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मानव-संघर्ष और प्रकृति के सौन्दर्य के शब्दशिल्पी त्रिलोचन सदा हमारे बीच रहेंगे!

त्रिलोचन की कविताएँ जीवन, संघर्ष और सृजन के प्रति अगाध आस्था की, बुर्जुआ समाज के रेशे-रेश में व्यक्त अलगाव (एलियनेशन) के निषेध की और प्रकृति और जीवन के व्यापक एंव सूक्ष्म सौन्दर्य की भावसंवेदी सहज कविताएँ हैं। सहजता उनकी कविताओं का प्राण है। वे जितने मानव-संघर्ष के कवि हैं, उतने ही प्रकृति के सौन्दर्य के भी। पर रीतकालीन, छायावादी और नवरूपवादी रुझानों के विपरीत प्रकृति के सन्दर्भ में भी त्रिलोचन की सौन्दर्याभिरुचि उनकी भौतिकवादी विश्वदृष्टि के अनुरूप है जो सहजता-नैसर्गिकता-स्वाभाविकता के प्रति उद्दाम आग्रह पैदा करती है और अलगाव की चेतना के विरुद्ध खड़ी होती है जिसके चलते मनुष्य-मनुष्य से कट गया है, और प्रकृति से भी।

देशी-विदेशी पूँजी की सेवा में मैकाले के मानसपुत्रों की कवायद

किसी स्वतन्त्र देश के लिए इससे बड़ी त्रासद विडम्बना क्या हो सकती है कि साठ वर्षों के बाद भी उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में एक औपनिवेशिक भाषा मजबूरी बनी हुई है। 1948 में डा. राधाकृष्णन ने उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी को एक तात्कालिक विवशता बताया था और इसे जल्द से जल्द दूर कर लेने की बात कही थी। लेकिन 60 वर्षों से बदस्तूर चली आ रही इस विवशता को अब अपरिहार्य मानते हुए ज्ञान आयोग ने उसे औपचारिक रूप प्रदान कर दिया है। आयोग ने अब उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेज़ी को विवशता नहीं आवश्यकता मानते हुए उसे प्राथमिक स्तर से ही अनिवार्य बना देने की सिफ़ारिश की है। भूमण्डलीकरण के इस दौर में ज्ञान आयोग का यह कदम एक किस्म से सांस्कृतिक उपनिवेशन की स्थिति को औपचारिक रूप प्रदान करना है।