं मौजूदा आर्थिक मन्दी के बीच की समानताओं पर एक नजर डालेंगे।
भूमण्डलीकरण के दौर में प्रत्येक क्षेत्र एक-दूसरे से नाभिनालबद्ध हो जाता है, इसलिए आर्थिक संकट चाहे किसी एक क्षेत्र में पैदा हुआ है उसका प्रभाव अन्य क्षेत्रों पर पड़ना लाज़िमी है। मौजूदा आर्थिक संकट में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला। भले ही इसकी शुरूआत वित्तीय क्षेत्र से हुई मगर देखते ही देखते संकट ने औद्योगिक एवं सेवा क्षेत्र को भी अपनी चपेट में ले लिया। ऋणों के महँगे होते जाने के साथ उपभोक्ता खरीद को वित्तपोषित करना नामुमकिन होने लगा, खरीदारी में कमी आने लगी जिसके कारण माँग में गिरावट पैदा हुई। नतीजतन मैन्युफ़ैक्चरिंग क्षेत्र में उत्पादन में कटौती हुई और इसके साथ ही शुरू हुआ छँटनी का सिलसिला। ताजा स्थिति के अनुसार अगर अमेरिका में बेरोज़गारी की बात की जाये तो मालूम पड़ता है कि उसने पिछले कई वर्षों का रिकार्ड तोड़ दिया है। आइये, अब तथ्यों के जरिये मन्दी की वजह से रोजगार पर पड़ने वाले प्रभावों को समझा जाये।
हाल ही में अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आई.एल.ओ.) की रिपोर्ट सामने आई जिसमें बताया गया है कि मन्दी के कारण इस वर्ष दुनिया भर में 5 करोड़ लोगों को बेरोज़गारी की मार झेलनी पड़ेगी। करीब 1 अरब 40 करोड़ लोग बेहद ग़रीबी में गुजर–बसर करने को मजबूर हो जायेंगे। मूडीस कैपिटल ग्रुप के प्रमुख अर्थशास्त्री जॉन लांस्की का कहना है कि वर्ष 2009 में अमेरिका में करीब 20 लाख 10 हजार नौकरियों में कटौती की जायेगी। कुछ कम्पनियों द्वारा छँटनी की प्रक्रिया पर अगर नजर डाली जाये तो नौकरियों के कम होते जाने की रफ्तार का अनुमान बड़े आराम से लगाया जा सकता है। अमेरिका की दूसरी सबसे बड़ी स्वास्थ्य इंश्योरेंस कम्पनी वेल पॉइंट ने करीब 1500 नौकरियों में कटौती करने की बात की। दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी कम्प्यूटर प्रोसेसर बनाने वाली कम्पनी एडवांस्ड माइक्रो ने 1100 नौकरियों को कम कर दिया है जो कि काम करने वाले कर्मचारियों का 10 प्रतिशत है। इसी तरह जनरल इलेक्ट्रिक की वित्तीय शाखा ने करीब 7500 से 11000 कर्मचारियों की छँटनी की बात की है। दुनिया की सबसे बड़ी हीरा बनाने वाली कम्पनी डी बियर्स ने 1000 नौकरियों में कटौती कर दी है; जापान की तीसरी सबसे बड़ी मोटर कार कम्पनी ने 2000 नौकरियों को कम करने की बात की। स्वीडन की दूसरी सबसे बड़ी ट्रक निर्माता कम्पनी स्केनिया एवी ने कहा है कि मन्दी के कारण माँग में कमी के चलते वह कम्पनी के 2000 अस्थायी कर्मचारियों के कांट्रेक्ट का नवीनीकरण नहीं करेगी। ब्रिटेन की सबसे बड़ी इंजीनियरिंग डिजाइन कम्पनी डब्ल्यू एस एटकिंस ने कम्पनी में मध्य पूर्व की शाखा में करीब 210 नौकरियों में कमी करने की योजना बनाई है। सोनी ने 80,000 नौकरियों में कटौती करने के साथ ही दुनिया भर में कार्यशील 10 प्रतिशत फ़ैक्ट्रियों को बन्द करने की घोषणा की है।
मन्दी के कारण विश्व व्यापार में आई कमी के चलते भारत और चीन जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था पर भी मन्दी का कहर बरपा हो रहा है। इन देशों में सकल घरेलू उत्पाद का एक बड़ा हिस्सा उपभोक्ता सामग्रियों और कच्चे माल के निर्यात से आता है। मन्दी के कारण उपभोक्ता सामग्रियों के निर्यात में आई कमी के कारण इन अर्थव्यवस्थाओं पर भी गहरा प्रभाव पड़ रहा है। अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ़.) के अनुसार उभरती एवं विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में निर्यात की वृद्धि दर में लगातार गिरावट का रुझान देखने को मिलेगा। यह दर वर्ष 2007 में 9.6 प्रतिशत थी, वर्ष 2008 में 5.6 प्रतिशत थी और वर्ष 2009 में 0.8 प्रतिशत हो जायेगी। मन्दी के कारण भारत के निर्यात क्षेत्र को करीब 1000 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। साथ ही मैन्युफ़ैक्चरिंग क्षेत्र, औद्योगिक क्षेत्र, सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र, बैंक एवं बीमा क्षेत्र पर भी गहरा प्रभाव पड़ा है। कई लाख लोग बैंक, बीमा एवं सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में नौकरियाँ गँवा चुके हैं। लेबर ब्यूरो, शिमला द्वारा आठ क्षेत्रों में किये गये सर्वेक्षण से पता चला कि इन क्षेत्रों में जहाँ सितम्बर 2008 में 1 करोड़ 62 लाख रोजगार मौजूद थे वहीं दिसम्बर 2008 में 1 करोड़ 57 लाख ही रोजगार रह गये। करीब 5 लाख रोज़गारों की कमी दर्ज की गयी। इन आठ क्षेत्रों में कपड़ा उद्योग, धातु उद्योग, सूचना प्रौद्योगिकी, ऑटोमोबाइल उद्योग, परिवहन उद्योग, खान उद्योग, निर्माण उद्योग एवं रत्न उद्योग शामिल है। अगर सर्वेक्षण की रिपोर्ट पर गौर किया जाये तो पता चलता है कि उपरोक्त उद्योगों में सितम्बर 2008 के बाद से प्रति माह 1.01 प्रतिशत की दर से रोजगार में कमी आई है। केन्द्रीय टेक्सटाइल मंत्रालय के अनुसार कपड़ा उद्योग में करीब 3,00,000 से 5,00,000 लोग अपनी नौकरियाँ गँवा देंगे। ज्ञात हो कि भारत का कपड़ा उद्योग निर्यात क्षेत्र में अहम भूमिका निभाता है। करीब 50 प्रतिशत टेक्सटाइल निर्यात के काम आता है जिसका 60 प्रतिशत तो केवल अमेरिका और यूरोपीय संघ को ही निर्यात किया जाता है। कपड़ा उद्योग के अलावा अगर नौकरियों में कमी की बात करें तो हम पाते हैं कि सूचना प्रौद्योगिकी में अभी तक 4 लाख लोग नौकरियों से हाथ धो बैठे हैं, मुम्बई में रबड़ उद्योग में 3000 लोगों के रोजगार छिन गये हैं, सूरत में रत्न उद्योग में करीब 1 लाख लोगों की नौकरियाँ छिन गयी हैं। इन सबके अलावा भारत में अनौपचारिक क्षेत्र के तहत कई फ़ैक्ट्रियाँ हैं जो ग्लोबल असेम्बली लाइन का ही एक हिस्सा हैं जहाँ स्पेयर पार्टस आदि बनाने का काम होता है। ऐसे छोटे-छोटे कारखानों में भी मज़दूर रोज-ब-रोज छँटनी का सामना कर रहें हैं।
पूँजीवादी व्यवस्था में मन्दी कोई नई परिघटना नहीं है। पहले भी अर्थव्यवस्था मन्दी के भँवर में जा फ़ँसी है मगर ध्यान देने योग्य बात यह है कि मौजूदा मन्दी की स्तर, तेज़ी, सघनता और व्यापकता के लिहाज़ से सिर्फ़ 1930 की महामन्दी से तुलना की जा सकती है। इसके अलावा बेरोजगारी में हो रही वृद्धि भी पहले की किसी और मन्दी में इतनी तेजी से सामने नहीं आयी। केवल 1930 के दशक में आई महामन्दी में ही बेरोजगारी की दर वर्तमान मन्दी से अधिक थी। इसी कारण कई अर्थशास्त्री वर्तमान मन्दी की तुलना 1930 के दशक की महामन्दी से कर रहे हैं। मेरिल लिंच के सी.ई.ओ. जॉन थेन के अनुसार ‘‘यह मन्दी 1987 या 1998 या 2001 जैसी कत्तई नहीं है। जिस प्रकार के संकट से हम गुजर रहे हैं उसमें जरूरी है कि एक नज़र 1929 के दौर पर डाली जाये।’’ अगर 1930 के दशक की महामन्दी की बात करें तो उसका तात्कालिक कारण था – शेयर बाजार का 29 अक्टूबर 1929 को ध्वंस जिसके कारण करीब 40 बिलियन डॉलर स्वाहा हो गया। 9000 बैंक धराशाही हो गये। थोड़े बहुत जो बैंक मन्दी के चपेट से बच गये थे उन्होंने नए ऋण देना बन्द कर दिया जिसके चलते व्यापार में भारी नुकसान होने लगा। बेरोजगारी की दर 25 प्रतिशत तक पहुँच गयी थी, करीब 1 करोड़ 30 लाख लोग बेरोजगार हो गये, एक तिहाई आबादी बेहद ग़रीबी में डूब गयी। औद्योगिक उत्पादन में 1929 से 1932 के बीच 45 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी। आवास-निर्माण में करीब 80 प्रतिशत की कमी आई। इस महामन्दी का प्रभाव न केवल अमेरिका पर बल्कि आस्ट्रेलिया, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, लातिन अमेरिका, नीदरलैंड, ब्रिटेन आदि पर भी पड़ा।
वर्तमान मन्दी में भी 1930 के दशक की महामन्दी जैसी कुछ समानताएँ नजर आने के चलते पूँजीवादी व्यवस्था के पहरेदारों की नींद हराम हो गयी है। तभी तो अलग-अलग देशों की सरकारें अर्थव्यवस्थाओं को मन्दी से उबारने के लिए कई तिकड़में भिड़ा रही है। अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, जर्मनी, बेलजियम, आइसलैंड, फ्रांस ने अपनी-अपनी अर्थव्यवस्थाओं में क्रमशः 990, 200, 876, 50, 16, 864, 300 बिलियन डॉलर के बेलआउट पैकेज डाल दिये हैं। मगर व्यवस्था के पैरोकार भी इस सच्चाई से भली-भांति वाकिफ़ हैं कि इस तरह के नुस्खे केवल ‘पेन किलर’ का काम करते हैं, उनमें रोग को जड़ से खत्म करने की ताकत नहीं है। एक ख़तरा जो व्यवस्था के चाकरों के पाँव में काँटे की तरह चुभ रहा है वह है बढ़ती बेरोजगारी एवं ग़रीबी के कारण जनअसंतोष फ़ूट पड़ने की सम्भावना। इस ख़तरे से तमाम हुक्मरानों में बौखलाहट साफ़ दिखाई देने लगी है। जिसका एक उदाहरण अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आई.एल.ओ.) के डायरेक्टर जेनेरल जुआन सोमाविया का बयान है जिसमें उन्होंने स्वीकार किया है कि आज अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर विश्वव्यापी सामाजिक संकट से निपटने के लिए जरूरी है कि उत्पादक निवेश को बढ़ावा दिया जाये।
हाल ही में हुए जी-20 शिखर सम्मेलन में मन्दी का मुद्दा पूरी तरह छाया रहा। अमेरिका और यूरोपीय संघ ने मिलकर विश्व अर्थव्यवस्था के लिए एक बेल आउट पैकेज घोषित किया। इसमें चीन की मदद ली गयी। नकदी के सूख जाने के जिस संकट का शिकार विश्व अर्थव्यवस्था है उसे फ़िलहाली तौर पर भी दूर करने की ताक़त अमेरिका और यूरोपीय संघ में नहीं है। यह ताक़त फ़िलहाल सिर्फ़ चीन के पास है जिसके पास अपने ज़बर्दस्त विदेशी व्यापार के चलते भारी मुद्रा भण्डार है। इस मुद्रा भण्डार के बूते पश्चिमी पूँजीवाद की नैया थोड़ी देर के लिए भँवर से निकालने के लिए (क्योंकि यह थोड़ी देर के लिए ही सम्भव है) चीन भी विश्व पैमाने पर अधिक प्राधिकार और ताक़त की माँग कर रहा है। अमेरिका और यूरोपीय संघ को अपने वर्चस्व के टूटने का ख़तरा नज़र आ रहा है इसलिए फ़िलहाली तौर पर अमेरिका और यूरोपीय संघ ने अपने मतभेदों को दरकिनार करने पर सहमति बनाई है। ओबामा जी-20 सम्मेलन के बाद स्ट्रटगार्ड में टाउन हॉल मीटिंग में अपने भाषण में यूरोप और अमेरिका के पारंपरिक याराने का ज़िक्र करते-करते भावातिरेक में आ गये थे! लेकिन ऐसी सभी साम्राज्यवादी यारियाँ क्षणिक हुआ करती हैं। विश्व इस समय जिस उथल-पुथल से गुज़र रहा है उससे निकल पाने का रास्ता फ़िलहाल विश्व पूँजीवाद को नज़र नहीं आ रहा है। उसके लिए राहत की बात सिर्फ़ इतनी है कि दुनिया भर में क्रान्तिकारी ताक़तें उनसे भी ज़्यादा बिखराव की शिकार हैं। ऐसे में यह आर्थिक मन्दी अगर सामाजिक उथल-पुथल को जन्म देगी भी तो विश्व पूँजीवाद उस पर काबू पा लेगा। अगर कोई संगठित, ताक़तवर और विवेकवान क्रान्तिकारी आन्दोलन किसी सम्भावना-सम्पन्न देश में मौजूद होता, तो तस्वीर काफ़ी ज़बर्दस्त करवट भी ले सकती थी।
वैश्विक वित्तीय बाज़ार ने एक ऐसा जाल बुन लिया है जिसमें से निकलने का कोई रास्ता व्यवस्था के वफादारों को समझ नहीं आ रहा है। आर्थिक संकट पूँजीवाद की लाइलाज बीमारी है जिससे निजात पाने का केवल एक ही रास्ता है कि वैकल्पिक व्यवस्था के बारे में गम्भीरता से सोचा जाये एवं तैयारियों में जुटा जाये।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अप्रैल-जून 2009
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!