आरक्षण की फसल
अरविन्द
पिछले दिनों आरक्षण की माँग को लेकर जाट समुदाय के लोग रेल पटरियों व सड़कों पर थे। मुख्यतः हरियाणा, उत्तरप्रदेश व कुछ पंजाब में ये लोग अन्य पिछड़ी जनजातियों (ओबीसी) के तहत केन्द्र सरकार से माँग कर रहे थे कि उन्हें पूरे देश स्तर पर रोज़गार के अधिक अवसर उपलब्ध करवाये जायें। इससे पहले गुर्जर, मीणा आदि समुदायों के लोग भी आरक्षण की ‘लड़ाई’ में अपने हाथ आज़मा चुके हैं, और अब हरियाणा में तो ब्राह्मण भी आरक्षण की माँग उठा रहे हैं! कई बार तो ख़ुद राज्य सरकारें व क्षेत्रीय चुनावी दल भी अपने वोट बैंक के खिसकने के डर से आरक्षण की माँग उठाने वालों के पक्ष में नज़र आये। जिसके कारण उन्हें सुप्रीम कोर्ट से फटकार भी खानी पड़ी।
अब सोचने की बात यह भी है कि जिन लोगों को एससी (अनुसूचित जाति), बीसी (पिछड़ी जाति) व एसटी (अनुसूचित जनजाति) के तहत आरक्षण मिला हुआ है, उनको रोज़गार के अवसर कहाँ तक उपलब्ध हैं? गाँव में रहने वाले तमाम पिछड़े वर्ग के लोग जो अधिकतर मौसमी खेत मज़दूरी करते हैं, आस-पास के शहरों में दिहाड़ी, फैक्टरी में काम करने से लेकर, रिक्शा-ठेला चलाते हैं। जिनको बाकायदा पहले से ही आरक्षण मिला हुआ है, उन्हें रोज़गार के अवसर कहाँ तक उपलब्ध हो पाते हैं? वहीं दूसरी तरफ खाते-पीते किसान व कुछ शिक्षित तबके लोगों को जातीय आधार पर आरक्षण के लिए ‘संगठित’ करने में लगे हैं। यह अलग बात है कि आम लोग ही पूरी तरह से उनके साथ नहीं हैं। एक तरफ जहाँ आरक्षण की ‘लड़ाई’ में अगुवाई करने वालों के तीर चुकते जा रहे हैं वहीं जनता भी इसे नौटंकी से ज़्यादा कुछ नहीं मान रही है। चाहे यशपाल मलिक हों अथवा हवासिंह सांगवान हों जो जाट आरक्षण के झण्डाबरदार बने हुए हैं, या बैंसला से लेकर तमाम अन्य दूसरे लोग जो जातीय आधार पर आरक्षण की ‘लड़ाई’ लड़ रहे हैं, सभी का काम जनता को सिर्फ बरगलाना भर है।
थोड़ा तथ्यों व आँकड़ों पर ध्यान देकर विवेक का प्रयोग करने की ज़रूरत है। बात बिलकुल साफ हो जायेगी कि आरक्षण महज़ एक नौटंकी किसलिए है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि कैसे पब्लिक सेक्टर को ख़त्म करके हर चीज़ का बाज़ारीकरण किया जा रहा है। निजी मालिकाने में भी लगभग 90 फीसदी काम दिहाड़ी, ठेका, पीसरेट आदि पर कराया जाता है, 7 से 9 फीसदी विकास दर वाले देश में लगभग 28 करोड़ लोग बेरोज़गार हैं, तो आखि़र आरक्षण के मायने क्या है? दूसरा जिन जातियों के लिए आरक्षण की माँग हो रही है, (चाहे वे जाट, गुर्जर, यादव, मीणा कोई भी हों) उनमें भी ध्रुवीयकरण जारी है, पूँजी की नैसर्गिक गति भारी आबादी को उजाड़कर सर्वहारा, अर्धसर्वहारा की कतार में खड़ा कर रही है। तो इसमें भी बड़े किसान, कुलक ही पूँजीवादी भूस्वामी बनकर चाँदी काट रहे हैं, और दूसरे लोगों के लिए आरक्षण का झुनझुना थमाने पर आमादा हैं।
ऐसे में साफ है कि देश के आम छात्र-नौजवानों को इन धन्धेबाज़ों की लफ्फाज़ी में उलझने की बजाय “सबको समान और निःशुल्क शिक्षा तथा काम करने योग्य हर व्यक्ति के लिए रोज़गार के समान अवसर” का नारा बुलन्द करना चाहिए। और यह सार्वजनिक उत्पादन व निजी मालिकाने की इस पूँजीवादी व्यवस्था में सम्भव नहीं है, भले ही यह व्यवस्था ख़ुद को कितना ही लोकतान्त्रिक और जनतान्त्रिक बताये। रास्ता केवल एक ही है, भले ही वह लम्बा हो कि देश की 80-85 फीसदी सर्वहारा-अर्धसर्वहारा आबादी को लामबन्द किया जाये व एक ऐसे समाज के लिए आगे आया जाये जिसमें सभी को विकास के समान अवसर मिलें तथा उत्पादन सार्वजनिक हितों के लिए हो।
आरक्षण की फसल काटने वालों से लेकर धर्म, क्षेत्र, भाषा, जाति आदि के नाम पर लड़ाने वालों को जनता के सामने लगातार नंगा किये जाने की ज़रूरत है, तभी हम अच्छे समाज के लिए सही शुरुआत कर सकते हैं।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2011
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