स्कूल बचाओ अभियान का ये पैगामः सबको शिक्षा एक समान!

बेबी

जिसे हम आजकल ‘शिक्षा’ कहते हैं, वह उपभोक्ता माल है, जिसका उत्पादन ‘स्कूल’ नाम की संस्था द्वारा होता है। जितनी अधिक शिक्षा कोई व्यक्ति उपभोग करता है, उतना ही वह अपने भविष्य को सुरक्षित बनाता है। साथ ही साथ ज्ञान के पूँजीवाद में उसका दर्ज़ा ज़्यादा ऊँचा उठता है। इस तरह शिक्षा समाज के पिरामिड में एक नया वर्ग बनाती है और जो शिक्षा का उपयोग करते हैं, वे यह दलील पेश करते हैं कि उन्हीं से समाज को ज़्यादा फायदा है।”

इवान इलिच (ऑस्ट्रियन शिक्षाशास्त्री)

अमीर और ग़रीब में बँटे हमारे समाज में स्कूल भी दोहरे स्तरों में बँटे हुए हैं। एक तरफ हैं दिल्ली पब्लिक स्कूल, केन्द्रीय विद्यालय सरीखे स्कूल तो दूसरी ओर नगर निगम और सर्वोदय विद्यालय सरीखे; एक स्कूल घुड़सवारी, स्वीमिंग पुल, हवाई जहाज प्रशिक्षण, विदेशी शिक्षक जैसी सुविधाएँ देता है तो दूसरे में पीने का पानी नहीं है, शौचालय नहीं है, शिक्षक नहीं हैं; एक स्कूल में व्यापारियों, पूँजीपतियों, बडे़ अफ़सरान के बच्चे पढ़ते हैं तो दूसरे में मज़दूरों, रिक्शा चालकों, पान की दुकान वालों के बच्चे पढ़ते हैं। यह खुद सभी नागरिकों को समान मानने वाले भारत के संविधान का उल्लंघन  है, वैसे इस संविधान के बारे में जितना कम कहा जाये बेहतर है। भारतीय संविधान के दुनिया में सबसे भारी-भरकम संविधान होने का कारण यही है कि इसमें हरेक अधिकार के साथ उस अधिकार को हज़म कर जाने का प्रावधान भी जोड़ा गया है!

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अमीरों के बच्चों के लिए अलग स्कूल और ग़रीबों के बच्चों के लिए अलग स्कूल हैं। बच्चों को बाज़ार में बिकने वाले तमाम संसाधनों की तरह मैन्युफैक्चर किया जा रहा है। उनके स्वप्नशील कोमल मस्तिष्क को 8-8 घन्टे की रटन्तू शिक्षा के द्वारा स्कूलों (वह भी शिक्षक रहित, कक्षा विहीन, शौचालय विहीन) में औकात के हिसाब से काँट-छाँट कर अलग-अलग पेशे के लिए ‘मानव संसाधन’ तैयार किया जा रहा है। मुनाफे़ पर टिकी व्यवस्था इंसान की मेहनत और कुदरत की लूट पर चलती है, इसी लूट को व्यवस्थित करने की माँग बड़े मुनाफ़ाखोरों की होती है, इसीलिए सरकार बचपन से ही बच्चों को स्कूलों के ज़रिये मुनाफ़ाखोर व्यवस्था द्वारा चूसे जाने के लिए तैयार कर देती है।

सच्चे मायने में स्कूल का मकसद क्या होता है? स्कूली शिक्षा किसी भी बच्चे के भविष्य की बुनियाद होती है। यहीं से समाज की भावी पीढ़ी के निर्माण का कार्य शुरू होता है। स्कूली व्यवस्था का मकसद मानव समाज के प्रागैतिहासिक काल से लेकर आधुनिक युग तक के संचित सामाजिक अनुभवों से नयी पीढ़ी को परिचित कराना है। यानी खेती करना, खाना पकाना, कढ़ाई करना, लिखना, पढ़ना, विज्ञान, कला, भाषा से लेकर लगभग हर तरह के जीवनानुभव। ज्ञान की उत्पत्ति सामाजिक है, यह व्यवहार से पैदा होता है। हर बच्चे को समान रूप से ज्ञान की हर बुनियादी श्रेणी से परिचित कराया जाना चाहिए। स्पष्टतया स्कूल को एक श्रम स्कूल होना चाहिए जो बच्चों को सिर्फ किताबी ज्ञान ही नहीं बल्कि व्यावहारिक ज्ञान भी सिखाये। ऐसे स्कूल एकसमान स्कूल व्यवस्था के अन्तर्गत ही सम्भव हैं। यानी ऐसे एकीकृत स्कूल जो अध्ययन की एक विधि लागू करते हों व समाज के हर वर्ग से आनेवाले बच्चों के लिए समान हों। ऐसे स्कूल जो सभी बच्चों को उनके आर्थिक-सामाजिक मूल का ख़्याल किये बिना विकास की सम्भावना प्रदान करते हों। ऐसे स्कूल जो बिहार, बंगाल और केरल आदि के विभिन्न भाषाओं के बच्चों को उनकी भाषा में ही किताबें और अध्यापक देते हों। व्यवहारवादी अमेरिकी शिक्षाविद् जॉन डेवी तक का भी यही मत था, हालाँकि उनके दार्शनिक विचारों से असहमति जतायी जा सकती है लेकिन फिलहाल यह हमारा विषय नहीं है। सोवियत रूस ने भी ऐसी एकसमान स्कूल व्यवस्था को व्यवहारतः सम्भव कर दिखाया था। परन्तु हमारे देश के स्कूल ऐसे नहीं हैं।

आगे की बातचीत से पूर्व स्कूल व्यवस्था के इतिहास पर सरसरी निगाह डालते चलें। समाज विकास के शुरुआती दौर में स्कूल नाम की कोई संस्था नहीं थी। लोग अलग-अलग कामों के लिए औजार ईज़ाद करते थे और ‘करके’ सीखते थे। हरेक व्यस्क या बड़ा ही शिक्षक था। बच्चे, बड़े लोगों के अनुभव से सीखते थे। इस तरह ज्ञान, मेहनत और जीवन एक-दूसरे से अलग नहीं थे। विकास के अगले चरण में वर्गों के उदय के बाद ही स्कूली व्यवस्था का जन्म हुआ और शिक्षा उत्पादन बन गयी। इस पर एक ख़ास वर्ग का एकाधिकार हो गया। रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से दूर एक बनावटी वातावरण विकसित हुआ और इसमें उत्पादन से कटे हुए समाज के उच्च तबके की ज़रूरत के अनुसार शिक्षा दी जाने लगी जबकि अन्य वर्गों के लोग अपने जीवन संघर्षों से ही सीखते रहे।

पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में विज्ञान व तकनीक का विस्तार हुआ। कल-कारखानों में काम करने वाला कामगार और मज़दूर वर्ग अस्तित्व में आया। मशीनों पर काम करने के लिए इनका शिक्षित होना ज़रूरी हो गया। अतः अमीरों के ‘सभ्य’ स्कूलों के अलावा ग़रीबों का स्कूल भी अस्तित्व में आया। इस तरह वर्गों में बँटे समाज में दोहरी पढ़ाई की व्यवस्था कायम हो गयी। मशीनों के कमरतोड़ काम और पूँजीवाद से त्रस्त मेहनतकशों ने अपने हक़ों के लिए संघर्ष छेड़ दिया। मुफ़्त एवं अनिवार्य शिक्षा की माँग उभरी। एकसमान स्कूल व्यवस्था की इस माँग को यूरोपीय देशों में स्वीकृति मिल गयी। लेकिन अब अधिकांश पूँजीवादी देशों में भी जहाँ एक ओर सरकारी स्कूल व्यवस्था एकसमान है, वहीं अमीरज़ादों के लिए अतिकुलीन निजी स्कूलों का एक पूरा तन्त्र खड़ा हो चुका है। अधिकांश मामलों में सरकारी स्कूलों में आम ग़रीब आबादी और मध्यवर्ग के बच्चे पढ़ते हैं और कारपोरेट घरानों द्वारा चलाये जाने वाले निजी स्कूलों में अमीरज़ादों के बच्चे। इन उन्नत पूँजीवादी देशों में भी चयन और श्रेणीकरण जो पहले जन्म और सम्पत्ति पर आधारित था, अब स्कूली शिक्षा द्वारा होने लगा। लेकिन कम-से-कम अधिकांश पश्चिमी पूँजीवादी देशों में सरकारी स्कूल व्यवस्था एकसमान है क्योंकि यहाँ पूँजीवाद क्रान्तिकारी रास्ते से आया। किन्तु हमारे देश में पूँजीवाद एक विकल, क्रमिक और अस्वस्थ विकास की प्रक्रिया से आया इसलिए इसमें पूँजीवाद की सारी विपदाएँ तो थीं, लेकिन पूँजीवाद के ऐतिहासिक क्रान्तिकारी सकारात्मक नहीं थे; बल्कि यह कह सकते हैं कि यहाँ का उत्तरऔपनिवेशिक पूँजीवाद पूँजीवाद की तमाम बुराइयों और सामन्तवाद की तमाम सांस्कृतिक-सामाजिक बुराइयों  का एक भयंकर मिश्रण है। अपनी ज़रूरतों के लिए इसने सामन्ती मूल्यों और मान्यताओं के साथ-साथ ब्रिटिश उपनिवेशकालीन प्रशासकीय ढाँचे को भी कायम रखा। शिक्षा व्यवस्था भी इससे इतर नहीं थी। हमारे देश की स्कूल व्यवस्था छद्म देशभक्ति से भरे इतिहास, कटे-छँटे विज्ञान, थोपी हुई राष्ट्र भाषा के साथ बच्चों को ऐसे अनुशासन के तहत प्रशिक्षित करती है जिसमें वे यह सीखते हैं कि वे अधीन व्यक्ति हैं , वह एक अफसर के अधीन रहने वाला सिपाही, मालिक के अधीन रहने वाला मज़दूर, सरकार व पुलिस के अधीन रहने वाला नागरिक है। इस देश में 40 प्रतिशत बच्चे अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते हैं। करोड़ों में विदेशी अनुदान पाने वाले एन.जी.ओ. ‘प्रथम’ की रिपोर्ट ‘असर’ के ही अनुसार देश भर के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बहुत से बच्चों को अक्षर ज्ञान तक नहीं है। माध्यमिक कक्षाओं तक पहुँचते-पहुँचते लाखों बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं। सरकार के तमाम स्कूल वर्गीकृत हैं। यह बात असमान स्कूल व्यवस्था को लागू करने वाले कानूनों से ही स्पष्ट हो जाती है। यह असमानता सिर्फ स्कूलों में शिक्षा के स्तर पर ही नहीं बल्कि ढाँचागत स्तर पर भी है। दिल्ली के ही सरकारी स्कूलों पर नज़र डाली जाय तो तीन संस्तरों में बँटे हुए केन्द्रीय, राजकीय व नगर निगम स्कूल चलाए जा रहे हैं। इन स्कूलों में आर्थिक परिस्थितियों के अनुरूप ही बच्चे पढ़ते हैं। नगर निगम, राजकीय माध्यमिक और सर्वोदय स्कूलों में पढ़ने वाले ज़्यादातर बच्चे ग़रीब घरों से आते हैं और यही वे स्कूल हैं जो सरकारी स्कूलों के पदानुक्रम में सबसे नीचे हैं। स्कूलों के बहुसंस्तरीय ढाँचे के कारण ग़रीब बच्चों को दोयम दर्ज़े की शिक्षा मिल रही है। केन्द्रीय और राजकीय स्कूलों में अक्सर मध्य वर्ग और सरकारी अफ़सरों के बच्चे पढ़ते हैं। सरकार केन्द्रीय विद्यालय में प्रति बच्चे पर सालाना 12,000 रुपये, राजकीय में 7000-8000 रुपये और नगर निगम में 4000 रुपये ख़र्च करती है। स्पष्ट है कि अमीर-ग़रीब में बँटे हुए समाज की भाँति स्कूल भी अमीरों के स्कूल और ग़रीबों के स्कूल में बँटे हुए हैं।

शिक्षा से सम्बन्धित कानूनों पर नज़र डालना भी उचित होगा। गुलाम भारत की शिक्षा व्यवस्था की बुनियाद रखने वाले मैकाले ने शिक्षा को गुलामी बरकरार रखने का मुख्य ज़रिया बनाया था। मैकाले की शिक्षा नीति के तहत बनी शिक्षा व्यवस्था महज़ उच्च वर्गों को चुनकर शिक्षा देती थी जिससे ऐसे अंग्रेज़-भक्त पैदा हों जो अंग्रेज़ी शासन को दीर्घायु बनायें। आज़ाद भारत की बागडोर सम्भालने वाला वर्ग भारत का बड़ा पूँजीपति वर्ग था जिसने अंग्रेजों द्वारा स्थापित शासन करने के लगभग सभी औपनिवेशिक तौर-तरीके जारी रखे। उसने शिक्षा व्यवस्था की सीख को भी बखूबी सीखा और उसे समय-समय पर ज़रुरत के अनुसार बदला भी। इसकी शुरुआत संविधान से ही होती है जहाँ सबको शिक्षा के अधिकार को महज़ चौथे हिस्से में शामिल करके एक सुझाव बना दिया गया है।

शिक्षा में सरकार द्वारा किये गये नीतिगत बदलावों को दो कालखण्डों में बाँटा जा सकता है – पहला, आज़ादी के बाद से नवउदारवादी नीतियों की शुरुआत के समय तक यानी संविधान के लागू होने से लेकर 1986 में नयी शिक्षा नीति के लागू होने तक का कालखण्ड और दूसरा, उदारीकरण से लेकर आजतक का काल खण्ड। पहले काल खण्ड के दौरान भारत का पूँजीपति वर्ग अपने पैरों पर खड़ा हुआ, पब्लिक सेक्टर का ढाँचा खड़ा किया गया, राष्ट्रीय बचत को बैंकों के राष्ट्रीयकरण द्वारा बढ़ाया गया और इसी धन को देश के पूँजीपति घरानों को ऋण के तौर पर दिया गया; जैसे-जैसे देशी उद्योग-धन्धों का ढाँचा खड़ा होता गया, वैसे-वैसे एक कुशल-अर्द्धकुशल कार्यशक्ति की आवश्यकता महसूस होने लगी; सरकार द्वारा इस दौर में व्यापक अनपढ़ आबादी को साक्षरता देने के गम्भीर प्रयास किये गये। कोठारी कमीशन के सुझावों के आधार पर 1968 की शिक्षा नीति बनी जो संविधान के अनुच्छेद 45 को अपना लक्ष्य बताती थी, इसमें समान स्कूल व्यवस्था और शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद के 6 फीसदी खर्च किये जाने की बात की गयी। मगर यह बस वायदा ही था। शिक्षा मुख्यतः उच्च वर्गों तक ही सीमित रही, मध्य वर्ग और देश की व्यापक मेहनतकश आबादी के हालात वही ढाक के तीन पात ही रहे। 1986 की शिक्षा नीति ने पहली बार बहुसंस्तरिय असमान स्कूल व्यवस्था को लागू किया। नवउदारवाद (पूँजीपतियों के लिए उदार) के ढाँचे पर शिक्षा को बाज़ार की शक्तियों के अनुरूप किया। पहले तो यहीं से निजी पूँजी के निवेश को सुगम बनाने की ज़मीन तैयार हुई। दूसरे, बाज़ार की ज़रूरत के अनुसार ‘मानव संसाधन’ तैयार किये गये। इसके बाद शिक्षा के अनौपचारिकीकरण की शुरुआत हुई। आई.एम.एफ-, वर्ल्ड बैंक के साथ ‘जोमतिएन’ समझौते पर हस्ताक्षर कर सरकार ने डीपीईपी और सर्वशिक्षा अभियान शुरू किया। इस समझौते ने कम पैसों पर काण्ट्रैक्ट एवं पैरा शिक्षकों की व्यवस्था शुरू की। 1990 से 2000 तक सरकारी स्कूलों का स्तर गिरने में डीपीईपी ने मुख्य भूमिका निभायी जिसे आगे नये रंग रूप में सर्वशिक्षा अभियान ने 2000 से 2010 तक बढ़ाया। जब सरकारी स्कूलों की हालत ख़राब हो गई तो एक तरफ तो सरकार ने सबको “शिक्षा का अधिकार” का शिगूफ़ा उछाला तो दूसरी ओर से वर्ल्ड बैंक की शह पर चल रहे तमाम पूँजी-परस्त शिक्षाविद् व एन.जी.ओ. लगातार प्रचारित करने लगे कि सरकारी स्कूलों के हालात ख़राब हैं, जिन्हें सिर्फ निजीकरण से ठीक किया जा सकता है।

शिक्षा नीति के दूसरे कालखण्ड में सरकार ने खुले तौर से उदारीकरण (विदेशी पूँजी व निजी पूँजी के लिए उदार) की नीतियाँ अपनायीं जिनके तहत सरकारी संस्थानों का निजीकरण किया गया और निजी स्कूलों को खड़ा करने में मदद की गयी। स्कूलों के बहुसंस्तरिय ढाँचे ने खासकर सरकार की निचली इकाई (म्युनिसिपल) के स्कूलों को जर्जर किया।  2007-2012 का राष्ट्रीय शिक्षा प्लान घोषित किया गया और शिक्षा को पूरी तरह बाज़ार के अधीन कर दिया गया। इसी दौर का अगला मील का पत्थर कानून ‘शिक्षा का अधिकार’ था। हाल ही में इसी कानून के तहत सरकार ने कहा है कि अब से हर निजी स्कूल को 25 फीसदी आरक्षण के तहत ग़रीब बच्चों को मुफ़्त शिक्षा देनी होगी। सवाल यह उठता है कि क्या सरकार सरकारी स्कूलों को बेकार मानती है? या सरकार अपनी ज़िम्मेदारी निजी ठेकेदारों को सौंप रही है। कुल 19.4 फीसदी निजी स्कूलों में देश के 25 फीसदी बच्चे भी नहीं पढ़ते हैं; यानी अगर 25 फीसदी बच्चों को आरक्षण इन स्कूलों को देना होगा तो वह महज़ देश के 6.7 फीसदी बच्चों को (वह भी 6-14 साल के) मिलेगा। इसके लिए भी ग़रीबों को अपना आय प्रमाणपत्र, पहचान पत्र, दिखाना होगा! शिक्षा इंसान की बुनियादी ज़रूरत है और निश्चित तौर पर इस देश के हर बच्चे का यह मूलभूत अधिकार होना चाहिए। परन्तु ‘शिक्षा का अधिकार’ ऐसा कुछ भी नहीं है। दरअसल यह शिक्षा के निजीकरण का अधिकार है। शिक्षा को निजी ठेकेदारों के हाथ में सौंपने के लिए उठाया गया कदम है। जिस अधिकार पर आज़ादी के बाद से ही संसद में, अखबारों में और गोष्ठियों में नेता, मंत्री और शिक्षाविद् बहस करते रहे हैं उसे  अन्ततः 2002 में (55 साल बाद) संविधान के अनुच्छेद 21-क में लागू किया गया और उसके भी 7 साल बाद जाकर इसको लागू करने के लिये शिक्षा का अधिकार अधिनियम बना। यह शिक्षा का अधिकार न तो समान स्कूल व्यवस्था की बात करता है और न ही 0-6 साल तक के बच्चों (जिनकी आबादी 17 करोड़ है) की शिक्षा की गारण्टी लेता है। बल्कि यह अलग संस्तर के स्कूलों जैसे केन्द्रीय, राजकीय, सर्वोदय, नवोदय, मॉडल स्कूल इत्यादि को भी स्थापित करता है। यह शिक्षा का अधिकार क्षमताविहीन है जो असल में शिक्षा को निजी हाथों में सौंपने को बढ़ावा देता है। उदारीकरण-निजीकरण के दौर में शिक्षा के बाज़ारीकरण की प्रक्रिया 1986 के राष्ट्रीय शिक्षा नीति से शुरू हो गई थी और 1990 के बाद जोमतिएन कान्फ्रेंस में भागीदारी के बाद भारत सरकार ने इसे पूरी रफ्रतार से बढ़ा दिया।  अगर सरकार की नीतियों पर नज़र डाली जाये तो यह साफ़ हो जायेगा कि सिर्फ ‘शिक्षा का अधिकार’ ही नहीं बल्कि शिक्षा के लिए बनायी गयी हर नीति की वास्तविकता दूसरी ही रही है। भारतीय संविधान के चौथे हिस्से (नीति निदेशक तत्व) में शिक्षा के अधिकार, 1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 की नयी शिक्षा नीति, 1990 में जानविएन घोषणा, शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 21-ए) अलग-अलग समय की ज़रूरत के अनुसार बनायी गयी नीतियाँ हैं। 1990 से पहले सरकार कम से कम कहने के लिए समान स्कूल व्यवस्था व सकल घरेलू उत्पाद से 6 फ़ीसदी खर्च करने की बात करती थी जिसे ‘शिक्षा के अधिकार’ में यह पूरी तरह डकार गई है। वर्ल्ड बैंक व निजी ठेकेदारों के लिए सरकार शिक्षा को बाज़ारू माल और इंसान को ‘संसाधन’ बना रही है, बच्चों की शिक्षा के सौदे कर रही है। यही है शिक्षा के अधिकार का फलसफ़ा, परन्तु सरकार, सुप्रीम कोर्ट और बड़े शिक्षाविद् इसे आज लोगों की ज़रूरत बनाकर पेश कर रहे हैं। कांग्रेस सरकार जो 2002 में इसकी आलोचना कर रही थी आज 2009 में इसे पूरी लगन के साथ लागू कर रही है!

दूसरे काल खण्ड  की शुरुआत ने एन.जी.ओ. के लिए उपजाऊ ज़मीन तैयार की। यह शिक्षा से लेकर हर क्षेत्र में हो रहा है। स्कूलों में एन.जी.ओ. की आधिकारिक घुसपैठ पर सरकार ने कई तरीकों से मुहर लगायी है। ‘प्रथम’ और उसकी हर साल प्रकाशित होनेवाली ‘असर’ नामक रिपोर्ट  इसी का एक बेहतरीन उदाहरण हैं। इससे तो यही साबित होता है कि सरकार सरकारी स्कूलों (खासकर प्राइमरी म्युनिसिपल) की हालत दयनीय बनाये रखना चाहती है, जिससे कि कई स्कूल बन्द करने पड़ें और तमाम निजी स्कूल उनसे बेहतर विकल्प के रूप में स्थापित हो सकें। अभी हाल ही में महाराष्ट्र में लगभग पन्द्रह प्राइमरी म्युनिसिपल स्कूलों को चलाने की ज़िम्मेदारी से सरकार ने पल्ला झाड़ लिया और ये स्कूल एन.जी.ओ. के रहमोकरम पर छोड़ दिये गये। आगे मुम्बई समेत पूरे महाराष्ट्र में ऐसा किए जाने की योजना है।

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आज देश भर में करीब 35 लाख एन.जी.ओ. काम कर रहे हैं जिसमें बड़ा हिस्सा स्कूल व्यवस्था पर काम कर रहा है। ‘प्रथम’ शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय देश का सबसे बड़ा एन.जी.ओ. है जो बाकायदा सरकार के साथ मिलकर काम कर रहा है। ग़ौरतलब है कि प्रथम ने अपने कार्यक्रम ‘रीड इण्डिया’ के लिए प्रदेश सरकारों के साथ एम.ओे.यू. पर हस्ताक्षर किये हैं तथा यह तमाम शहरों के नगर निगम के साथ भागीदारी निभाकर काम कर रहा है। असल में सरकार के कई निकायों की ज़िम्मेदारी ‘प्रथम’ निभाता है।  प्रयास, जोश, ऑक्स्फेम, आर.टी.ई. फोरम, नन्ही कली जैसे लाखों एन.जी.ओ. आज शिक्षा के क्षेत्र में मौजूद हैं। इनका मकसद क्या है? बड़ी-बड़ी कारपोरेट कम्पनियों की करोड़ों की कमाई के एक हिस्से से चलने वाले ये संस्थान सरकार को उसकी ज़िम्मेदारियों से मुक्त करते हैं और मुनाफ़े की लूट का रास्ता सुगम बनाते हैं। एक तरफ हमारे बच्चे बिना टॅायलेट, बिना क्लास रूम के स्कूलों में पढ़ते हैं या ठेका शिक्षकों वाले स्कूलों में दोयम दर्ज़े की शिक्षा पाते हैं तो दूसरी तरफ प्रथम या जोश सरीखे एन.जी.ओ. उन 100 में से 10 बच्चों को मुफ़्त में किताबें देकर, शिक्षा में सहायता देकर, बच्चों का “भविष्य बनाकर” समाज सेवा करते हैं। यही इनका एकमात्र मकसद है, 90 बच्चे अभी भी उसी हालत में पढ़ते हैं। क्योंकि यह ऐसी समाज सेवा है जो कभी भी बच्चों के शिक्षा के अधिकार के लिए  सरकार को कठघरे में नहीं लाती है। इनका मकसद सरकार से जनता के किसी भी अधिकार के लिए लड़ना नहीं बल्कि सरकार की जनविरोधी नीतियों को जनता के बीच स्वीकार्य बनाना है।

यूँ तो समान तथा पड़ोस के स्कूल की शिक्षा की पैरवी कोठारी कमीशन, राष्ट्रीय शिक्षा नीति और सुप्रीम कोर्ट के उन्नीकृष्णन फैसले (1993) द्वारा की जा चुकी है परन्तु ये सभी बातें सिर्फ कागज़ी साबित हुईं। वास्तविकता में कोई कदम सरकार ने नहीं उठाया। क्योंकि समान स्कूली व्यवस्था लागू कैसे करेंगे, कौन ज़िम्मेदार होगा, यह बात सिरे से ग़ायब थी। और जब इसे व्यावहारिकता का जामा पहनाया गया, यानी कानून बना तो सरकार समान स्कूल व्यवस्था की बात को निगल गयी। साफ़ है कि देश के आर्थिक विकास के नाम पर बच्चों के भविष्य का सौदा किया जा रहा है, उनके सपनों को अमीर और ग़रीब में बाँटा जा रहा है। प्रश्न यह उठता है कि क्या इस देश में समान स्कूल व्यवस्था लागू की जा सकती है?

स्कूल बचाओ अभियान का नाराः सबको समान एवं निशुल्क स्कूली शिक्षा!

निश्चित तौर पर यह मुमकिन है। इस बात को सरकार द्वारा बैठाई गयी कमेटियाँ खुद स्वीकार करती आयी हैं, 1966 की कोठारी कमीशन की रिपोर्ट तथा शिक्षा नीति 1968 ने बात की कि अगर सरकार सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत शिक्षा पर ख़र्च करती है तो समान स्कूल व्यवस्था के साथ अच्छी उच्च शिक्षा भी प्रदान की जा सकती है। फ़िनलैंड, जापान, ब्रिटेन, फ्रांस, स्केन्डिनेवियन देशों में सरकारें अमीरपरस्ती के बावजूद जनता को निशुल्क व समान शिक्षा का अधिकार दे सकती हैं तो ‘शाइनिंग इण्डिया’ क्यों नहीं?

हमें भी यह अधिकार हासिल करना होगा। दिल्ली में चलाया जा रहा स्कूल बचाओ अभियान’ पूरे देश भर में सबको समान एवं निशुल्क स्कूली शिक्षा की माँग करता है। हर बच्चे के लिए शिक्षा का बुनियादी अधिकार बिना किसी भेदभाव के सुनिश्चित करना सरकार की जिम्मेदारी है। यह सरकार खुद हमसे वायदे करती आयी है पर हर बार मुनाफ़ाखोर कारपोरेट कम्पनियों को मुफ़्त ज़मीन, टैक्स माफ़ी व बेल आउट पैकेज़ पर सरकारी कोष लुटाया जाता है जो आसमान से नहीं टपकता बल्कि ग़रीब जनता की गाढ़ी कमाई से अप्रत्यक्ष कर वसूल करके यह सरकार हासिल करती है। ज्ञात हो कि कुल सरकारी खजाने का लगभग 97 प्रतिशत हिस्सा इस देश की मेहनतकश जनता द्वारा अदा किए गए अप्रत्यक्ष कर (यानी गेहूँ, चावल, माचिस, चीनी, तेल खरीदने पर दिए जाने वाले कर) से आता है। ज़ाहिर है कि सरकार महज़ पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी है। 1947 से लेकर अबतक सरकारें बदलती रही हैं परन्तु सभी ने शिक्षा को एक नीति के आधार पर अमीरों तक सीमित रखा है। तथा 1990 के बाद से शिक्षा को खुलकर निजी हाथों को बेचने का सिलसिला शुरू हुआ है। आज शिक्षा बाज़ारू माल बन गयी है।

शिक्षा है सबका अधिकार, बंद करो इसका व्यापार!!’

आज हमें सरकार की निजीकरण की नीतियों का विरोध करना होगा और हमारे बच्चों के स्कूलों को बचाना होगा। हमारे बच्चों के सपनों की खातिर, उनके भविष्य की खातिर हमे लड़ना ही होगा। स्कूल बचाओ अभियान माँग करता है-

1. सभी सरकारी स्कूलों के लिए कानूनन तय मानकों के नग्न उल्लंघन पर रोक लगायी जाय और उनका सख़्ती से पालन करवाया जाय।

2. सभी सरकारी स्कूलों में बुनियादी अधिरचनात्मक सुविधाएँ जैसे साफ पीने का पानी, डेस्क, पंखा, भोजन इत्यादि की सुविधा प्रतिभा और नवोदय स्कूलों के स्तर की दी जाय।

3. सरकारी स्कूलों में खाली पदों पर शिक्षकों की तत्काल नियुक्ति की जाय। ठेके पर शिक्षकों की नियुक्ति की व्यवस्था बन्द की जाय।

4. सरकार द्वारा चलाये जा रहे सभी स्कूलों में एकसमान स्कूल व्यवस्था लागू की जाय।

5. हमारी दूरगामी माँग है कि स्कूली शिक्षा में निजी पूँजी के निवेश को पूरी तरह से बन्द किया जाय।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्‍त 2013

 

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