मौजूदा धनी किसान आन्दोलन और कृषि प्रश्न पर कम्युनिस्ट आन्दोलन में मौजूद अज्ञानतापूर्ण और अवसरवादी लोकरंजकतावाद के एक दरिद्र संस्करण की समालोचना
वारुणी
कुलक किसान आन्दोलन को शुरू हुए करीब दो महीने से ऊपर हो चुके हैं। तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ शुरू हुए इस आन्दोलन ने समूचे वाम के कई हलकों में किसान प्रश्न पर उनकी अवस्थितियों को साफ़ कर दिया है। आज आन्दोलन की अपनी गति से यह साफ़ हो चुका है कि यह आन्दोलन मूलत: और मुख्यत: लाभकारी मूल्य की व्यवस्था को बरक़रार रखने और बढ़ाने की लड़ाई है और इसलिए यह कोई आम मेहनतकश किसानों, यानी सीमान्त, ग़रीब और निम्न-मँझोले किसानों का आन्दोलन नहीं है, भले ही इन वर्गों से भी मौजूदा आन्दोलन में कुछ भागीदारी हो रही है। जारी आन्दोलन के साथ ही आम तौर पर किसान प्रश्न पर और लाभकारी मूल्य की व्यवस्था पर सर्वहारा वर्ग की अवस्थिति क्या हो, इस पर वाम में कई बहसें जारी हैं।
हमारा स्पष्ट तौर पर मानना है कि पहले दो कृषि क़ानूनों, यानी, फ़ार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एण्ड कॉमर्स (प्रमोशन एण्ड फैसिलिटेशन) एक्ट 2020 और फ़ार्मर्स (एम्पावरमेण्ट एण्ड प्रोटेक्शन) एग्रीमेण्ट ऑन प्राइस अश्योरेंस एण्ड फ़ार्म सर्विसेज़ एक्ट, 2020, से सर्वहारा वर्ग, सीमान्त, छोटे और निम्न मँझोले किसान और खेतिहर मज़दूर की ज़िन्दगी पर सिर्फ़ इतना असर पड़ेगा कि पहले मुख्य रूप से धनी पूँजीवादी भूस्वामियों व पूँजीवादी फ़ार्मरों द्वारा उनका शोषण किया जाता था, और इन पहले दो क़ानूनों के लागू होने से उस शोषण में अब बड़े एकाधिकारी पूँजीपति वर्ग यानी कॉरपोरेट पूँजीपति वर्ग की बढ़ती हिस्सेदारी का रास्ता साफ़ हो जायेगा। धनी किसानों–कुलकों, सूदख़ोरों (जो अक्सर स्वयं धनी किसान ही होते हैं!), आढ़तियों–बिचौलियों (जो अक्सर स्वयं धनी किसान ही होते हैं!) द्वारा पहले भी खेतिहर मज़दूरों की लूट, ग़रीब व निम्न मँझोले किसानों की लूट और उनका उजड़ना जारी था।
खेती के क्षेत्र में खेतिहर पूँजीपति वर्ग का वर्चस्व था और उजड़ने वाले अधिकांश ग़रीब व निम्न मँझोले किसानों के उजड़ने का सबसे बड़ा कारण सूद, लगान और मुनाफ़े के ज़रिये खेतिहर पूँजीपति वर्ग (धनी किसान-कुलक वर्ग) द्वारा उनका शोषण ही था, यह बात तथ्यों से स्पष्ट है। कॉरपोरेट पूँजी के प्रवेश के बाद भी उनका शोषण पूर्ववत जारी रहेगा, हालाँकि उनके प्रमुख शोषकों की स्थिति में अधिक से अधिक बड़ा इजारेदार पूँजीपति वर्ग आता जायेगा। धनी किसान-कुलक वर्ग, सूदख़ोर, आढ़तिये खेती के क्षेत्र में बड़ी इजारेदार पूँजी के प्रवेश के विरुद्ध हैं और उन्हें मिलने वाले राजकीय संरक्षण, खेती में अपने आर्थिक वर्चस्व और एकाधिकार को बनाये रखना चाहते हैं। वर्तमान किसान आन्दोलन मुनाफ़े में अपनी हिस्सेदारी को सुनिश्चित करने के लिए धनी किसानों की लड़ाई है और इसलिए वे लाभकारी मूल्य की व्यवस्था को क़ानूनी जामा पहनाने की माँग कर रहे हैं।
इन तीन कृषि क़ानूनों में सिर्फ़ तीसरा क़ानून मज़दूरों–मेहनतकशों के सीधे विरोध में जाता है क्योंकि यह जमाख़ोरी और काला बाज़ारी को बढ़ाने की छूट देता है जिससे बुनियादी वस्तुओं की क़ीमतों में कृत्रिम रूप से बढ़ोत्तरी होगी। इस तीसरे क़ानून के विरुद्ध सर्वहारा वर्ग, ग़रीब व निम्न-मँझोले किसानों और समूची आम मेहनतकश आबादी के राजनीतिक रूप से स्वतंत्र आन्दोलन को संगठित करने की आवश्यकता है।
‘आह्वान’ के पिछले अंक में तीनों कृषि क़ानूनों पर एक लेख में हमारी पूरी अवस्थिति को स्पष्ट किया गया था। इसके साथ ही वाम हलकों के कई संगठनों द्वारा किसान आन्दोलन के समर्थन में दिये जा रहे तमाम तर्कों का तथ्यत: और तर्कश: खण्डन भी प्रस्तुत किया गया था।
अभी भी उन पुराने तर्कों को ही कुछ संगठनों द्वारा नये रूप में और ज़्यादा अज्ञानतापूर्ण रूप में दोहराया जा रहा है। इन तमाम पुराने तर्कों को ही अधिक अर्थहीन रूप में दुहराते हुए पटना में सक्रिय एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी संगठन पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेतृत्व ने एक नया ही “यथार्थ” उजागर कर डाला है! इस चमत्कृत कर देने वाले नये “यथार्थ” पर बात करना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि यह संगठन उन पाठकों में एक विभ्रम पैदा कर रहा है जो सोवियत सत्ता द्वारा किसान प्रश्न पर अपनायी गयी नीतियों से परिचित नहीं हैं और साथ ही “उचित दाम” का भ्रामक नारा उछालकर यह धनी किसानों-कुलकों की पालकी का कहार बनने के अपने अवसरवाद को वैध ठहराने का प्रयास कर रहा है।
इस क़वायद में इस मार्क्सवादी-लेनिनवादी संगठन के नेता महोदय ने अपने लेख में सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोग के इतिहास और कृषि प्रश्न पर मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धान्तों, दोनों के ही साथ मनमाने तरीके से ज़ोर-ज़बर्दस्ती की है। यह हरक़त इन्होंने सोवियत समाजवाद के इतिहास और कृषि प्रश्न पर मार्क्सवादी-लेनिनवादी प्रश्न के विषय में अपने अज्ञान के कारण की है, या फिर सोची-समझी मौकापरस्ती के तौर पर की है, इसका फ़ैसला हम पाठकों पर छोड़ देते हैं, हालाँकि हमें इसमें अज्ञान और अवसरवाद दोनों का ही मिश्रण नज़र आता है। आइये देखते हैं कि लेखक महोदय यह उपलब्धि किस प्रकार हासिल करते हैं।
लेखक ने अपनी अवस्थिति रखते हुए सोवियत समाजवादी संक्रमण के दौरान अलग-अलग दौरों में किसान प्रश्न पर अपनायी गयी नीतियों को बड़े अज्ञानतापूर्ण और अवसरवादी तरीके से ऐसे पेश किया है जिससे कि वे मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन की पूँछ में कंघी कर सकें और बदले में उन्हें समाजवादी व्यवस्था के पक्ष में खड़ा कर दें!
इसके लिए लेखक महोदय कुलक और धनी किसानों को यह कह कर सर्वहारा क्रान्ति करने के लिए ललकारते हैं कि सिर्फ़ एक सर्वहारा राज्य ही किसानों को उनकी पूरी उपज की “उचित दाम” पर खरीद की गारंटी कर सकता है। लेकिन यह “उचित दाम” क्या हो इसपर वह खुलकर कुछ नहीं बोलते! क्या यह व्यापक लागत के ऊपर 40-50 प्रतिशत का मुनाफ़ा होगा (जो अभी लाभकारी मूल्य की व्यवस्था के ज़रिये मिलता है) या फिर कुछ और? यह भी एक सोचे-समझे तौर पर की गयी चालाकी है, क्योंकि सीधे लाभकारी मूल्य का समर्थन करते हुए सर्वहारा वर्ग की नुमाइन्दगी की बात करना थोड़ा हास्यास्पद हो जाता है। इसलिए “उचित दाम” का अस्पष्ट जुमला उछाला गया है और उसे लेखक महोदय ने अपने लेख में कहीं भी परिभाषित नहीं किया है। लेकिन लेख के स्वर से स्पष्ट है कि लाभकारी मूल्य को ही “उचित दाम” माना गया है, क्योंकि लेखक लाभकारी मूल्य के लिए हो रहे धनी किसानों के आन्दोलन का समर्थन करते हुए ही “उचित दाम” की वकालत कर रहा है और साथ ही यह भ्रामक वायदा कर रहा है कि जिस प्रकार सोवियत समाजवादी सत्ता ने किसानों को “उचित दाम” देकर उनकी सारी उपज ख़रीदी थी(??), उसी प्रकार भारत में भी सर्वहारा सत्ता ही किसानों को “उचित दाम” देकर उनकी सारी उपज ख़रीदेगी! लेखक महोदय तमाम अस्पष्टताएँ रखते हुए और सोवियत समाजवादी इतिहास का विकृतिकरण करते हुए ज़्यादा सयानापन दिखाने के चक्कर में सीधे अवसरवाद के पंककुण्ड में छलाँग लगा गये हैं। आगे हम देखेंगे कि यह कारनामा इन्होंने कैसे किया है।
पीआरसी सीपीआई (एमएल) के लेखक महोदय ने एक और अवसरवादी चालाकी करने का प्रयास किया है। लेख में जहाँ मन होता है वह पूँजीवाद के मातहत किसानों को वर्ग-विभाजित समुदाय बताते हैं (जो कि सही है!) और जहाँ भी उन्हें मौजूदा धनी किसान आन्दोलन की गोद में बैठना होता है, वहाँ वे उसे एक सजातीय या एकाश्मी समुदाय के रूप में पेश करते हैं। लेकिन यह चालाकी कम और बेवकूफ़ी ज़्यादा है क्योंकि इसकी वजह से हमारे लेखक महोदय का लेख मूर्खतापूर्ण विरोधाभासों से भर जाता है।
इन दो चालाकियों से लेखक महोदय कुछ सीधे-सीधे सवालों का सीधा-सीधा उत्तर देने की बजाय अवसरवाद की पतली गली से कटकर निकले हैं, जो सीधे सिंघू और टीकरी बॉर्डर पर खुलती है! ये सवाल हैं: क्या लाभकारी मूल्य “उचित दाम” है? मार्क्सवादी-लेनिनवादी अर्थों में “उचित दाम” क्या होता है? बुर्जुआ जनवादी अर्थों में “उचित दाम” क्या होता है? क्या लाभकारी मूल्य की माँग गुज़ारे योग्य आय की माँग है, या यह बेशी मुनाफ़े समेत मुनाफ़ाख़ोरी की माँग है? लाभकारी मूल्य की माँग ग़रीब व निम्न-मँझोले किसान वर्ग के पक्ष में है या उनके ख़िलाफ़ जाती है? इसी प्रकार के कई सीधे और स्पष्ट सवाल हैं, जिनका जवाब देने में पीआरसी सीपीआई (एमएल) के लेखक महोदय की टाँगें काँप जाती हैं और इसलिए वे गोलमाल करते हुए, अस्पष्ट बातें करते हुए, इतिहास का विकृतिकरण करते हुए और सबसे अहम, मार्क्सवाद-लेनिनवाद का विकृतिकरण करते हुए कुलकों की गोद में जा बैठते हैं और उनसे “उचित दाम” का वायदा करते हैं!
वे किसान प्रश्न पर सोवियत नीति पर कुछ बातें बताते हैं और कुछ बातों पर मौकापरस्ती से चुप्पी साध लेते हैं। अब चूँकि उन्हें इसी धनी किसान-कुलक आन्दोलन पर सवार होकर सर्वहारा क्रान्ति करनी है (इन महोदय का मानना है कि भारत में भावी सर्वहारा क्रान्ति धनी किसानों-कुलकों के इसी प्रकार के आन्दोलन की लहर पर सवार होकर आयेगी!), इसलिए वे खेती के क्षेत्र में अलग-अलग दौरों में लागू की गयी बोल्शेविक नीतियों के बारे में सफेद झूठ बोलते हैं, तथ्यों का विकृतिकरण करते हैं और तमाम ऐसी बातों को छिपा लेते हैं, जिन्हें अगर वे मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन के मंच से बताते तो पूरी सम्भावना थी कि धनी किसान-कुलक नेतृत्व उनकी अन्य ठोस–भौतिक माध्यमों से आलोचना करके उनके ज्ञान-चक्षु खोल देता! शायद लेखक महोदय भी इन जोखिम भरी सम्भावनाओं से वाकिफ़ हैं और इसलिए बोल्शेविक क्रान्ति के बाद किसान प्रश्न व आम तौर पर खेती के सवाल पर लागू की गयी नीतियों के बारे में सही बातें छिपा रहे हैं, या, और इसकी भी पूर्ण सम्भावना है, इन महोदय ने सोवियत समाजवाद के इतिहास के बारे में कुछ पढ़ा ही न हो।
लेकिन दूसरी सूरत में भी, यानी यदि आपने सोवियत समाजवाद के इतिहास के विषय में कुछ पढ़ा ही नहीं, तो आपको इस बारे में चुप रहना चाहिए और पहले अध्ययन व जाँच-पड़ताल करके लिखना चाहिए; जैसा कि माओ ने कहा था, “कोई जाँच–पड़ताल नहीं, तो बोलने का कोई अधिकार नहीं!” लेकिन पीआरसी सीपीआई (एमएल) के हमारे नेता महोदय धनी किसानों–कुलकों की गोद में बैठने को इतने बेताब हैं कि अपनी पुस्तिका और लेख में बिना किसी अध्ययन, बिना किसी जाँच–पड़ताल के ऊलजलूल बकवास करते चले गये हैं!
हमारे लेखक महोदय न सिर्फ़ किसान प्रश्न पर बोल्शेविक नीतियों के विषय में इतिहास का अवसरवादी विकृतिकरण करते हैं बल्कि कुछ अन्य “नयी-नयी खोजों” के साथ और कई पुराने तर्कों को ही नये रूप में दोहराते हुए, अपने आलेख में मुख्यतः लाभकारी मूल्य के समर्थन को एक क्रान्तिकारी स्टैंड साबित करने की कोशिश करते हैं। लाभकारी मूल्य को सभी किसानों के अस्तित्व रक्षा की लड़ाई के रूप में पेश कर के वह इस नये यथार्थ पर पहुँचते हैं कि क़ानूनी लाभकारी मूल्य की लड़ाई असल में किसानों की पूरी उपज की सरकारी खरीद की गारंटी से जुड़ी हुई लड़ाई है और उनके अनुसार किसानों की पूरी उपज की “उचित दाम” पर सरकारी खरीद की गारंटी चूँकि एक मात्र सर्वहारा राज्य कर सकता है, इसलिए कुलकों के इस आन्दोलन का समर्थन कर उन्हें अपने साथ लेते हुए सर्वहारा क्रान्ति के लिए ललकारना होगा!
इस प्रकार के कई सारे नये “यथार्थ” पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेता व लेखक महोदय अपने आलेख में खोज निकालते हैं और इन सारी बातों को वह ऐसे प्रस्तुत करते हैं जिससे कि वे धनी किसानों और कुलकों के भी लाड़ले बने रहें और मज़दूर वर्ग के हितों का भी प्रतिनिधित्व करते प्रतीत हों!!
यह काम वह कैसे अहमकाना तर्कों और इतिहास के विकृतिकरण के साथ करते हैं, यह हम नीचे उन्हें उद्धृत करते हुए सिलसिलेवार तरीके से दिखलायोंगे। लेकिन सबसे पहले हम उनकी नई खोजों के ज़रिये लाभकारी मूल्य के समर्थन तक पहुँचने की उनकी विकास प्रक्रिया को जानेंगे, उसके बाद सिलसिलेवार तरीके से हम उनकी सच्चाई सामने रखेंगे।
लाभकारी मूल्य की माँग के समर्थन को क्रान्तिकारी अवस्थिति साबित करने के लिए गढ़े गये कुतर्क
लेखक महोदय अपने पूरे आलेख में लाभकारी मूल्य के समर्थन को क्रान्तिकारी साबित करने के लिए नए-नये “यथार्थ” खोज निकालते हैं!
उनको पहला इल्हाम यह होता है कि आन्दोलन भले ही लाभकारी मूल्य की माँग पर केन्द्रित है लेकिन क़ानूनी लाभकारी मूल्य की माँग के तहत पूरी किसान आबादी एकजुट हो गयी है (और इसलिए कम्युनिस्टों को उसका समर्थन करना चाहिए!)। लेखक महोदय लिखते हैं:
”स्वयं धनी किसान पूँजीवादी कृषि के दलदल में फँस गये हैं|…निर्णायक वर्चस्व की ओर कॉरपोरेट के बढ़ते कदमों ने अलग-अलग संस्तर में बँटे होने के बावजूद पूरे किसान समुदाय को एकताबद्ध कर दिया है।”
जिन अर्थों में धनी किसान पूँजीवादी व्यवस्था में “फँसे” हैं, उन अर्थों में तो अपेक्षाकृत सभी छोटे और ग़ैर-इजारेदार पूँजीपति पूँजीवादी व्यवस्था में “फँसे” हैं और उस आधार पर पीआरसी सीपीआई (एमएल) को पूँजीवादी उदारीकरण के कारण अरक्षित अवस्था में पहुँच गये सारे छोटे पूँजीपतियों का आह्वान करना चाहिए कि वे एकजुट होकर कॉरपोरेट पूँजी का विरोध करें और पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेता महोदय को इन बेचारे छोटे पूँजीपतियों से यह वायदा भी करना चाहिए कि जब उनके नेतृत्व में समाजवादी सत्ता आयेगी, तो वह उन्हें बरबाद होने से बचायेंगे और मुनाफ़ा सुनिश्चित करने वाला “उचित दाम” मुहैया करायेंगे! निश्चय ही धनी किसान व कुलक वर्ग और समूचे छोटे व मँझोले पूँजीपति वर्ग का एक हिस्सा भी उत्तरोत्तर पूँजीवादी विकास के साथ बरबाद होगा, ठीक उसी प्रकार जैसे धनी किसानों व कुलकों की पूँजीवादी लूट की वजह से ग़रीब और सीमान्त किसानों का अच्छा-ख़ासा हिस्सा ‘हरित क्रान्ति’ के बाद बरबाद होता आया है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं होता है कि छोटे और मँझोले पूँजीपति वर्ग (जिसमें कि धनी किसान-कुलक वर्ग भी शामिल है) को बचाने का नारा सर्वहारा वर्ग बुलन्द करे और सर्वहारा वर्ग और आम मेहनतकश आबादी को उनका पिछलग्गू बना दे! सर्वहारा वर्ग उन वर्गों की मुक्ति की परियोजना नहीं पेश करता है जो कि नियमित तौर पर उजरती श्रम का शोषण कर मुनाफा कमाते हैं; सर्वहारा वर्ग उन शोषक वर्गों से उन वर्गों की मुक्ति की परियोजना पेश करता है, जो स्वयं उजरती श्रमिक, अर्द्धसर्वहारा हैं या जो स्वयं उजरती श्रम के शोषक नहीं हैं। यह मार्क्सवाद-लेनिनवाद का ‘क ख ग’ है। टुटपुँजिया रूमानीवाद, नरोदवाद और लोकरंजकतावाद के मस्तिष्क ज्वर के कारण अपने आप को मार्क्सवादी कहने वाला व्यक्ति भी कैसी अगड़म-बगड़म बक सकता है, इसे समझना है, तो आप खेती के सवाल पर पीआरसी सीपीआई (एमएल) की पुस्तिका पढ़ सकते हैं!
लेखक महोदय द्वारा अन्वेषित दूसरा “यथार्थ” यह है कि वर्तमान आन्दोलन में धनी किसान और छोटे-मँझोले किसान न सिर्फ़ कॉरपोरेट पूँजी के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं बल्कि ‘मुक्त व्यापार’ की व्यवस्था से ही उनका भरोसा उठ गया है! जनाब लिखते हैं:
“नये कृषि क़ानूनों के आने के बाद आम किसानों में क़ानूनी लाभकारी मूल्य के रूप में लाभकारी मूल्य की माँग को एक नवजीवन प्राप्त हुआ दीखता है, खासकर एक बड़ी तबाही और आपदा से बचाव हेतु एकमात्र उपाय व सहारे के रूप में, जबकि खुले बाज़ार में ऊँचे दाम की उत्प्रेरणा एक प्रवृत्ति के बतौर मौजूद होने के बावजूद व्यापक किसान ही नहीं धनी किसानों के व्यापक हिस्सों के बीच भी वास्तविक तौर पर ख़त्म हो चुकी है या पूर्व की तुलना में न के बराबर है। क्यों? क्योंकि ग़रीब तथा मँझोले किसान पिछले तीन दशक के पूँजीवादी कृषि के अन्तर्गत ठीक इसके दुष्परिणाम के चक्कर में तबाह और बर्बाद हो चुके हैं और धनी किसान की बात करें तो पिछले एक दशक के दौरान खुले बाज़ार में दामों में आये भयंकर उतार-चढ़ाव के कारण वे भी इसके आकर्षण से विमुख हुए हैं|” (ज़ोर हमारा)
इसी “यथार्थ” से प्रस्थान करते हुए कि किसानों का ‘मुक्त व्यापार’ से भरोसा उठा गया है और खुले बाज़ार में ऊँचे दाम नहीं मिलने के कारण किसान आबादी क़ानूनी लाभकारी मूल्य की माँग कर रही है, हमारे लेखक महोदय इस माँग को उनके अस्तित्व रक्षा की लड़ाई से जोड़ देते हैं। लेखक महोदय को यह बताना चाहिए कि लाभकारी मूल्य धनी किसानों-कुलकों को ऊँचे दाम देता है या नहीं? और यदि लाभकारी मूल्य मुनाफ़ा सुनिश्चित करने वाले ऊँचे दाम हैं, तो वे “उचित दाम” हैं या नहीं? और अगर वे उचित दाम नहीं हैं, तो उनके अनुसार “उचित दाम” क्या है और जब भारत में समाजवाद और सर्वहारा सत्ता आयेगी तो वह कौन सा “उचित दाम” देंगे? और अगर वह लाभकारी मूल्य (profitable remunerative price) नहीं होगा, तो यह बात भी उन्हें अपने लेख में स्पष्ट तौर पर लिखनी चाहिए और धनी किसानों-कुलकों को बतानी चाहिए?
लेकिन इन तमाम अस्पष्टताओं के बावजूद सच्चाई यह है कि लाभकारी मूल्य को लेखक महोदय “अस्तित्व की लड़ाई” बताकर एक प्रकार से “उचित दाम” ही मान रहे हैं! इस प्रकार वह लाभकारी मूल्य की पूरी परिभाषा को ही उलट देते हैं ताकि लाभकारी मूल्य के माँग के समर्थन को सही साबित कर सकें। लेकिन फिर यह दावा कि सोवियत रूस और फिर सोवियत संघ में इस प्रकार का “उचित दाम” दिया जाता था, लेखक महोदय का कोरा झूठ और सोवियत समाजवाद के इतिहास का विकृतिकरण है। सोवियत संघ के इतिहास के बारे में तमाम संशोधनवादियों ने ‘नई आर्थिक नीति‘ के ‘रणनीतिक तौर पर कदम पीछे हटाने‘ (strategic retreat) को समाजवादी निर्माण की आम रणनीति बताकर मार्क्सवाद-लेनिनवाद का विकृतिकरण किया था, जिसकी सारवस्तु था राज्यसत्ता को उत्पाद-कर (tax-in-kind) देने के बाद, खुले बाज़ार में खेती उपज के विपणन की आज़ादी; लेकिन पीआरसी सीपीआई (एमएल) संशोधनवादियों से भी एक कदम आगे जाकर सर्वहारा राज्यसत्ता द्वारा लाभकारी मूल्य दिलवाने का वायदा कर रहे हैं, और साथ ही सोवियत किसान नीति की अन्य बातों को धनी किसानों-कुलकों से छिपाने का काम कर रहे हैं, जैसे कि ज़मीन का सही मायने में राष्ट्रीकरण, उजरती श्रम के शोषण पर रोक, इत्यादि। यह घटिया दर्जे की मौकापरस्ती है।
पर हमारे लेखक महोदय यहीं नहीं रुकते! वह आगे इस “यथार्थ” पर आधारित आज के कार्यभार बताते हैं! वे कहते हैं:
“ऐसे में इन क़ानूनों की वापसी पर अड़ना और वैधानिक गारंटी वाले लाभकारी मूल्य की माँग के ज़रिये पूरे किसान समुदाय को संगठित व जागृत करना तथा इस तरह कॉरपोरेट पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध उठा खड़ा होना नितान्त आवश्यक है|” (ज़ोर हमारा)
यानी लाभकारी मूल्य का समर्थन करने, उसे वैधानिक अधिकार बनाने की माँग करना और इस माँग पर समूचे किसान समुदाय को संगठित करना आज क्रान्तिकारियों का कार्यभार है! मतलब, लेखक महोदय के अनुसार, पहले तो कम्युनिस्टों को धनी किसानों-कुलकों की मुनाफ़ाख़ोरी की माँग के समर्थन में ग़रीब मेहनतकश किसानों और मज़दूरों को उनका पुछल्ला बनाना चाहिए और फिर छोटे पूँजीपति वर्ग (खेतिहर बुर्जुआज़ी) की ज़मीन पर खड़े होकर बड़ी पूँजी (कॉरपोरेट पूँजीपति वर्ग) का विरोध करना चाहिए। संक्षेप में, पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेता महोदय क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन को टुटपुँजिया रूमानीवाद, लोकरंजकतावाद और नरादेवाद में बहकर मज़दूर आन्दोलन को छोटी पूँजी की सेवा में सन्नद्ध करने का नुस्खा बता रहे हैं!
सर्वहारा वर्ग का काम छोटी पूँजी के बड़ी पूँजी के विरुद्ध विद्रोह का समर्थन करना नहीं है। लेनिन के इस उद्धरण पर हमारे लेखक महोदय ने ग़ौर किया होता तो ऐसी हास्यास्पद बातें न कर रहे होते:
“साम्राज्यवाद हमारा उतना ही ‘घातक’ शत्रु है जितना कि पूँजीवाद है। ऐसा ही है। कोई मार्क्सवादी कभी भूलेगा नहीं कि पूँजीवाद सामन्तवाद की तुलना में प्रगतिशील है, और साम्राज्यवाद एकाधिकार-पूर्व पूँजीवाद के मुकाबले प्रगतिशील है। इसलिए साम्राज्यवाद के विरुद्ध हर संघर्ष का हमें समर्थन नहीं करना चाहिए। हम साम्राज्यवाद के विरुद्ध प्रतिक्रियावादी वर्गों के संघर्ष का समर्थन नहीं करेंगे; हम साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के विरुद्ध प्रतिक्रियावादी वर्गों के विद्रोह का समर्थन नहीं करेंगे।” (लेनिन, ‘ए कैरीकेचर ऑफ मार्क्सिज़्म एण्ड इम्पीरियलिस्ट इकोनॉमिज़्म’)
ध्यान रहे, यहाँ लेनिन साम्राज्यवाद के विरुद्ध राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष की बात नहीं कर रहे हैं, जो कि अक्सर ही राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग के नेतृत्व में चलाया जाता है, बल्कि बड़ी पूँजी के विरुद्ध छोटी पूँजी के, इजारेदार पूँजी के विरुद्ध ग़ैर-इजारेदार पूँजी के विद्रोह की बात कर रहे हैं। सर्वहारा वर्ग निश्चित ही बड़ी पूँजी का विरोध करता है, लेकिन छोटी पूँजी को बचाने या उसकी माँगों के समर्थन की ज़मीन से नहीं, क्योंकि वह सिर्फ बड़ी इजारेदार पूँजी द्वारा लूट का विरोध नहीं करता है, बल्कि छोटे पूँजीपति वर्ग द्वारा लूट समेत समूची पूँजीवादी व्यवस्था का विरोध करता है। धनी किसानों-कुलकों की लाभकारी मूल्य की माँग बड़ी पूँजी के बरक्स अपने लूट के विशेषाधिकार और लूट में हिस्सेदारी को सुरक्षित रखने की माँग है। यह खेतिहर सर्वहारा, ग़रीब और निम्न मँझोले किसानों की लूट पर अपना वर्चस्व क़ायम रखने की धनी किसान की पूँजीवादी माँग है। सर्वहारा वर्ग रणकौशलात्मक तरीके से भी इसका समर्थन नहीं कर सकता है, जिसका यह अर्थ भी कोई अहमक ही निकाल सकता है कि सर्वहारा वर्ग बड़ी पूँजी का समर्थन करता है। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि शासक वर्ग के दो धड़ों का यह आर्थिक अन्तरविरोध आज कॉरपोरेट-परस्त मोदी सरकार के लिए एक तात्कालिक चुनौती पेश कर रहा है। यह सर्वहारा वर्ग द्वारा छोटे ग्रामीण पूँजीपति वर्ग की बड़े इजारेदार पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध लड़ाई के समर्थन का कारण नहीं बन सकता है, जैसा कि पीआरसी सीपीआई (एमएल) के हमारे लेखक महोदय तो समझ ही रहे हैं लेकिन कई संजीदा मार्क्सवादी-लेनिनवादी भी अभी ऐसा ही समझ रहे हैं।
हमने ऊपर पीआरसी सीपीआई (एमएल) के लेखक महोदय के लाभकारी मूल्य की माँग के समर्थन तक पहुँचने की विकास प्रक्रिया के कुछ अहम मील के पत्थरों को दिखाया है। इस पूरी प्रक्रिया में लेखक महोदय जो नये-नये “यथार्थ” उजागर करते जाते हैं, उसकी सच्चाई क्या है, यह हम एक-एक करके सिलसिलेवार तरीके से बतायेंगे। हालाँकि पूरे आलेख में इतने कुतर्क और तथ्यों के विकृतिकरण मौजूद हैं कि यहाँ सभी की आलोचना प्रस्तुत करना सम्भव नहीं है, फिर भी लेकिन हम कुछ प्रातिनिधिक और मुख्य बातों पर उनकी आलोचना प्रस्तुत करेंगे।
पूँजीवादी फ़ार्मर व भूस्वामी वर्ग और ‘मुक्त व्यापार’ तथा राजकीय संरक्षण का प्रश्न
लेखक महोदय का पहला तर्क यह है कि किसान न सिर्फ़ कॉरपोरेट के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं बल्कि सभी किसानों का ‘मुक्त व्यापार’ से ही भरोसा उठा गया है, जैसा कि ऊपर हमने देखा। ऐसा तर्क वही व्यक्ति दे सकता है जिसको पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में धनी किसान-कुलक वर्ग के वर्गीय रुझान और माँगों के बारे में कोई जानकारी न हो!
पहली बात तो यह है कि पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था के इतिहास में लगभग हर जगह धनी किसानों-कुलकों के वर्ग का नैसर्गिक तौर पर ‘मुक्त व्यापार’ की व्यवस्था पर कोई ख़ास भरोसा नहीं रहा है, या वे उसके स्वाभाविक समर्थक नहीं रहे हैं। यह बात वित्तीय-औद्योगिक पूँजीपति वर्ग की अपेक्षा में छोटे पूँजीपतियों के पूरे वर्ग पर लागू होती है। छोटा पूँजीपति वर्ग हमेशा ही (देशी और विदेशी) बड़ी पूँजी के बरक्स राजकीय संरक्षण की माँग करता है, चाहे वे पूँजीवादी फ़ार्मर वर्ग हो या फिर छोटे कारखानेदारों, व्यापारियों आदि का वर्ग। उसे अपने अनुभव से पता होता है कि वह ‘मुक्त व्यापार’ की प्रतिस्पर्द्धा में बड़ी पूँजी के समक्ष नहीं टिक सकता है, जो कि ज़्यादा लागत-प्रभावी है और उसे उजाड़ देगी।
दूसरी बात, क्या भारत के धनी किसानों, फ़ार्मरों, भूस्वामियों ने कभी ‘मुक्त व्यापार’ की माँग या उसका समर्थन किया है? भारतीय खेती में पूँजीवादी विकास के तीव्र होने के पूरे दौर में, यानी कि तथाकथित ‘हरित क्रान्ति’ से लेकर अभी तक के दौर में धनी कुलक–फ़ार्मर वर्ग ने शुरू से ही, यानी अपने उभार से लेकर अपने परिपक्व होने तक के दौर में, अपने लिए राजकीय संरक्षण की माँग की है। चौधरी चरण सिंह, देवीलाल, टिकैत, और तमाम क्षेत्रीय पूँजीवादी पार्टियों की राजनीति अन्य मुद्दों के साथ धनी किसानों-कुलकों के वर्ग की इस माँग पर काफी निर्भर करती रही हैं। साथ ही, पंजाब जैसे प्रदेश में नरोदवादी कम्युनिस्टों के नेतृत्व वाली तमाम किसान यूनियनों की राजनीति भी इसी राजकीय संरक्षण की माँग पर निर्भर रही है और आज भी निर्भर है। इसलिए हमारे लेखक महोदय की यह पूर्वधारणा ही मूर्खतापूर्ण है कि धनी किसान–कुलक वर्ग का पहले ‘मुक्त व्यापार’ पर भरोसा था, जो कि पिछले कुछ दशकों के दौरान उठ गया है और इसलिए उसे समाजवादी कार्यक्रम पर जीता जा सकता है। और इसी पूर्वधारणा पर लेखक महोदय कुतर्कों और मूर्खतापूर्ण दावों की एक पूरी अट्टालिका खड़ी करते हैं। लेकिन बहुत-सी मूर्खताएँ मिलकर विवेकपूर्ण बात नहीं बन जातीं, वे तब भी एक विशाल मूर्खता का ही निर्माण करती हैं, जैसा कि पीआरसी सीपीआई (एमएल) की पुस्तिका व लेख के लेखक महोदय ने काफी मेहनत करके किया है।
तीसरी बात यह है कि यह आन्दोलन आम तौर पर कॉरपोरेट–विरोधी आन्दोलन नहीं है! आन्दोलन के एक प्रमुख नेता विजू कृष्णन ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि यदि सरकार का दावा सही है कि इन तीन खेती क़ानूनों से लाभकारी मूल्य को कोई ख़तरा नहीं है, तो बस वह एक चौथा क़ानून बना दे जो कि सरकारी या निजी, किसी भी ख़रीदार के लिए उपज के लिए न्यूनतम लाभकारी मूल्य देने को बाध्यताकारी बना दे! यानी, सरकार यदि आज एक चौथा क़ानून बना दे जो कि कॉरपोरेट ख़रीदारों के लिए भी लाभकारी मूल्य के भुगतान को बाध्यताकारी बना दे तो किसानों को कोई आपत्ति नहीं है। साथ ही, यह समझना भी ज़रूरी है कि कम्युनिस्ट आम तौर पर छोटी पूँजी द्वारा बड़ी पूँजी के विरुद्ध किये संघर्ष का, तमाम सेक्टरों में बड़ी पूँजी के प्रवेश का विरोध नहीं करते हैं, इसलिए यदि लाभकारी मूल्य की धनी किसानों की पूँजीवादी लूट के विशेषाधिकार की माँग किसी भी रूप में खेती के क्षेत्र में बड़ी पूँजी के प्रवेश को अवरुद्ध भी करती है, तो भी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट उसका समर्थन नहीं करेंगे, जैसा कि ऊपर दिये गये उद्धरण में लेनिन ने स्पष्ट किया है। वे ऐसा केवल तब करते हैं जबकि इससे छोटा ग्रामीण पूँजीपति वर्ग नहीं, बल्कि सर्वहारा वर्ग, अर्द्धसर्वहारा वर्ग, ग़रीब व निम्न-मँझोला किसान वर्ग और अन्य निम्न-मध्यम वर्ग प्रभावित हो रहे हों, जो कि पूँजीपति नहीं हैं, क्योंकि वे छोटे मालिक होने के बावजूद उजरती श्रम का शोषण करके मुनाफ़ा नहीं लूटते हैं। ऐसा करते हुए भी कम्युनिस्ट समाजवादी क्रान्ति के इन मित्र वर्गों को बताते हैं कि हालाँकि कम्युनिस्ट तात्कालिक राहत सुनिश्चित करने वाली उनकी माँगों के लेकर संघर्ष करेंगे, लेकिन उन्हें यह सच्चाई समझनी चाहिए कि पूँजीवादी व्यवस्था के रहते, वे आर्थिक व सामाजिक सुरक्षा वाले मानवीय जीवन की अपेक्षा नहीं कर सकते हैं और उन्हें ऐसा जीवन एक समाजवादी व्यवस्था के मातहत ही मिलेगा। लेकिन पीआरसी सीपीआई (एमएल) के लेखक महोदय ने समाजवादी क्रान्ति के मित्र वर्गों के प्रति, यानी वे वर्ग जो उजरती श्रम के शोषक और इस प्रकार समूचे पूँजीपति वर्ग का कोई अंग नहीं हैं, कम्युनिस्ट पहुँच को छोटे और मँझोले पूँजीपति वर्ग के एक हिस्से के ऊपर लागू कर दिया है, यानी धनी किसानों-कुलकों के ऊपर!
चौथी बात, जिन्हें लगता है कि धनी किसान-कुलक आन्दोलन आम तौर पर कॉरपोरेट पूँजी या बड़ी इजारेदार पूँजी के ख़िलाफ़ है उन्हें इस बात पर ग़ौर करना चाहिए कि लाभकारी मूल्य जिन 23 फसलों पर मिलता है उसके अलावा अन्य सभी फसलों के कारोबार में कॉरपोरेट पूँजी पहले ही प्रवेश कर चुकी है या उनमें किसी न किसी रूप में निजी पूँजी का ही वर्चस्व है। धनी किसान-कुलक उस क्षेत्र में कहीं भी कॉरपोरेट पूँजी के प्रवेश या मौजूदगी का विरोध नहीं कर रहे! यदि आपको यह लगता है कि समूचा धनी किसान वर्ग कॉरपोरेट के प्रवेश के ख़िलाफ़ हैं तो इस पर भी ग़ौर करें कि अभी चल रहे कुलक आन्दोलन के दौरान लाभकारी मूल्य वाली फसलों पर तमाम किसानों ने कॉरपोरेट कम्पनियों को अपनी फसल बेची है! इसको आप नीचे दिये लिंक पर पढ़ सकते हैं –
https://www.thenewsminute.com/article/karnataka-farmers-sell-rice-reliance-retail-unions-warn-predatory-pricing-141218
https://www.tribuneindia.com/news/punjab/pvt-players-in-punjab-buying-cotton-way-above-msp-196215
यदि कॉरपोरेट कम्पनियाँ लाभकारी मूल्य से अधिक दाम देंगी, तो धनी किसानों-कुलकों का ही अच्छा-ख़ासा हिस्सा उन्हें अपनी उपज बेचने के लिए टूट पड़ेगा। यह सच है कि इस बात की प्रबल सम्भावना है कि शुरू में ऊँचे दाम देने के बाद कॉरपोरेट कम्पनियाँ बाज़ार पर अपने अल्पाधिकार के क़ायम होने के बाद अपेक्षाकृत कम दाम देंगी; लेकिन फिर धनी किसानों–कुलकों के संगठन यह घोषणा क्यों नहीं करते कि वे कॉरपोरेट कम्पनियों द्वारा ख़रीद का बहिष्कार करेंगे? यदि वे अभी रिलायंस के जियो व अडानी के उत्पादों के बहिष्कार का आह्वान कर सकते हैं, तो वे व्यापक धनी किसान–कुलक आबादी का यह आह्वान क्यों नहीं कर सकते कि यदि कॉरपोरेट कम्पनियाँ कृषि उपज की ख़रीद के क्षेत्र में आती हैं, तो वे उसका बहिष्कार कर दें? क्योंकि स्वयं धनी किसानों–कुलकों के संगठनों को धनी किसानों–कुलकों के वर्ग का चरित्र पता है! वे जानते हैं कि तात्कालिक तौर पर जहाँ से उन्हें अधिक दाम मिलेगा, वे वहाँ अपनी उपज बेचने को भागेंगे! और इस वर्ग का नेतृत्वकारी हिरावल होने के नाते वे धनी किसानों–कुलकों के वर्ग के दूरगामी हितों के बारे में सोच रहे हैं और वे राजकीय संरक्षण की अपनी वर्गीय आवश्यकता को समझते हैं। यदि इस राजकीय संरक्षण के बूते कॉरपोरेट कम्पनियाँ उनकी उपज लाभकारी मूल्य पर ख़रीदने को बाध्य कर दी जायों, तो न तो उन्हें एपीएमसी मण्डी के ख़त्म होने से कोई दिक्कत है और न ही उन्हें सरकारी ख़रीद के समाप्त होने पर कोई एतराज़ होगा।
ग़ौरतलब है कि जब पीआरसी सीपीआई (एमएल) के लेखक महोदय खुद ही मानते हैं कि मौजूदा धनी किसान आन्दोलन के केन्द्र में लाभकारी मूल्य की माँग है तो उन्हें एक मार्क्सवादी के तौर पर यह पता होना चाहिए यह बड़ी इजारेदार पूँजी और ग्रामीण पूँजीपति वर्ग के बीच का अन्तरविरोध है, इससे ज़्यादा कुछ नहीं! चूँकि ग्रामीण पूँजीपति वर्ग को मुनाफ़े में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करनी है, इसलिए लाभकारी मूल्य के ज़रिये वह राज्य से यह माँग कर रहे हैं। परन्तु वाम के कई संगठनों द्वारा इस आन्दोलन को बड़ी एकाधिकारी पूँजी के ख़िलाफ़ मेहनतकश जनता की लड़ाई समझ लिया गया है या ऐसा समझने का ढोंग किया जा रहा है, क्योंकि फासीवाद के समक्ष पराजयबोध और निराशा-हताशा से ग्रस्त इन संगठनों को मोदी सरकार का विरोध करने वाली किसी भी ताक़त या चुनौती में अपना रक्षक नज़र आ रहा है। वस्तुत:, हमारे लेखक महोदय भी यही बात कर रहे हैं। इस बड़ी एकाधिकारी पूँजी के ख़िलाफ़ धनी किसानों की लड़ाई को वह अपना समर्थन देते हैं और ऐसा करते हुए ग्रामीण पूँजी द्वारा खेतिहर मज़दूरों और सीमान्त, छोटे व निम्न मँझोले किसानों की लूट के समर्थन में जा खड़े होते हैं! वे बड़ी इजारेदार पूँजी की लूट के तो विरोध में है लेकिन ग्रामीण पूँजीपति वर्ग की लूट और इसलिए आम तौर पर पूँजीवाद के विरोध में नहीं हैं। जिस तर्क से वे धनी किसानों व कुलकों का समर्थन कर रहे हैं, उस तर्क से उन्हें छोटे कारख़ानेदारों का भी समर्थन करना चाहिए, क्योंकि उनके भी बड़ी इजारेदार पूँजी के साथ तीख़े अन्तरविरोध हैं!
जैसा कि मार्क्स, एंगेल्स, काऊत्स्की (अपने मार्क्सवादी दौर में) और लेनिन ने कम्युनिस्टों को बार-बार याद दिलाया था, मार्क्सवादी-लेनिनवादी बड़ी पूँजी का विरोध छोटी पूँजी की ज़मीन से नहीं करते हैं। सर्वहारा वर्ग और उसकी अगुवाई में समाजवादी क्रान्ति के मित्र वर्ग ग़रीब किसान व निम्न मध्यवर्ग अपनी स्वतंत्र राजनीतिक अवस्थिति से आम तौर पर पूँजी द्वारा शोषण का विरोध करेगा, ना कि सिर्फ़ कॉरपोरेट पूँजी का! ऐसा करने का मतलब होगा मज़दूर वर्ग द्वारा अपनी स्वतंत्र राजनीतिक अवस्थिति को त्याग देना और उसे छोटे पूँजीपति वर्ग का पिछलग्गू बनाना। यही काम यहाँ पीआरसी सीपीआई (एमएल) के लेखक महोदय करते दिखते हैं, जहाँ वह कुलकों की ज़मीन से बड़ी एकाधिकार पूँजी के विरोध का जश्न मनाते हैं। सच यह है कि लाभकारी मूल्य की लड़ाई कुल विनियोजित बेशी मूल्य में अपनी हिस्सेदारी बचाने और बढ़ाने के लिए ग्रामीण पूँजीपति और बड़ी एकाधिकार पूँजीपति वर्ग के बीच की लड़ाई है।
पूँजीपति वर्ग के अलग-अलग धड़ों के बीच में हमेशा ही मुनाफ़े के बँटवारे को लेकर अन्तरविरोध मौजूद रहते हैं और अक्सर ये अन्तरविरोध काफ़ी तीख़े भी हो जाते हैं। पर इसका यह अर्थ नहीं होता कि कोई एक धड़ा अब पूँजीपति वर्ग का अंग नहीं रह गया है या वह धड़ा पूँजीवाद–विरोधी बन जायेगा। इसी प्रकार के नतीजे एक भूतपूर्व–एसयूसीआई सदस्य सोशल मीडिया वामपंथी बुद्धिजीवी भी निकाल रहे हैं! ऐसा प्रतीत होता है कि इन “बुद्धिजीवी” महोदय के सिद्धान्त–चर्वण से गिरे चूरों को बटोरकर हमारे पीआरसी सीपीआई (एमएल) के लेखक महोदय ने अपनी मूर्खता के अट्टालिका–निर्माण का मसाला तैयार किया है।
लेखक महोदय कहते हैं कि खुले बाज़ार में कृषि उपज के दामों में आये भयानक उतार-चढ़ाव के कारण किसान ऊँचे दाम के आकर्षण से विमुख हो गये हैं! यह एकदम बकवास दावा है। किसान लाभकारी मूल्य के ज़रिये भी ऊँचा दाम ही चाहते हैं, अन्यथा सभी धनी किसानों के संगठन स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करने की माँग को इतना केन्द्रीय स्थान नहीं देते, जो कि व्यापक लागत (comprehensive cost) के ऊपर 50 प्रतिशत का मुनाफ़ा सुनिश्चित करने वाले लाभकारी मूल्य देने की वकालत करती है। यदि लाभकारी मूल्य इतने ऊँचे स्तर पर तय होगा तो खाद्यान्न की बाज़ार क़ीमत के लिए एक बेहद ऊँचा ‘फ़्लोर लेवल’ तय होगा, जो कि बाज़ार क़ीमत को उससे नीचे नहीं जाने देगा। ऐसे में, किसान क्या ऊँचे दामों की माँग से विमुख हो गये हैं? नहीं! वे वस्तुत: कृषि उपज की दामों के लिए एक ऊँचा ‘फ़्लोर लेवल’ चाहते हैं, जिससे कि उन्हें जो गारण्टी वाला दाम मिले वह एक ऊँचे फ़िक्स स्तर से नीचे जा ही न सके। यह वास्तव में एक तयशुदा ऊँचे दामों का आकर्षण ही है जो कि लाभकारी मूल्य की माँग के पीछे खड़ा है। ऐसा दावा अपने कल्पनालोक में रहने वाला कोई शेखचिल्ली ही कर सकता है कि धनी किसान अब ऊँचा दाम नहीं चाहते या उसके प्रति उनमें आकर्षण ख़त्म हो गया है! तो फिर वे व्यापक लागत के ऊपर 50 प्रतिशत मुनाफ़े वाला लाभकारी मूल्य क्यों माँग रहे हैं? क्योंकि धनी किसान जानते हैं कि कृषि उपज की यह गारंटीशुदा क़ीमत उन्हें एक सुनिश्चित मुनाफ़ा मुहैया करायेगी और साथ ही उसके बाद भी बाज़ार क़ीमतों को अन्य कारकों जैसे कि जमाख़ोरी आदि के ज़रिये और ऊपर उठाया जा सकता है। लेखक महोदय भी शायद इस विचित्र दावे में निहित मूर्खता के प्रति सचेत हैं और इसलिए वह कहते हैं कि किसान “खुले बाज़ार/मुक्त व्यापार द्वारा ऊँचे दाम” दाम के प्रति विकर्षण महसूस कर रहे हैं। लेकिन फिर सवाल यह उठता है कि क्या लेखक महोदय राजकीय संरक्षण के ज़रिये धनी किसानों के ऊँचे दाम की माँग का समर्थन करते हैं, क्योंकि लाभकारी मूल्य वास्तव में राजकीय संरक्षण के ज़रिये मिलने वाला एक ऐसा ऊँचा दाम ही है, जो कि धनी किसानों-कुलकों को आम मेहनतकश आबादी की क़ीमत पर एक बेशी मुनाफ़ा सुनिश्चित करता है? ज़ाहिर है, यहाँ भी लेखक महोदय इरादतन एक अस्पष्टता क़ायम रखते हैं, ताकि धनी किसानों-कुलकों की लाभकारी मूल्य की माँग का समर्थन कर उनके आन्दोलन की पूँछ पकड़कर घिसट सकें!
यह बात भी ग़ौरतलब है कि कई वाणिज्यिक फसलों के मामले में किसान कतई कॉरपोरेट ख़रीद के खिलाफ़ नहीं हैं क्योंकि इसमें निजी ख़रीद और मुक्त बाज़ार ही उन्हें आम तौर पर काफ़ी ऊँची क़ीमत देता है, बल्कि इन फसलों के मामले में तो वे किसी भी प्रकार के राजकीय विनियमन के खिलाफ़ हैं! यह भूलना नहीं चाहिए कि धनी किसान एक पूँजीवादी किसान है जो कि उजरती श्रम का शोषण करके मुनाफ़े की ख़ातिर ही खेती में निवेश करता है। चाहे सरकारी दाम के ज़रिये या मुक्त बाज़ार द्वारा निर्धारित ऊँचे दामों के ज़रिये उसे पर्याप्त मुनाफ़ा सुनिश्चित करने वाला दाम ही चाहिए होता है। यदि सरकारी गारंटीशुदा दाम से उसे यह मुनाफ़ा मिलता है, तो वह उसके लिए लड़ता है और यदि किसी भी उपज की बिकवाली में सरकारी विनियमन बाधा पैदा करता है, तो वह उसका विरोध भी करता है।
यहीं पर एक और बात का ज़िक्र करना भी उपयोगी होगा, जो हमारे लेखक महोदय के सिर के ऊपर से बाउंसर के समान निकल जाती है।
पूँजीपति वर्ग का आम तौर पर एक चरित्र होता है: अपने से बड़े और ताकतवर प्रतिस्पर्द्धी के विरुद्ध वह हमेशा अपनी राज्यसत्ता से सरंक्षण की माँग और अपेक्षा करता है। यहाँ तक कि भारत का बड़ा पूँजीपति वर्ग भी सस्ते चीनी आयात के समक्ष संरक्षण की माँग करता है; भारत के बड़े पूँजीपति वर्ग ने आज़ादी के बाद आयात-प्रतिस्थापन का जो विकास मॉडल अपनाया था वह भी विदेशी, अपेक्षाकृत बड़ी पूँजी से राजकीय संरक्षण ही था; जब किसी भी देश का बड़ा पूँजीपति वर्ग विकास के अपेक्षाकृत ऊँचे स्तर पर पहुँच जाता है, तो वह भी विश्व बाज़ार में प्रतिस्पर्द्धा के काबिल हो जाता है और संरक्षण के लिए उसकी माँग कम होती जाती है, हालाँकि यह पूरी तरह से समाप्त कभी नहीं होती है; यहाँ तक कि उत्तरी अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के देशों के पूँजीपति वर्ग भी वैश्विक पूँजीवादी प्रतिस्पर्द्धा के बदलते समीकरणों के अनुसार अपनी-अपनी सरकारों से संरक्षण की माँग करते हैं। लेकिन छोटे और मंझोले पूँजीपति वर्ग की तो आम तौर पर हमेशा ही यह माँग होती है कि उसे राजकीय संरक्षण मिले क्योंकि उसे पता होता है कि वह खुले बाज़ार की प्रतिस्पर्द्धा में बड़ी पूँजी के समक्ष नहीं टिक सकता है। लेकिन अपने से निचले वर्गों के लिए वह किसी भी प्रकार के संरक्षण के ख़िलाफ़ होता है! मिसाल के तौर पर, मज़दूरों को श्रम क़ानूनों द्वारा मिलने वाले क़ानूनी अधिकार भी एक प्रकार का राजकीय संरक्षण है, जैसे कि न्यूनतम मज़दूरी का क़ानूनी अधिकार (अभी यहाँ इस मसले पर बात करने की कोई प्रासंगिकता नहीं है कि ये श्रम क़ानून कितने लागू होते हैं, क्योंकि इन क़ानूनों का होना भी पूँजीपति वर्ग को गंवारा नहीं है)। खेतिहर मज़दूरों को तो श्रम क़ानूनों से मिलने वाले तमाम क़ानूनी अधिकार भी प्राप्त नहीं हैं। खेतिहर मज़दूरों को इस प्रकार के अधिकार मिलने के धनी और उच्च मध्यम किसान सीधे-सीधे मुख़ालफ़त करते हैं। मनरेगा योजना का भी धनी किसान शुरू से ही विरोध करते रहे हैं क्योंकि इससे ग्रामीण मज़दूरी दर बढ़ सकती है और अक्सर बढ़ती भी भी है। मनरेगा योजना भी एक राजकीय संरक्षण ही है। जब मज़दूर वर्ग को और विशेष तौर पर खेतिहर मज़दूर वर्ग को मिलने वाले इन राजकीय संरक्षणों की बात आती है, तो धनी किसानों–कुलकों समेत सारे छोटे पूँजीपति वर्ग अचानक ‘मुक्त व्यापार–वादी’ (free-trader) बन जाते हैं; लेकिन स्वयं अपने लिए वे बड़ी पूँजी के समक्ष राजकीय संरक्षण चाहते हैं और उस मौके पर वे अचानक कल्याणवादी (welfarist) बन जाते हैं! यह छोटे पूँजीपति वर्ग का असली वर्ग चरित्र होता है।
ऐसे में कोई कम्युनिस्ट न तो आम तौर पर राजकीय संरक्षण की तात्कालिक माँग का निरपेक्ष समर्थन करता है, और न ही निरपेक्ष विरोध। वह उस राजकीय संरक्षण का समर्थन करता है, जिसका कुछ भी लाभ मज़दूर वर्ग और आम ग़रीब मेहनतकश आबादी को मिलता है और उस राजकीय संरक्षण का विरोध करता है जो पूँजीपति वर्ग के किसी भी हिस्से को मिलता है। लाभकारी मूल्य की व्यवस्था धनी किसानों–कुलकों को मिलने वाला राजकीय संरक्षण है और यह संरक्षण ग़रीब मेहनतकश जनता की क़ीमत पर दिया जाता है। वास्तव में, हमारे लेखक महोदय धनी किसानों-कुलकों के लिए इसी राजकीय संरक्षण की माँग कर रहे हैं और ऐसा करने के लिए जहाँ उन्हें मन करता है वहाँ वह किसानों को एक अविभाजित (undifferentiated) समुदाय के रूप में पेश करते हैं। आइए देखते हैं कि पीआरसी सीपीआई (एमएल) के लेखक महोदय इस प्रश्न पर किस प्रकार द्रविड़ प्राणायाम करते हुए शर्मनाक स्थिति में पहुँच जाते हैं।
लाभकारी मूल्य किन वर्गों की सेवा करता है?
हमारे लेखक महोदय जब लाभकारी मूल्य की लड़ाई को किसानों के अस्तित्व-रक्षा की लड़ाई से जोड़ देते हैं, तब उनसे पूछा जाना चाहिए कि कौन–से किसानों का अस्तित्व? आम मेहनतकश ग़रीब किसान (सीमान्त, छोटे व निम्न-मँझोले किसान) तो मुनाफ़े, सूद और लगान के ज़रिये धनी किसानों-कुलकों की लूट के कारण पहले ही अस्तित्व के संकट का सामना कर रहे हैं और लाभकारी मूल्य इन्हीं धनी किसानों-कुलकों की माँग है। किसानों के अलग-अलग संस्तरों की अलग-अलग वर्गीय माँगों के इसी बुनियादी लेनिनवादी सवाल को हमारे लेखक महोदय या तो उठाते ही नहीं हैं, या उसे ढाँपने–तोपने की कोशिश करते रहते हैं।
पहली बात, यदि आप ग़रीब और निम्न-मँझोले किसानों की बात कर रहे हैं, तो वे तो पहले से ही तबाह हो रहे हैं और वह भी किसान आबादी के ही दूसरे हिस्से यानी कि धनी किसानों और कुलकों द्वारा! 2009 में ही करम सिंह, सुखपाल सिंह और एच.एस.धींगरा ने अपने अध्ययन में स्पष्ट बताया कि पूरे देश की तो बात ही और है, खुद पंजाब में ही खेती से उजड़ने वाले किसानों का 90 प्रतिशत से भी ज़्यादा हिस्सा उन किसानों का है, जिन्हें हम सीमान्त व छोटा किसान कहते हैं और उनका खेती छोड़ने का प्रमुख कारण था संस्थाबद्ध सस्ते ऋण की अनुपस्थिति और गाँव के धनी किसानों-कुलकों द्वारा भयंकर रूप से ऊँची ब्याज़ दरों पर दिया जाने वाले ऋण (‘Agrarian Crisis and Depeasantization in Punjab: Status of Small/Marginal Farmers Who Left Agriculture’, Indian Journal of Agricultural Economics, Vol.64, No.4, Oct-Dec 2009)। पंजाब तक में 2019 में आत्महत्या करने वाले 3330 किसानों में से 94 प्रतिशत 2 हेक्टेयर से कम ज़मीन वाले थे। पूरे भारत के बारे में यह सच्चाई लागू होती है। इसके अलावा, छोटे पैमाने की खेती की बढ़ती लागत और घटती आमदनी उनके उजड़ने का दूसरा सबसे बड़ा कारण थी। कॉरपोरेट पूँजी के प्रवेश के बहुत पहले से ही और विशेष तौर पर 1960 के दशक के उत्तरार्द्ध से विकिसानीकरण और सर्वहाराकरण का मुख्य कारण धनी किसानों–कुलकों की मुनाफ़े, सूद, लगान व कमीशन द्वारा लूट रही है। कॉरपोरेट पूँजी के प्रवेश से ग़रीब व छोटे किसानों के उजड़ने की प्रक्रिया में सिर्फ इतना ही फ़र्क आने वाला है कि अब उन्हें उजाड़ने वाली शक्तियों में धनी किसानों–कुलकों के साथ–साथ कॉरपोरेट पूँजी को भी हिस्सेदारी मिल जायेगी, जो कि कालान्तर में बढ़ती भी जायेगी। यह भी समझना ज़रूरी है कि लाभकारी मूल्य को राजकीय संरक्षण के समाप्त होने और निजी पूँजी के उपज विपणन के क्षेत्र में प्रवेश के कारण ग़रीब व निम्न-मँझोले किसानों के उजड़ने की रफ़्तार बढ़ने का कोई आनुभविक प्रमाण नहीं है। यदि ऐसा होता तो 2005-06 के बाद बिहार में विकिसानीकरण और ग्रामीण सर्वहाराकरण की रफ़्तार बिहार में हरियाणा जैसे राज्यों से ज़्यादा होनी चाहिए थी, जो कि नहीं है। इतना दावे के साथ कहा जा सकता है कि ग़रीब व निम्न-मँझोले किसान धनी किसानों-कुलकों द्वारा पूँजीवादी लूट के मातहत भी उजड़ रहे थे और खेती में कॉरपोरेट पूँजी के प्रवेश के बाद भी वे उजड़ते रहेंगे और इसीलिए कॉरपोरेट पूँजी का विरोध धनी किसानों-कुलकों की वर्गीय ज़मीन पर खड़े होकर करने में सर्वहारा वर्ग और ग़रीब मेहनतकश किसानों का कोई हित नहीं है।
दूसरी बात यह है कि पीआरसी सीपीआई (एमएल) के लेखक महोदय यह बताने की ज़हमत ही नहीं उठाते हैं कि लाभकारी मूल्य की माँग ग़रीब व निम्न–मँझोले किसानों के अस्तित्व की रक्षा कैसे करेगी? यानी इन जनाब ने उस बात को ही अपनी पूर्वमान्यता (assumption) मानकर प्रस्थान किया है, जिसे कि साबित किया जाना था! यह कुतर्कों की इमारत खड़ी करने का सबसे भोण्डा और मूर्खतापूर्ण तरीका है।
सभी जानते हैं कि ग़रीब और निम्न मँझोले किसान को 90 फीसदी से भी ज़्यादा मामलों में लाभकारी मूल्य का लाभ नहीं मिलता है! अव्वलन तो ग़रीब और निम्न मँझोले किसानों की लाभकारी मूल्य और सरकारी मण्डियों तक पहुँच ही बेहद सीमित है। दूसरी बात यह कि जिन राज्यों में कुछ हद तक छोटे निम्न मँझोले किसान भी बेहतर आधारभूत विपणन संरचना के कारण सरकारी मण्डियों में लाभकारी मूल्य पर अनाज बेच पाते हैं वहाँ भी उन्हें लाभकारी मूल्य से नुकसान होता है, क्योंकि वे खाद्यान्न के मुख्य रूप से ख़रीदार हैं, विक्रेता नहीं। यानी, वे जितना अनाज बेचते हैं, उससे ज़्यादा ख़रीदते हैं और इसलिए लाभकारी मूल्य में किसी भी बढ़ोत्तरी का उन्हें नुकसान होता है, फ़ायदा नहीं। और स्वयं हमारे लेखक महोदय मानते हैं कि लाभकारी मूल्य से कृषि उपज की क़ीमतें बढ़ती हैं। ऐसे में, इस प्रकार का मूर्खतापूर्ण दावा करने के लिए अव्वल दर्जे का अहमक या मौकापरस्त होने की आवश्यकता है कि लाभकारी मूल्य को बचाना सारे किसानों के हित और अस्तित्व का प्रश्न है। कौन-सा विकल्प हमारे पीआरसी सीपीआई (एमएल) के लेखक पर लागू होता है, यह फैसला हम पाठकों पर छोड़ देते हैं।
जहाँ तक कॉरपोरेट पूँजी के कृषि उपज विपणन में प्रवेश की बात है, तो ग़रीब व निम्न-मँझोले किसानों की तबाही पर कोई बहुत ज़्यादा असर नहीं पड़ेगा! वे पहले भी पूँजी की स्वाभाविक गति से तबाह हो रहे थे और अब भी होंगे, जैसा कि हमने ऊपर दिखलाया है! फर्क बस इतना होगा कि पहले वे धनी किसानों व कुलकों द्वारा खेतिहर उत्पादन व खेती के उत्पाद के व्यापार की व्यवस्था में लुट और बर्बाद हो रहे थे और अब इस प्रक्रिया में एक बड़ी भागीदारी बड़ी कॉरपोरेट पूँजी की होगी! यहाँ यह भी नहीं कहा जा सकता कि कॉरपोरेट पूँजी के आने से छोटे किसान ज़्यादा जल्दी तबाह होंगे या बलात् अपनी ज़मीन से निकाले जायेंगे जैसा कि पीआरसी सीपीआई (एमएल) के लेखक महोदय कह रहे हैं! अभी तक इसके कोई प्रमाण नहीं मिले हैं कि राजकीय संरक्षण समाप्त होने और निजी पूँजी के प्रवेश से सीमान्त, छोटे व निम्न-मँझोले किसानों की तबाही की रफ़्तार बढ़ गयी है। मिसाल के तौर पर, जैसा कि हमने ऊपर बताया है, आप बिहार में एपीएमसी एक्ट और लाभकारी मूल्य की व्यवस्था समाप्त होने के बाद के दौर में सर्वहाराकरण व विकिसानीकरण की दर और इसी दौर में पंजाब और हरियाणा में सर्वहाराकरण और विकिसानीकरण की दर में तुलना करें, तो आप पाते हैं कि बिहार में यह दर अपेक्षाकृत कम रही है। एक पल को यह मान लेते हैं कि धनी किसानों–कुलकों, यानी खेतिहर पूँजीपति वर्ग के मुकाबले बड़ी इजारेदार पूँजी ग़रीब मेहनतकश किसानों को ज़्यादा तेज़ गति से उजाड़ेगी, तो भी इसका मतलब यह नहीं कि छोटे व सीमान्त किसान यह नारा दें कि हमें बड़ी पूँजी से नहीं बल्कि छोटी पूँजी से तबाह होना है! ग़रीब व मँझोले किसान अपनी बर्बादी के लिए ज़िम्मेदार बड़े एकाधिकारी पूँजीपति वर्ग का विरोध छोटी पूँजी की ज़मीन से नहीं करेंगे बल्कि अपनी स्वतंत्र वर्गीय राजनीतिक अवस्थिति से करेंगे! लाभकारी मूल्य की व्यवस्था को बनाये रखने का मसला ग्रामीण पूँजीपति यानी धनी किसान–कुलक वर्ग और बड़े इजारेदार कॉरपोरेट पूँजीपति वर्ग के बीच का विवाद है! इसमें खेतिहर मज़दूर, निम्न–मँझोले किसान व ग़रीब किसान और मज़दूरों को धनी किसान या कॉरपोरेट का साथ देने की न सिर्फ कोई आवश्यकता नहीं है, बल्कि यह नुकसानदेह है!
”सामान्य पूँजीवादी खेती” और “कॉरपोरेट पूँजीवादी खेती” के बारे में पीआरसी सीपीआई (एमएल) के लेखक महोदय के बहके–बहके विचार
हमारे लेखक महोदय ने धनी किसानों-कुलकों की गोद में बैठने की बेताबी में मार्क्सवाद-लेनिनवाद में ही एक नया “इज़ाफ़ा” कर डाला है! जनाब का दावा है कि एक “सामान्य पूँजीवादी खेती” होती है, जिसमें खेती से किसानों का बलात् निष्कासन नहीं होता है, जबकि दूसरी “कॉरपोरेट पूँजीवादी खेती” होती है, जिसमें ग़रीब किसानों को खेती से बलात् खेती से खदेड़ा जायेगा! आइये देखते हैं हमारे लेखक महोदय क्या कहते हैं:
“सामान्य पूँजीवादी कृषि से कॉरपोरेट कृषि में छलाँग स्वाभाविक और स्वयंस्फूर्त नहीं हो सकती थी…पूँजीवादी कृषि के दूसरे दौर के आगाज़ का वास्तविक अर्थ है – खेती से ग़रीब किसानों के स्वयंस्फूर्त निष्कासन से बलात निष्कासन और ग़रीब किसानों की तबाही से लगभग संपूर्ण किसान वर्ग की तबाही के दौर में छलांग – जिसे बलात किया जाना है जैसा कि नये फ़ार्म क़ानून में स्पष्टत: निर्दिष्ट है।” ( पीआरसी सीपीआई (एमएल) के फेसबुक पोस्ट से)
अपने इस महान “सैद्धान्तिक” इज़ाफ़े के पीछे लेखक महोदय कोई आधार या तर्क नहीं देते! कॉरपोरेट पूँजी के कृषि व उसकी उपज के व्यापार में प्रवेश से छोटी पूँजी पूँजीवादी व्यवस्था की नैसर्गिक गति से ही निष्कासित होगी ना कि बलात् निष्काषित होगी! पहले तो यह भी समझ लेते हैं कि इस शब्द “कॉरपोरेट पूँजी” का क्या अर्थ है। इसका अर्थ केवल बड़ी पूँजी से है, और कुछ भी नहीं। खेती में जब धनी किसानों की पूँजी का उभार होता है, तो वह भी अपने से छोटी पूँजी को प्रतिस्पर्द्धा में उजाड़कर ही होता है; और धनी किसानों की पूँजी के बरक्स बड़ी पूँजी के खेती के क्षेत्र में प्रवेश से भी धनी किसानों-कुलकों की पूँजी उसी पूँजीवादी बाज़ार प्रतियोगिता की प्रक्रिया से ही तबाह होगी।
लेखक महोदय का दावा है कि ठेका खेती से बड़े पैमाने की शुरुआत होगी और यह व्यापक किसान आबादी के कृषि से बलात् निष्कासन का कारण बनेगी। यह भी बकवास है। धनी किसानों और कुलकों द्वारा देश में पहले से ही ठेका खेती जारी है और उसके ज़रिये बड़े पैमाने की खेती पहले ही हो रही है; कॉरपोरेट पूँजी के प्रवेश से प्रक्रिया और बड़े पैमाने पर जायेगी, न कि इसकी शुरुआत कॉरपोरेट पूँजी के प्रवेश से होगी। लेकिन इससे धनी किसानों-कुलकों का जो हिस्सा खेती से निष्कासित होगा, वह भी बलात् नहीं होगा, बल्कि पूँजीवाद की स्वाभाविक आर्थिक गति से ही होगा। यह कोई बलात् निष्कासन नहीं होगा। निश्चित तौर पर, ज़मीन की मिल्कियत के क़ानूनों में कल संशोधन करके इस आर्थिक निष्कासन की प्रक्रिया को भी ज़्यादा सरल और सहज बनाने का प्रयास बड़ा पूँजीपति वर्ग करेगा, जो कि ज़मीन की ख़रीद-फ़रोख़्त को और आसान बनायेगा। फासीवादी सरकार आर्थिक और राजनीतिक संकट के किसी सन्धि-बिन्दु पर फिर से 2015 के समान बिना किसानों की सहमति के भूमि अधिग्रहण का कोई क़ानून ला सकती है, जिस सूरत में किसानों के जनवादी अधिकार का मुद्दा प्रमुख बन जायेगा। लेकिन इसकी सम्भावना कम है कि मोदी सरकार ऐसा कोई क़ानून दोबारा लायेगी क्योंकि उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन यह छोटे पूँजीपति वर्ग के मातहत पूँजीवादी खेती और बड़े पूँजीपति वर्ग की दख़ल के मातहत पूँजीवादी खेती के बीच कोई गुणात्मक अन्तर स्थापित करने का कोई आधार नहीं है। साथ ही, यह भी याद रखना चाहिए कि कम्युनिस्ट रैडिकल बुर्जुआ अर्थों में भी ज़मीन के प्रभावी (शुद्धत: क़ानूनी नहीं) राष्ट्रीकरण का समर्थन करते हैं क्योंकि यह पूँजीवादी दायरों में भावी समाजावादी रूपान्तरण का रास्ता साफ़ करता है और ऐतिहासिक तौर पर प्रगतिशील है। ज़मीन के निजी सम्पत्ति होने का कोई तार्किक आधार बुर्जुआ अर्थों में भी नहीं दिया जा सकता है, क्योंकि ज़मीन एक प्राकृतिक संसाधन है न कि उत्पादित वस्तु। बहरहाल, कॉरपोरेट पूँजी के खेती के क्षेत्र में पहुँचने से खेती से किसानों के निष्कासन के बलात् निष्कासन में तब्दील हो जाने का दावा कतई मूर्खतापूर्ण है और खेतिहर पूँजीपति वर्ग द्वारा इजारेदार पूँजी के विरोध में हो रहे आन्दोलन का समर्थन करने की टुटपुंजिया अवस्थिति के वैधीकरण के लिए दिया जा रहा एक अवसरवादी कुतर्क है।
बलात् का मार्क्सवादी अर्थों में एक ही मतलब होता है: आर्थिकेतर उत्पीड़न (extra-economic coercion) के दम पर ज़मीन से बेदखली। तीनों खेती क़ानूनों के ज़रिये कॉरपोरेट पूँजी के आने से भी छोटी पूँजी बलात् कैसे बेदख़ल होगी, यह लेखक महोदय समझाने की बजाय, एक बार फिर से इसे एक पूर्वमान्यता के रूप में पेश करते हैं! यह इन जनाब की आदत है: जो बात इन्हें साबित करनी होती है और यह साबित नहीं कर पाते, उसे यह आकाशवाणी समान एक तथ्य मान लेते हैं, जिसे सभी जानते हों! सच्चाई यह है कि कॉरपोरेट पूँजी के प्रवेश के बाद भी ग़रीब और निम्न-मँझोले किसान और उच्च मध्यम और साथ धनी किसानों की भी एक आबादी बाज़ार की स्वाभाविक आर्थिक गति से तबाह होगी ना कि बलात्!
दूसरी बात, यह कि तमाम अध्ययन दिखलाते हैं कि जिस हद तक धनी किसानों का एक छोटा-सा हिस्सा खेती छोड़कर किसी अन्य उद्यम या पेशे में गया है, वह पूरी तरह बरबाद होकर नहीं गया, बल्कि उससे पहले ही उसने अपने निवेश का वैविध्यीकरण कर दिया है। दूसरे शब्दों में, ग़रीब और निम्न मँझोले किसानों का उजड़ना और धनी किसानों का खेती छोड़कर दूसरे पेशों में जाना दो अलग प्रकार की आर्थिक परिघटनाएँ हैं। साथ ही, उन्नत से उन्नत पूँजीवादी देशों में उत्तरोत्तर पूँजीवादी विकास के बावजूद समूची धनी किसान आबादी समाप्त नहीं हो गयी। अमेरिका में भी धनी फ़ार्मर वर्ग पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है। अमेरिका में कुल 20 लाख फ़ार्म हैं, जिनका औसत आकार 441 एकड़ प्रति फार्म है और इनमें से फ़ार्मर परिवारों के मालिकाने वाले फ़ार्म 85.7 प्रतिशत हैं और उनके फार्मों के अन्तर्गत कुल कृषि भूमि का 60.1 प्रतिशत आता है। निचिश्त तौर पर, पूँजीवादी विकास के साथ पूँजी का संकेन्द्रण और बढ़ेगा और कई धनी किसान-कुलक अपनी ज़मीनें कॉरपोरेटों को बेचकर अन्य आर्थिक क्षेत्रों में निवेश करेंगे। ऐसा भारत में भी हुआ है और यह प्रक्रिया अमेरिका में घटित भी हुई है। लेकिन इसकी मेहनतकश ग़रीब किसानों के उजड़ने से तुलना नहीं की जा सकती है, जो कि धनी किसानों-कुलकों की लूट से भी उजड़ रहे हैं और बड़ी इजारेदार पूँजी की लूट से भी उजड़ेंगे और जो पहले ही अर्द्धसर्वहारा में तब्दील हो चुके हैं, क्योंकि उनकी आय का बड़ा हिस्सा उजरती श्रम से आता है और जो आय खेती से होती है, वह भी पूँजीपति के समान उजरती श्रम का शोषण करके नहीं होती है। निश्चित तौर पर, कुछ धनी किसान तबाह भी होंगे। लेकिन यह पूँजीवाद की एक आर्थिक प्रक्रिया है, न कि बलात् निष्कासन, जो कि परिभाषा से ही बाकायदा पूँजी संचय की नहीं, बल्कि आदिम संचय (primitive accumulation) की प्रक्रिया होती। इस प्रकार की जबरन बेदख़ली जनता की साझा सम्पदा (Commons) के निजीकरण के रूप में जारी भी है और हर जगह ही कम्युनिस्ट उसका विरोध भी करते हैं। लेकिन धनी किसानों के एक हिस्से का कॉरपोरेट पूँजी के प्रवेश से उजड़ना कोई आदिम संचय नहीं है।
लुब्बेलुबाब यह कि पीआरसी सीपीआई (एमएल) के लेखक महोदय का यह सिद्धान्त निहायत मूर्खतापूर्ण है और मार्क्सवाद-लेनिनवाद से इसका कोई लेना-देना नहीं है। इसके पीछे से भी हमारे भूतपूर्व एसयूसीआई सदस्य सोशल मीडिया “बुद्धिजीवी” की “समझदारी” की बू आती है, जो कि इस समय पीआरसी सीपीआई (एमएल) के लेखक महोदय के लिए ‘लीडिंग लाइट’ बने हुए हैं। इन सोशल मीडिया “बुद्धिजीवी” का कहना है कि खेती क़ानून इंग्लैण्ड के आदिम संचय व बाड़ेबन्दी आन्दोलन जैसे ही हैं, जिनमें किसानों को जबरन उजाड़ा गया था! इसी प्रकार की मूर्खतापूर्ण तुलना पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेता महोदय कर रहे हैं क्योंकि वह इन सोशल मीडिया “बुद्धिजीवी” के सिद्धान्त-मन्थन से ही यह टुटपुंजिया अमृत प्रसाद में लेकर आये हैं। ऐसे लोगों को पूँजी और श्रम के द्वन्द्व को संघटित करने वाले “आदिम संचय” और पूँजीवादी संचय के बीच में फ़र्क ही नहीं पता है। पहला श्रम और पूँजी के दो ध्रुवों का सृजन करता है और श्रम-पूँजी अन्तरविरोध व पूँजी-सम्बन्ध (capital-relation) को संघटित करता है; इसमें बलात् उजाड़े जाने का तत्व प्रधान होता है। दूसरा, यानी पूँजीवादी संचय, सम्भव ही तब होता है जबकि श्रम और पूँजी का यह द्वन्द्व पहले ही संघटित हो चुका हो और यह बलात् उजाड़ने की प्रक्रिया पर निर्भर नहीं करता बल्कि आर्थिक तौर पर प्रतिस्पर्द्धा की प्रक्रिया में छोटी पूँजी को उजाड़ता है। सवाल यह है कि क्या भारतीय खेती में इन खेती क़ानूनों से आदिम संचय होगा जिसके ज़रिये श्रम और पूँजी का अन्तरविरोध संघटित होना है? नहीं! भारतीय खेती में श्रम और पूँजी का अन्तरविरोध दशकों से मौजूद है और मौजूदा खेती क़ानून वास्तव में उसी अन्तरविरोध के एक नये स्तर पर विकसित होने के कारण बड़े पूँजीपति वर्ग की आवश्यकता बन गये हैं।
आखिरी बात यह कि मार्क्सवाद–लेनिनवाद “सामान्य पूँजीवादी खेती” और “कॉरपोरेट पूँजीवादी खेती” के बीच कोई गुणात्मक अन्तर नहीं करता है। उद्योग और कृषि दोनों में ही, मार्क्सवाद-लेनिनवाद सामान्य माल उत्पादन (simple commodity production) और पूंजीवादी माल उत्पादन में फर्क अवश्य करता है। लेकिन पूँजीवादी खेती, पूँजीवादी खेती होती है जिसका अर्थ होता है खेतिहर उत्पादन सम्बन्धों में तीन मुख्य वर्गों की एक संरचना का अस्तित्व में आना, जैसा कि मार्क्स ने ‘पूँजी’ के खण्ड तीन में बताया है: पूँजीवादी भूस्वामी, पूँजीवादी फ़ार्मर और खेतिहर सर्वहारा वर्ग। यदि रैडिकल बुर्जुआ भूमि सुधारों के फ्रेमवर्क में भूमि का राष्ट्रीकरण हो जाता है, तो भूमि का एकाधिकारी मालिकाना समाप्त हो जाता है और इसलिए लगानजीवी पूँजीवादी भूस्वामी (capitalist rentier landlord) के वर्ग के रूप में समाप्त होने के साथ निरपेक्ष लगान (absolute rent) समाप्त हो जाता है, लेकिन विभेदक लगान (differential rent) की मौजूदगी बनी रहती है, जो कि बेशी मुनाफ़े (surplus profit) के रूप में सबसे ख़राब ज़मीन के पूँजीवादी फ़ार्मर के अलावा अन्य सभी पूँजीवादी फ़ार्मरों को मिलता है। बहरहाल, पूँजीवादी भूस्वामी व पूँजीवादी फ़ार्मर बड़ा हो सकता है या छोटा हो सकता है, व्यक्ति हो सकता है या कोई कॉरपोरेट घराना, इससे पूँजीवादी खेती के चरित्र में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं आता है। बल्कि छोटी पूँजी से बड़ी पूँजी की ओर संक्रमण, यानी कि पूँजी के संघनन और संकेन्द्रण (concentration and centralization of capital) की प्रक्रिया, उद्योगों के ही समान खेती के क्षेत्र में भी घटित होती है, हालाँकि अलग दर से और अलग रूप में। इससे पूँजीवादी शोषण की मूल अन्तर्वस्तु में कोई परिवर्तन नहीं आता है। दूसरी बात, यह प्रक्रिया भी किसी ज़ोर–ज़बर्दस्ती से नहीं घटित होती है, जैसा कि हमारे लेखक महोदय को लगता है, बल्कि पूँजीवाद की स्वाभावित आर्थिक गति से ही होती है।
खेती में बड़ी इजारेदार पूँजी का प्रवेश और धनी किसानों–कुलकों की नियति
अब इस प्रश्न पर आते हैं कि खेती के क्षेत्र में बड़ी इजारेदार पूँजी यानी कॉरपोरेट पूँजी के प्रवेश का धनी किसानों की आर्थिक नियति पर क्या असर पड़ेगा और इसके बारे में सर्वहारा वर्ग का नज़रिया क्या होना चाहिए।
कॉरपोरेट की घुसपैठ से बेशक धनी किसानों का एक हिस्सा सामाजिक-आर्थिक पदानुक्रम में नीचे जायेगा और एक हिस्सा खेती के क्षेत्र से बाहर भी होगा। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि लाभकारी मूल्य की लड़ाई उन अर्थों में उनके अस्तित्व की लड़ाई है, जिन अर्थों में ग़रीब किसान अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते हैं, जो कि उजरती श्रम का शोषण नहीं करते और इस रूप में पूँजीपति नहीं हैं, बल्कि मूलत: और मुख्यत: अर्द्धसर्वहारा में तब्दील हो चुके हैं! लेखक महोदय के अनुसार लाभकारी मूल्य महज़ लागत से ऊपर दिया जाने वाला एक न्यूनतम दाम है जोकि “वास्तविक किसानों” के जीवनयापन के लिए और अपनी पीढ़ियाँ पालने के लिए ज़रूरी है! धनी किसानों के साथ गलबहियाँ करने के लिए पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेता महोदय इतने आतुर हैं कि लाभकारी मूल्य की पूरी परिभाषा ही उलट देते हैं और लाभकारी मूल्य को ऐसे दिखाते हैं मानो वह धनी किसानों (और सभी किसानों के लिए!) के लिए गुज़ारे योग्य ज़रूरी दाम हो, हालाँकि एकदम शब्दश: ऐसा दावा करने से वह बच निकलते हैं! लेकिन इस चालाकी के बावजूद उनके तर्कों का अर्थ यही निकलता है, अन्यथा लाभकारी मूल्य का किसी भी राजनीतिक वर्गीय परिप्रेक्ष्य से समर्थन का कोई मतलब ही नहीं निकलता है। आइये देखते हैं, सच्चाई क्या है।
हम यह पहले ही बता चुके हैं कि लाभकारी मूल्य तक पहुँच ही पूरे देश में मात्र 6 प्रतिशत किसानों की है और जहाँ ग़रीब और निम्न मँझोले किसानों की भी लाभकारी मूल्य तक कुछ पहुँच है, वहाँ भी उन्हें लाभकारी मूल्य का कुल नुकसान होता है। लाभकारी मूल्य व्यापक लागत के ऊपर दी जाने वाली 40-50 प्रतिशत के शुद्ध मुनाफ़ा दर को सुनिश्चित करता है। यह एक प्रकार का बेशी मुनाफ़ा (surplus profit) और (इजारेदार भूस्वामित्व की स्थितियों में) लगान (rent) है, जो सरकार के हस्तक्षेप के द्वारा धनी किसान-कुलक वर्ग को मिलता है और कुल अर्थव्यवस्था की मुनाफ़े की औसत दर से ऊपर मुनाफ़ा देता है। लाभकारी मूल्य की लड़ाई सिर्फ़ मुनाफ़े में हिस्सेदारी के लिए बड़ी एकाधिकार पूँजी और ग्रामीण पूँजी के बीच की लड़ाई है ना कि धनी किसानों के अस्तित्व की लड़ाई!
पंजाब के धनी किसानों यानी 10 हेक्टेयर से अधिक भूमि वाले किसानों की औसत घोषित आय (क्योंकि सूदख़ोरी, लगान और कमीशनख़ोरी से भी धनी किसानों व उच्च मध्यम किसानों को अघोषित आय होती है, जिसका प्रो. सरदारा सिंह जोहल व अन्य कई कृषि विशेषज्ञों के अनुसार कोई ब्यौरा मौजूद नहीं होता है) प्रति वर्ष 12 लाख रुपये से कुछ अधिक बैठती है। जबकि उच्च मध्यम किसानों (5-6 हेक्टेयर से ज़्यादा वाले किसान) की आय भी 6 लाख प्रति वर्ष से ऊपर बैठती है। पटियाला विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग के पवनदीप कौर, गियान सिंह व सर्बजीत सिंह के नमूना सर्वेक्षण के अनुसार पंजाब के 10 हेक्टेयर से अधिक ज़मीन वाले किसानों की सालाना आय है रुपये 12,02,780.38 रुपये प्रति वर्ष, यानी करीब रुपये 1,00,231 प्रति माह। उनका सालाना उपभोग रुपये 11,36,247.03 सालाना है, यानी प्रति माह वे रुपये 94,688 अपने उपभोग पर ख़र्च करते हैं। यानी हर वर्ष इनको रुपये 66,533.35 की शुद्ध बचत होती है। ये वे बड़े किसान हैं जो कि अपने खेतों में स्वयं काम नहीं करते, बल्कि उजरती श्रमिकों का शोषण करके मुनाफ़ा कमाते हैं। इनकी आय सीमान्त किसानों से 6 गुना और खेतिहर मज़दूरों से 12 गुना ज़्यादा है। 4 हेक्टेयर से अधिक ज़मीन रखने वालों की घोषित आमदनी लगभग रुपये 5,66,408 सालाना है, यानी लगभग रुपये 47,201 प्रति माह। यह भी देश की कुल वर्ग संरचना के मुताबिक उच्च मध्य व मध्यम वर्ग में ही आयेगा।
लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह घोषित आय धनी और उच्च मध्यम किसानों की कुल आय का केवल एक हिस्सा है। उनकी वास्तविक आय इससे कहीं ज़्यादा है। इनकी वास्तविक आय (घोषित व अघोषित) का एक अच्छा–ख़ासा हिस्सा सूद और लगान से भी आता है, जो कि कहीं भी आधिकारिक बही–खाते में दर्ज़ नहीं होता और यह कमाई भी हज़ारों और कई बार लाखों में होती है। यह रिपोर्ट पढ़ें: https://www.firstpost.com/business/money-lending-by-punjabs-rich-farmers-is-widening-the-wealth-gap-in-states-countryside-4437131.html
ठोस आँकड़ों को देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि धनी और उच्च मध्यम किसान के लिए लाभकारी मूल्य की लड़ाई अपने बुनियादी गुज़ारे को सुनिश्चित करने की लड़ाई नहीं है बल्कि यह उनके द्वारा अपने मुनाफ़े और कुल विनियोजित बेशी मूल्य में अपने हिस्से को क़ायम रखने और बढ़ाने की लड़ाई है। इसलिए पीआरसी सीपीआई (एमएल) के लेखक महोदय ने अभी तथ्यों की ढंग से थाह नहीं ली है और बस धनी किसानों-कुलकों की पालकी कहार बनने की जल्दी में वह पोजीशन पेपर लिखने बैठ गये!
इसी बुनियादी मूर्खता की नींव पर लेखक महोदय अपने आगे के कुतर्क गढ़ते हैं। लेखक महोदय जब सभी किसानों या ‘मालिक किसानों’ के अस्तित्व के संकट से जोड़ कर लाभकारी मूल्य की माँग का समर्थन करते हैं तो उसी के आधार पर वह किसानों के सारे संस्तर के एक हो जाने की बात करते हैं। शुरुआत में ही वह आन्दोलन में किसानों के सभी संस्तर की एकता का जश्न मनाते हैं और आलेख के अंतिम हिस्से में लाभकारी मूल्य की माँग को सही ठहरा कर उस पर सारे किसानों को संगठित करने का आह्वान करते हैं! यह सीधे-सीधे सर्वहारा वर्ग और ग़रीब किसान आबादी को धनी किसानों-कुलकों का पिछलग्गू बनाने की अवसरवादी क़वायद है और किसान आबादी के विभेदीकरण की बुनियादी सच्चाई पर परदा डालती है और उनके हितों को एक बतलाती है। यह मार्क्सवाद-लेनिनवाद को छोड़कर नरोदवाद के गड्ढे में छलाँग लगाने के सिवा और कुछ नहीं है। दूसरी बात, लेखक महोदय के दावे भी तथ्यों पर सही नहीं ठहरते।
सबसे पहले तो यह कहना ही ग़लत है कि कॉरपोरेट पूँजी के प्रवेश ने सारे किसानों को एकताबद्ध कर दिया है। सच्चाई यह है कि पंजाब में और गौण रूप में हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश व राजस्थान के कुछ हिस्सों के अलावा, मौजूदा धनी किसान आन्दोलन का अन्य राज्यों में कोई व्यापक आन्दोलन जैसा चरित्र नहीं है। बाक़ी राज्यों में किसान जनसमुदायों का कोई व्यापक आन्दोलन नहीं है और अधिकांशतया कुछ विशेष संगठन और यूनियनें हैं जो कि इस पर प्रदर्शन आदि कर रही हैं। इसलिए चाहे किसी को यह अच्छा लगे या बुरा, सच्चाई यही है कि यह मूलत: और मुख्यत: पंजाब और एक हद तक हरियाणा व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के धनी किसानों-कुलकों का ही आन्दोलन है। आन्दोलन की माँग भी धनी किसानों-कुलकों के हित की माँग है ना कि छोटे या निम्न मँझोले किसानों की, भले ही राजनीतिक चेतना की कमी और विविध प्रकार के आर्थिक बन्धनों में धनी किसानों-कुलकों से बँधे होने के कारण छोटे या निम्न मँझोले किसानों की भी एक आबादी प्रदर्शन स्थलों पर मौजूद है! यह तब भी साबित हो गया था जब धनी किसानों–कुलकों की पंचायतों ने गाँव के हर घर से प्रदर्शन में लोगों को भेजने का और न भेजने वाले घरों पर 2100 रुपये का जुर्माना लगाने का फरमान भी सुनाया। यदि यह सभी किसानों का आन्दोलन है और कॉरपोरेट पूँजी के ख़तरे ने सारे किसानों को ऐक्यबद्ध कर दिया है, जैसा कि हमारे लेखक महोदय का दावा है, तो ऐसे फरमान की कोई ज़रूरत नहीं थी।
जैसा कि हमने ऊपर बताया है, यदि इस आन्दोलन में छोटे किसानों का एक तबका शामिल हो भी रहा है वह इसलिये क्योंकि वे एक तरफ धनी किसानों और सूदख़ोरों पर आर्थिक तौर से निर्भर हैं और उनके दवाब में आन्दोलन में जा रहे हैं। दूसरा कारण है कि खुद उनके बीच अपनी स्वतंत्र वर्ग चेतना और वर्ग संगठन का अभाव है। इसी कारण कुछ यह समझ बैठते हैं कि लाभकारी मूल्य सभी को मिल जाये तो उनका भी फायदा होगा या यदि लाभकारी मूल्य बढ़ाया गया तो शायद उन्हें भी अपनी उपज का बेहतर दाम मिले। खेतिहर मज़दूरों की भी एक छोटी सी आबादी इन प्रदर्शनों में आ रही है और उसका भी कारण गाँव में धनी किसानों-कुलकों पर आर्थिक-सामाजिक निर्भरता और साथ ही राजनीतिक चेतना का अभाव है जिसके कारण उन्हें लगता है कि यदि धनी किसानों-कुलकों की आमदनी बढ़ेगी तो उनकी मज़दूरी भी बढ़ेगी। लेकिन ठोस आँकड़े बताते हैं कि ऐसा कोई ‘ट्रिकल डाउन’ नहीं होता है।
जैसा कि हम पहले ही ज़िक्र कर चुके हैं, बहुसंख्यक किसान आबादी को लाभकारी मूल्य मिलता ही नहीं है! देश में मात्र ऊपर के 6 प्रतिशत किसान ही लाभकारी मूल्य पर अपने उत्पाद बेच पाते हैं। इसके बावजूद यदि यह मानकर भी चला जाये कि लाभकारी मूल्य किसानों के सभी संस्तर तक पहुँच जाये तो भी लाभकारी मूल्य ग़रीब व निम्न-मँझोले किसान वर्ग के हित के खिलाफ़ जायेगा क्योंकि उसके पास बेचने योग्य उपज की मात्रा बहुत बड़ी नहीं होती है और कभी-कभी तो होती ही नहीं है, और साल भर में वे जितना अनाज लाभकारी मूल्य पर बेचते हैं, उससे ज़्यादा ख़रीदते हैं। लाभकारी मूल्य से खाद्यान्न महँगा होता है, यह बात तो खुद पीआरसी सीपीआई (एमएल) के हमारे लेखक महोदय ने स्वीकार की है! ऊँचे लाभकारी मूल्य पर सरकारी खरीद यानी ऊँचे सरकारी दाम के कारण कम-से-कम धान, गेहूँ, कपास, मक्का और कुछ दलहनों की बाज़ार क़ीमतें भी ऊँची हो जाती हैं। ये वे चीज़ें हैं जिनसे व्यापक आबादी का नियमित आहार बनता है। नतीजतन, भोजन पर व्यापक आबादी का ख़र्च बढ़ता है, उनके पोषण का स्तर गिरता है, अन्य आवश्यक वस्तुओं पर ख़र्च कम होता है और कुल मिलाकर उनका जीवन–स्तर नीचे जाता है। यह बात मार्क्सवादी और ग़ैर–मार्क्सवादी विश्लेषकों ने बार–बार साबित की है, जिस पर शक़ करने का प्रश्न ही नहीं उठता है। स्पष्ट है कि लाभकारी मूल्य निम्न–मँझोले किसानों, छोटे–ग़रीब किसानों और मज़दूर वर्ग के हितों के ख़िलाफ़ जाता है!
पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था के मातहत, शुद्धत: जनवादी अधिकारों के हनन के मसले के अलावा, आम तौर पर किसानों के सभी संस्तरों की एकता की बात करना ही एक टुटपुँजिया लाइन है, न कि एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी अवस्थिति। आज पूँजीवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में धनी किसानों और कुलकों का कोई भी हिस्सा मज़दूर वर्ग या ग़रीब तथा सीमान्त किसानों के साथ नहीं आ सकता, ठीक वैसे ही जैसे बुर्जुआ वर्ग का कोई भी हिस्सा नहीं आ सकता। आज अगर कोई आम तौर पर पूँजीपति वर्ग के किसी भी हिस्से से रणनीतिक मोर्चे की बात करता है और वह भारत को पूँजीवादी देश भी मानता है और यहाँ समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल को भी मानता है, तो कहना पड़ेगा कि वह जाने या अनजाने या किसी प्रकार की सियासी मौक़ापरस्ती करते हुए मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी करने और उसे धोखा देने का काम कर रहा है! धनी किसान-कुलक वर्ग यानी खेतिहर पूँजीपति वर्ग की छोटे और निम्न-मँझोले किसानों से कभी एकता नहीं बन सकती क्योंकि उनके वर्ग हित ही अलग हैं! बल्कि सच्चाई यही है कि गाँवों में खेतिहर मज़दूर वर्ग और मेहनतकश ग़रीब किसान वर्ग का मुख्य वर्ग शत्रु ही यह खेतिहर पूँजीपति वर्ग है जो मुनाफ़े, लगान व सूद के ज़रिये उसे लूटता है और उसे उजाड़ने के लिए प्रमुख रूप से ज़िम्मेदार है। स्पष्टत: पीआसी सीपीआई (एमएल) के लेखक महोदय वर्ग संघर्ष नहीं बल्कि वर्ग सहयोग की कार्यदिशा पेश कर रहे हैं, शोषित वर्गों के लिए जिसका मतलब हमेशा ही वर्ग पुछल्लावाद की कार्यदिशा होती है।
लेखक महोदय जिस खेतिहर पूँजीपति वर्ग के साथ एकजुटता बनाने की बात कह रहे हैं, उसके बारे में लिखते हुए लेनिन व स्तालिन ने बार-बार बताया है कि मज़दूर वर्ग अपने साझा शत्रु के ख़िलाफ़ खेतिहर सर्वहारा वर्ग और ग़रीब किसान वर्ग से मज़बूत संश्रय बनाने, मँझोले किसानों को जीतने या तटस्थ करने और धनी किसानों-कुलकों के विरुद्ध संघर्ष करने की रणनीति को अपनायेगा। वह किसी भी सूरत में जनवादी क्रान्ति की मंज़िल से इतर और राजनीतिक जनवाद के प्रश्न से इतर धनी किसानों के साथ मोर्चा नहीं बना सकता! यही वजह है कि किसान आबादी में राजनीतिक विभेदीकरण को सर्वहारा नेतृत्व में सचेतन तौर पर अंजाम देने के लिए खेतिहर मज़दूरों की अलग यूनियन और ग़रीब किसानों की अलग समितियाँ व बाद में उनकी अलग सोवियतें बनाने की भी वक़ालत की थी।
यहाँ एक बात और साफ़ कर दें कि शासक वर्ग के विभिन्न धड़ों के आपसी अन्तरविरोधों के तीख़े होने पर सर्वहारा वर्ग और मेहनतकश वर्ग अपने वर्ग हितों के मद्देनज़र कुछ स्थितियों में किसी एक धड़े के साथ अल्पकालिक मुद्दा–आधारित रणकौशलात्मक मोर्चा बना सकते हैं, लेकिन वह भी तब सम्भव है जब कि दोनों पक्ष संयुक्त चार्टर में एक-दूसरे की कुछ माँगों को शामिल और स्वीकार करने के लिए तैयार हों और दूसरा यह कि मुद्दा शुद्धत: राजनीतिक जनवाद की लड़ाई का हो। लेकिन जब धनी फ़ार्मर-कुलक पक्ष सर्वहारा वर्ग और ग़रीब किसान आबादी की किसी माँग को अपने चार्टर में जगह देने को तैयार ही नहीं हैं और यह लड़ाई ही धनी फ़ार्मर-कुलक वर्ग के आर्थिक वर्ग हितों की है, तो साफ़ है कि यहाँ कोई रणकौशलात्मक मोर्चा भी बनाना सम्भव नहीं है, क्योंकि सर्वहारा वर्ग और आम मेहनतकश ग़रीब किसान आबादी से ऐसी माँग करना उनसे अपने वर्ग हितों को तिलांजलि देकर धनी किसानों-कुलकों का पिछलग्गू बनने की और अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता का आत्मसमर्पण कर देने की माँग होगी। यही माँग पीआरसी सीपीआई (एमएल) इस समय सर्वहारा वर्ग और आम ग़रीब किसान आबादी से कर रहा है।
पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेता महोदय कहते हैं कि मज़दूर वर्ग को अपनी तुच्छ आर्थिक माँगों को किसान आन्दोलन के समक्ष नहीं रखना चाहिए और उसके सामने याचक बनकर दीन-हीन बनकर नहीं खड़े हो जाना चाहिए और भावी शासक वर्ग के रूप में उसमें हस्तक्षेप करके (वास्तव में समर्थन करके) आम किसानों को मुक्ति का रास्ता दिखाना चाहिए! एकदम मूर्खतापूर्ण बात। देखते हैं कैसे!
पहली बात तो यह है कि मज़दूर वर्ग इस आन्दोलन में एक ही रूप में हस्तक्षेप कर सकता है: उसके बारे में सर्वहारा वर्गीय आलोचनात्मक दृष्टिकोण पेश करके और उसके ज़रिये मज़दूर वर्ग और मेहनतकश किसान आबादी को इस बात के प्रति आगाह करके कि उसके वर्ग हित धनी किसानों के वर्ग हितों से बिल्कुल भिन्न हैं, ताकि आम मेहनतकश आबादी ग्रामीण पूँजीपति वर्ग से अलग अपने स्वतंत्र राजनीतिक संगठन और अवस्थिति को संघटित कर सके। दूसरी बात, इस आन्दोलन में अन्य किसी प्रकार का हस्तक्षेप करके (यानी समर्थन करके) आम किसानों को मुक्ति का रास्ता नहीं दिखलाया जा सकता है, क्योंकि यह आन्दोलन आम किसानों (जिससे हम सीमान्त, ग़रीब और निम्न मँझोला किसान समझते हैं जो कि कुल किसान आबादी में 94 प्रतिशत के करीब है) के हितों का प्रतिनिधित्व ही नहीं करता है। इसका समर्थन करके अपने आपको कम्युनिस्ट कहने वाली ताक़तें वास्तव में आम किसानों को धनी किसानों-कुलकों का पिछलग्गू बने रहने और उनके राजनीतिक वर्चस्व के मातहत बने रहने का रास्ता दिखला रही हैं, न कि मुक्ति का। तीसरी बात, मौजूदा धनी किसान आन्दोलन भी न सिर्फ “तुच्छ” आर्थिक माँगों पर ही हो रहा है, बल्कि यह जनविरोधी “तुच्छ” आर्थिक माँगों पर हो रहा है। ऐसे में, अगर धनी किसान-कुलक वर्ग कॉरपोरेट पूँजी के विरोध में मज़दूर वर्ग का समर्थन चाहता है, तो मज़दूर वर्ग ऐसे आन्दोलन के चार्टर में अपनी उन अहम आर्थिक माँगों को शामिल करने की शर्त रखकर अपनी स्वतंत्र राजनीतिक अवस्थिति को रेखांकित करता है, न कि वह याचक बनकर दीन-हीन हो जाता है! ऐसी बात कहकर ही पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेता महोदय ने अपनी राजनीतिक “समझदारी” की इज़्ज़त बचाने वाले आखिरी रूमाल को भी फेंक दिया है और अपना राजनीतिक केंचुल नृत्य पूरा कर दिया है! वास्तव में, धनी किसानों-कुलकों की माँग के समर्थन में यदि मज़दूर वर्ग एक मुद्दा-आधारित रणकौशलात्मक संश्रय के लिए अपना कोई भी वर्ग हित सामने नहीं रखता, तो वास्तव में वह धनी किसानों की पालकी का कहार बनने के समान होगा, जो कि पीआरसी सीपीआई (एमएल) कर रहा है।
क्या लाभकारी मूल्य का सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) से कोई कारणात्मक सम्बन्ध है?
लाभकारी मूल्य की माँग के समर्थन में पीआरसी सीपीआई (एमएल) के लेखक महोदय एक और घिसा-पिटा पुराना और ग़लत तर्क देते हैं, जिसका हमारे समेत कुछ अन्य लोग कई बार खण्डन कर चुके हैं: लाभकारी मूल्य के ख़त्म होने से पीडीएस की व्यवस्था ख़त्म होगी जिससे ग़रीब आबादी को नुकसान होगा! एक तरफ वे यह भी कहते हैं कि लाभकारी मूल्य से अनाज के दाम बढ़ेंगे जिससे मज़दूर-मेहनतकश आबादी को अपने भोजन पर ज़्यादा ख़र्च करना पड़ेगा (क्योंकि इस सच्चाई को नकारना मुश्किल है) लेकिन दूसरी तरफ वो लाभकारी मूल्य को पीडीएस से जोड़कर अन्ततः लाभकारी मूल्य की माँग को सही ठहराने की कोशिश करते हैं। लाभकारी मूल्य का किसी भी प्रकार से समर्थन न कर पाने पर कई वामपंथी उसे पीडीएस से जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि पीडीएस और सरकारी ख़रीद का लाभकारी मूल्य से कोई कारणात्मक सम्बन्ध नहीं है। लेखक महोदय लिखते हैं:
“लाभकारी मूल्य को ख़त्म कर के पीडीएस की व्यवस्था पर अन्तिम चोट करना ही कृषि क़ानूनों का लक्ष्य है और इसका अत्यन्त ख़राब प्रभाव ग्रामीण ग़रीब आबादी से लेकर शहरी आबादी की खाद्य सुरक्षा पर पड़ेगा और इस कारण इन ग़रीबों द्वारा इस क़ानून का विरोध लाज़मी है लेकिन फिर भी इसके समर्थन में न तो ग्रामीण ग़रीब जनता और न ही शहरी मज़दूर वर्ग ही दिल खोलकर खड़ा हो सकता है, क्यों कि बढ़े हुए लाभकारी मूल्य को लगातार बढ़ाते जाने की माँग से मज़दूरों व मेहनतकश आबादी को अपनी भोजन सामग्री पर ज़्यादा खर्च करना पड़ेगा। इसलिए समग्रता में देखें तो लाभकारी मूल्य के मसले पर व्यापक ग़रीब आबादी तथा मज़दूर वर्ग का खुला समर्थन मिलने में बाधा आ सकती है और विशाल ग़रीब आबादी नहीं चाहते हुए भी आन्दोलन से तटस्थ रह सकती है। ” (ज़ोर हमारा)
यह भयंकर मूर्खतापूर्ण पैराग्राफ़ है जिसमें साफ़ दिख रहा है कि लेखक महोदय सच्चाई को आंशिक तौर पर समझते हुए भी धनी किसान-कुलक आन्दोलन की मूल केन्द्रीय माँग की आलोचना करने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। नतीजतन, उन्होंने एक ऐसे पैराग्राफ़ का साहित्यिक उत्पादन किया है जो अपने मूर्खतापूर्ण विरोधाभासों के कारण अर्थहीन बन गया है। दूसरी बात, इसमें स्वयं ही एक अप्रत्यक्ष स्वीकारोक्ति मौजूद भी है कि किसानों के सभी संस्तरों की माँगें एक नहीं हैं। बहरहाल, अभी हम लाभकारी मूल्य और पीडीएस के बीच कारणात्मक सम्बन्ध न होने के विषय पर अपनी बात केन्द्रित करेंगे क्योंकि अलग से लाभकारी मूल्य की माँग के प्रतिक्रियावादी चरित्र के बारे में हम ऊपर लिख चुके हैं।
लाभकारी मूल्य और पीडीएस का आपस में कोई कारणात्मक सम्बन्ध नहीं है। तथ्य यह है कि पीडीएस का अस्तित्व लाभकारी मूल्य के कम से कम दो दशक पहले से रहा है, हालाँकि लाभकारी मूल्य की शुरुआत से एक दशक पहले ही इसे यह नाम दिया गया था। दूसरी बात, कई देशों में जहाँ अमीर कुलकों–किसानों के लिए लाभकारी मूल्य की कोई व्यवस्था नहीं है, और कृषि क़ीमतें काफ़ी हद तक ‘मुक्त बाज़ार’ से निर्धारित होती हैं, वहाँ किसी न किसी प्रकार की सार्वजनिक वितरण प्रणाली (सार्वभौमिक या लक्षित) मौजूद है और वहाँ भी सरकारी ख़रीद होती है। तीसरी बात, भारत में पीडीएस को नष्ट करने की शुरुआत 1992 में हुई, जब इसे पहले आरपीडीएस (संशोधित पीडीएस) और फिर 1997 में टीपीडीएस (लक्षित पीडीएस) में बदल दिया गया। यह वह दौर है जिससे लेकर 2019-20 तक लाभकारी मूल्य व्यवस्था लगातार बढ़ती रही है और यही वह दौर है जब कि योजनाबद्ध तरीके से पीडीएस को नष्ट करने का काम भी अलग–अलग सरकारें करती रही हैं।
अब एक उदाहरण से भी समझ लेते हैं कि सरकारी ख़रीद और इसलिए पीडीएस का लाभकारी मूल्य की व्यवस्था से कोई कारणात्मक सम्बन्ध नहीं है। बिहार में 2006 में एमएसपी की व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया। अगर सरकारी ख़रीद की पूर्वशर्त एमएसपी है, तो बिहार में सरकारी ख़रीद को और कम हो जाना चाहिए था। लेकिन क्या वाकई ऐसा हुआ है? नहीं! उल्टे यदि दर की बात करें तो बिहार में खाद्यान्न की सरकारी ख़रीद पंजाब और हरियाणा से कहीं तेज़ गति से बढ़ी है। 2005 से 2015 के बीच बिहार से गेहूँ की सरकारी ख़रीद 0.7 प्रतिशत से बढ़कर 11.28 प्रतिशत हो गयी, जबकि इसी दौर में पंजाब से गेहूँ की ख़रीद 66.79 प्रतिशत से कम होकर 63.84 प्रतिशत पर और हरियाणा में 62.58 प्रतिशत से घटकर 58.38 प्रतिशत पर आ गयी। इसी दौर में बिहार में धान की सरकारी ख़रीद 1.7 प्रतिशत से बढ़कर 21.4 प्रतिशत हो गयी, जबकि पंजाब में धान की सरकारी ख़रीद 82.7 प्रतिशत से 76.1 प्रतिशत रह गयी। निश्चित तौर पर, अभी भी सरकारी ख़रीद निरपेक्ष तौर पर पंजाब और हरियाणा में अन्य किसी भी राज्य से कहीं ज़्यादा है और उसके ठोस राजनीतिक कारण और कुछ आर्थिक कारण भी हैं। लेकिन यदि एमएसपी ख़त्म होने से सरकारी ख़रीद का कोई कारणात्मक रिश्ता होता तो बिहार में सरकारी ख़रीद घटनी चाहिए थी और पंजाब व हरियाणा में बढ़नी चाहिए थी। लेकिन तथ्य कुछ और दिखला रहे हैं।
पीडीएस को पहले आरपीडीएस और फिर टीपीडीएस में बदलने के पीछे ऊँचा लाभकारी मूल्य भी एक कारण था, जिससे ग़रीब मेहनतकशों के लिए खाद्य असुरक्षा और बढ़ गयी। वजह यह कि बढ़ते लाभकारी मूल्य के कारण सरकार अपनी ख़रीद को पीडीएस के ज़रिये ग़रीब परिवारों को रियायती दरों पर खाद्यान्न मुहैया कराने की बजाय, वाणिज्यिक रूप से बेचना और यहाँ तक कि सड़ा देना पसन्द करती है। पीडीएस को ख़त्म करना एक अलग एजेण्डा है, क्योंकि यह मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी की मोलभाव की क्षमता को पूँजी के बरक्स कम करने के लिए ज़रूरी है। ये दो अलग-अलग मुद्दे हैं जो दो अलग-अलग प्रकार की वर्गीय माँगों को जन्म देते हैं। यदि, लाभकारी मूल्य व्यवस्था और पीडीएस के बीच कोई कारणात्मक सम्बन्ध खोजा भी जाये, तो वह विलोम अनुपाती ही होगा।
क्या लाभकारी मूल्य की माँग राज्य के साथ ठेका खेती की माँग और समूची उत्पाद की सरकारी ख़रीद की माँग है?
लाभकारी मूल्य के समर्थन में इतने कुतर्क देने के बाद अन्त में पीआरसी सीपीआई (एमएल) के लेखक महोदय धनी किसानों की क़ानूनी लाभकारी मूल्य की माँग को सीधे सरकारी खरीद से और कृषि उत्पादों के बिक्री की समस्या से जोड़ देते हैं। उनका मानना है कि किसान सारी फसलों पर लाभकारी मूल्य की माँग कर रहे हैं और सारी फसलों की पूर्ण सरकारी खरीद की माँग कर रहे हैं। लेखक महोदय कहते हैं:
“लाभकारी मूल्य वास्तव में लाभकारी मूल्य नहीं, बल्कि ख़रीद गारंटी और राज्य के साथ कॉन्ट्रैक्ट खेती की माँग है|”
“कृषि उत्पाद के उचित दाम की गारंटी की समस्या की जड़ में क़ानून होना या न होना नहीं है अपितु समस्त कृषि उत्पादों की बिक्री की समस्या का हल क़ानूनी लाभकारी मूल्य नहीं बल्कि सर्वहारा क्रान्ति है!”
पहली बात तो यह है कि सटीक अर्थों में बात करें तो लाभकारी मूल्य की व्यवस्था राज्य के साथ ठेका खेती की व्यवस्था नहीं है। ठेका खेती के मातहत ठेका देने वाला केवल उपज का न्यूनतम मूल्य निर्धारित नहीं करता है, बल्कि उपज की पूर्वनिर्धारित मात्रा, किस्म और गुणवत्ता भी करार का अनिवार्य अंग होती है, जिसके बिना ऐसे किसी क़रार का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। भारतीय राज्यसत्ता लाभकारी मूल्य की व्यवस्था में उपज की मात्रा, किस्म और गुणवत्ता को लेकर कोई धनी किसानों-कुलकों या किसी भी किसान से कोई क़रार नहीं करती है। वह केवल उन्हें एक न्यूनतम लाभकारी मूल्य का प्रोत्साहन देती है, ताकि वे कुछ निश्चित फसलों के उत्पादन में पूँजी निवेश करें। यह ठेका खेती की व्यवस्था है ही नहीं।
फिर लाभकारी मूल्य की व्यवस्था क्या है? इसकी शुरुआत 1960 के दशक में निश्चित फसलों के उत्पादन के लिए भौतिक प्रोत्साहन देने के लिए किया गया था क्योंकि उन खाद्यान्न फसलों में आयात पर निर्भरता समाप्त करना उस समय समूचे भारतीय पूँजीपति वर्ग की आवश्यकता थी। निश्चित तौर पर आज पूँजीपति वर्ग के लिए ऐसे लाभकारी मूल्य की आवश्यकता समाप्त हो गयी है। लेकिन किसी भी रूप में लाभकारी मूल्य की व्यवस्था कोई राज्य के साथ ठेका खेती की व्यवस्था नहीं है, बल्कि धनी किसानों–कुलकों के एक वर्ग के लिए एक प्रकार की भौतिक प्रोत्साहन–संरचना (incentive-structure) प्रदान करने की व्यवस्था है, जिसकी पूँजीवादी अर्थों में भी आज प्रासंगिकता समाप्त हो चुकी है।
लेखक महोदय की उपरोक्त बातों में अन्य कई ग़लत और अहमकाना दावों की भरमार है, जिस पर आगे आयेंगे, लेकिन पहले देख लेते हैं कि लेखक महोदय अपने “ज्ञान के मोती” किस प्रकार बिखेरे जा रहे हैं! आगे हम साफ़ देखते हैं कि जब वह लाभकारी मूल्य को पूरे कृषि उत्पाद के बिक्री की समस्या से जोड़ देते हैं तब वह सर्वहारा क्रान्ति की बात लाते हैं। क़ानूनी लाभकारी मूल्य के बरक्स वह क्रान्ति को एकमात्र उपाय बताते हैं और आश्चर्य की बात यह है कि लेखक महोदय के अनुसार क्रान्ति जब किसान आन्दोलन पर सवार होकर आयेगी तो न सिर्फ़ छोटे किसान बल्कि धनी किसान भी उनका साथ देंगे! वह साफ़ कहते हैं कि:
“ग़रीब किसानों का ही नहीं धनी किसानों का भी पूँजीवाद से विश्वास हिलेगा और हिल रहा है। इस आन्दोलन में उनकी अभी तक की भूमिका स्वयं इसका गवाह है। 2021 का भारतीय धनी किसान, जो आज पूँजीवादी व्यवस्था के मानवद्रोही स्वरूप का इतने नज़दीक से सामना कर रहा है, जल्द ही पुरातन को त्याग कर सर्वहारा राज्य के अन्तर्गत सामूहिक खेती के रास्ते के अमल में हमारे आह्वान का स्वागत और समर्थन करेगा, क्योंकि इसके बिना अब किसान समुदाय के बचने का कोई रास्ता नहीं!” (ज़ोर हमारा)
ऐसे आशावाद को देखकर तो दोन किहोते भी शर्म से ज़मीन में धँस गया होता! धनी किसान का पूँजीवाद से विश्वास हिल रहा है!? इससे हास्यास्पद बात और क्या हो सकती है? जब भी छोटी पूँजी का बड़ी एकाधिकारी पूँजी से अन्तरविरोध तीव्र होगा और वह बेशी मूल्य के विनियोजन में अपने हिस्से को क़ायम रखने और बढ़ाने के लिए लड़ेगी, तो क्या वह पूँजीवाद–विरोधी बन जायेगी? तो क्या वह उजरती श्रम पर रोक, खेती में निजी सम्पत्ति के ख़ात्मे और सामूहिक व राजकीय खेती को स्वीकार कर लेगी? अगर पीआरसी सीपीआई (एमएल) का यह विश्वास पुख्ता है, तो उसे धनी किसानों–कुलकों के आन्दोलन के मंच पर जाकर केवल “उचित दाम” देने का भ्रामक वायदा नहीं करना चाहिए, बल्कि यह भी बताना चाहिए कि जब पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेतृत्व में समाजवादी क्रान्ति हो जायेगी, तो निजी सम्पत्ति का ख़ात्मा हो जायेगा, यदि तत्काल सामूहिक व राजकीय खेती न भी शुरू हो पायी तो ज़मीन का राष्ट्रीकरण हो जायेगा और उजरती श्रम पर रोक लगा दी जायेगी! मेरे ख्याल से यदि इस प्रकार के एडवेंचर को पीआरसी सीपीआई (एमएल) का नेतृत्व अपने हाथों में ले, तो धनी किसानों का नेतृत्व उन्हें तत्काल ही शारीरिक समीक्षा करके समझ देगा कि उसका न तो पूँजीवादी व्यवस्था से विश्वास उठा है, न ही वह सामूहिक खेती पर सहमत होने जा रहा है और असल में वह शोषण करने के अपने अधिकार के लिए लड़ रहा है! वह बिल्कुल पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर एक ऐसी माँग रख रहा है जोकि अपेक्षाकृत छोटी पूँजी हमेशा ही पूँजीवादी राज्यसत्ता के समक्ष रखती है: बड़ी पूँजी से प्रतिस्पर्द्धा में राजकीय संरक्षण की माँग। पूँजीवादी व्यवस्था किस दौर में है और अन्तरविरोधों के किस सन्धि-बिन्दु पर है, उसके आधार पर यह माँग कभी मानी जाती है तो कभी नहीं मानी जाती, लेकिन चाहे यह माँग मानी जाय या न मानी जाय, धनी किसानों-कुलकों समेत छोटा पूँजीपति वर्ग कभी समाजवादी कार्यक्रम को नहीं अपना लेता है! पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेता महोदय की यह पूरी बात भयंकर सुधारवादी और टुटपुँजिया अवसरवाद से ग्रस्त है।
सच यह है कि पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तरविरोधों और संकटों के बढ़ने के साथ जब छोटे पूँजीपति वर्ग का एक हिस्सा तबाह होता है तो भी पूरा छोटा पूँजीपति वर्ग एक वर्ग के तौर पर सर्वहारा वर्ग और समाजवादी क्रान्ति के साथ नहीं आ जाता है बल्कि किसी न किसी प्रकार टुटपुंजिया दक्षिणपंथी लोकरंजकतावाद की शरण में जाता है, जो कि सर्वहारा वर्ग से उतनी ही नफ़रत करता है और जिसका सबसे डरावना दु:स्वप्न यह होता है कि वह मज़दूर बन जायेगा। यह भी ध्यान रहे कि समूचा छोटा पूँजीपति वर्ग समाजवादी क्रान्ति के पहले तबाह होकर सर्वहारा वर्ग नहीं बन जाता है और न ही सर्वहारा वर्ग के साथ आ जाता है, सिर्फ इसलिए कि बड़ी पूँजी से उसके अन्तरविरोध बढ़ जाते हैं! ऐसा दावा करना एक ऐसे रुझान को अन्तिम नतीजा समझ लेना है, जिस रुझान के कई प्रतिरोधी कारक भी पूँजीवादी समाज में सक्रिय होते हैं और उसे अन्तिम नतीजा नहीं बनने देते। कहने का अर्थ है कि पूँजीवादी समाज में पूर्ण एकाधिकारीकरण, सेक्टरों के भीतर प्रतिस्पर्द्धा का समापन और छोटी पूँजी का पूर्ण ख़ात्मा सम्भव ही नहीं है; मार्क्स ने ‘पूँजी’ में और लेनिन ने भी अपनी कई रचनाओं में बताया है कि छोटे और मँझोले पूँजीपति वर्ग और यहाँ तक कि बड़े पूँजीपति वर्ग का भी एक हिस्सा तबाह होता है, लेकिन चूँकि पूँजीवाद का नियम ही असमान विकास होता है, इसलिए संलयन के साथ–साथ विखण्डन की एक प्रक्रिया भी पूँजीवाद में जारी रहती है। यही वजह है कि समझौते टूटते हैं, पूँजीवादी परिवार टूटते हैं, बड़े पूँजीपतियों का एक हिस्सा भी तबाह होकर मँझोले व छोटे पूँजीपतियों की कतार में शामिल होता है। वहीं छोटे पूँजीपति वर्ग का एक हिस्सा भी पहले से बुरी हालत में पहुँचता है, एक हिस्सा बरबाद होकर सर्वहारा वर्ग की कतार में भी शामिल होता है। लेकिन वर्गीय संरचना की इस गतिकी का यह अर्थ नहीं होता कि समाजवादी क्रान्ति से पहले समूचा छोटा पूँजीपति वर्ग या समूचा धनी किसान–कुलक वर्ग बरबाद होकर या बरबादी की कगार पर पहुँचकर सर्वहारा क्रान्ति और समाजवाद के पक्ष में आ जाता है और जैसा कि हमारे लेखक महोदय दावा कर रहे हैं, सामूहिक खेती के लिए तैयार हो जाता है! ऐसी बात सोचना भी वर्ग विश्लेषण को और पूँजीवादी समाज की गतिकी की मार्क्सवादी-लेनिनवादी समझदारी को भूलने के समान है और भयंकर शेखचिल्लीवाद है। यदि मामला ग़ैरद्वन्द्वात्मक होने की हद तक और इतना सरल होता तो आज दुनिया समाजवादी संक्रमण के दौर में होती। लेकिन हमें सन्देह है कि पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेता महोदय मार्क्सवाद-लेनिनवाद के बुनियादी सिद्धान्त भूले हैं, क्योंकि कोई व्यक्ति वही चीज़ भूल सकता है, तो उसे कभी पता रही हो! हमें सन्देह है कि लेखक महोदय को कभी भी वर्ग विश्लेषण और पूँजीवादी समाज के मार्क्सवादी विश्लेषण के विषय में ठीक से जानकारी थी!
अब देखते हैं कि पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेता महोदय अपनी उपरोक्त मूर्खतापूर्ण बातों और दावों तथा असुधारणीय रूप से टुटपुंजिया कार्यदिशा के वैधीकरण के लिए सोवियत समाजवादी इतिहास के साथ किस प्रकार बदसलूकी और बदतमीज़ी करते हैं।
सोवियत समाजवादी संक्रमण के दौरान बोल्शेविकों की कृषि नीति के इतिहास के बारे में पीआरसी सीपीआई (एमएल) द्वारा किया गया विकृतिकरण
अब चूँकि धनी किसान न सिर्फ़ कॉरपोरेट पूँजी के खिलाफ़ बल्कि समूची पूँजीवादी व्यवस्था के ही खिलाफ़ होने वाले हैं, इसलिए कुलकों के इस आन्दोलन को समाजवादी क्रान्ति कर देने के लिए पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेता महोदय यह कह कर ललकारते हैं कि सिर्फ़ सर्वहारा राज्य ही किसानों को उनकी पूरी उपज का ‘उचित दाम’ पर खरीद की गारंटी करेगा! कुलक आन्दोलन का नेतृत्व कर समाजवादी क्रान्ति कर देने के लिए वह इतने लालायित हैं कि सर्वहारा राज्य के बारे में वह किसानों को पूरी सच्चाई बताना ही या तो भूल जाते हैं या फिर जानबूझकर उस पर अवसरवादी तरीके से चुप्पी साध लेते हैं और समाजवाद का ऐसा खाका पेश करते हैं जिससे कि धनी किसानों का समर्थन प्राप्त कर सकें! आइये देखते हैं कि वे धनी किसानों को समाजवाद के पक्ष में लाने के लिए क्या कहते हैं:
“यहाँ से आगे किसानों की मुक्ति का रास्ता सर्वहारा राज्य से हो कर जाता है, क्योंकि एकमात्र सर्वहारा राज्य ही पूँजी के तर्कों की अधीनता से बाहर निकल कर किसानों की समस्त उपज को उचित दाम पर खरीद सकता है।” (ज़ोर हमारा)
“मज़दूर वर्ग अगर आज अपने ऐतिहासिक कर्तव्य की पूर्ति करते हुए बुर्जुआ वर्ग के मुकाबले सत्ता का मौजूदा नहीं तो भविष्य का दावेदार बनकर, यानी भावी शासक वर्ग के रूप में, न कि किसी टुटपुँजिया वर्ग की तरह, बात करे तो उसे संघर्षरत किसानों से क्या कहना चाहिए? यही कि एकमात्र भावी सर्वहारा राज्य ही किसानों के समस्त उत्पादों की ‘उचित’ दाम पर खरीद कर सकता है। इसलिए वह न सिर्फ कॉरपोरेट के विरुद्ध उनके आन्दोलन का समर्थन करता है, अपितु वह इस बात का आह्वान भी करता है कि देश के सभी वास्तविक किसान स्वयं अपनी इच्छा से आपस में मिलकर सामूहिक फ़ार्म बनायें, जिसे मज़दूर वर्ग के राज्य से मुफ़्त ट्रैक्टर और सिंचाई के साधन सहित उन्नत बीज, खाद आदि की भी मुफ़्त सहायता दी जायेगी, ताकि वे ज़्यादा से ज़्यादा उत्पादन के लक्ष्य के साथ सर्वहारा राज्य के साथ पूर्व निर्धारित फसलों और मूल्य पर खेती कर सकें, अर्थात कॉन्ट्रैक्ट खेती कर सकें।” (पी.आर.सी. के फेसबुक पोस्ट से, ज़ोर हमारा)
कुलकों के इस आन्दोलन से ही सर्वहारा क्रान्ति कर देने को आतुर मास्टरजी पूरे सर्वहारा राज्य की एक झूठी तस्वीर कुलकों के सामने पेश करते हैं और गोलमाल बातें करते हैं। आइये देखते हैं कैसे।
पहली बात, सर्वहारा वर्ग समूची किसान आबादी से मुक्ति का वायदा नहीं करता है। जिस प्रकार वह औद्योगिक क्षेत्र के छोटे व मँझोले पूँजीपतियों से ऐसा कोई वायदा नहीं करता है, उसी प्रकार वह ग्रामीण पूँजीपति वर्ग से भी ऐसा कोई वायदा नहीं करता। लेखक महोदय ने जानबूझकर यहाँ एक अविभेदीकृत किसान आबादी की बात की है और सिर्फ “किसानों” से वायदा किया है और यह नहीं बताया है कि वह किस किसान की बात कर रहे हैं।
दूसरी बात, यह ‘वास्तविक किसान’ या ‘real peasant’ क्या होता है? यदि उनका मतलब उन लोगों से है जो कि वास्तव में खेतों में उत्पादन करते हैं, तो वे खेतिहर मज़दूरों व ग़रीब किसानों की बात कर रहे हैं, जिनके लिए मार्क्स ‘वास्तविक उत्पादक’ (real producers) शब्द का इस्तेमाल करते हैं, न कि ‘वास्तविक किसान’ का, जो कि राजनीतिक अर्थशास्त्र की दृष्टि से एक अर्थहीन शब्द है। और अगर लेखक महोदय खेतिहर मज़दूरों और ग़रीब किसानों की ही बात कर रहे हैं, तो लाभकारी मूल्य के समर्थन का कोई तुक ही नहीं बनता है क्योंकि वह खेतिहर मज़दूरों और ग़रीब किसानों के विरुद्ध ही जाता है। अगर लेखक महोदय का अर्थ ‘वास्तविक किसान’ से उजरती श्रम का शोषण न करने वाले सीमान्त, छोटे और निम्न मंझोले किसान हैं, तो यह कहना होगा कि उनके लिए ‘ग़रीब व निम्न मंझोला किसान’ ही सही शब्द है क्योंकि धनी किसान भी कोई कम किसान नहीं होते क्योंकि ‘किसान’ शब्द के अर्थ या परिभाषा में अनिवार्यत: भौतिक शारीरिक श्रम करना शामिल नहीं है। वह ग़रीब मेहनतकश किसान की परिभाषा में शामिल है, लेकिन आम तौर पर किसान आबादी में धनी व उच्च मध्यम पूंजीवादी किसान आबादी भी शामिल है (और वह कोई ‘अवास्तविक किसान’ नहीं है!) और ग़रीब मेहनतकश किसान भी। अगर लेखक का अर्थ है कि पूँजीवादी लगानजीवी भूस्वामियों से अलग समस्त किसान समुदाय जिसमें कि धनी व उच्च मध्यम किसानों समेत सीमान्त, छोटे व निम्न मंझोले किसान भी शामिल हैं, तो यह कहना होगा कि कोई भी मार्क्सवादी-लेनिनवादी व्यक्ति ऐसा वर्गेतर श्रेणीकरण नहीं करेगा, क्योंकि धनी व उच्च-मध्यम पूँजीवादी फार्मर उजरती श्रम का शोषक है और समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में शत्रु वर्ग है, जबकि ग़रीब मेहनतकश किसान क्रान्ति का मित्र वर्ग है। यह भी मार्क्सवाद का ‘क ख ग‘ है, जिससे हमारे लेखक महोदय वाकिफ़ नहीं हैं। दरअसल, हमारे लेखक महोदय ने ‘वास्तविक किसान’ की अर्थहीन संज्ञा का इस्तेमाल ही अपने अवसरवाद को छिपाने के लिए किया है।
साथ ही, पूंजीवादी व्यवस्था के मातहत किसानों के किसी भी हिस्से से सामूहिक या सहकारी फार्म बनाने का आह्वान ही एक मूर्खतापूर्ण और टटपुंजिया आह्वान है। पहली बात तो यह कि धनी व उच्च मध्यम किसान तो समाजवादी संक्रमण और सर्वहारा राज्यसत्ता की मौजूदगी में भी एक वर्ग के तौर पर सामूहिक फार्म बनाने पर स्वेच्छा से तैयार नहीं होंगे, पूंजीवादी व्यवस्था के मातहत उनसे ऐसी उम्मीद करना ही शुद्ध किहोतेवाद है। दूसरी बात, पूँजीवादी व्यवस्था के मातहत अगर ग़रीब और निम्न-मँझोले किसान भी कोई सामूहिक फ़ार्म या सहकारी फ़ार्म जैसी संस्था बना लें (क्योंकि धनी किसान इसके लिए कभी न तो तैयार होंगे और न ही उन्हें इसकी कोई आवश्यकता है), तो भी पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर वह एक सामूहिक पूँजीपति (collective capitalist) ही बन सकते हैं और उनके भीतर असमानताएँ और वर्ग अन्तरविरोध पनपेंगे और ऐसी सारी संस्थाएँ अन्तत: एक छोटे वर्चस्वकारी समूह के मातहत हो जाती हैं, और उनके बाकी सदस्य या तो कनिष्ठ शेयरहोल्डर बन जाते हैं या उनके उजरती श्रमिक। वजह यह है कि ऐसे सभी कलेक्टिव्स और कोऑपरेटिव्स को पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर पूँजीवादी बाज़ार में ही प्रतिस्पर्द्धा करनी होती है, प्रतिस्पर्द्धी बने रहना होता है, और इसके लिए उजरती श्रम का शोषण करते हुए उसी प्रकार अस्तित्वमान व सक्रिय होना होता है, जिस प्रकार बाज़ार में अन्य पूँजियां सक्रिय होती हैं। पूरी दुनिया में इसके कई उदाहरण मौजूद हैं। यह भी पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेतागण की मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की शून्य समझ और शेखचिल्लीवाद को दिखलाता है कि वह पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर धनी किसानों समेत सभी किसानों से “सामूहिक फ़ार्म” बनाने की अपील कर रहे हैं, जिनको अपने नेतृत्व में समाजवादी क्रान्ति के करने के बाद वह निशुल्क बीज, ट्रैक्टर, खाद आदि देंगे! मतलब, किहोतेवाद की इन्तहा है!
तीसरी बात, किसान कोई एक वर्ग नहीं होता बल्कि एक वर्ग–विभाजित समुदाय होता है, जिसमें धनी किसानों के हित किसी भी सूरत में (संकट या बरबादी की स्थिति में भी!) एक वर्ग के तौर पर समाजवाद और सर्वहारा वर्ग के खिलाफ़ ही जाते हैं, और उनसे “उचित दाम” जैसा भ्रामक वायदा करना सर्वहारा वर्ग से ग़द्दारी के समान है। समाजवाद के अन्तर्गत “उचित दाम” खेती के सामूहिकीकरण से पहले और व्यक्तिगत किसान अर्थव्यवस्था की मौजूदगी के दौरान भी सामाजिक श्रम के मूल्यांकन के आधार पर होता है, न कि वह व्यापक लागत पर 40 से 50 प्रतिशत मुनाफ़ा सुनिश्चित करता है, जैसा कि सोवियत संघ के उदाहरण से हम आगे दिखलायेंगे, जिसके बारे में हमारे लेखक महोदय घनघोर कुत्साप्रचार करते हैं।
बहरहाल, जैसा कि हम देख सकते हैं कि लेखक महोदय यह नारा देते हैं कि समाजवादी राज्य किसानों को उनके पूरे उपज की “उचित दाम” पर सरकारी खरीद की गारंटी करेगा! अपने इस “उचित” को परिभाषित किये बिना वह बड़ी चालाकी से मुनाफ़े में हिस्सेदारी की बात को गायब कर पतले रास्ते से निकल जाते हैं! पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेता महोदय यह नहीं बताते कि क्या उनके नेतृत्व में समाजवादी व्यवस्था में यह “उचित दाम” लागत से 40-50 प्रतिशत ज़्यादा मुनाफ़े पर तय होगा जैसा कि लाभकारी मूल्य की व्यवस्था में किसानों को मिलता है? यह है पीआरसी सीपीआई (एमएल) की मौक़ापरस्ती जिसकी हम बात कर रहे हैं। यह एक अवसरवादी लोकरंजकतावाद है और हमारे लेखक महोदय ‘अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो’ की तर्ज़ पर धनी किसानों को मूर्ख बनाकर अपने साथ लेने की फ़िराक़ में हैं! बस दिक़्क़त यह है कि इस प्रकार की फ़िराक़ में उनसे ज़्यादा बड़े खिलाड़ी इस समय धनी किसान आन्दोलन के मंच पर हैं, जैसे कि नरोदवादी कम्युनिस्ट, कौमवादी, वामपंथी लोकरंजकतावादी आदि और इस वजह से पीआरसी सीपीआई (एमएल) के हमारे लेखक महोदय चाहे समाजवाद के सिद्धान्त और इतिहास से कितना भी दुराचार कर लें, उन्हें इस मंच के कोने पर लटकने की जगह भी नहीं मिलेगी!
अब आते हैं इस प्रश्न पर कि सोवियत रूस और फिर सोवियत संघ में कृषि प्रश्न व किसान प्रश्न पर बोल्शेविक रणनीति और कार्यनीति क्या रही थी और किस प्रकार पीआरसी सीपीआई (एमएल) अपने अवसरवाद को छिपाने के लिए उसके इतिहास से बदतमीज़ी पर आमादा हो जाती है। इसलिए यहाँ संक्षेप में इस पर चर्चा ज़रूरी है कि सोवियत समाजवादी राज्यसत्ता की किसानों के प्रति नीति क्या थी।
पहली बात, अक्तूबर क्रान्ति के तुरन्त बाद जो भूमि आज्ञप्ति आयी, उसने ज़मीन का राष्ट्रीकरण किया और श्रम सिद्धान्त या उपभोग सिद्धान्त या फिर दोनों के मिश्रण के आधार पर ज़मीन के प्लॉट भोगाधिकार के आधार पर देने का प्रावधान किया। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस क़ानून ने उजरती श्रम के शोषण पर पूर्णत: रोक लगा दी। यानी हर किसान अपने और अपने परिवार के श्रम से ही खेती कर सकता था। क्या पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेता महोदय कुलकों से अपने रूमानी वायदे करते समय उनको यह बताने की कृपा भी करेंगे कि जब उनके नेतृत्व में समाजवादी सत्ता आयेगी तो अगर तात्कालिक तौर पर रैडिकल बुर्जुआ भूमि सुधार भी करने पड़े तो ज़मीन का राष्ट्रीकरण किया जायेगा और उजरती श्रम के शोषण पर पाबन्दी लगा दी जायेगी? अगर वह कुलकों के आन्दोलन पर सवार होकर समाजवादी क्रान्ति करना चाहते हैं, तो उन्हें यह भी बताना ही चाहिए और अगर वे नहीं बताते तो वे लोकरंजकतावाद में बहकर निकृष्ट कोटि का अवसरवाद और बेईमानी कर रहे हैं। और अगर वे ऐसा बताने का कष्ट करेंगे तो पंजाब और हरियाणा के धनी किसानों के लट्ठ वर्ग शक्ति सन्तुलन और वर्ग दृष्टिकोण के बारे में उनके ज्ञान-चक्षु तत्काल ही खोल देंगे!
दूसरी बात, गृहयुद्ध के दौरान (जो कि क्रान्ति के आठ माह बाद ही शुरू हो गया था) धनी और उच्च मध्यम किसान जब अनाज की जमाख़ोरी कर रहे थे और श्वेत सेनाओं के विरुद्ध लड़ रहे लाल सैनिक और शहरों में मज़दूर और गाँवों के ग़रीब किसान व खेतिहर मज़दूर अकाल का सामना कर रहे थे, तो सोवियत सत्ता ने धनी किसानों और कुलकों से जबरन अनाज वसूली (requisitioning) की व्यवस्था लागू की जिसमें हर धनी किसान–कुलक के पास से उसकी परिवार की आवश्यकता के अतिरिक्त बचने वाला सारा बेशी अनाज ले लिया जाता था। इस सच्चाई को भी पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेता महोदय कुलकों को नहीं बताते! जबरन वसूली के इस कार्य को अंजाम देने के लिए लेनिन के आह्वान पर ग़रीब किसान समितियों का गठन किया गया। लेकिन ग़रीब किसान समितियों का काम पार्टी के पूरी तरह नियंत्रण में नहीं रहा, इसलिए उसके हमलों के निशाने पर मध्यम किसान भी आ गये, जो कि अक्तूबर 1917 के भूमि सुधार के बाद कुल किसान आबादी में बहुसंख्या बन चुके थे। नतीजतन, मज़दूरों का मध्यम किसानों से संश्रय टूटने लगा जो कि सोवियत सत्ता के अस्तित्व के लिए नुकसानदेह था। 1920-21 आते-आते यह स्थिति ख़तरनाक हो गयी और इसके नतीजे के तौर पर लेनिन ने किसानों से उत्पाद-कर (tax-in-kind) लेने की नीति को अपनाया जो कि दसवीं कांग्रेस (1921) में पारित ‘नयी आर्थिक नीति’ (NEP) का ही एक अंग थी।
तीसरी बात, नयी आर्थिक नीति (1921 से 1929 तक) के तहत उत्पाद–कर नीति यह थी कि किसान एक तय उत्पाद कर देने के बाद, बाकी बचे उत्पाद को मुक्त बाज़ार में बेच सकते थे। यह उन नयी आर्थिक नीतियों का ही एक हिस्सा था, जिसे लेनिन ने “रणनीतिक तौर पर क़दम पीछे हटाना” (strategic retreat) कहा था। इसके तहत गाँव और शहर तथा कृषि और उद्योग के बीच विनिमय को राज्यसत्ता ने संचालित किया और उसके लिए राष्ट्रीकृत उद्योगों को भी मुक्त बाज़ार में कृषि उत्पाद के साथ विनिमय करने को कहा गया। उजरती श्रम को भी सीमित तौर पर छूट दी गयी। इसके कारण कुछ ही समय में कुलकों और व्यापारियों और कालाबाज़ारियों का एक वर्ग भी पैदा हुआ। सरकार भी उत्पाद–कर लेने के बाद बाज़ार से अतिरिक्त ख़रीद करती थी और वह भी बाज़ार क़ीमतों पर ही करती थी, न कि किसी भी प्रकार के सरकारी लाभकारी मूल्य पर। इन नये कुलक व व्यापारी वर्गों के सुदृढ़ीकरण और “रणनीतिक तौर पर कदम पीछे हटाने” का दौर ज़रूरत से ज़्यादा लम्बा चलने के कारण 1926 के बाद से ही सोवियत संघ में आर्थिक संकट का एक दौर शुरू हुआ जो खेती व उद्योग के उत्पादों की बाज़ार क़ीमतों में सही अनुपात की अनुपस्थिति में अपने आप को बार-बार अभिव्यक्त करता रहा। वहीं 1928-29 आते-आते कुलकों व धनी किसानों तथा व्यापारियों द्वारा की जा रही जमाख़ोरी और कालाबाज़ारी के कारण शहरों में अकाल जैसी स्थितियाँ पैदा हुईं। इसी दौर में स्तालिन ने कहा था:
“इस वर्ष (1928) की पहली जनवरी को पिछले वर्ष के मुक़ाबले 128 मिलियन पूड अनाज की कमी थी… इस कमी को पूरा करने के लिए क्या किया जाना चाहिए था? सबसे पहले कुलको और सट्टेबाज़ों पर कड़ी चोट करना ज़रूरी था… दूसरे, अनाज वाले इलाक़ों में अधिकतम मात्रा में मालों को पहुँचाने की ज़रूरत थी।”
इसी के जवाब में स्तालिन ने पहले 1929 में “आपातकालीन कदमों” और फिर 1930 से सामूहिकीकरण की नीति की शुरुआत की। पूरी धनी किसान व कुलक आबादी सामूहिकीकरण की इस प्रक्रिया के ख़िलाफ़ खड़ी थी। यह प्रक्रिया ग़रीब किसानों और मँझोले किसानों को साथ लेकर पूरी की गयी। निश्चित तौर पर, उच्च मध्यम किसानों के भी एक हिस्से ने भी इसमें सोवियत सत्ता का विरोध किया। बहरहाल, सामूहिकीकरण के तहत कुलकों का एक वर्ग के तौर पर ख़ात्मा किया गया और खेती में निजी सम्पत्ति का पूर्ण रूप से ख़ात्मा कर दिया गया। आज जब पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेता महोदय यह कहते हैं कि सामूहिक फ़ार्म के गठन के पक्ष में कुलकों को भी लाया जायेगा, तो उन्हें इतिहास से कुछ सबक लेने की ज़रूरत है। क्योंकि समाजवादी क्रान्ति के बाद सामूहिकीकरण की प्रक्रिया के ज़रिये कुलकों का एक वर्ग के रूप में ख़ात्मा कर दिया जायेगा। दरअसल, सामूहिकीकरण के लिए भारत जैसे देशों में समाजवादी सत्ता को इतना इन्तज़ार भी नहीं करना पड़ेगा क्योंकि 1917 के रूस की तुलना में भारत में वर्गों का शक्ति सन्तुलन आज बिल्कुल ही बदल चुका है। 26.3 करोड़ खेतिहर आबादी में खेतिहर मज़दूर और ग़रीब किसान 25 करोड़ के करीब बैठते हैं और इसके अलावा करीब 60 करोड़ की शहरी सर्वहारा और अर्द्धसर्वहारा आबादी है, जो सीधे-सीधे राष्ट्रीकरण और सामूहिकीकरण के पक्ष में खड़ी की जा सकती है। कुलकों-धनी किसानों के खेतों को ज़ब्त किया जायेगा। जो ग़रीब और निम्न-मँझोले किसान सामूहिकीकरण के लिए तैयार नहीं होंगे उनके साथ सर्वहारा सत्ता कोई ज़ोर-ज़बर्दस्ती नहीं करेगी और उन्हें अपने अनुभव से सामूहिक व राजकीय फ़ार्मों में अपने वर्ग हित और बेहतरी को समझने देगी और उन्हें मिसाल देकर समझायेगी; लेकिन उजरती श्रम के शोषण पर पूर्ण रोक होगी। और इन सभी क़दमों के लिए रूस में सर्वहारा सत्ता को जितने समझौते करने पड़े थे, भारत की समाजवादी क्रान्ति में और आम तौर पर इक्कीसवीं सदी की समाजवादी क्रान्तियों में उतने समझौते करने की कोई आवश्यकता या कारण नहीं होगा। धनी किसानों-कुलकों के छोटे से वर्ग के फ़ार्मों को सामूहिक व राजकीय फार्मों में तब्दील करने का काम कहीं अधिक सहजता के साथ अंजाम दिया जा सकेगा। पीआरसी सीपीआई (एमएल) ये सारी सच्चाइयाँ छिपा जाता है और बस आनन–फ़ानन में कुलकों–धनी किसानों की गोद में बैठने के लिए “उचित दाम” का भ्रामक जुमला उछालता है। यदि वह समाजवादी व्यवस्था के बारे में ये सारी सच्चाइयाँ मौजूदा धनी किसान–कुलक आन्दोलन के समक्ष रखेंगे, तो धनी किसानों व कुलकों की प्रतिक्रिया क्या होगी, यह उन्हें खुद जाकर जाँच लेनी चाहिए! यह सुझाव हम इस उम्मीद के साथ दे रहे हैं कि कई बार सिर पर ज़ोरदार प्रहार से खोयी हुई स्मृति वापस आ जाती है!
अब देखते हैं कि क्या सामूहिकीकरण के बाद राज्यसत्ता सामूहिक फार्मों को कोई लाभकारी मूल्य देती थी?
सामूहिकीकरण होने के बाद (यानी 1936-37 के तत्काल बाद) सामूहिक फ़ार्मों के 90 प्रतिशत उत्पाद को राज्य ख़रीदता था। सामूहिक फार्मों द्वारा अपने उपयोग हेतु रख लिये जाने के बाद बाकी बचे उत्पाद के एक बड़े हिस्से (63 प्रतिशत) को राज्य लागत से बहुत कम ऊपर दर पर ख़रीदता था, जिसे ख़रीद दाम (procurement price) कहा जाता था, जबकि बाकी बचे हिस्से (27 प्रतिशत) को बिकवाली दाम (purchase price) पर ख़रीदा जाता था, जो इस प्रकार तय होता था कि सारा विभेदक लगान (differential rent) राज्य के पास जाता था। दरअसल, सामूहिक फ़ार्म के किसानों को जो दाम प्राप्त होता था, वह मूलत: सामाजिक श्रम के आकलन पर निर्धारित होता था। बाकी बचा दस प्रतिशत हिस्सा सामूहिक फ़ार्म मार्केट में बाज़ार क़ीमत पर बिकता था। (इस पूरे विवरण के लिए देखें: मॉरिस डॉब की पुस्तक ‘Soviet Economic Development Since 1917’।) सोवियत सत्ता द्वारा दिया जाने वाला ख़रीद दाम या बिकवाली दाम कोई लाभकारी मूल्य नहीं था, जो कि व्यापक लागत के ऊपर 40 से 50 फीसदी का मुनाफ़ा दे! दूसरी अहम बात यह है कि यह व्यक्तिगत किसानों को नहीं दिया जाता था, बल्कि सामूहिक फ़ार्मों को दिया जाता था; तीसरे, उजरती श्रम का खेती में कोई अस्तित्व नहीं रह गया था और उस पर पूर्ण प्रतिबन्ध था। इसके अलावा राजकीय फ़ार्म थे जिनके समूचे उत्पाद का स्वामी सर्वहारा राज्य था और साथ ही राष्ट्रीकृत उद्योग थे, जिसके समूचे उत्पाद का स्वामी भी सर्वहारा राज्य था। चौथी बात, सोवियत राज्यसत्ता सारी उपज नहीं ख़रीदती थी और न ही यह कोई सैद्धान्तिक मसला है। सर्वहारा राज्यसत्ता द्वारा सोवियत समाजवाद के दौरान उपज की ख़रीद का अनुपात बदलता रहता था, जो कि कुल आर्थिक नियोजन से तय होता था। जब तक खेती का पूर्ण राजकीयकरण नहीं हो जाता, यानी सामूहिक खेती से राजकीय खेती की यात्रा पूरी नहीं हो जाती, तब तक बाज़ार की मौजूदगी लाज़िमी है और उपज का कुछ हिस्सा उस बाज़ार में बिकना भी लाज़िमी है। या तो पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेतृत्व ने सोवियत समाजवादी संक्रमण के इतिहास का ढंग से अध्ययन नहीं किया है और या फिर वह जानबूझकर उसका विकृतिकरण कर रहा है, क्योंकि उसे किसी भी क़ीमत पर धनी किसानों-कुलकों की पूँछ में कंघी करनी है!
क्या पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेता महोदय सोवियत समाजवाद की खेती नीति व किसान नीति के बारे में यह पूरा सत्य बतायेंगे, या फिर “उचित दाम” देने का झूठा और भ्रामक वायदा करने की घटिया दर्जे की टुटपुँजिया मौक़ापरस्ती ही करते रहेंगे?
सच यह है कि इस पूरे दौर में कभी भी न तो लेनिन ने और न ही स्तालिन ने कुलकों के साथ समझौते की नीति अपनायी। केवल नयी आर्थिक नीति के दौर में सर्वहारा सत्ता के अस्तित्व को बचाने की मजबूरी के चलते बेहद सीमित अर्थों में पूँजीवादी मुनाफ़े की आज़ादी किसानों के एक हिस्से को दी गयी और उस समय भी उसका पूरा विनियमन किया गया। और ऐसे किसी दौर की इक्कीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों में शायद ही कोई आवश्यकता पड़े क्योंकि समूचा वर्ग शक्ति सन्तुलन बदल चुका है।
निष्कर्ष
सच्चाई यह है कि सोवियत समाजवाद के दौर में भी और आज भी मज़दूर वर्ग व ग़रीब मेहनतकश किसानों के साथ कुलक या पूँजीपति वर्ग का कोई भी हिस्सा साथ नहीं आ सकता और न ही समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल में उनके बीच कुछ साझा हो सकता है। अगर पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेता महोदय धनी किसान-कुलक आन्दोलन की गोद में बैठकर समाजवादी क्रान्ति तक जाने के लिए मचल ही गये हैं, तो कम से कम उन्हें अपने वर्ग मित्र कुलकों–धनी किसानों से तो समाजवादी व्यवस्था के बारे में पूरा सच बोलना चाहिए!
झूठ और मक्कारी भरे कुतर्क की आड़ में पीआरसी सीपीआई (एमएल) की मज़दूर वर्ग-विरोधी अवस्थिति छिप नहीं सकी है! सच यह है कि पीआरसी सीपीआई (एमएल) का नेतृत्व मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन की गोद में बैठने की ख़ातिर तरह-तरह के राजनीतिक द्रविड़ प्राणायाम कर रहा है, तथ्यों को तोड़-मरोड़ रहा है, गोलमोल बातें कर रहा है, समाजवाद के सिद्धान्त और इतिहास का विकृतिकरण कर रहा है और अवसरवादी लोकरंजकतावाद में बह रहा है। लेकिन इस क़वायद के बावजूद, वह कोई सुसंगत तर्क नहीं पेश कर पा रहा है और लाभकारी मूल्य के सवाल पर गोलमोल अवस्थिति अपनाने और उसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली से जोड़ने से लेकर “सामान्य पूँजीवादी खेती” और “कॉरपोरेट पूँजीवादी खेती” की छद्म श्रेणियाँ बनाकर मार्क्सवाद-लेनिनवाद का विकृतिकरण करने तक, सोवियत समाजवाद के बारे में झूठ बोलने और “उचित दाम” का भ्रामक नारा उठाने से लेकर तमाम झूठों और मूर्खताओं का अम्बार लगा रहा है।
इस प्रकार के कम्युनिस्टों से आज आन्दोलन में मौजूद संजीदा काडर को विशेष तौर पर सावधान रहने की आवश्यकता है। साथ ही, कम्युनिज़्म और मार्क्सवाद में दिलचस्पी रखने वाले संजीदा युवाओं को भी इनसे विशेष तौर पर सचेत रहना चाहिए।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, नवम्बर 2020-फ़रवरी 2021
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!