बाज़ार के हवाले चिकित्सा व्यवस्था में दम तोड़ते आम मेहनतकश
गजेन्द्र
जालन्धर के एक अस्पताल में पाँच दिन की एक बच्ची को इनक्यूबेटर (समयपूर्व पैदा हुए नवजात शिशु को ज़िन्दा रखने की मशीन) से निकाल दिया गया और उसकी मृत्यु हो गयी। बच्ची को चिकित्सा से इसलिए वंचित कर दिया गया क्योंकि उसके माँ-बाप ने अस्पताल में इलाज के लिए 200 रुपये जमा नहीं किये थे। यह एक रंगाई मज़दूर संजीव कुमार की बच्ची थी लेकिन यह केवल एक संजीव की दुःखगाथा नहीं है, वरन् इस देश के उन ग़रीबों की आम सच्चाई है जो बिकाऊ माल बना दी गयी चिकित्सा को ख़रीद नहीं सकते। विडम्बना की बात यह है कि यह ठीक उसके बाद की घटना है जब पंजाब सरकार ने यह घोषणा की थी कि नवजात शिशुओं का सरकारी अस्पतालों में मुफ़्त इलाज किया जाएगा। अभी कुछ माह पहले ही जब आज़ादी की 65वीं वर्षगाँठ मनाते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह विकास के कसीदे पढ़ रहे थे तो थोड़ा चिन्तित दिखे तो महज़ इसलिए कि देश में सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर थोड़ी कम हो गयी है! मगर प्रधानमंत्री जी की इस ‘विकास दर’ में, जो कि पूरी तरह से अमीरों के विकास का सूचक है, इस देश की ग़रीब जनता के बुरी दशा की कोई गणना नहीं होती है।
कुछ दिन पहले जम्मू और कश्मीर के जी.बी. पन्त अस्पताल में नवजात शिशु मृत्यु दर पर रिपोर्ट सामने आयी। इस रिपोर्ट से स्वास्थ्य तन्त्र में व्याप्त भयंकर अव्यवस्था और अमानवीयता उजागर हुई। जी.बी. पन्त अस्पताल में जनवरी 2012 से मई 2012 के बीच, यानी महज पाँच महीनों में, 500 से अधिक शिशुओं की मृत्यु हो गयी। और यह आँकड़ा भी सच्चाई को आंशिक ही बताता है क्योंकि अस्पताल में भर्ती 2219 शिशुओं में से मात्र 889 की ही फाइलें ही मिली जिसमें से 312 बच्चों की मृत्यु की पुष्टि हुई। साठ फीसदी से अधिक फाइलें गायब थीं! जाँच रिपोर्ट में बताया गया कि नवजात सघन चिकित्सा कक्ष (एन.आई.सी.यू) बुरी दशा में था और आक्सीजन पाइपों में धूल भरी पड़ी थी। अस्पताल परिसर के अन्दर दवा की दुकानें दवा माफियाओं के चुंगल में थी और उनके लोगों को अक्सर अस्पताल के अन्दर घूमते हुए पाया जाता था। जूनियर डॉक्टरों को मेडिकल सुपरिनटेण्डेण्ट द्वारा उन्हीं दवाओं को लिखने का निर्देश था जो दवा माफिया चाहते थे। घाटी का एक मात्र शिशु अस्पताल का नजारा किसी जीवन प्रदायी केन्द्र का नहीं बल्कि एक लाश घर जैसा था। यहाँ चिकित्सा और रोग निदान मानवीय पेशा न होकर लोगों की ज़िन्दगी की कीमत पर पैसा कमाने का ज़रिया था। और यह इस देश के किसी एक अस्पताल के हालात नहीं हैं बल्कि इस देश के प्रत्येक उस सरकारी अस्पताल का हालात है जहाँ इस देश की ग़रीब आबादी इलाज करवाती है। इस चिकित्सा तन्त्र की मानवद्रोही व वीभत्स स्थिति की जानकारी के लिए इस देश ग़रीब आबादी को किसी रिपोर्ट की ज़रूरत भी नहीं है। वह अस्पतालों की लम्बी लाइनों से इस बात को जानती है। ख़ाली जेब दवा की पर्चियों व पौष्टिक आहारों के नुस्खे पकड़े अपनी ज़िन्दगी की जद्दोजहद से और अपनी आँखों के सामने अपने सबसे प्यारे शिशु को ज़िन्दगी और मौत से लड़ते देखकर वह ये सब समझती-जानती है।
इस सम्बन्ध में जब मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि ‘रिपोर्ट राज्य सरकार के सामने आने से पहले मीडिया में कैसे चली गयी’। इससे समझा जा सकता है कि जनता की ज़िन्दगी की किसी भी सच्चाई को सार्वजनिक होने से पहले कितने हेर-फेर से गुज़रना पड़ता है। पूँजीवादी व्यवस्था हर कीमत पर उसे दबाने का प्रयास करती है। सरकारें और नेता मंच से चिल्लाकर कहते है कि बच्चे देश के भविष्य हैं। लेकिन इन बच्चों को बेदर्दी से मौत की नींद सुलाने वाला कौन है? यह असंवेदनशीलता जो शिशुओं के प्रति है उसका सूत्रधार कौन है? एक-एक करके बच्चों की मौतें होती रहती है और सरकारें कहती हैं कि वे नागरिकों के जीवन स्तर को सुधार रही हैं। ‘चमकते हुए भारत’ की तस्वीर यह है कि यहाँ कुपोषण उपसहारा अफ्रीका से भी अधिक है। तीन वर्ष तक के 46 फीसदी बच्चों की औसत वृद्धि स्वास्थ्यकर सीमाओं से कम है। 47 फीसदी कम वज़न के है। दुनिया का प्रत्येक तीसरा कुपोषित बच्चा भारतीय है। झुग्गियों में रहने वाले 20 लाख बच्चे प्रत्येक वर्ष मर जाते हैं और भारतीय अर्थव्यवस्था ‘विकास’ की कुलाचें मार रही है!
संविधान की दुहाई देने वाली सरकारें खुद संविधान का मखौल उड़ाती हैं। न्यायपालिका की गरिमा की बात करने वाले नेता और उनकी चुनावी पार्टियाँ स्वयं जनता को उनके नागरिक और संवैधानिक अधिकार से वंचित कर रही हैं। संविधान का अनुच्छेद 21 कहता है कि ‘कोई भी व्यक्ति अपने जीवन से वंचित नहीं किया जा सकता। एक मुक़दमे में फैसला सुनाते हुए एक अदालत ने कहा कि ‘जीवन का अधिकार स्वास्थ्य के अधिकार को भी शामिल करता है’ (मनिन्दर सिंह बनाम पंजाब सरकार)। पी. नल्ला यम्पी बनाम भारत सरकार मामले में सर्वोच्च न्यायालयों के निर्णय भी यही कहते दिखायी देते हैं। लेकिन जब हम वास्तविकता पर नज़र डालते है तो देखते है कि तमाम कानूनों से संकुचित किये गए एवं अन्तरविरोधपूर्ण बातों से भरे संविधान द्वारा जो सीमित नागरिक अधिकार प्राप्त भी है उनसे आज लोगों को वंचित किया जा रहा है। एक तरफ कागज़ों पर समानता की बात करना और दूसरी तरफ जीने की हर चीज़ को पाने की क्षमता का निर्धारण लोगों की जेब के अनुसार करना! यह इस देश की ग़रीब आबादी का मख़ौल बनाना है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2011 की रिपोर्ट के अनुसार 70 फीसदी भारतीय अपनी आय का 70 फीसदी हिस्सा दवाओं पर ख़र्च करते है। भारत विश्व का दवा घर है। वर्ष 2008 में यहाँ का घरेलू दवा बाज़ार 55,000 करोड़ रुपये से अधिक का था। स्वास्थ्य तन्त्र में फैला भ्रष्टाचार आज सत्ता और कम्पनियों की गठजोड़ से ऊपर से नीचे तक फैला हुआ है। कुछ वर्ष पूर्व केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री ने सार्वजनिक क्षेत्र की टीका उत्पादक कम्पनियों को उत्पादन बन्द करने का आदेश दिया ताकि निजी क्षेत्र की कम्पनियाँ लोगों को लूट सकें। मेडिकल काउंसिल का सदस्य डॉ. केतन देसाई मेडिकल संस्थानों को स्वीकृति देने हेतु रिश्वत लेते हुए गिरफ़्तार किया गया। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ मिशन (एन.एच.आर.एम.) राजनेताओं, डाक्टरों एवं प्रशासकों के लिए आज सोने की खान साबित हुआ है। मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश में घोटालों के कितने ही मामले सामने आये है। आज जब कुछ टीवी चैनलों पर बहसों द्वारा और आमिर खान के टी.वी. शो ‘सत्यमेव जयते’ द्वारा यह बहस उठायी जा रही है कि सर्वाधिक मानवीय पेशा यानी चिकित्सा कितना नीचे गिर गया है और लोगों को जीवन देने वाला कार्य आज पैसा कमाने की अन्धी होड़ में पतित हो चुका है, तो ये एक सही प्रश्न उठाते हुए भी इसके सुधार का एक भावनात्मक तथा आदर्शवादी समाधान सुझाते हैं और ऐसा करते हुए वास्तव में इसी व्यवस्था को बचाने का काम करते हैं। दरअसल पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में निजी लाभ बहुतों के शोषण के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। पूँजी की गति हर एक क्षेत्र को मुनाफे की होड़ में धकेल देती है। यहाँ पेशे के मानवीय होने या न होने से पूँजी को कोई फर्क नहीं पड़ता! उसे फर्क पड़ता है तो सिर्फ़ उसके मुनाफ़े से। यह पूँजीवाद का सामान्य तर्क और नियम है कि निजी मुनाफ़ा ही “विकास” की चालक शक्ति का काम करता है! जाहिर है, अमीरज़ादों का विकास, जैसा कि ‘पूँजीवाद’ शब्द में ही अन्तर्निहित है। मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा मुनाफ़े की ख़ातिर इंसान के गोश्त को भी बेच खाने की प्रवृत्ति उसकी कोई विसंगति या विचलन नहीं है, बल्कि उसकी स्वाभाविक गति है। जो नौजवान अभी भी दूसरों के दुख-दर्द को महसूस करना जानते हैं, और नवजात शिशुओं की मौतों पर जिनका दिल गुस्से और नफ़रत से भर उठता है, उन्हें यह समझना होगा कि यह कुछ लोगों की नाजायज़ हरक़त या लालच का फल नहीं है। इस त्रासद स्थिति की जड़ में मुनाफ़ा-केन्द्रित पूँजीवाद व्यवस्था है। जब तक इसे तबाह नहीं किया जाता, तब तक यह हमारे जीवन को तबाह करती रहेगी।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2013
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